Book Title: Agam 37 Dashashrutskandha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४,'दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का निरूपण किया है-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, श्रेष्ठ है, सिद्धि-मुक्ति, निर्याण और निर्वाण का यही मार्ग है, यही सत्य है, असंदिग्ध है, सर्व दुःखों से मुक्ति दिलाने का मार्ग है । इस सर्वज्ञ प्रणित धर्म के आराधक-सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करके सब दुःखों का अंत करते हैं।
जो कोई निर्ग्रन्थ केवलि प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर शीत-गर्मी आदि सब प्रकार के परिषह सहन करते हुए यदि कामवासना का प्रबल उदय होवे तो उद्दिप्त कामवासना के शमन का प्रयत्न करे । उस समय यदि कोई विशुद्ध जाति, कुलयुक्त किसी उग्रवंशीय या भोगवंशीय राजकुमार को आते देखे, छत्र, चामर, दास, दासी, नौकर आदि के वृन्द से वह राजकुमार परिवेष्टित हो, उसके आगे आगे उत्तम अश्व, दोनों तरफ हाथी, पीछे पीछे सुसज्जित रथ चल रहा हो ।
कोई सेवक छत्र धरे हुए, कोई झारी लिए हुए, कोई विंझणा तो कोई चामर लिए हुए हो, इस प्रकार वह राजकुमार बारबार उनके प्रासाद में आता-जाता हो, देदीप्यमान कांतिवाला वह राजकुमार स्नान यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित होकर पूर्ण रात्रि दीपज्योति से झगझगायमान विशाल कुटागार शाला के सर्वोच्च सिंहासन पर आरूढ़ हुआ हो यावत् स्त्रीवृन्द से घिरा हुआ, कुशल पुरुषों के नृत्य देखता हुआ, विविध वाजिंत्र सूनता हुआ, मानुषिक कामभोगों का सेवन करके विचरता हो, कोई एक सेवक को बुलाए तो चार, पाँच सेवक उपस्थित हो जाते हो, उनकी सेवा के लिए तत्पर हो ।
यह सब देखकर यदि कोई निर्ग्रन्थ ऐसा निदान करे कि मेरे तप, नियम, ब्रह्मचर्य का अगर कोई फल हो तो मैं भी उस राजकुमार की प्रकार मानुषिक भोगों का सेवन करूँ । हे आयुष्मान श्रमणों ! अगर वह निर्ग्रन्थ निदान कर के उस निदानशल्य की आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना मरकर देवलोक में महती ऋद्धिवाला देव भी हो जाए, देवलोक से च्यवन कर के शुद्ध जातिवंश के उग्र या भोगकुलमें पुत्ररूप से जन्म भी ले, सुकुमाल हाथ-पाँव यावत् सुन्दर रूपवाला भी हो जाए, यावत् यौवन वय में पूर्व वर्णित कामभोगों की प्राप्ति कर ले-यह सब हो सकता है।
किन्तु-जब उसको कोई केवलि प्ररूपित धर्म का उपदेश देता है, तब वह उपदेश को प्राप्त करता है, लेकिन श्रद्धापूर्वक श्रवण नहीं करता, क्योंकि वह धर्मश्रवण के लिए अयोग्य है । वह अनंत ईच्छावाला, महारंभी, महापरिग्रही, अधार्मिक यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में नैरायिक होता है और भविष्य में वह दुर्लभबोधि होता है।
-हे आयुष्मान् श्रमणों ! यह पूर्वोक्त निदानशल्य का ही विपाक है । इसीलिए वह धर्म श्रवण नहीं करता। (यह हुआ पहला निदान') सूत्र - १०४
हे आयुष्मती श्रमणीयाँ ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है-जैसे कि यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है । यावत् सर्व दु:खों का अन्त करता है । जो कोई निर्ग्रन्थी धर्मशिक्षा के लिए उपस्थित होकर, परिषह सहती हुई, यदि उसे कामवासना का उदय हो तो उसके शमन का प्रयत्न करे । यदि उस समय वह साध्वी किसी स्त्री को देखे, जो अपने पति कि एकमात्र प्राणप्रिया हो, वस्त्र एवं अलंकार पहने हुए हो । पति के द्वारा वस्त्रों की पेटी या रत्नकरंडक के समान संरक्षणी-संग्रहणीय हो । अपने प्रासाद में आती-जाती हो इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना । उसे देखकर अगर वह निर्ग्रन्थी ऐसा निदान करे कि यदि मेरे सुचरित तप, नियम, ब्रह्मचर्य का कोई फल हो तो मैं पूर्व वर्णित स्त्री के समान मानुषिक कामभोगों का सेवन करके मेरा जीवन व्यतीत करूँ ।
यदि वह निर्ग्रन्थी अपने इस निदान की आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना काल करे तो पूर्व कथनानुसार देवलोक में जाकर, यावत् पूर्व वर्णित स्त्री के समान कामभोगों का सेवन करे, ऐसा हो भी सकता है । उनको केवलि प्ररूपित धर्मश्रवण प्राप्त भी हो सकता है । किन्तु वह श्रद्धापूर्वक सुन नहीं सकती क्योंकि वह धर्मश्रवण के लिए अयोग्य है । वह उत्कृष्ट ईच्छावाली, महा आरंभी यावत् दक्षिण दिशा के नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होती है यावत् भविष्य में बोधि दुर्लभ होती है । यहीं है उस निदान शल्य का कर्मविपाक, जिससे वह केवलि प्ररूपित धर्मश्रवण के लिए अयोग्य हो जाती है । (यह हुआ दूसरा निदान')
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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