Book Title: Agam 37 Dashashrutskandha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४,'दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र सूत्र-१११
हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का निरूपण किया है यावत् (पहले निदान के समान सब कथन करना) मानुषिक, दिव्य कामभोग, भव परंपरा बढ़ानेवाले हैं । यदि मेरे सुचरित तप-नियम-ब्रह्मचर्य का कोई फल विशेष हो तो मैं भी भविष्य में अन्त, प्रान्त, तुच्छ, दरिद्र, कृपण या भिक्षुकुल में पुरुष बनूं, जिस से प्रव्रजित होने के लिए गृहस्थावास छोड़ना सरल हो जाए।
हे आयुष्मान् श्रमणों ! यदि कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी ऐसा निदान करे, उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल करे (शेष पूर्ववत् यावत्) वह अनगार प्रव्रज्या तो ले सकता है, लेकिन उसी भव में सिद्ध होकर सर्व दुःखों का अन्त नहीं कर सकता । वह अनगार इर्या समिति, यावत् ब्रह्मचर्य का पालन भी करे, अनेक बरसों तक श्रमण पर्याय भी पाले, अनशन भी करे, यावत् देवलोक में देव भी होवे।।
हे आयुष्मान् श्रमणों ! उस निदानशल्य का यह फल है कि उस भव में वह सिद्ध बुद्ध होकर सब दुःखों का अन्त नहीं कर सकता । (यह है नववां निदान') सूत्र - ११२
हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् तप संयम की साधना करते हुए, वह निर्ग्रन्थ सर्व काम, राग, संग, स्नेह से विरक्त हो जाए, सर्व चारित्र परिवृद्ध हो, तब अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन यावत् परिनिर्वाण मार्ग में आत्मा को भावित करके अनंत, अनुत्तर आवरण रहित, सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न होता है । उस वक्त वो अरहंत, भगवंत, जिन, केवलि, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होता है, देव मानव की पर्षदा में धर्म देशना के दाता, यावत् कईं साल केवलि पर्याय पालन करके, आयु की अंतिम पल जानकर भक्त प्रत्याख्यान करता है । कईं दिन तक आहार त्याग करके अनशन करता है । अन्तिम श्वासोच्छ् वास के समय सिद्ध होकर यावत् सर्व दुःख का अन्त करता है ।हे आयुष्मान् श्रमण ! वो निदान रहित कल्याण कारक साधनामय जीवन का यह फल है कि वो उसी भव में सिद्ध होकर यावत् सर्व दुःख का अन्त करते हैं । सूत्र-११३
उस वक्त कईं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी ने श्रमण भगवान महावीर के पास पूर्वोक्त निदान का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन नमस्कार किया । पूर्वकृत् निदान शल्य की आलोचना प्रतिक्रमण करके यावत् उचित प्रायश्चित्त स्वरूप तप अपनाया। सूत्र - ११४
उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर ने राजगृह नगर के बाहर गुणशील चैत्य में एकत्रित देवमानव आदि पर्षदा के बीच कईं श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविका को इस प्रकार आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण किया ।हे आर्य! "आयति स्थान'' नाम के अध्ययन का अर्थ-हेतु-व्याकरण युक्त और सूत्रार्थ और स्पष्टीकरण युक्त सूत्रार्थ का भगवंतने बार-बार उपदेश किया । उस प्रकार मैं (तुम्हें) कहता हूँ।
दशा-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
३७ दशाश्रुतस्कन्ध-छेदसूत्र-४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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