Book Title: Agam 37 Dashashrutskandha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४, दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र दशा-५-चित्तसमाधिस्थान जिस प्रकार सांसारिक आत्मा को धन, वैभव, भौतिक चीज की प्राप्ति आदि होने से चित्त आनन्दमय होता है, उसी प्रकार मुमुक्षु आत्मा या साधुजन को आत्मगुण की अनुपम उपलब्धि से अनुपम चित्तसमाधि प्राप्त होती है। जिन चित्तसमाधि स्थान का इस दशा' में वर्णन किया है। सूत्र-१६
हे आयुष्मान् ! वो निर्वाण-प्राप्त भगवंत के मुख से मैंने ऐसा सूना है-इस (जिन प्रवचन में) निश्चय से स्थविर भगवंत ने दश चित्त समाधि स्थान बताए हैं । वो कौन-से दश चित्त समाधि स्थान स्थविर भगवंत ने बताए हैं? जो दश चित्त समाधि स्थान स्थविर भगवंत ने बताए हैं वो इस प्रकार है -
उस काल और उस समय यानि चौथे आरे में भगवान महावीर स्वामी के विचरण के वक्त वाणिज्यग्राम नगर था । नगरवर्णन (उववाई सूत्र के) चंपानगरी प्रकार जानना । वो वाणिज्यग्राम नगर के बाहर दूतिपलाशक चैत्य था, चैत्यवर्णन (उववाई सूत्र की प्रकार) जानना । (वहाँ) जितशत्रु राजा, उसकी धारिणी रानी उस प्रकार से सर्व समोवसरण (उववाई सूत्र अनुसार) जानना । यावत् पृथ्वी-शिलापट्टक पर वर्धमान स्वामी बिराजे, पर्षदा नीकली और भगवान ने धर्म निरूपण किया, पर्षदा वापस लौटी । सूत्र-१७
हे आर्य ! इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर साधु और साध्वी को कहने लगे । हे आर्य ! इर्या-भाषा-एषणा-आदान भांड़ मात्र निक्षेपणा और उच्चार प्रस्नवण खेल सिंधाणक जल की परिष्ठापना, वो पाँच समितिवाले, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्महितकर, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमी, पाक्षिक पौषध (यानि पर्वतिथि को उपवास आदि व्रत से धर्म की पुष्टि समान पौषध) में समाधि प्राप्त और शुभ ध्यान करनेवाले निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पहले उत्पन्न न हुई हो वैसी चित्त (प्रशस्त) समाधि के दश स्थान उत्पन्न होते हैं। वो इस प्रकार -पहले कभी भी उत्पन्न न होनेवाली नीचे बताई गई दश वस्तु उद्भव हो जाए तो चित्त को समाधि प्राप्त होती है।
(१) धर्म भावना, जिनसे सभी धर्मो को जान सकते हैं। (२) संज्ञि-जातिस्मरणज्ञान, जिनसे अपने पूर्व के भव और जाति का स्मरण होता है। (३) स्वप्न दर्शन का यथार्थ अहसास। (४) देवदर्शन जिससे दिव्य ऋद्धि-दिव्य कान्ति-देवानुभाव देख सकते हैं। (५) अवधिज्ञान, जिससे लोक को जानते हैं। (६) अवधिदर्शन, जिससे लोक को देख सकते हैं। (७) मनःपर्यवज्ञान, जिससे ढाई द्वीप के संज्ञी-पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव को जानते हैं । (८) केवलज्ञान, जिससे सम्पूर्ण लोक-अलोक को जानते हैं। (९) केवलदर्शन, जिससे सम्पूर्ण लोक-अलोक को देखते हैं।
(१०) केवल मरण, जिससे सर्व दुःख का सर्वथा अभाव होता है। सूत्र-१८
रागद्वेष रहित निर्मल चित्त को धारण करने से एकाग्रता समान ध्यान उत्पन्न होता है । शंकरहित धर्म में स्थित आत्मा निर्वाण प्राप्त करती है। सूत्र-१९
इस प्रकार से चित्त समाधि धारण करनेवाली आत्मा दूसरी बार लोक में उत्पन्न नहीं होती और अपने अपने उत्तम स्थान को जातिस्मरण ज्ञान से जान लेता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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