Book Title: Agam 35 Bruhatkalpa Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 8
________________ आगम सूत्र ३५, छेदसूत्र-२, 'बृहत्कल्प' उद्देशक/सूत्र उद्देशक-२ सूत्र-५१-५३ उपाश्रय के आसपास या आँगन में चावल, गेहूँ, मुग, उड़द, तल, कलथी, जव या ज्वार का अलग-अलग ढग हो वो ढ़ग आपस में सम्बन्धित हो, सभी धान्य ईकटे हो या अलग हो तो जघन्य से गीले हाथ की रेखा सूख जाए और उत्कृष्ट से पाँच दिन जितना वक्त भी साधु-साध्वी का वहाँ रहना न कल्पे, लेकिन यदि ऐसा जाने कि चावल आदि छूटे-फैले हुए अलग ढ़ग में या आपस में मिले नहीं है लेकिन ढ़ग या पूँज रूप भित्त के सहारे-कुंड़ में राख आदि से चिह्न किए गए, गोबर से लिपित, ढंके हुए हैं तो शर्दी-गर्मी में रहना कल्पे, यदि ऐसा जाने राशि-पुंज आदि के रूप में नहीं लेकिन कोठा या पानी में भरे, मंच या माला पर सुरक्षित, मिट्टी या गोबर लिपित, बरतन से बँके, निशानी किए गए या मुँह बन्द किए हो तो साधु-साध्वी को वर्षावास रहना भी कल्पे । सूत्र-५४-५७ उपाश्रय के आँगन में मदिरा या मद्य के भरे घड़े रखे गए हो, अचित्त ऐसे ठंड़े या गर्म पानी के घड़े वहाँ भरे हो, वहाँ पूरी रात अग्नि सुलगता हो, जलता हो तो गीले हाथ की रेखा सूख जाए उतना काल रहना न कल्पे शायद गवेषणा करने के बावजूद भी दूसरा स्थान न मिले तो एक या दो रात्रि रहना कल्पे लेकिन यदि ज्यादा रहे तो जितने रात-दिन ज्यादा रहे उतना छेद या परिहार प्रायश्चित्त आए। सूत्र -५८-६० उपाश्रय के आँगन में मावा, दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मालपुआ, लड्डु, पूरी, शीखंड, शिखरण रखे-फैले, ढ़ग के रूप में या छूटे पड़े हो तो साधु-साध्वी को वहाँ हाथ के पर्व की रेखा सूख जाए उतना काल रहना न कल्पे, लेकिन यदि अच्छी तरह से ढ़गरूप से, दीवार की ओर कुंड बनाकर, निशानी या अंकित करके या ढंके हुए हो तो शर्दी-गर्मी में रहना कल्पे, यदि ढ़ग या पूँज आदि रूप में नहीं लेकिन कोठा या कल्प में भरे, मंच या माले पर सुरक्षित, कोड़ी या घड़े में रखे गए हो, जिसके मुँह मिट्टी या गोबर से लिप्त हो, बरतन से ढंके हो, निशानी या मुहर लगाई हो तो वहाँ वर्षावास करना भी कल्पे । सूत्र-६१-६२ आगमन गृह, चारो ओर खुले घर, छत या पेड़ या अल्प आवृत्त आकाश के नीचे साध्वी का रहना न कल्पे, अपवाद से साधु को कल्पे । सूत्र-६३ जिस उपाश्रय का स्वामी एक ही हो वो एक सागारिक पारिहारिक और जहाँ दो, तीन, चार, पाँच स्वामी हो तो वो सब सागारिक पारिहारिक है । (यदि ज्यादा सागारिक हो तो) वहाँ एक को कल्पक सागारिक की तरह स्थापना करके उसे पारिहारिक मानकर बाकी वो वहाँ से आहार आदि लेने जाना । (सागारिक यानि शय्यातर या वसति के स्वामी, पारिहारिक यानि जिसके अन्न पानी को परिहार त्याग करना है वो, कल्पाक यानि किसी एक को मुख्य रूप से स्थापित करना, निव्विसेज्ज शय्यातर न गिनना वो ।) सूत्र-६४-६८ साधु-साध्वी को सागारिक पिंड यानि वसति दाता के घर का आहार, जो घर के बाहर न ले गए हो और शायद दूसरों के वहाँ बने आहार के साथ मिश्र हुआ हो या न हुआ हो - उसे लेना न कल्पे, यदि घर के बाहर वो पिंड़ ले गए हो लेकिन दूसरों के वहाँ बने आहार के साथ मिश्र न हुआ हो तो भी लेना न कल्पे, लेकिन यदि मिश्र आहार हो तो लेना कल्पे, यदि वो पिंड़ बाहर के आहार के साथ मिश्रित न हो तो वो उसे मिश्र करना न कल्पे, यदि उसे मिश्रित करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो वो लौकिक और लोकोत्तर मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहार तप समान प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(बृहत्कल्प)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 8Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20