Book Title: Agam 35 Bruhatkalpa Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३५, छेदसूत्र-२, 'बृहत्कल्प'
उद्देशक/सूत्र
उद्देशक-४ सूत्र-१११
अनुद्घातिक प्रायश्चित्त पात्र इन तीनों बताए हैं-हस्तकर्म करनेवाले, मैथुन सेवन करनेवाले, रात्रि भोजन करनेवाले । (अनुद्घातिक जिस दोष की गुरु प्रायश्चित्त से कठिनता से शुद्धि हो सकती है, वो ।) सूत्र-११२
पारांचिक प्रायश्चित्त पात्र तीन बताए हैं-दुष्ट, प्रमत्त, परस्पर मैथुनसेवी । (पारांचिक प्रायश्चित्त के दश भेद में से सबसे कठिन प्रायश्चित्त, दुष्ट-कषाय से और विषय से अधम बने, प्रमत्त, मद्य-विषय, कषाय, विकथा, निद्रा से प्रमादाधीन हुए।) सूत्र-११३
अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त पात्र यह तीन बताए हैं । साधर्मिक चीज की चोरी करनेवाले, अन्यधर्मी की चीज की चोरी करनेवाले, हाथ से ताड़न करनेवाले । सूत्र- ११४-११५
जात नपुंसक, कामवासना दमन में असमर्थ, पुरुषत्वहीन कायर पुरुष । इन तीन तरह के पुरुष को प्रव्रज्या देना, मुंड़ित करना, शिक्षा देने के लिए, उपस्थापना करने के लिए, एक मांडली में आहार करने के लिए या हमेशा साथ रखने के लिए योग्य नहीं । यानि इन तीनों में से किसी को प्रव्रजित करने के आदि कार्य करना न कल्पे सूत्र-११६
अविनीत, घी आदि विगई में आसक्त, अनुपशान्त क्रोधी, इन तीन को वाचना देना न कल्पे, विनित विगई में अनासक्त, उपशान्त क्रोधवाले को कल्पे । सूत्र - ११७-११८
दुष्ट-तत्त्वोपदेष्टा प्रति द्वेष रखनेवाले, मूल-गुणदोष से अनभिज्ञ, व्युद्ग्राहित, अंधश्रद्धावाला दुराग्रही यह तीन दुर्बोध्य बताए हैं । अदुष्ट, अमूढ़, अव्युद्ग्राहित यह तीन सुबोध्य बताए हैं। सूत्र - ११९-१२०
ग्लान साध्वी हो तो उसके पिता, भाई या पुत्र और ग्लान साधु हो तो उसकी माता, बहन या पुत्री वो साधु या साध्वी गिर रहे हो तो हाथ का सहारा दे, गिर गए हो तो खडे करे, अपने आप खडा होना-बैठने के लिए असमर्थ हो तो सहारा दे तब वो साधु-साध्वी विजातीय व्यक्ति के स्पर्श की (पूर्वानुभूत मैथुन की स्मृति से) अनुमोदना करे तो अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान आता है। सूत्र - १२१-१२२
साधु-साध्वी ने अशन आदि आहार प्रथम पोरिसी यानि कि प्रहर में ग्रहण किया है और अन्तिम तक का काल या दो कोश की हद से ज्यादा दूर के क्षेत्र तक अपने पास रखे या इस काल और क्षेत्र हद का उल्लंघन तक वो आहार रह जाए तो वो आहार खुद न खाए, अन्य साधु-साध्वी को न दे, लेकिन एकान्त में सर्वथा अचित्त स्थान पर परठवे । यदि ऐसा न करते हुए खुद खाए या दूसरे साधु-साध्वी को दे तो लघुचौमासी प्रायश्चित्त के भागी होते हैं सूत्र-१२३
आहार के लिए गृहस्थ के गृहमें प्रवेश कर के निर्ग्रन्थ को उद्गम उत्पादन और एषणा दोषमें से किसी एक दोषयुक्त अनेषणीय अन्न-पान ग्रहण कर लिया हो तो वो आहार उसी वक्त 'उपस्थापना न की गई हो ऐसे'' शिष्य को देना या एषणीय आहार देने के बाद देना कल्पे । यदि कोई अनुपस्थापित शिष्य न हो तो वो अनेषणीय आहार खुद न खाए, दूसरों को न दे, लेकिन एकान्त ऐसे अचित्त स्थान में प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके परठना चाहिए
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(बृहत्कल्प)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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