Book Title: Agam 07 Upasakdasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-२ - कामदेव सूत्र - २०
हे भगवन् ! यावत् सिद्धि-प्राप्त भगवान महावीर ने सातवे अंग उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यदि यह अर्थ-आशय प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया है ? जम्बू ! उस काल-उस समय-चम्पा नगरी थी । पूर्णभद्र नामक चैत्य था । राजा जितशत्रु था । कामदेव गाथापति था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । गाथापति कामदेव का छ: करोड़ स्वर्ण-खजाने में, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में, तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव में लगी थीं । उसके छह गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं । भगवान महावीर पधारे । समवसरण हुआ । गाथापति आनन्द की तरह कामदेव भी अपने घर से चलाभगवान के पास पहुँचा, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। सूत्र - २१
(तत्पश्चात् किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हुआ । उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया । उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की बाँस की टोकरी जैसा था । बाल-चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, चमकीले थे । ललाट बड़े मटके के खप्पर जैसा बड़ा था । भौंहें गिलहरी की पूँछ की तरह बिखरी हई थीं, देखने में बडी विकत और बीभत्स थीं। 'मटकी' जैसी आँखें. सिर से बाहर नीकली थीं देखने में विकृत और बीभत्स थीं । कान टूटे हुए सूप-समान बड़े भद्दे और खराब दिखाई देते थे । नाक मेढ़े की नाक की तरह थी । गड्ढों जैसे दोनों नथूने ऐसे थे, मानों जुड़े हुए दो चूल्हे हों । घोड़े की पूँछ जैसी उनकी पूँछे भूरी थीं, विकृत और बीभत्स लगती थीं । उसके होठ ऊंट के होठों की तरह लम्बे थे । दाँत हल की लोहे की कुश जैसे थे । जीभ सूप के टुकड़े जैसी थी । ठुड्डी हल की नोक की तरह थी । कढ़ाही की ज्यों भीतर धंसे उसके गाल खड्डों जैसे लगते थे, फटे हुए, भूरे रंग के, कठोर तथा विकराल थे।
उसके कन्धे मृदंग जैसे थे । वक्षःस्थल-नगर के फाटक के समान चौड़ी थी। दोनों भुजाएं कोष्ठिका-समान थीं। उसकी दोनों हथेलियाँ मूंग आदि दलने की चक्की के पाट जैसी थीं । हाथों की अंगुलियाँ लोढी के स उसके नाखून सीपियों जैसे थे। दोनों स्तन नाई की उस्तरा आदि की तरह छाती पर लटक रहे थे । पेट लोहे के कोष्ठक-समान गोलाकार । नाभि बर्तन के समान गहरी थी । उसका नेत्र-छींके की तरह था। दोनों अण्डकोष फैले हुए दो थैलों जैसे थे । उसकी दोनों जंघाएं एक जैसी दो कोठियों के समान थीं । उसके घुटने अर्जुन-वृक्ष-विशेष के गाँठ जैसे, टेढ़े, देखने में विकृत व बीभत्स थे। पिंडलियाँ कठोर थीं, बालों से भरी थीं। उसके दोनों पैर दाल आदि पीसने की शीला के समान थे । पैर की अंगुलियाँ लोढ़ी जैसी थीं । अंगुलियों के नाखून सीपियों के सदृश थे ।
उस पिशाच के घुटने मोटे एवं ओछे थे, गाड़ी के पीछे ढीले बंधे काठ की तरह लड़खड़ा रहे थे । उसकी भौंहें विकृत-भग्न और टेढ़ी थीं । उसने अपना दरार जैसा मुँह फाड़ रखा था, जीभ बाहर नीकाल रखी थी । वह गिरगिटों की माला पहने था । चूहों की माला भी उसने धारण कर रखी थी। उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे । उसने अपनी देह पर साँपों को दुपट्टे की तरह लपेट रखा था । वह भुजाओं पर अपने हाथ ठोक रहा था, गरज रहा था, भयंकर अट्टहास कर रहा था । उसका शरीर पाँचों रंगों के बहुविध केशों से व्याप्त था। वह पिशाच नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूल जैसी गहरी नीली, तेज धार वाली तलवार लिए, जहाँ पोषधशाला थी, श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया । अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित तथा विकराल होता हुआ, मिसमिसाहट करता हुआ-तेज साँस छोड़ता हुआ श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अप्रार्थित-उस मृत्यु को चाहने वाले ! पुण्यचतुर्दशी जिस दिन हीन-थी-घटिकाओं में अमावास्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मे हुए अभागे! लज्जा, शोभा, धृति तथा कीर्ति से परिवर्जित ! धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की कामना ईच्छा एवं पिपासा-रखने वाले ! शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास से विचलित होना, विक्षुभित होना, उन्हें
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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