Book Title: Agam 07 Upasakdasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 24
________________ आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा' अध्ययन/ सूत्रांक सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया । वहाँ से चला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरात हुआ, अपने घर अपनी पत्नी अग्निमित्रा के पास आया और बोला-देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं, तुम जाओ, उनकी वन्दना, पर्युपासना करो, उनसे पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने 'आप ठीक कहते हैं। यों कहकर विनयपूर्वक अपने पति का कथन स्वीकार किया । तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियों ! तेज चलने वाले, एक जैसे खुर, पूँछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींग वाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किए, गले से लटकती चाँदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बने आभरणयुक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे जाते, अनेक प्रकार की मणियों और सोने की बहुत सी घंटियों से युक्त, बढ़िया लकड़ी के एकदम सीधे, उत्तम और सुन्दर बने हुए जुए सहित, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त धार्मिक-श्रेष्ठ रथ तैयार करो, तैयार कर शीघ्र मुझे सूचना दो। श्रमणोपासक सकडालपुत्र द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने यावत् उत्तम यान को शीघ्र ही उपस्थित किया। तब सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने स्नान किया, शुद्ध, सभायोग्य वस्त्र पहने, थोड़े से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया । दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर पोलासपुर नगर के बीच से गुजरती, सहस्राम्रवन उद्यान में आई, धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, दासियों के समूह से घिरी जहाँ भगवान महावीर विराजित थे, वहाँ गई, जाकर वन्दन-नमस्कार किया, भगवान के न अधिक निकट न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो नमन करती हुई, सूनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगी । श्रमण भगवान महावीर ने अग्निमित्रा को तथा उपस्थित परीषद् को धर्मोपदेश दिया। सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित एवं परितुष्ट हुई। उसने भगवान को वंदन-नमस्कार किया । वह बोली-भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है यावत् जैसा आपने प्रतिपादित किया, वैसा ही है । देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास बहुत से उग्र-भोग यावत् प्रव्रजित हुए । मैं उस प्रकार मुण्डित होकर प्रव्रजित होने में असमर्थ हूँ। इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहती हूँ | देवानुप्रिये ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा करो, विलम्ब मत करो । तब अग्निमित्रा ने श्रमण भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया, श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया । उसी उत्तम धार्मिक रथ पर सवार हई तथा जिस दिशा से आई थी उसी की ओर लौट गई। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर पोलासपुर नगर से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान कर एक दिन अन्य जनपदों में विहार कर गए। सूत्र - ४६ तत्पश्चात सकडालपुत्र जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया । धार्मिक जीवन जीने लगा । कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सूना कि सकडालपत्र आजीविक-सिद्धान्त को छोडकर श्रमणनिर्ग्रन्थों की दृष्टि-स्वीकार कर चूका है, तब उसने विचार किया कि मैं सकडालपुत्र के पास जाऊं और श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर उसे फिर आजीविक-सिद्धान्त ग्रहण करवाऊं । वह आजीविक संघ के साथ पोलासपुर नगर में आया, आजीविक-सभा में पहुँचा, वहाँ अपने पात्र, उपकरण रखे तथा कतिपय आजीविकों के साथ जहाँ सकडालपुत्र था, वहाँ गया । श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखा । न उसे आदर दिया और न परिचित जैसा व्यवहार ही किया । आदर न करता हआ, परिचित सा व्यवहार न करता हुआ, चूपचाप बैठा रहा। श्रमणोपासक सकडालपुत्र से आदर न प्राप्त कर, उसका उपेक्षा भाव देख, मंखलिपुत्र गोशालक पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान महावीर का गुण-कीर्तन करता हुआ श्रमणो मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 24

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