Book Title: Agam 07 Upasakdasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक आई । उसके मन में उदासी छा गई, यावत् व्याकुल होकर सोच में पड़ गई। तत्पश्चात् रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीडित हो गई । व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरकमें ८४०००वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। सूत्र- ५५
उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह में पधारे । समवसरण हुआ । परीषद् जुड़ी, धर्म-देशना सूनकर लौट गई । श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित कर कहा-गौतम ! यही राजगृह नगर में मेरा अन्तेवासी-महाशतक नामक श्रमणोपासक पोषधशाला में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगा हुआ, आहार-पानी का परित्याग किए हुए मृत्यु की कामना न करता हुआ, धर्माराधना में निरत है । महाशतक की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, यावत् पोषधशाला में महाशतक के पास आई । श्रमणोपासक महाशतक से विषय-सख सम्बन्धी वचन बोली । उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा । अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया । उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान से जान कर रेवती से कहा यावत् नैरयिकों में उत्पन्न होओगी।
गौतम ! सत्य, तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट-अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनामऐसे हों तो अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय-नहीं है । इसलिए देवानुप्रिय ! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हो तो बोलना कल्पनीय नहीं है । देवानुप्रिय! तुमने रेवती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे । इसलिए तुम इस स्थान की आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करो । भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर का यह कथन 'आप ठीक फरमाते हैं। यों कहकर विनयपूर्वक सूना । वे वहाँ से चले । राजगृह नगर के बीच से गुझरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुँचे । श्रमणोपासक महाशतकने जब भगवान गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ । उन्हें वन्दन-नमस्कार किया । भगवान गौतम ने श्रमणोपासक महाशतक से कहा-देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर ने ऐसा आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त एवं प्ररूपित किया है-कहा है-यावत् प्रतिकूल हों तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है । देवानुप्रिय ! तुम अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले, इसलिए तुम इस स्थान की आलोचना करो, प्रायश्चित्त करो। सूत्र-५६
तब श्रमणोपासक महाशतक ने भगवान गौतम का कथन 'आप ठीक फरमाते हैं। कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया, अपनी भूल की आलोचना की, यथोचित प्रायश्चित्त किया । तत्पश्चात् भगवान गौतम श्रमणोपासक महाशतक के पास से रवाना हुए, राजगृह नगर के बीच से गुजरे, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए । भगवान को वंदन-नमस्कार किया । वंदन-नमस्कार कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए धर्माराधना में लग गए । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर, किसी समय राजगृहसे प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गए यों श्रमणोपासक महाशतक ने अनेकविध व्रत, नियम आदि द्वारा आत्मा को भावित किया- । बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-का पालन किया । ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की भली-भाँति आराधना की । एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर, मरणकाल आने पर समाधिपूर्वक देहत्याग किया । वह सौधर्म देवलोक में अरुणावतंसक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ आयु चार पल्योपम की है । महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा।
अध्ययन-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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