Book Title: Agam 07 Upasakdasha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 20
________________ आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा' अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-६ - कुंडकोलिक सूत्र-३७ जम्बू ! उस काल-उस समय-काम्पिल्यपुर नगर था । सहस्राम्रवन उद्यान था । जितशत्रु राजा था । कुंडकोलिक गाथापति था । उसकी पत्नी पूषा थी । छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में, छह करोड़ स्वर्णमुद्राएं व्यापार में, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं-धन, धान्य में लगी थीं । छह गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। भगवान महावीर पधारे । कामदेव की तरह कुंडकोलिक ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया । यावत् श्रमण निर्ग्रन्थों को शुद्ध आहार-पानी आदि देते हुए धर्माराधना में निरत रहने लगा। सूत्र-३८ ___ एक दिन श्रमणोपासक कुंडकोलिक दोपहर के समय अशोक-वाटिका में गया । पृथ्वी-शिलापट्टक पहुंचा। अपने नाम से अंकित अंगूठी और दुपट्टा उतारा । उन्हें पृथ्वीशिलापट्टक पर रखा । श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-अनुरूप उपासना-रत हुआ । श्रमणोपासक कुंडकोलिक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ । उस देव ने कुंडकोलिक की नामांकित मुद्रिका और दुपट्टा पृथ्वीशिलापट्टक से उठा लिया । वस्त्रों में लगी छोटीछोटी घंटियों की झनझनाहट के साथ वह आकाश में अवस्थित हुआ, श्रमणोपासक कुंडकोलिक से बोलादेवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति-सुन्दर है । उसके अनुसार उत्थान-कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, उपक्रम । सभी भाव-नियत है । उत्थान पराक्रम इन सबका अपना अस्तित्व है, सभी भाव नियत नहीं हैभगवान महावीर की यह धर्म-प्रज्ञप्ति-असुन्दर है। तब श्रमणोपासक कुंडकोलिक ने देव से कहा-उत्थान का कोई अस्तित्व नहीं है, सभी भाव नियत हैंगोशालक की यह धर्म-शिक्षा यदि उत्तम है तो उत्थान आदि का अपना महत्त्व है, सभी भाव नियत नही है-भगवान महावीर की यह धर्म-प्ररूपणा अनुत्तम है-तो देव ! तुम्हें जो ऐसा दिव्य ऋद्धि, द्युति तथा प्रभाव उपलब्ध, संप्राप्त और स्वायत्त है, वह सब क्या उत्थान, पौरुष और पराक्रम से प्राप्त हुआ है, अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपौरुष या अपराक्रम से ? वह देव श्रमणोपासक कुंडकोलिक से बोला-देवानुप्रिय ! मुझे यह दिव्य ऋद्धि, द्युति एवं प्रभाव-यह सब बिना उत्थान, पौरुष एवं पराक्रम से ही उपलब्ध हुआ है । तब श्रमणोपासक कुंडकोलिक ने उस देव से कहा-देव ! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि नहीं हैं, वे देव क्यों नहीं हुए ? देव ! तुमने यदि दिव्य ऋद्धि उत्थान, पराक्रम आदि द्वारा प्राप्त कि है तो "उत्थान आदि का जिसमें स्वीकार नहीं है, सभी भाव नियत हैं, गोशालक की यह धर्म-शिक्षा सुन्दर है तथा जिसमें उत्थान आदि का स्वीकार है, सभी भाव नियत नहीं है, भगवान महावीर की वह शिक्षा असुन्दर है।' तम्हारा यह कथन असत्य है। श्रमणोपासक कुंडकोलिक द्वारा यों कहे जाने पर वह देव शंकायुक्त तथा कालुष्य युक्त हो गया, कुछ उत्तर नहीं दे सका । उसने कुंडकोलिक की नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस पृथ्वीशिलापट्टक पर रख दिया तथा जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया । उस काल और उस समय भगवान महावीर का काम्पिल्य-पुर में पदार्पण हुआ । श्रमणोपासक कुंडकोलिक ने जब यह सूना तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान के दर्शन के लिए कामदेव की तरह गया, भगवान की पर्युपासना की, धर्म-देशना सुनी। सूत्र - ३९ भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कुंडकोलिक से कहा-कुंडकोलिक ! कल दोपहर के समय अशोकवाटिका में एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ । वह तुम्हारी नामांकित अंगूठी और दुपट्टा लेकर आकाश में चला गया । यावत् हे कुंडकोलिक ! क्या यह ठीक है ? भगवन् ! ऐसा ही हुआ । तब भगवान ने जैसा कामदेव से कहा था, उसी प्रकार उससे कहा-कुंडकोलिक ! तुम धन्य हो । श्रमण भगवान महावीर ने उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों को सम्बोधित कर कहा-आर्यो ! यदि घर में रहने वाले गृहस्थ भी अन्य मतानुयायियों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 20

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