Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 2
________________ प्रस्तुत आगम श्री भगवतीसूत्र जैन आगमों में सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त विशालकाय आगम का नाम है श्री भगवती सूत्र। प्रसिद्ध है, कि इसमें जैन तत्त्वविद्या से सम्बन्धित विविध विषयों के ३६ हजार प्रश्नों का भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त युक्ति पूर्ण समाधान है। ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के रहस्य पूर्ण सिद्धान्तों का वर्णन इस आगम में उपलब्ध है। माना जाता है, विश्वविद्या की ऐसी कोई भी शाखा नहीं होगी, जिसकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में चर्चा इस आगम में नहीं हो। दर्शन, अध्यात्म-विद्या, पुद्गल व परमाणु सिद्धान्त आदि सैकड़ों महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन तथा उनका अनेकान्त शैली में समाधान इस आगम के अनुशीलन से प्राप्त हो जाता है। आगमों के गम्भीर अध्येता प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी ने टीका व अन्य अनेक ग्रन्थों के आधार पर इस आगम के गम्भीर विषयों का अपनी सरल सारपूर्ण शैली में विवेचन प्रस्तुत कर 'सागर' को 'गागर' में भरने का प्रयत्न किया है। इस आगम का प्रकाशन लगभग ६ भाग में सम्पन्न होने की सम्भावना है। प्रथम भाग प्रकाशित हो चुका है। जिसमें प्रथम शतक से चतुर्थ शतक तक लिया गया है। इस द्वितीय भाग में पंचम शतक से सातवें शतक तक सम्पूर्ण तथा आठवें शतक का प्रथम उद्देशक लिया गया है। भगवान महावीर ने जिन शाश्वत सत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, वे आज के वैज्ञानिक युग में सर्वाधिक प्रासंगिक है। जैसे-किसी भी वस्तु को सर्वांग दृष्टि से समझने के लिए अनेकान्तदृष्टि और उसका सम्यक् स्वरूप कथन करने के लिए नय-निक्षेप की सापेक्षिक स्याद्वाद वचन-प्रणाली। धर्म, अधर्म, जीव, अजीव, पुद्गल-स्वरूप, परमाणु, लेश्या, तप-विधान, गति-सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय, कालचक्र-परिवर्तन का वर्णन, कर्म-सिद्धान्त, वनस्पति में जीव, पर्यावरण, मनोवर्गणा का स्वरूप, विभिन्न जीव योनियाँ आदि विषयों में हो रहे जीव-विज्ञान व भौतिक-विज्ञान सम्बन्धी अधुनातन अनुसंधान इन सबकी सत्यता सिद्ध करते हैं। भगवान महावीर के इन शाश्वत सिद्धान्तों को उन्हीं की भाषा व प्रतिपादन शैली में पढ़ने-समझने के लिए सचित्र भगवतीसूत्र, मूल अर्धमागधी, हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवाद के साथ आपके हाथों में प्रस्तुत है। This Agam Bhagavati Sutra The most important and voluminous among the Jain Agams is Shri Bhagavati Sutra. It is well known that this work contains logical answers given by Bhagavan Mahavir to 36,000 questions on a variety of ontological topics. This Agam contains discussions about many important and obsours principles from many branches of knowledge and special studies. It is believed that there is no branch of universal knowledge that has not been discussed directly or indirectly in this Agam. Information about numberous subjects including philosphy, spiritualism, matter and particle theory can be acquired by studying this Agam. Pravartak Shri Amar Muniji, a profound scholar of Agams, has tried to condense a sea in a drop by presenting the complex topics of this Agam in a simple and lucid Style with the help of commentaries and many other reference works. This voluminous Agam as expected to be completed in six volumes. This is the second volume. The first volume contains one to four Shataks. The second volume contains five to seven Shataks complete and arst uddashak of the eighth Shatak: The eternal and true principles Bhagavan Mahavir propagated are completely relevant in the modern scientific world. One example is the non-absolutistic viewpoint (Anekantavaad) to fully understand a thing and the relative methodology of Syadvad using naya and nikshep (standpoint and attribution) to realistically describe a thing. Virtue, vice, soul, non-soul, matter and its form, ultimate particle, soul complexion, codes of austerity, entity of motion, time-cycle and its changes, theory of karma, life in plants, environment, classification of mind and its activities, different genuses of life are being confirmed and authenticated by the latest researches in biology and physics. We place in your hands Illustrated Bhagavati Sutra (original Ardhamagadhi text with Hindi and English translations, elaboration and multicolored illustrations) to enable you to read and understand these eternal principles of Bhagavan Mahavir in his own language and style. HalesPersonal use only. www.jainelibrary.org

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