Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 2
________________ जैन संघ के लिए गौरवरूप घटना भगवान् महावीर की भाषा अर्धमागधी थी, यह तो आगमों एवं परंपरा में अतिप्रसिद्ध एवं स्वीकृत बात है । मुख्य बात है यहां भाषा- परिवर्तन की : भगवान् की भाषा बदल कैसे गई ? अर्धमागधी के अवशेष भी न मिले इस हद तक महाराष्ट्री प्रविष्ट हो गई, यह कैसे ? लगता है कि जैसे भगवान् ने लोकभाषा को प्राधान्य दिया था उसी तरह हमारे पूर्वाचार्यों ने भी समय के एवं देशों के परिवर्तन के साथ साथ बदलती हुई लोकभाषा को प्राधान्य दिया और मरहट्ठी प्राकृत के यानी महाराष्ट्री प्राकृत भाषा के बढ़े हुए व्यवहार को लक्ष्य में लेते हुए आगमों को भी उसी भाषा में ढलने दिये । आखिर तो वे थे धर्मग्रंथ और उनका प्रयोजन था भगवान् के तत्त्वोपदेश को लोकहृदय तक पहुँचाना । वह तो लोकभोग्य या लोकप्रिय भाषा के जरिये ही हो सकता था । किन्तु इस प्रक्रिया में भगवान् की मूल जबान हमारे पास न रह सकी । अर्धमागधी महदंश में नामशेष हो गई। आज जो कुछ मिलता है वह फुटकर अवशेषों से ज्यादा नहीं और ऐसे अवशेषों को इधर उधर से ढूंढना-जुयना यह तो एक पुरातत्त्वविद् का सा कार्य है। मैं कहना चाहूँगा कि जैसे एक पुरातत्त्वविद् पथरेठीकरों को ढूंढते-ढूंढते अतीत के गुप्त-लुप्त वैभव को उजागर कर देता है, ठीक उसी तरह हमारे भाषा-पुराविद् डॉ.के.ऋषभचन्द्र (के.आर.चन्द्र)अर्धमागधी भाषा के विषय में खोज कर रहे हैं। आचारांग का प्रथम अध्ययन उन्होंने जिस परिश्रम से तैयार कर दिखाया है, वह सचमुच हमारे लिए आश्चर्यजनक है और पूरे जैन संघ के लिए गौरवरूप भी । भगवान् की खुद की भाषा और उनके प्रयुक्त शब्द सुनने-पढ़ने को मिले इससे बढ़कर और कौनसा गौरव हमारे लिए - एक जैन के लिए हो सकेगा भला? ___मैं चाहता हूँ कि डो.चन्द्रजी आचारांग के पूरे प्रथम श्रुतस्कन्ध को इसी ढंग से तैयार करें । उनका यह प्रदान शकवर्ती (ऐतिहासिक) व युगों तक चिरंजीव रहेगा, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। _अंत में, भगवान् महावीर की कृपा उन पर सदैव बरसें और वे जिनागम की इस ढंग की सेवा करते करते अपना कल्याण पा लें ऐसी शुभकामना व्यक्त करता हूँ। -विजयशीलचन्द्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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