Book Title: Adhyatma Vicharna
Author(s): Sukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
Publisher: Gujarat Vidyasabha

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Page 7
________________ ( ४ ) जो भारतीय दर्शनोंके मौलिक अभ्यासी हों, जिन्होंने मूल टीकाके साथ दार्शनिक ग्रन्थोंका अभ्यास किया हो वे तो यदि छपे हुए क्रमसे ही व्याख्यान पढ़ेंगे तो भी उन्हें समझने में ज़रा-सी भी कठिनाई प्रतीत नहीं होगी, परन्तु तत्त्वजिज्ञासु होनेपर भी जो मूल ग्रन्थोंके अभ्यासी नहीं हैं उनके वाचन एवं विचारके लिए मेरी नम्र सूचना है कि सर्वप्रथम वे तीसरा साधना विषयक व्याख्यान पढ़ें, बादमें दूसरा परमात्म-विषयक और उसके पश्चात् पहला श्रात्मतत्त्व-विषयक । पहले व्याख्यानमें मैंने जो आत्मतत्त्वके स्वरूप-विषयक क्रमविकासकी उपपत्ति दिखलाई है वह मेरी अपनी अध्ययन मननमूलक विचारसरणी है। उससे भिन्न उपपत्ति होने का पूरा सम्भव है, फिर भी मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई उपपत्ति उससे अधिक संगत उपपत्तिकी खोज में सहायक होगी तो भी मैं अपने इस प्रयत्नको सफल समझू गा । जहाँ क्रमबद्ध लिखित इतिहास न हो वहाँ विचारोंकी संगति के लिए तर्क एवं अनुमानके ऊपर आधार रखना पड़ता है । ऐसा होनेपर भी मैंने, शक्य था वहाँ उस-उस अनुमान या तर्कके उपलब्ध प्रमाणोंका निर्देश किया है। प्रथम व्याख्यान उन-उन दर्शनोंकी भिन्न-भिन्न परिभाषा, भिन्नभिन्न प्रक्रिया और भिन्न-भिन्न कल्पनाओंकी तार्किक संगति खोजने के प्रयत्नकी वजह से विशेष गहन या कुछ दुरूह सा हो गया हो तो वह अनिवार्य है । गहन या दुर्गम बननेके भय से गहरा विचार करनेका छोड़ दें तो कभी भी मूलगामी चिन्तन या संशोधन हो ही नहीं सकेगा । चौर ऐसे भी थोड़े तत्त्वचिन्तक व अभ्यासी हैं जो स्थूल एवं छिछले विचारोंसे सन्तुष्ट नहीं होते । वे कुछ मौलिक चिन्तनकी सर्वदा अपेक्षा रखते हैं । इसीसे मैंने अपनी मर्यादामें उस दिशा की ओर भी थोड़ा-सा प्रयत्न किया है । श्री पोपटलाल हेमचन्द व्याख्यानमाला के तत्त्वावधान में मैं भी व्या

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