Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 06
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ / / श्री वीतरागो जयति / / अभिधानराजेन्द्रः। सिरिवद्धमाणसामि, नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण। सारं छटे भागे, भवियजणसुहावहंवोच्छं।।१।। मइदंसण मकारः यत्तत्समाना प्रभूतार्थग्रहणोत्प्रेक्षणधरणसामर्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच अरञ्जरोदकं हि संक्षिप्तं शीघ्रं निष्ठित चेति / विदरोनदीपुलिनाऽऽदौ जलार्थो गर्तः, तत्र यदुदकं तत्समानाऽल्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वाद् झगित्यनिष्ठितत्वाच, तदुदक. ह्यल्पं तथाऽपरापरम ल्पमल्पं स्यन्दते, अत एव क्षिप्रमनिष्टितञ्चेति, सरउदकसमाना तु विपुलम पुं० (ममा-कः / यमे, समये, मधुसूदने, वाच०। मन्त्रे, मन्दिरे, माने. त्वात् बहुजनोपकारित्वादनिष्ठितत्वाच प्रायः सरोजलस्याप्येवभूतत्वासूर्ये , चन्द्रे, शिवे, विधौ, मायाविनि, वृथामन्त्रे, मारणे, प्रतिदाने, दिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यन्तविपुलत्वाएका० / स्त्रीकण्ठ, वही, सत्यवादे, जडे, कष्ट, सत्साक्षिणि, मदे, दक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच, सागरजलस्यापि होवम्भूतत्वादिति। स्था० कपिलवणे, पिङ्गलवणे , बन्धनेचा एका०। मौलौ, मोघवृत्तौ, नपुंसकजने 4 ठा०४ उ01 "सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं।" तत्रावग्रहे बुद्धिः, अपायधारणे च। न० एका०। मतिः / नं०। मनुतेअवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यया सा तथा / मअपुं० (मद) अहङ्कारे, “अवलेओऽहकारो, मओ मरट्टो मरप्फरो दप्पो"। सूत्र०१ श्रु०६ अ० / लोकालोकान्तर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टातीता(६) पाइ. ना०५५ गाथा। नागतवर्तमानपदार्थाऽऽविर्भावके केवलज्ञाने च। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। मआई (देशी) शिरामालायाम्, दे० ना०६ वर्ग 115 गाथा। आचा० / प्रातिभबोधे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ० / अध्यवसाये, मइ स्त्री. (मति) मन्- तिन् / मननं मतिः / ज्ञाने, अवधिमनः-पाय आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ० / मतिरवायो, निश्चय इत्यर्थः। स०५ अङ्ग। केवलजातिस्मरणभेदाचतुर्धा। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। ज्ञा०ान। परवाद्युपन्यस्तसाधनस्यापूर्वापूर्वदूषणोहाऽऽत्मके ज्ञानविशेषे, बृ०५ मननं मतिरवबोधः / सा च मतिज्ञानाऽऽदि पञ्चधेति / आचा०१ श्रु०१ उ० / मननं मतिः। यद्वा-मन्यते इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तुपरिच्छिअ०१3०। आ०म०। सूत्र०। मननं मतिः। पदार्थचिन्ताऽऽत्मके मानसे द्यतेऽनयेति मतिः। योग्यदेशावस्थितवस्तुविषये इन्द्रियमनोनिमित्तावव्यापारे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ० / कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि गमविशेषे, कर्म०४ कर्म01 प्रव०। सूक्ष्मधर्माऽऽलोचनरूपायां बुद्धौ. न०। विशे० / बुद्धौ, स०११अङ्ग / आचा०। स्था०। सूत्र० / अवबोधशक्ती, विशे०। अभिनिवेशे, दश०६ मइअ (देशी) भर्त्सिते, दे०ना०६ वर्ग 14 गाथा। अ०२ उ०। मनसि च। सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। इच्छायाम, स्मृती, मइअन्नाण न० (मत्यज्ञान) मिथ्यादृष्टर्मतिज्ञाने, “मिच्छद्दिट्ठिस्स मई क्तिच / शाकभेदे च। वाच० / आभिनिबोधिकज्ञान, स्था०६ ता०। मइअन्नाणं।" आ०चू०१अ०। आ०५०। प्रव०। (तद्वक्तव्यता आभिणियोहियणाण' शब्दे द्वितीयभागे मइअन्नाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से 255 पृष्ठे गता) बुद्धौ, “मेहा मई मनीसा, विन्नाणधी चिई बुद्धी।" (42) समासओ चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, पाइ० नः०३१ गाथा। मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यन कालओ, भावओ। दव्वओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाणपरिगथान्तरम् / सम्म०२ काण्ड। आचा। याई दवाई जाणइ, पासइ, एवं. जाव भावओ मइअण्णाणी चउव्विहा मई पण्णत्ता। तं जहा-उग्गहमई, ईहामई, अवायमई, मइअण्णाणपरिगए भावे जाणइ, पासइ। धारणामई / अहवा-चउटिवहा मई पण्णत्ता / तं जहा- (मइअण्णाणस्सेत्यादि) (मइ अण्णाणपरिगयाई ति) मत्यज्ञानेन अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगसमाणा, सागरो- मिथ्यादर्शनसंवलितेनावग्रहाऽऽदिनौत्पत्तिक्यादिना च परिगतानिदगसमाणा॥३६४॥ विषयीकृतानि द्रव्याणि यानि तानि तथा, जानात्यवायाऽऽदिना पश्यत्यमनन मतिः तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षस्थानिद्देश्यस्य रूपा- वग्रहादिना। भ०८ श०२ उ०। दरव इति प्रथमतो ग्रहणं परिच्छदनमवग्रहः, स एव मतिरवग्रहमतिः, मइओग्गह पुं. (मत्यवग्रह) भावावग्रहोंदे, आचा०२ श्रु०२ चू०७ एवं सर्वत्र, नवरं तदर्थविशेषाऽऽलोचनमीहा, प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽ- अ०१ उ०। वाय., अवगतार्थविशेषधरणं धारणेति / उक्तं च-"सामन्नत्थावरगह- मइंद पुं० (मृगेन्द्र) मृगेषु इन्द्र इव सिंहे. वाच०। न०! जमोगही भेयमग्हणमिहेहा / तरसावगमोऽवाओ अविचुई धारणा तस्स | मइगुण पुं० (मतिगुण) बुद्धिपर्याय, स०२ अङ्ग ||1 / " इति। तथा अरजरम। उदकुम्भोऽलजरमिति यत्प्रसिद्ध तत्रोदकं | मइदंसण न० (मतिदर्शन) मतेर्बुद्धमत्था वा दर्शन प्रमेय

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