________________ भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघं कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना' निरुक्त' में और पाणिनी के अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्यरचनाकाल। जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है— अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्टु. इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य / उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का'पाइयलच्छी नाम माला' 276 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें 668 शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गय है। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत डाचक शब्द बन जाते हैं-जैसे भूधर, कुधर इत्यादि। इस पद्धति से अनेक नये शब्दों का निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनञ्जय ने 'अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', निघण्टु संग्रह और ' देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा शिलोंछ कोश' 'नाम कोश' शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला'' नाम संग्रह', शारदीय नाममाला',शब्द रत्नाकर', 'अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेष नाममाला, 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्नप्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश' पंचवर्ग संग्रह नाम माला'.'अपवर्ग नाम माला', एकाक्षरी नानार्थकोश, 'एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश','देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सद्दमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी','जैनागम कोश','अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद्ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अकारादि क्रम से समझाया है , यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैन धर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवे सन्दर्भ ग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआथा। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे। मालवा, मारवाड़, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये , प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक