Book Title: Aagam 33 MARAN SAMAADHI Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [६९]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६९|| OCCACROCOCCOS* लेण निच्छियमईया। पंचविहं च विवेगं ते हु समाहिं परं पत्ता ॥ ६॥ १३०४ । लहिणं संसारे सुदुल्लहं! कहवि माणुसं जम्मं । न लहंति मरणदुलहं जीवा धम्मं जिणवार्य ।। ७० ॥ १३०५ ॥ किच्छाहि पाविय|म्मिवि सामपणे कम्मसत्तिओसन्ना । सीयंति सायदुलहा पंकोसन्नो जहा नागो ॥७१ ॥ १३०६ ॥ जह | कागणीइ हे मणिरपणाणं तु हारए कोडिं। तह सिद्धसुहपक्खा अबुहा सर्जति कामेसुं ॥ ७२ ॥ १३०७।। चोरो रक्खसपहओ अस्थत्थी हणइ पंथियं मूढो । इय लिंगी मुहरक्षसपहओ विसयाउरो धर्म ।। ७३ ॥ ॥ १३०८॥ तेसुवि अलद्धपसरा अवियाहा दुक्खिया गयमईया । समुर्विति मरणकाले पगामभयभेरवं नरयं| ॥७४ ॥ १३०९॥ धम्मो न कओ साटून जेमिओ न य नियंसियं सह । इहि परं परासुत्ति य नेव प पत्ताई सुक्खाई ।। ७५ ॥ १३१० ।। सावणं नोवकयं परलोयच्छेय संजमो न कओ। दुहओऽपि तओ विह दीप अनुक्रम प्राप्ताः ॥ ६९ ॥ लब्बा संसारे मुदुर्लभं कथमपि मानुपं जन्म । न लभंते मरणे दुर्लभं जीवा धर्म जिनाख्यातं ।। ७० ।। कटः प्राप| ऽपि श्रामण्ये कर्मशक्लवसन्नाः। सीदन्ति दुर्लभसाताः पंकावसन्नो यथा नागः ।। ७१ ॥ यथा काकिण्या हेनोर्मणिरवानां तु हारयेन | १ कोटी । तथा परोक्षसिद्धसौख्याः सज्यन्तेऽबुधाः कामेषु ॥ ७२ ॥ चौरो राक्षसमहतोऽर्थायी पायं मूढो हन्ति । इति लिंगी गुखराक्षस-18 हतो विषयातुरो धर्म ॥७३॥ तेष्वपि अलब्धप्रसयः अवितृष्णा दुःसिता गतमतिकाः । समुपयान्ति मरणकालाद् (पर) प्रकामभयभैरवं नरकं ॥७४।। धर्मो न कृतः साधुन जिमिनः न च लक्षणं निवसितं । इदानीं परं परामुरिति न नैव च प्रामानि सौगयानि ।।।। माधुभ्यो|3| 62-56+250 ~ 14~

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98