Book Title: Aagam 33 MARAN SAMAADHI Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(३३)
“मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया)
-------------- मूलं [१८०]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया
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संलेखना विधिः
प्रत सूत्रांक ||१८०||
पइण्णय हितो जहावलं संलिह सरीरं ॥ १८० ॥ १४१५ ॥ विविहाहि व पडिमाहि य बलवीरियजई प संपहोइ दसए १०18सुहंताओवि न पाहिती जहकमं संलिहंतम्मि ॥ १८१ ॥ १४१६ ॥ छम्मासिया जहन्ना उकोसा यारिमेव मरणस- वरिसाई । आयंथिलं महेसी तत्थ य उक्कोसयं विनि ।। १८२॥ १४१७ ॥ छहमदसमदुवालसहिं भत्तेहिं । माही चित्तक?हिं । मियलहुकं आहारं करेहि आयंबिलं विहिणा ॥ १८३ ॥ १४१८ ॥ परिवहिओवहाणो पहारवि-|
रावियवियडपासुलिकडीओ । संलिहियतणुसरीरो अजनप्परओ मुणी निचं ॥ १८४ ।। १४१९ ॥ एवं सरीर॥ १०८॥AIN
संलेहणाविहिं बहुविहंपि फासितो । अज्झवसाणविमुहिं वर्णपि तो मा पमाइत्था ॥ १८५ ॥ १४२०॥
अज्झवसाणविसुद्धीविवजिया जे तवं विगिट्टमवि । कुवंति बाललेसा न होइ सा केवला सुद्दी॥१८॥ ६॥१४२१ ॥ एवं सरागसंलेहणाविहिं जइ जई समायरइ । अज्झप्पसंजयमई सो पाबइ केवलं सुद्धिं ॥१८॥
बलं संलिख शरीरं ॥ १८० ॥ विविधाभिश्च प्रतिमाभिर्वा बलवीर्य यदि संप्रभवति मुखाय । ता अपि न याधन्ते यथाक्रमं संलिग्यमाने ॥ १८१ ॥ षण्मासाञ्जपन्या उत्कृष्टा द्वादशेय वर्षाणि । आचाम्लं तत्र च महर्षिरुत्कृष्टं धुवते ।। १८२ ।। पटाष्टमदशमद्वादशेभ्यो भक्तभ्यचित्रकष्टेभ्यः । मिर्त लघु आहारं कुरुष्वाचामाम्ल विधिना ।। १८३ ॥ परिवर्धितोपधानः भन्मस्नायुविकट पांचलिकटीकः । संलिखित-" तनुशरीरः अध्यात्मरतो मुनिनित्यं ।। १८४ ॥ एवं शरीरसंलेखनाविधि बहुविधमपि स्पृशन । अध्यवसानविशुद्धि (प्रति) क्षणमपि ननो मा| प्रमादीः ।। १८५ ।। अध्यवसायविशुद्धिविवर्जिता ये तपो विकृष्ट मपि । कुर्वन्ति धाललेश्या न भवति सा संपूर्णा शुद्धिः ।। १८६ ।। एनं सरागसंलेखनाविधि यदि यतिः समाचरति । अध्यात्ममतिसंयुतः स प्रायोति केवलां शुद्धि ॥ १८७ ॥ निखिलः स्पर्शयितव्यः |
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दीप अनुक्रम
[१८०]
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