Book Title: Aagam 33 MARAN SAMAADHI Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 29
________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१७३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया 60 प्रत सूत्रांक ||१७३|| 0-50- दीप अनुक्रम तं फासेहि चरितं तुमंपि सुहसीलयं पमुत्तूणं । सर्व परीसहच{ अहियासंतो धिइबलेणं ॥ १७३ ॥ १४०८ ॥ दास रूवे गंधे रसे य फासे य सुविहियजणेहिं । सवेसु कसाएमु अ निग्गह परमो सपा होहि ॥ १७४ ॥ ॥ १४०९ ॥ सधे रसे पणीए निज हे ऊण पंत क्खेहिं । अन्नयरेणुवहाणेण संलिहे अप्पगं कमसो ॥ १७५॥18 31॥१४१०॥ संलेहणा य दुविहा अधिभतरिया य बाहिरा चेव । अभितरिय कसाए बाहिरिया होइ य सरीरे| ॥ १७६ ।। १४११ ॥ उग्गमउप्पायणएसणाविसुद्धेण अण्णपाणेणं । मियविरसलुक्खलूहेण दुव्यलं कुणसु | अप्पागं ॥ १७७ ॥ १४१२ ।। उल्लीणोहीणेहि य अहव न एगंतवद्धमाणेहिं । संलिह सरीरमेयं आहारविहिं| पणुयंतो ॥ १७८ ।। १४१३ ॥ तत्तो अणुपयेणाहारं उवहिं सुओवएसेणं । विविहतबोकम्मेहि य इंदिय-16 विकीलियाइहिं ।। १७२ ॥ १४१४ ॥ तिविहाहि एसणाहि य विविहेहि अभिग्गहेहि उग्गेहि । संजममविरा-18 | मणो मरणे ।। १७२ ।। तन पश चारित्र समपि मुखशीलता प्रमुच्य । सर्वा परीपहचभूमध्यासीनो धृतियलेन ।। १७३ ॥ शब्दे रूपे । | गन्धे रसे च पर्श च सुविहितजनेषु (जनैः) । सर्वेषु कषायेषु च निग्रहपरमः सदा भव ॥ १७४ ॥ सर्वान रसान प्रणीतान निध। |प्रान्तः । अन्यतरेणोपधानेन संलिखेदात्मानं क्रमशः ॥ १७५ ॥ संलेखना च द्विविधा अभ्यन्तरा च बाह्या चैव । अभ्यन्तरा कषाये | | बाह्या भवति च शरीरे ॥ १७६ ।। उद्गमोत्पादनैपणाविशुद्धन अन्नपानेन । मितविरसातिरूक्षेण दुर्वलं कुरुष्वात्मानम् ।। १७७ ॥ हीय-| |मानहीयमानैश्वाथवा न एकान्तवर्धमानैः । संलिख शरीरमिदं आहारविधि प्रतनूकुर्वन् ।। १७८ ॥ ततोऽनुपूाऽऽहार उपधि श्रुतोपदे| शेन । विविधतपःकर्मभिश्च इन्द्रियविक्रीडितादिमिः ।। १७९ ॥ त्रिविधामिरेषणाभिश्च विविधैरभिप्रहरुमैः । संयममविराधयन् यथा-17 [१७३] 6-09-2565 Janbundanimatiana अथ संलेखना वर्णयते ~ 28~

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