Book Title: Aadinath Charitra
Author(s): Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

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Page 12
________________ (३) और इस व्याकरण पढनेवालोको अन्य व्याकरणकी तरह वार्तिक टीप्पणी आदि देखनेकी आवश्यकता नहीं रहती है । तथा इस व्याकरणके पर आचार्य श्रीने अभ्यासकोकी सुगमताके लिये मध्यमवृत्ति-तथा लघुवृत्ति ये दो स्वोपज्ञ टीकायभी आपने लिखी है । और आचार्य महाराजजीने-स्वयं महार्णवन्यास नामकी विस्तृत टीका नवे हजार श्लोक प्रमाणमें लिखि है। धातुपारायणइसमें भी व्याकरणमें बताये हुए धातुओंका उल्लेख किया है। आचार्य श्रीकी व्याकरणकी तुलना करनेके लिये अन्य वैयाकरणकी तुलना करनेके लिये अन्प वैयाकरणोने तो त्रुटक ही व्याकरण लिखा है.. परन्तु आचार्यश्रीने तो स्वयंही टीका टीप्पन वार्तिकोका समावेश हो जाय वैसा सांगोपांग व्याकरण लिखा है। और-व्याकरणके विषयमें एक प्राचिन पंडितका यह कथन है किभ्रातः ? संवृणु पाणिनिप्रलपितं कातन्त्रकन्थावृथा । मा कार्षीः कटुशाकटायनवच क्षुद्रेण-चान्द्रेण किम् । कः कण्ठाभरणादिभिर्बठयरत्यात्मानमन्यैरपि। . श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीहेमचन्द्रोक्तयः ॥ १ ॥ हे बन्धु ? जहांतक हेमचन्द्राचार्य के अर्थ माधुर्यवाले वचनोका श्रवण करनेमें आवे वहांतक पाणिनि व्याकरणके प्रलापको वन्ध रख, शिव शर्मकृत कातन्त्रव्याकरणरूपी सडी हुइ कन्थाको व्यर्थ समज, शाकटायनके कटु वचनोंका

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