________________
228
श्रमण-संस्कृति दिशाओं की पूजा अपने आंगन में करनी चाहिये एवं इस व्रत का पालन छः मास, एवं वर्ष या दो वर्ष तक करना चाहिये।
पूराणों तथा अन्य पूर्व मध्यकालीन ग्रन्थों से यह विदित होता है कि दिशा-पूजा आशा दशमी व्रत के साथ ही साथ विश्व व्रत के रूप में भी की जाती थी। इसव्रत के संदर्भ में यह विधान है कि इसे प्रत्येक मास की दशमी - तिथि पर एक भक्त एवं तिथि व्रत होकर वर्ष पर्यन्त करना चाहिये तथा व्रत के समापन पर दस गायों एवं दस दिशाओं की स्वर्णिम या रजत प्रतिमाओं का एक दोना तिल के साथ दान करना चाहिये। इस व्रत के बारे में यह मान्यता थी कि पालन कर्ता के सभी पाप कट जाते हैं तथा वह सम्राट हो जाता है।
उपर्युक्त व्रत में दस दिशाओं एवं दस गायों की स्वर्णिम या रजत प्रतिमाओं का दान महत्वपूर्ण है। यह दिशा पूजा एवं गो पूजा के परस्पर समन्वय को इंगित करता है। दिशाओं तथा गायों के परस्पर सम्बन्ध का उल्लेख संकेत करता है कि वैदिक काल में ही दोनों पूजा सम्प्रदायों का समन्वय हो चुका था। दिशाओं की प्रतिमाओं का निर्माण भी यहाँ कम महत्वपून नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले दिशाएं अमूर्त रूप में पूजित होती थीं। कालान्तर में दिशाओं की प्रतिमाओं का निर्माण अन्य मूर्तिपूजक सम्प्रदायों की पूजा - परम्पराओं से प्रभावित प्रतीत होता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि दिशा-पूजा कि अनेक लौकिक एवं बृहद्धर्मों ब्राह्मण बौद्ध एवं जैन धर्मों के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया होती रही, जिसके फलस्वरूप एक तरफ जहाँ बृहद्धर्मों का दिशा पूजा पर प्रभाव पड़ा वहीं दिशा -पूजा ने उन धर्मों को भी प्रभावित किया।
संदर्भ 1. सुत्तनिपात, महानिद्देशपालिः 1.13.133 । 2. सुत्तनिपात, 1.4.25। 3. तत्रैव, 1.4.251 4. दीघनिकाय, सिगालोवाद- सुत्त 39 । 5. दिव्यादानः पृ० 52, 135। 6. दीघनिकाय, 2/207/3/194 दिव्यावदानः पृ० 135।