Book Title: Aacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Author(s): Ajaykumar Pandey
Publisher: Pratibha Prakashan

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Page 398
________________ 366 श्रमण-संस्कृति समृद्ध हुई। मानवता के इस अरुणोदय पर वैदिक ऋषियों ने जीवन की अव्यवस्था को दूर करने के निमित्त सामाजिक मान्यतायें स्थापित की तथा अनेक धार्मिक उपचार निश्चित किये। इन्हीं उपचारों के अन्तर्गत मानव का मानव पर नियन्त्रण धार्मिक मान्यता पर आधारित किया गया ताकि उनके पारस्परिक अधिकार एवं उत्तरदायित्व एक दूसरे से बाधित न हों। ध्यातव्य है कि बौद्ध धर्म भारतीय आत्मा एवं गरिमा का प्रतिनिधि धर्म है। भारतीय परम्परा में अन्तस्थ आध्यात्मवादी एवं मानवतावादी चेतनायें बौद्ध धर्म की मानवतावादी अवधारणा के मूल स्तम्भ बिन्दु हैं। सत्य यह है कि इन्हीं चेतनाओं के आलम्बन पर यह धर्म मानव-धर्म के रूप का संधारण करने में सफल हो सका है। यही मानव धर्म अथवा कर्तव्य एक ओर अधिकार के लिये मानव की पात्रता सुनिश्चित करता है तो दूसरी ओर मानव को मानवीय अधिकार देने के लिए समाज को दायित्व बोध भी कराता है। मानव धर्म के अभाव में मानवाधिकार भी एक छद्म ही है। बौद्ध धर्म मानव को उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत करता हुआ उसे स्वावलम्बी होने का उपदेश देता है। जब शुद्ध हृदय एवं दयाभाव एक ही व्यक्ति में निहित हो जाते हैं तो वह व्यक्ति व्यक्तित्व की विराटता के कारण श्रद्धा का पात्र बनकर आराध्य बन जाता है अर्थात् परम पुण्य तत्व के अन्तर्निहित हो जाने के कारण ईश्वरीय पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है क्योंकि ईश्वर कल्पनातीत सत्ता न होकर मानवता के उच्चतम् शिखर पर सहअस्तित्व के परिवेश में सृजित मानवाधिकारों से युक्त के कारण मानव का चरम विकास ही है। बौद्ध धर्म की विचारधारा में यह आदर्श नैतिकवाद के आधार पर उन सिद्धान्तों को लेकर उठा था जो समग्र मानवता हेतु कल्याणकारी था। बुद्ध का समानव धर्म किसी एक देश या एक काल की वस्तु नहीं है वह तो सार्वकालिक व सार्वदेशिक मानव-धर्म है जो संसार के सभी मनुष्यों में नैतिकता और आचार के नियमों के रूप में सदैव से मान्य रहा है और जिससे व्यक्ति शील-सम्पन्न बनता है तथा समाज भी व्यवस्थित रूप से विकास के पथ पर अग्रसर रहता है। ___ महात्मा बुद्ध का दर्शन सार्वकालिक है जो बुद्ध के पूर्व भी भारतीय धर्म ग्रन्थों में उपस्थित था, और उसके बाद के धर्म-ग्रन्थों तथा आज के जीवन में

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