Book Title: Syadwad aur Saptabhangi Ek Chintan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन स्याद्वाद का अर्थ-विश्लेषण : “स्यात्" तथा "एव" शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। है। अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ- वस्तुत: इस प्रयोग में "एव" शब्द 'स्यात्' शब्द की अनिश्चितता को विश्लेषण आवश्यक है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी समाप्त कर देता है और "स्यात्" शब्द "एव" शब्द की निरपेक्षता एवं भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवत: उतनी अन्य किसी शब्द के एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर सम्बन्ध में नहीं। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ "शायद", कथित वस्तु-धर्म की सीमा नियत करते हुए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान “सम्भवतः", "कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में Probable, may प्रस्तुत करते हैं। अतः स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनावाद नहीं का be, perhaps, some how आदि किया गया है और इन्हीं अर्थों के जा सकता है। "वाद" शब्द का अर्थ कथनविधि है। इस प्रकार स्याद्वाद आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षिक निर्णय पद्धति का सूचक है। वह भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भो में स्यात् शब्द का एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है। किन्तु इस आधार आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चयवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही निर्णयों को इस प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष होगी। हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य “अनुक्त" अनेकानेक कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है, दूसरे अनेक धर्मों एवं सम्भावनाओं (पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुत: स्याद्वाद बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष होता है, जैसे जैन परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के रूप में एवं अहिंसक तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका होता है। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें अर्थ में ही किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने सम्बन्धी किसी भी मूलग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। संक्षेप में स्याद्वाद अपने समग्र स्यात् शब्द का जैन परम्परा में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता। स्यात् रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकान्त भी शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति उत्पन्न होती हैं, उसका मूल है। सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथनकारण उसे तिङ्न्त पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, पद्धति या वाक्य-योजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों की संभावना का अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या निषेध करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण अव्यय माना है। समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात्-यह निपात शब्द है, जो अर्थ के रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। इसी प्रकार अनेकांतवाद भी साथ संबंधित होने पर वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह अर्थ का एक विशेषण है। इसी प्रकार पंचास्तिकाय की टीका में कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के सन्दर्भो में विभिन्न अपेक्षाओं के आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते आधार पर अनेक निर्णय (कथन) दिये जा सकते हैं अर्थात् अनेकांत हैं कि 'स्यात्' एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षों की सम्भाव्यता कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है।२ . का सिद्धांत है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता है कि 'सर्वथैकान्त- प्रतिक्षेपलक्षणोजनेकांत:' अर्थात् अनेकांत मात्र का द्योतक एक अव्यय माना है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर प्रकाशक है। अनेकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है। मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सहज थे कि आलोचक या जनसाधारण स्याद्वाद के आधारः द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, . सम्भवत: यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्याद्वाद इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ "एव" शब्द के प्रयोग की योजना या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है? स्याद्वाद या भी की है, जैसे-"स्यादस्त्येव घटः" अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलत: चार कारण हैंही है। यह स्पष्ट है कि “एव" शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है। १. वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी एक चिन्तन : २. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, ३. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता तथा ४. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता । (अ) वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता : सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास करते हैं। वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त हैं, स्पर्श की दृष्टि से उसकी पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण हैं, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि आदि। यह तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल चमेली का, मोगरे का या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है। पुनः यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों (सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुंच जावेगी। अत: यह कथन सत्य है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मों, अनन्तगुणों एवं अनन्तपर्यायों का पुंज है मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुण मान लेती है वे एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते हैं । ४ अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक है। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायदृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति संभव नहीं है । पुनः उत्पत्ति और विनाश के लिए श्रीव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा ? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति नहीं है। यद्यपि प्रौव्यत्व और उत्पत्ति विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य में समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्व को उत्पाद, व्यय और प्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया। जिनोपदिष्ट यह त्रिपदी ही अनेकान्तवादी विचार पद्धति का आधार है स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धी विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है। त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित वह "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष विकसित हुआ है। यह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप की सूचक १५५ है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध प्रसंगों में किया है। उदाहरणार्थं जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन्! जीव नित्य या अनित्य है ? हे गौतम! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी है और अनित्य भी भगवन्! यह कैसे? हे गौतम! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है, पर्याय दृष्टि से अनित्य इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि हे सोमिल! द्रव्य-दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ। वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहुत ही विस्तार के साथ हुआ किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपर्युक्त एक-दो उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। है वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी धर्म- युगलों की एक साथ उपस्थिति अनुभव सिद्ध है। एक ही आम्रफल खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा) दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और पुत्रत्व के दो विरोधी गुण अपेक्षा भेद से एक ही व्यक्ति में एक ही समय में साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है। अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है अथवा एक ही वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है। जो संखिया जनसाधरण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि ( जीवन संजीवनी) भी है। अतः यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति देखी जाती है। यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म युगलों की उपस्थिति नहीं है। इस सम्बन्ध में घवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है--"यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा।" अतः यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में केवल वे ही विरोधी धर्म युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है। किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यताअनित्यता, एकत्व- अनेकत्व, अस्तित्व नास्तित्व, भेदत्व अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। आचार्य अमृतचन्द्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद से जो है, यही नहीं भी है, जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है।" वस्तु एकान्तिक न होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग-व्यवच्छेदिका में लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद् की मुद्रा से युक्त हैं, कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। १" यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य डाल देता है किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, तो हम क्या करें? . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में 'यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के व्यक्ति सापेक्ष ही होता है। वयं? पुन: हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना करना चाहते हैं, वह किन्तु मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान है क्या? जहाँ एक ओर द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय कहा को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के गया है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणों का समूह भी कहा गया है। गुण पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है और द्रव्य से पृथक् लेता है। किन्तु क्या तार्किक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है? प्रथम तो गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है। यह है वस्तु की सापेक्षितता तार्किक ज्ञान भी पूरी तरह से इन्द्रिय संवेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, और यदि वस्तुतत्त्व सापेक्षिक, अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक है, दूसरे तार्किक ज्ञान वस्तुत: एक सम्बन्धात्मक ज्ञान है। बौद्धिक चिन्तन तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष एवं एकान्तिक दृष्टि कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचार-विधाओं से घिरा से कैसे सम्भव है? इसलिए जैन-आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) हुआ है और अपनी इन विचार-विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा से सम्भव नही है।११ होगा। तर्कबुद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी सम्बन्ध (ब) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों का स्वरूप : या असम्बन्ध की ही सूचना प्रदान करत है और ऐसा सम्बन्धात्मक ज्ञान यह तो हुई वस्तु स्वरूप की बातें, किन्तु जिस वस्तु स्वरूप सम्बन्ध सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। क्योंकि सभी सम्बन्ध (Relaका ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या tions) सापेक्ष होते हैं। है, हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। मनुष्य के पास अपनी सत्याभीप्सा और (स) मानवीय ज्ञान की सीमितता एवं सापेक्षता : जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिए ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं: वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता 1. इन्द्रियाँ और 2. तर्कबद्धि। वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है। अपूर्ण के द्वारा मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं का प्रयत्न करता है। जहाँ तक मानव के ऐन्द्रिक ज्ञान का प्रश्न है, यह जा पाये हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्षा मानव इन्द्रियों की है तो वह सत्य, सत्य न रह करके असत्य बन जाता है। वस्तुतत्त्व क्षमता सीमित है, अत: वे वस्तुतत्त्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, केवल उतना ही नहीं है जितना कि हम इसे जान पा रहे हैं। मनुष्य की वह पूर्ण नहीं हो सकता है। इन्द्रियाँ वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख ऐन्द्रिक ज्ञान क्षमता एवं तर्क बुद्धि इतनी अपूर्ण है कि वह सम्पूर्ण सत्य पाने के लिए सक्षम नहीं हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। साधारण मानव-बुद्धि पूर्ण सत्य हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है वैसा नहीं जान कर उसे जिस रूप को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। अतः साधारण मानव पूर्ण सत्य में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं। हम का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। जैन-दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो इन्द्रिय संवेदनों को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं। इसका अर्थ यह नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना हुआ कि हमारा आनुभविक ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है। मात्र इतना ही नहीं, जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि "हम वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई जहाँ से वस्तु देखी जा रही है और यदि हम उस कोण (स्थिति) के पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा।१२ और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त विचार का अपने ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान ज्ञान आंशिक, अपूर्ण तथा सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई भ्रान्त हो जायेगा। उदाहरणार्थ एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे ही हमें वृत्ताकार न लग कर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों पास है। हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत का दावा नहीं कर सकता है। अत: ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का ऊपर जाकर देखते हैं तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहाँ वह हमें निषेध नहीं करते हुए अपनी बात कह सके। हम अपने ज्ञान की स्थिर प्रतीत होती है। दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं (Possibilities) को निरस्त पर बड़ी दिखाई देती हैं एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटो लिए नहीं कर सकते हैं। जाते हैं तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार हमारा सारा आनुभविक ज्ञान सापेक्ष्य ही होता है, निरपेक्ष नहीं। इन्द्रिय संवेदनों को क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है? उन सब अपेक्षाओं (Conditions) से अलग हटकर नहीं समझा जा यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सकता है, जिनमें कि वे हुए हैं। अत: ऐन्द्रिकज्ञान दिक, काल और सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अत: यह प्रश्न स्वाभाविक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन 157 रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है। इस सन्दर्भ में जैन चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाये, किन्तु निरपेक्ष कथन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं जबकि दूसरे कुछ विचारकों के किसी न किसी सन्दर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया उस सन्दर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है अन्यथा ने “स्याद्वादमंजरी" की भूमिका में सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य भ्रान्ति होने की संभावना रहती है। इसीलिए जैन-आचार्यों का कथन है बताया है। जबकि मुनि श्री नगराजजी ने “जैन दर्शन और आधुनिक कि जगत् में जो कुछ भी कहा जा सकता है, वह सब किसी विवक्षा या विज्ञान" नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने नय से गर्भित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षा रहित नहीं भर को ही निरपेक्ष है क्योंकि स्यादस्ति स्यानास्ति से परे वह भी नहीं होती है। वह सापेक्ष ही होती है। अत: वक्ता का कथन समझने के लिए है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत के ज्ञान भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है। का प्रश्न है उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके ज्ञान का पुनश्च जब वस्तुतत्त्व में अनेक विरुद्ध धर्म-युगल में रहे हुए विषय अनन्तधर्मात्मक वस्तु है। अत: सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त हैं, तो शब्दों द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें गुणों को अनन्त-अपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या क्रमिक रूप में ही कहा जा सकता है। शब्द एक समय में एक ही धर्म वैषयिक ज्ञान (Objective knowledge) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो को अभिव्यक्त कर सकता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन- का एक साथ कथन भाषा की सीमा के बाहर है। अत: किसी भी कथन आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु-मात्र स्याद्वाद में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) ही रह जायेंगे और एक की मुद्रा से अंकित हैं। किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ तक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है वह निरेपक्ष हो सकता है क्योंकि वह जावेगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन व्यवहार से श्रोता को विकल्प रहित होता है। सम्भवत: इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर कोई भ्रान्ति न हो इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित हो आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सकती है। जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिह्न 13 इसीलिए कहा है सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु परमार्थत: तो वह आत्मा को ही जानता कि वह अपेक्षा पूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य है। वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है बना देता है तथा श्रोता को कोई भ्रान्ति भी नहीं होने देता है। किन्तु उसका वस्तु-विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है। स्याद्वाद और अनेकान्त : (द) भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता और सापेक्षता : साधारणतया अनेकान्त और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते सर्वज्ञ या पूर्णज्ञ के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार हैं।१४ अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है। किन्तु फिर कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। भी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्त स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक सम्पूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता। व्यापक अर्थ का द्योतक है। जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापक-व्याप्य भाव उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह माना है। अनेकान्त व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्या अनेकान्त वाच्य है सापेक्षिक बन जाता है। क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के तो स्याद्वाद वाचक। अनेकान्त वस्तु स्वरूप है, तो स्याद्वाद उस अनेकान्तिक लिए उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा-पद्धति। अनेकान्त दर्शन है, तो है। "है" और "नहीं है" की सीमा से घिरी हुई है। अत: भाषा पूर्ण स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग। सत्य को निरपेक्षतया अभिव्यक्त नही कर सकती है। प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है, जबकि विभज्जवाद और स्याद्वाद : मानवीय भाषा की शब्द संख्या सीमित है। जितने वस्तु-धर्म हैं, उतने विभज्जवाद स्याद्वाद का ही एक अन्य पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती शब्द नहीं हैं। अत: अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रहेंगे ही। पुनः मानव है। सूत्रकृतांग में महावीर ने भिक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि की जितनी अनुभूतियाँ हैं, उन सबके लिए भी भाषा में पृथक-पृथक् वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें।१५ इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने शब्द नहीं हैं। हम गुड़, शक्कर, आम आदि की मिठास को भाषा में भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणवक! मैं पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति नहीं कर सकते क्योंकि सभी की मिठास के विभज्जवादी हूँ, एकान्तवादी नहीं। विभज्जवाद वह सिद्धान्त है, जो लिए अलग-अलग शब्द नहीं हैं। आचार्य नेमिचन्द्र 'गोम्मटसार' में प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है। जब बुद्ध से यह पूछा गया कि लिखते हैं कि हमारे अनुभूत भावों को केवल अनन्तवाँ भाग ही गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मटसार, जीवकाण्ड 334) / सकते। किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आराधक हो सकते हैं।१६ इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। पूछा कि सोना अच्छा है या जागना, तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और सप्तभंगी : धर्मात्माओं का जागना।१७ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है। प्रश्नों के को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा है। "है" और "नहीं है" हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं। किन्तु कभीवस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है" (विधि) और "नहीं है" विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है। बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं। अर्थात् सीमित ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रकट करने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प "अवाच्य" या शून्यवाद और स्याद्वाद:१८ "अवक्तव्य" का सहारा लेते हैं, अर्थात् शब्दों के माध्यम से "है" और भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-इन दोनों को “नहीं है" की भाषायी सीमा में बाँधकर उसे कहा नहीं जा सकता है। अस्वीकार किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा। जबकि भगवान् इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत रूप से स्वीकृत विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।१९ सप्तभंगी में स्यात् करके एक विधिमार्ग अपनाया। भगवान् बुद्ध की परम्परा में विकसित अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य-ये तीन असंयोगी मौलिक शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित स्याद्वाद दोनों का ही लक्ष्य भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् एकान्तिक दार्शनिक विचारधाराओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य और स्यात् नास्ति-अवक्तव्यों ये इतना ही है कि जहां शून्यवाद एक निषेधप्रधान दृष्टि है वहीं स्याद्वाद तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात-अस्ति-नास्ति-अव्यक्तव्य, यह त्रिसंयोगी में एक विधायक दृष्टि है। शून्यवाद जो बात संवृति सत्य और परमार्थ भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य, सत्य के रूप में कहता है, वही बात जैन दार्शनिक व्यवहार और निश्चय इन तीन ही रूप- में होती है। अत: उससे तीन ही मौलिक भंग बनते नय के आधार पर प्रतिपादित करता है। शून्यवाद और स्याद्वाद में हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणितशास्त्र के संयोग नियम मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है। शून्यवाद अपने निष्कर्षों (Law of Combination) के आधार पर सात भंग ही बनते हैं, न में निषेधात्मक है और स्याद्वाद विधानात्मक है। शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण कम न अधिक। अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए तार्किक विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं यह कहा है कि जिज्ञासा और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् के हो सकते हैं। अत: जैन-आचार्यों की सप्तभंगी की यह व्यवस्था नहीं है। जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत निर्मल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को लेकर एककरता है कि वस्तुशाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ तो बनाई जा. सकी है, सत् भी है, असत् भी है। एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और हैं किन्तु अनन्तभंगी नहीं। श्वेताम्बर आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं। इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता स्कन्ध के संबंध में जो 23 भंगों की योजना है, वह वचन-भेद-कृत में शून्यवाद द्वारा प्रस्तुत शून्यता-शून्यता की धारणा और स्याद्वाद द्वारा संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही है।२० पंचास्तिकाय प्रस्तुत अनेकान्त की अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य और प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेष है। किन्तु जहाँ शून्यवादी उस दोष के भय से एकान्त को अस्वीकार परवर्ती साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं। अतः विद्वानों को इन भ्रमों करता है, वहीं स्याद्वादी, उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस सदोष का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों एकान्त को निर्दोष बना देता है। दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है तो अनन्त भंगी भी हो सकती हैं अथवा आगमों में सात भंग नहीं है। वह अपनी निषेधात्मक और विधेयात्मक दृष्टियों का ही है। शून्यवाद सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। का वस्तुतत्त्व जहाँ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य है, वहीं जैन दर्शन का सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के एक ही है। इन दोनों की विभिन्नता तो उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो तार्किक आकार (Logical forms) हैं,उसमें स्यात् शब्द कथन की कि वैचारिक आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक महावीर ने प्रस्तुत की थी। बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिणाम (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। शून्यवाद था तो महावीर के विधानात्मक दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद। कुछ जैन विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को इस सम्बन्ध में आदरणीय दलसुखभाई का लेख 'शून्यवाद और स्याद्वाद' अभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन 159 अवक्तव्यच अथवा मान्य नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप अउ वि है. (अ)- 3 है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अत: हमें यह स्पष्ट रूप से जान अवक्तव्य है लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन स्यात् नास्ति च अरेउ वि नहीं है. यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते नहीं हैं, अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन (अ.अ)-3 है तो आत्या नित्य नहीं है किन्तु यदि प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख अवक्तव्य है अनन्त अपेक्षा की दृष्टि से विचार करते है तो आत्मा अवक्तव्य है। आवश्यक है। जैसे स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की (अ)53 वि नहीं है. अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (अ)4-3 अवक्तव्य है (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा है, तो स्यात् अस्ति च, अवि है. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार करते है तो हमारा कथन भ्रम पूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के नास्ति च अरेवि नहीं है. आत्मा नित्य है और यदि पर्याय दृष्टि से अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को अवक्तव्य च (अ) अवक्तव्य है विचार करते है तो आत्मा नित्य नहीं है अथवा किन्तु यदि अपनी अनन्त अपेक्षाओं की जन्म देते हैं। जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के उवि है. दृष्टि से विचार करते है तो आत्मा अवक्तव्य प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक अरेवि नहीं है. (अ.अ)-3 अवक्तव्य है भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से का उल्लेख किया है किन्त जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और बचने के लिए उसे निम्न सकितिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। भाव ऐसी चार अपेक्षाएँ मानी हैं. उसमें भी भाव-अपेक्षा व्यापक है सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों उसमें वस्तको अवस्थाओं पर्थयों गणों दोनों पर विचार किया का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है: जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें अर्थ तो ये अपेक्षाएँ भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। यदि- तो (हेतुफलाश्रित कथन) अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा अपेक्षा (दृष्टिकोण) सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव नहीं है। संयोजन (और) इस सप्तभंगी का प्रथम भंग "स्याद् अस्ति" है। यह स्वचतुष्टय युगपत् (एकसाथ) को अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। अनन्तत्व जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा व्याघातक से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का उद्देश्य बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का विधेय है या घटाकार है आदि। इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात् अस्ति अउ वि है यदि द्रव्यकी अपेक्षा से विचार 'अस्ति' नामक भंग का कार्य है। दूसरा स्यात् “नास्ति' नामक भंग करते हैं तो आत्मा नित्य है। वस्तुतत्त्व के अभावात्मक धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व स्यात् नास्ति की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न परअरेउ वि नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर से बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का स्याद् अस्ति नास्ति च अउ वि~है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार नहीं है आदि। मात्र इतना ही नहीं यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता .. अरे - उ वि नहीं है करते हैं तो आत्मा नित्य है और है कि घड़ा, पुस्तक, टेबल, कलम, मनुष्य आदि नहीं है। जहाँ प्रथम यदि पर्याय की अपेक्षा हे विचार करते है तो आत्मा नित्य नहीं है। भंग यह कहता है कि घड़ा घड़ा ही है, वहाँ दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि “सर्वमस्ति (अ.अ) 23 यदि द्रव्य और पर्याय दोनों की अपेक्षा से एक साथ विचार करते है तो आत्मा स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च" अर्थात् सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप अवक्तव्य है। (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न से है पररूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गुण धर्मों की सत्ता अपेक्षाओं से दो अलग-अलग कथन हो सकते है किन्तु एक कथन नहीं हो सकता) भी मान ली जायेगी तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अत: वस्तु में स्यात् अस्ति च 153 वि है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते है (अ.अरे)य 3) तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि आत्मा पर-चतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि अवक्तव्य है की द्रव्य पर्याय दोनों या अनन्त की दृष्टि / से विचार करते है तो आत्मा अवक्तव्य है। वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है। pn .+8 104 स्याद् अवक्तव्य अवक्तव्य अवक्तव्य च अथवा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 160 सामान्यतया इस द्वितीय भंग को "स्यात् नास्ति घटः" अर्थात् किसी नहीं, अपितु घट में पर द्रव्यादि का निषेध करना चाहते हैं। वे कहना अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इसके यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं हैं, प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से किन्तु स्मरण रखना होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो अपेक्षा नहीं बदली है। यदि प्रथम भंग से यह कहा जावे कि घड़ा मिट्टी विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्मा विरोधी कथन दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। अपेक्षा से हैं। अब दूसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, शंकर प्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल उसका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। ‘स्यात् अस्ति घटः' और 'स्यात् जाती है। यहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया नास्ति घटः' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया है। द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न-भिन्न हैं। दूसरे यह जाता है तो आत्म-विरोध का आभास होने लगता है। जहाँ तक मैं कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी आचार्य की नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योंकि दृष्टि में द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म परचतुष्टय वस्तु की सत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। वस्तु में का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में परचतुष्टय अर्थात् स्व-भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अभाव तो अस्ति रूप माने गये गुण धर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है होता है किन्तु उनकी अपेक्षा वस्तु का अभाव नहीं होता है। क्या यह अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता कहना कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की अपेक्षा यह है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पुष्ट करता है, घड़ा नहीं है, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग हैं? इस कथन में जैनाचार्यों का खण्डित नहीं। यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग आशय तो यही है कि टेबल कुसी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं है। का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय ही यह सिद्धान्त अत: परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, यह कहने की अपेक्षा यह संशयवाद या आत्म विरोध के दोषों से ग्रसित हो जावेगा, किन्तु ऐसा कहना कि वस्तु में परचतुष्टय का अभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग नहीं है। यदि प्रथम भंग में 'स्यादस्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से होगा। विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप से घड़ा है ही और द्वितीय भंग में “स्यान्नास्त्येव घटः" का अर्थ किसी द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके अपेक्षा से घड़ा ही नहीं है ऐसा करेंगे तो आभास होगा कि दोनों कथन आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के विरोधी हैं। क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता सन्दर्भ में उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को ही सूचित उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के किया गया हैं। जबकि जैन-आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अत: यहाँ द्वितीय भंग के विविध उनमें प्रयुक्त “स्यात्" शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि में भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है। दोनों भंगों में घट द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं: के सम्बन्ध में जिनका विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व। पुनः दोनों भंगों अर्थ (1) प्रथम भंग- अ उ वि है (1) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान के “अपेक्षाश्रित धर्म" एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन न द्वितीय भंग-अरे - 3 नहीं है किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् पर-चतुष्टय के हैं। में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। अत: प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्म जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदृष्टि विरोध नहीं है। मेरी दृष्टि में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में से घड़ा नित्य नहीं है। उस विधेय पद (Predicate) के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, (2) प्रथम भंग- अ उ वि है (2) प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है। यदि "नास्ति' पद को द्वितीय भंग-अ - वि है गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में विधेय स्थानीय माना जाता है तो पुन: यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है? यदि यह है। जैसे द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। (3) प्रथम भंग-अ उ वि है. (3) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने कहा जाये कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, तो पर द्रव्यादि। क्षा से घट नहीं है, ता पर द्रव्याद द्वितीय भंग-अरेविन्द हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकते हैं? विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध यद्यपि यहाँ पूर्वाचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का कर देना। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन 161 जैसे-रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली है। अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया हैरंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है। (1) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतना के कारण की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्षों का निषेध है। अपने स्वरूप की दृष्टि आत्मा अचेतन नहीं (2) दूसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें सत, असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसेअथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है। ही “तदेजति तन्नेजति" "अणोरणीयान् महतो महीयान" आदि। यहाँ दोनों तदजात तन्नजात "अणारणायान् महता महायान" उपादान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का नहीं पक्षों की स्वीकृति है। (3) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य (4) प्रथम भंग-अ उ है (4) जब प्रतिपादित कथन देश या काल या या अनिर्वचनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही द्वितीय भंग-अ उ नहीं है दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश-काल आदि की अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रति मिलता है उसे “यतो वाचो निवर्तन्ते", "यद्वाचानभ्युदितं, नैव वाचा न पादित कथन का निषेध कर देना। मनसा प्राप्तुं शक्योः " आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की जैसे-२७ नवम्बर की अपेक्षा मैं यहाँ पर हूँ। चतष्टकोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की अवधारणा में भी बहुत कुछ इसी 20 नवम्बर की अपेक्षा मैं यहाँ पर नहीं था। दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। द्वितीय भंग के उपर्युक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप (4) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहाँ प्रथम सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है। रूप में एक ही धर्म का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषेध सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैंहोता है वहाँ दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग-अलग रूप में दो विरुद्ध (1) सत् व असत् दोनों का निषेध करना। धर्मों का विधान होता है। प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब (2) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना। वस्तु में एक ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और कभी (3) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत् न असत् उपस्थित नहीं रहे। इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल (अनुभय) चारों का निषेध करना। का होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हो। तीसरा (4) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना, अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभव में तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा रूप तब बनता है, जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म सकता। की उपस्थिति ही न हो। चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जब (5) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार कि हमारे प्रतिपादन में विधेय.का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो। द्वितीय करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण भंग के पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) अवक्तव्य कहना। वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में (6) वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक होता है। उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है। अत: वाचक शब्दों के तृतीय रूप में अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका अभाव के कारण उसे अंशत: वाच्य और अंशत: अवाच्य मानना। विरुद्ध या विपरीत पद रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता यहाँ यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन विचार है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन परम्परा में इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यता का निषेध कर दिया जाता है। जैन परम्परा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं * सप्तभंगी का तीसरा मौलिक भंग अवक्तव्य है अत: यह रहे हैं। उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत् दोनों का युगपत् विचारणीय है कि इस भंग की योजना का उद्देश्य क्या है? सामान्यतया / विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है; किन्तु यह माना जाता है कि वस्तु में एक ही समय में रहते हुए सत्-असत्, यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध धर्मों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रतिपादन अन्तिम नहीं कहा जा सकता। आचारांगसूत्र में आत्मा के स्वरूप को करने वाला कोई शब्द नहीं है। अत: विरुद्ध धर्मों की एक साथ जिस रूप में वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है। वहाँ कहा अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्य भंग की योजना गया है कि 'आत्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नहीं है। नहीं है। वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहाँ यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहँच नहीं है, (मति) उसे उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डॉ० पद्यराजे ने अवक्तव्य के Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 162 ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र: विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्यूसाइविकनकी है क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, सत्तावान् है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके।"२१ इसे देखते सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं। इसी संदर्भ में डॉ० एस०एस० हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी बारलिंगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है। पुनः वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता की एक गोष्ठी में किया था। यद्यपि जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के और शब्दसंख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व को अवक्तव्य सिद्धांत का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता हैं क्योंकि जैन माना गया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्य भाव का न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावितसत्य और दुर्नय असत्यता के अनन्तवाँ भाग ही कथन किया जाने योग्य है।२२ अत: यह मान लेना परिचायक हैं। पुन: जैन दर्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य ऐसे उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश (सुनिश्चित मान्य है। सत्य या पूर्ण सत्य) कहा है। नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और और न असत्य। अत: सत्य और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि छठे अर्थ मान्य रहे हैं। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है। पुनः वस्तुतत्त्व अव्यक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्य की अनन्तधर्मात्मकता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित सत्यता के को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व समर्थक हैं क्योंकि वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है। को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उस कथित सत्यता के अतिरिक्त यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है। लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई अर्थ ही नहीं इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता रह जायेगा। अत: जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Three valued logic) या बहुमूल्यात्मक भी है। सत्ता अंशत: निर्वचनीय है और अंशत: अनिर्वचनीय। क्योंकि तर्कशास्त्र (Many valuedlogic) का समर्थक माना जा सकता है यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा है। इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पाँच अर्थों में से पहले दो को छोड़कर सकता, क्योंकि उसमें नास्तिर नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है। मेरी दृष्टि में क्रमश: असत्य एवं अनियतता (Indeterminate) के सूचक नहीं हैं। अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो “है" और "नहीं सप्तभंगी का प्रत्येक भंग सत्य-मूल्य का सूचक है यद्यपि जैन विचारकों है" ऐसे विधि-प्रतिषेध का युगपद् (एक साथ) प्रतिपादन सम्भव नहीं ने प्रमाण-सप्तभंगी और नय-सप्तभंगी के रूप में सप्तभंगी के जो दो है, अत: अवक्तव्य भंग की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व रूप माने हैं, उसके आधार पर यहाँ कहा जा सकता है कि प्रमाणका कथन सम्भव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएँ सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चित सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं। असत्य का वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना सूचक तो केवल दुर्नय ही है। अत: सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है। होगा। इसके निम्न तीन प्रारूप हैं किन्तु मेरे शिष्य डॉ भिखारी राम यादव ने अपने प्रस्तुत (1) (अ.अ)यु उ अवक्तव्य है, शोध निबन्ध में अत्यन्त श्रमपूर्वक सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक सिद्ध (2) अ. उ अवक्तव्य है, किया है और अपने पक्ष के समर्थन में समकालीन पाश्चात्य तर्कशास्त्र (3) (अ) उ अवक्तव्य है। के प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। आशा है विद्वज्जन उनके इस प्रयास का सप्तभंगी के शेष चारों भंग संयोगिक हैं। विचार की स्पष्ट सम्यक् मूल्यांकन करेंगे। आज मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरे ही अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना शिष्य ने चिन्तन के क्षेत्र में मुझसे एक कदम आगे रखा है। हम गुरुकोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा शिष्य में कौन सत्य है या असत्य है यह विवाद हो सकता है यह को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। अतः निर्णय तो पाठकों को करना है; किन्तु अनेकान्त शैली में अपेक्षाभेद से इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है। दोनों भी सत्य हो सकते हैं। वैसे शास्त्रकारों ने कहा है कि शिष्य से पराजय गुरु के लिए परम आनन्द का विषय होता है क्योंकि वह उसके Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन जीवन की सार्थकता का अवसर है। से कहा था-हे गौतम तेरा मेरे प्रति जो ममत्व है वही तेरे केवलज्ञान (सत्य दर्शन) का बाधक है। महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का स्याद्वाद का लक्ष्य-एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास : सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता। आग्रहबुद्धि (अ) दार्शनिक विचारों के समन्वय का आधार स्याद्वाद : या दृष्टिराग सत्य को असत्य बना देता है। सत्य का प्रगटन आग्रह में भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष नहीं, अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं, समन्वय में होता है। सत्य और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था। जैन आगमों के का साधक अनाग्रही और वीतरागी होता है, उपाध्याय यशोविजयजी अनुसार उस समय 363 और बौद्ध आगमों के अनुसार 62 दार्शनिक स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को स्पष्ट करते हुए मत प्रचलित थे। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक अध्यात्मसार में लिखते हैंऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो विवादों से ऊपर उठने के लिए यस्य सर्वत्र समता नयेषु, तनयेष्विव, दिशा निर्देश दे सके। भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्मुखता को अपनाया। सुत्तनिपात में वे तेन स्याद्वामालंव्य सर्वदर्शन तुल्यताम् / कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ। एक तो वह अपूर्ण व मोक्षोदेविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित् / / एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिद्ध्यति / अत: निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिश वल्गनम् / / पड़े।२३ बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभी पर विरोधी दार्शनिक माध्यस्थसहितं होकपदज्ञानमापि प्रमा। दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चौक्तं महात्मना / / दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बाँधा। वे कहते हैं पंडित किसी दृष्टि या -अध्यात्मोपनिषद्, 61,70-72 वाद में नहीं पड़ता।२४ बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वादविवाद निर्वाण सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं। अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवाद सम्पूर्ण दृष्टिकोण (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता।२५ इसी प्रकार जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव जो लोग अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही रखता है। वास्तव में माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में घूमते रहते हैं।२६ इस प्रकार धर्मवाद है। मध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद पर ज्ञान भी सफल भगवान् महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं है। अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहाँ आग्रह मतान्धता से जन मानस को मुक्त करना चाहते थे फिर भी बुद्ध और बुद्धि होती है वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता। महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था। जहाँ बुद्ध इन विवादों से बचने वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है। पुरुषार्थवाद, आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकान्तवादों में समन्वय करने का सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गये चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में नित्यवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, भेदवाद- सत्य हैं द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों अभेदवाद आदि सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। में समन्वय किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। यदि दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। इनको कोई असत्य बनाता है तो वह आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान परमयोगी आनन्दघनजी लिखते है-लेने का उनका आग्रह ही है। स्याद्वाद अपेक्षा भेद में इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी घट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय घडंग जो साधे रे / असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। यदि नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे / / 1 / / हमारी दृष्टि अपने को आग्रह के ऊपर उठाकर देखे तो हमें सत्य का जिन सुर पादप पाय बखाणं, सांख्य जोग दोय भेदे रे / दर्शन हो सकता हैं। सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे / / 2 / / मिल सकता है। महावीर के प्रथम शिष्य गौतम का जीवन स्वयं इसका भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे। एक प्रत्यक्ष साक्ष्य है। गौतम के केवल- ज्ञान में आखिर कौन सा तत्त्व लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे / / 3 / / बाधक बन रहा था। महावीर ने स्वयं इसका समाधान करते हुए गौतम लोकायतिक सुख कूख जिनवरकी, अंश विचार जो कीजे / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 164 तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम बिण केम पीजे / / 4 / / (स) अनेकांत धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में : जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। सभी धर्म साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अक्षर न्यास घरा आराधक, आराधे घरी संगे रे।।५।। अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता है, तो बौद्ध धर्म की साधना लक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया (ब) राजनैतिक क्षेत्र में स्याद्वाद के सिद्धान्त का उपयोग: है। वहीं वेदान्त में अहं और आसक्ति से ऊपर उठना ही मानव का अनेकान्त का सिद्धान्त न केवल दार्शनिक अपितु राजनैतिक साध्य बताया गया है। लेकिन क्या एकांत या आग्रह वैचारिकराग, विवाद भी हल करता है। आज का राजनैतिक जगत् भी वैचारिक वैचारिक आसक्ति, वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं के ही रूप संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नहीं हैं और जब तक वे उपस्थित हैं धार्मिक साधना के क्षेत्र में लक्ष्य नाजीवाद आज अनेक राजनैतिक विचारधाराएँ तथा राजतन्त्र, कुलतन्त्र, की सिद्धि कैसे होगी? जिन साधना पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को अधिनायक तन्त्र, आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित स्वीकार किया गया उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक हिंसा का हैं। मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर साधना के वैयक्तिक पहलू की दृष्टि प्रत्यनशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है तो दूसरी ओर अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। साधना के समाजिक पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक हिंसा है। वैचारिक मुख्य बात यह है कि आज का राजनैतिक संघर्ष आर्थिक हितों का आसक्ति और वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह संघर्ष. न होकर वैचारिक संघर्ष है। आज अमेरिका और रूस अपनी और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः धर्म का आविर्भाव वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिये ही प्रतिस्पर्धा में लगे मानव जाति में शांति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआ था। धर्म हुए हैं। एक दूसरे को नाम-शेष करने की उनकी यह महत्त्वाकांक्षा कहीं मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था लेकिन आज वही धर्म मनुष्यमानव जाति को ही नाम शेष न कर दे। मनुष्य में विभेद की दीवारें खींच रहा है धार्मिक मतान्धता में हिंसा, आज के राजनैतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक संघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है? क्या फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय हैं। वस्तुत: इसका कारण धर्म हो सकता है? इसका उत्तर निश्चित रूप से मानव जाति ने राजनैतिक जगत् में, राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में 'धर्म' नहीं किन्तु धर्म का जो लम्बी यात्रा तय की है उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को आवरण डाल कर मानव की महत्त्वाकांक्षा, उसका अहंकार ही यह सब अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्मका नकाब डाले अधर्म है। प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते हैं? दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनैतिक जीवन की सबसे इस प्रश्न का उत्तर अनेकांतिक शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो और अनेक भी। साध्यात्मक धर्म या धर्मों का साध्य एक है जबकि सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने साधनात्मक धर्म अनेक हैं। साध्य रूप में धर्मों की एकता और साधना दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार-दृष्टि रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों और सहिष्णु भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल रह का साध्य है, समत्व लाभ (समाधि) अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र (पार्लियामेन्टरी शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और डेमोक्रेसी) वस्तुतः राजनैतिक स्याद्वाद है। इस परम्परा में बहुमत अस्मिता (अहंकार) का निराकरण। लेकिन राग-द्वेष और अस्मिता के दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने विचार प्रस्तुत निराकरण के उपाय क्या हों? यहीं विचार-भेद प्रारम्भ होता है, लेकिन करने का अधिकार मान्य करती है और यथा सम्भव उससे लाभ यह विचार-भेद विरोध का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की भी उठाती है। दार्शनिक क्षेत्र में जहाँ भारत स्याद्वाद का सर्जक है, ओर उन्मुख होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही वहीं वह राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र का समर्थक भी है। केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न रेखाओं में अतः आज स्याद्वाद सिद्धान्त को व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। इसी प्रकार हमें यह भी है। क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक दूसरे को काटने की समझना है कि राज्य-व्यवस्था का मूल लक्ष्य जनकल्याण है। अतः क्षमता नहीं होती है किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है वह जन कल्याण को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं दूसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है। साध्य एकता में ही साधना के मध्य एक सांग संतुलन स्थापित करना है। आवश्यकता सैद्धांतिक रूप धर्मों की अनेकता स्थित है। यदि धर्मों का साध्य एक है तो उनमें विवादों की नहीं अपितु जनहित से संरक्षण एवं मानव की पाशविक विरोध कैसा? अनेकान्त, धर्मों की साध्यपरक मूलभूत एकता और वृत्तियों के नियन्त्रण की है। साधना परक अनेकता को इंगित करता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन 165 विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक करने का प्रयास हो सकता है। लेकिन इनके लिए प्राथमिक आवश्यकता परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्तों एवं साधनों के बाह्य है धार्मिक सहिष्णुता और सर्व धर्म समभाव की। नियमों का प्रतिपादन किया। देशकालगत परिस्थितियों और साधक की अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म साधना के बाह्य रूपों परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक सहिष्णुता तो सर्व विदित में विभिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी। ही है। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, किन्तु मनुष्य को अपने धर्माचार्य के प्रति ममता (रागात्मकता) और न्याय दर्शन के ईश्वर कर्तृत्ववाद और वेदान्त के सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने अपने-अपने धर्म या में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रन्थ लोकतत्त्व संग्रह में साधना पद्धति को ही एक मात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य आचार्य हरिभद्र लिखते हैं:किया। फलस्वरूप विभिन्न धर्मिक सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिक पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। वैमनस्य का प्रारम्भ हुआ। मुनिश्री नेमीचन्द्रजी ने धर्म सम्प्रदायों के युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।। उद्भव की एक सजीव व्याख्या प्रस्तुत की है, वे लिखते हैं कि 'मनुष्य मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि स्वभाव बड़ा विचित्र है उसके अहं को जरा सी चोट लगते ही वह मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना अपना अखाड़ा अलग बनाने को तैयार हो सकता है। यद्यपि वैयक्तिक चाहिए। अहं धर्म-सम्प्रदायों के निर्माण का एक कारण अवश्य है लेकिन वही इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते एक मात्र कारण नहीं है। बौद्धिक भिन्नता और देशकालगत तथ्य भी समय सर्व देव समभाव का परिचय देते हुा कहा था:इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में भववीजांकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य / आयी हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी सम्प्रदाय बने। उनके ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै / / अनुसार सम्प्रदाय बनने के निम्न कारण हो सकते हैं: संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं (1) ईर्ष्या के कारण (2) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की उसे, मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या लिप्सा के कारण (3) किसी वैचारिक मतभेद (मताग्रह) के कारण (4) जिन हों। किसी आचार संबंधी नियमोपनियम में भेद के कारण (5) किसी व्यक्ति या पूर्व सम्प्रदाय द्वारा अपमान या खींचतान होने के कारण (6) किसी (द) पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद दृष्टि का उपयोग : विशेष सत्य को प्राप्त करने की दृष्टि से (7) किसी साम्प्रदायिक कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में परम्परा या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपर्युक्त कारणों में अंतिम दो को छोड़कर निर्माण करेगा। सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र शेष सभी कारणों से उत्पन्न सम्पद्राय आग्रह, धार्मिक असहिष्णुता और होते हैं- पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल कारण साम्प्रदायिक विद्वेष को जन्म देते हैं। दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों विश्व इतिहास का अध्येता इसे भलीभांति जानता है कि के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये। आश्चर्य तो यह मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्त प्लावन को धर्म का की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। एक बाना पहनाया गया। शान्ति प्रदाता धर्म ही अशांति का कारण बना। प्राचीन संस्कारों से ग्रसित होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण उपर्युक्त भी चाहता है। है। यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है होती है किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो उसमें भी कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में किया था, एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं। जब कि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से अनेकांत विचार-दृष्टि विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है क्योंकि वैयक्तिक रुचि भेद एवं भी होती है कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जिये, जैसा वह अपने क्षमता भेद तथा देश काल गत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत स्वसुर पक्ष उससे एक विचार- सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण सम्प्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक नहीं अपितु अशांति और बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित वस्तुत: इसके मूल में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक् Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 166 प्रकार जाना जा सकता है। किसी धारणा पर स्थित हो, उसके द्वारा वह संसार में विवाद उत्पन्न वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई करता है, जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कलह नहीं करता।२९ कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे मैं विवाद के फल बताता हूँ। एक, यह अपूर्ण या एकांगी सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। पिता-पुत्र से जिस बात की होता है; दूसरे, वह विग्रह या अशान्ति का कारण होता है। निर्वाण को अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर निर्विवाद भूमि समझने वाले यह भी देखकर विवाद न करें। साधारण विचार कर ले। अधिकारी कर्मचारी से किस ढंग से काम लेना चाहता मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं, पण्डित इन सब में नहीं पड़ता। दृष्टि है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले। और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्तिरहित वह क्या ग्रहण करें। यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में लोक व्यवहार असम्भव है (लोग) अपने धर्म को परिपूर्ण बताते हैं और दूसरे के धर्म को हीन और जिस आधार पर अनेकान्तवाद जगद्गुरु होने का दावा करता है। बताते हैं। इस प्रकार भिन्न मत वाले ही विवाद करते हैं और अपनी कहा है धारणा को सत्य बताते हैं। यदि कोई दूसरे की अवज्ञा (निन्दा) करके जेण विणा वि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वडई। हीन हो जाय तो धर्मों में श्रेष्ठ नहीं होता। जो किसी वाद में आसक्त है, तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स / / वह शुद्धि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह किसी दृष्टि को मानता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के विवेकी ब्राह्मण तृष्णा-दृष्टि में नहीं पड़ता। वह तृष्णा-दृष्टि का अनुसरण सिद्धान्त दार्शनिक धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक नहीं करता। मुनि इस संसार में ग्रन्थियों को छोड़कर वादियों में जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते पक्षपाती नहीं होता। अशान्तों में शान्त वह जिसे अन्य लोग ग्रहण हैं जिससे मानव जाति को संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती करते हैं उसकी अपेक्षा करता है। बाद में अनासक्त दृष्टियों से पूर्ण रूप है। संक्षेप में अनेकान्त विचार-पद्धति के व्यावहारिक क्षेत्र में तीन प्रमुख से मुक्त वह धीर संसार में लिप्त नहीं होता। जो कुछ दृष्टि, श्रुति या योगदान हैं विचार है, उन सब पर वह विजयी है। पूर्ण रूप से मुक्त, मार-त्यक्त वह (1) विवाद पराङ्मुखता या वैचारिक संघर्ष का निराकरण। संस्कार, उपरति तथा तृष्णा रहित है।३० (2) वैचारिक सहिष्णुता या वैचारिक अनाग्रह (विपक्ष में इतना ही नहीं, बुद्ध सदाचरण और आध्यात्मिक विकास के निहित सत्य का दर्शन)। क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह-वृत्ति को (3) वैचारिक समन्वय और एक उदार एवं व्यापक दृष्टि का अनुपयुक्त समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्माण। निर्वाण-मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है। यह तो मल्लविद्या है राजभोजन से पुष्ट पहलवान के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों बौद्ध आचार-दर्शन में वैचारिक अनाग्रह : के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रहा। जो बौद्ध आचारदर्शन में मध्यम मार्ग की धारणा अनेकान्तवाद किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते हैं और अपने मत को सत्य की विचारसरणी का ही एक रूप है। इसी मध्यम मार्ग के वैचारिक क्षेत्र बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ में अनाग्रह की धारणा का विकास हुआ है। बौद्ध विचारकों ने भी सत्य बहस करने को यहाँ कोई नहीं है।३१ इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध को अनेक पहलुओं से युक्त देखा और यह माना कि सत्य को अनेक * ने भी महावीर के समान ही दृष्टि राग को अनुपयुक्त माना है और पहलुओं के साथ देखना ही विद्वत्ता है। थेरगाथा में कहा गया है कि जो बताया कि सत्य का सम्पूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहाँ सारी दृष्टियाँ सत्य का एक ही पहलू देखता है, वह मूर्ख है।२७ पण्डित तो सत्य को शून्य हो जाती हैं यह भी एक विचित्र संयोग है कि महावीर के सौ (अनेक) पहलुओं से देखता है। वैचारिक आग्रह और विवाद का अन्तेवासी इन्द्रभूति के समान ही बुद्ध के अन्तेवासी आनन्द को भी जन्म एकांगी दृष्टिकोण से होता है, एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् पद प्राप्त नहीं हो सका। सम्भवत: यहाँ हैं और विवाद में उलझते हैं।२८ भी यही मानना होगा कि शास्ता के प्रति आनन्द का जो दृष्टिराग था, बौद्ध विचारधारा के अनुसार आग्रह, पक्ष या एकांगीदृष्टि- वही उसके अर्हत् होने में बाधा था। इस सम्बन्ध में दोनों धर्मों के राग में रत होता है। वह जगत् में कलह और विवाद का सृजन करता निष्कर्ष समान प्रतीत होते है। है और स्वयं भी आसक्ति के कारण बन्धन में पड़ा रहता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टि, पक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न गीता में अनाग्रह: तो विवाद में पड़ता है और न बन्धन में। बुद्ध के निम्न शब्द बड़े वैदिक परम्परा में भी अनाग्रह का समुचित महत्त्व और स्थान मर्मस्पर्शी हैं, जो अपनी दृष्टि से दृढ़ाग्रही हो दूसरे को मूर्ख और है। गीता के अनुसार आग्रह की वृत्ति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते हैं अशुद्ध बतानेवाला होता है वह स्वयं कलह का आह्वान करता है। कि आसुरी स्वभाव के लोग दम्भ, मान और मद से युक्त होकर किसी क्षेत्र म की वृत्ति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते है Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन 167 प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय ले अज्ञान से मिथ्या आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हो संसार में प्रवृत्ति एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियाँ या धार्मिक सम्प्रदाय करते रहते हैं।३२ इतना ही नहीं, आग्रह का प्रत्यय तप, ज्ञान और उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक धारणा सभी को विकृत कर देता है। गीता में आग्रहयुक्त तप को और सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुये हैं तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने आग्रहयुक्त धारणा को तामस कहा है।३३ आचार्य शंकर तो जैन परम्परा को किसी एक निष्ठा से सम्बन्धित कर गुट बना रहे हैं और इस प्रकार के समान वैचारिक आग्रह को मुक्ति में बाधक मानते हैं। विवेकचूड़ामणि विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना में वे कहते हैं कि विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिता, ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन शास्त्र-व्याख्यान की पटुता और विद्वत्ता यह सब राग का ही कारण हो को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के सकते हैं, मोक्ष का नहीं।३४ शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक कारण आज समाज और पारिवार का वातावरण भी अशान्त और महान् वन है। वह चित्तभ्रान्ति का ही कारण है।३५ आचार्य विभिन्न मत- कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक मतान्तरों से युक्त शास्त्राध्ययन को भी निरर्थक मानते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो लोगों को आग्रह और मतान्धता यदि परमतत्त्व का अनुभव नहीं किया तो शास्त्राध्ययन निष्फल है और से ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे सके। भगवान बुद्ध और यदि परमत्त्व का ज्ञान हो गया तो शास्त्राध्ययन अनावश्यक है।३६ इस भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शंकर की दृष्टि में वैचारिक आग्रह या की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया दार्शनिक मान्यताएँ आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं था। वर्तमान में भी धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन में जो रखती। वैदिक नीति-वेत्ता शुक्राचार्य आग्रह को अनुचित और मूर्खता वैचारिक संघर्ष और तनाव उपस्थित हैं उनका सम्यक् समाधान इन्हीं का कारण मानते हुए कहते हैं कि अत्यन्त आग्रह नहीं करना चाहिए महापुरुषों की विचारसरणी द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार क्योंकि अति सब जगह नाश का कारण है। अत्यन्त दान से दरिद्रता, करना होगा कि बुद्ध और महावीर की अनाग्रह दृष्टि द्वारा किस प्रकार अत्यन्त लोभ से तिरस्कार और अत्यन्त आग्रह से मनुष्य की मूर्खता धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक सहिष्णुता को विकसित किया जा परिलक्षित होती है।३७ वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने भी वैचारिक सकता है। आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया। वस्तुतः आग्रह सत्य का होना चाहिए, विचारों संदर्भ:का नहीं। सत्य का आग्रह तभी तो हो सकता है जब हम अपने वैचारिक 1. वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्। आग्रहों से ऊपर उठे। महात्माजी ने सत्य के आग्रह को तो स्वीकार स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि।। किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका -आप्तमीमांसा, कारिका 103 सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त इसका ज्वलन्त प्रमाण है। इस प्रकार हम 2. सर्वथात्वनिषेधकोनैकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपातः। -पंचास्तिकाय, गाथा 14 की अमृतचन्द्रकृत टीका 6. क्योंकि वैचारिक संघर्षों से समाज को बचाने का एक मात्र मार्ग अनाग्रह -स्याद्वादमंजरी कीदृशं वस्तु? नाना धर्मयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं, कथंचित् अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकत्वनित्यत्वानित्यत्व-भिन्नत्व प्रमुखेराविष्टम् वैचारिक सहिष्णुता का आधार-अनाग्रह (अनेकान्त दृष्टि) : -स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका शुभचन्द्र; 253 जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के काल में 5. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र 5-29 वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यकदृष्टि गोयमा! जीवा सिय सासया सिय असासया-दव्वट्ठयाए और दूसरे को मिथ्यादृष्टि कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी सासया भावट्ठयाए असासया-भगवती सूत्र 7-3-273 / वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य- भगवतीसूत्र-१.८-१०॥ मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर 8. धवला खण्ड 1, भाग 1, सूत्र 11, पृ० 11, पृ० १६७एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है। धार्मिक या राजनैतिक उद्धृत तीर्थंकर महावीर- डॉ० भारिल्ल साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। प्रत्येक 9. यदेव तत् तदेव अतत् यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत, धर्मवाद या राजनैतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और यदेव नित्यं तदेवानित्य-समयसार टीका (अमृतचन्द्र) परिशिष्ट दूसरे को भ्रान्त बता रहा है। इस धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं 10. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नतिभेदि वस्तु असहिष्णुता के कारण मानव-मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। -अन्ययोगव्यवच्छेदिका 5 / Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 168 11. न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम्।-अभिधानराजेन्द्र अपयस्स पयं नत्थि। आचारांग 1-5-171 कोश, खण्ड 4, पृ० 1853 22. पण्णवणिज्जा भावा अणंतभांगो दु अणभिलप्पानं। 87. "We can only know the relative truth, the real truth पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदनिबद्धो।। गोम्मटसार, जीव is known only to the universal Observer." काण्ड 334 / Quoted in Cosmology Old and New, P.XIII. 23. सुत्तनिपात 51-21. 13. स्यात्कार: सत्यलाञ्छनः। 24. सुत्तनिपात 51-3. 14. तत: स्याद्वाद अनेकांतवाद-स्याद्वादमंजरी। 25. सुत्तनिपात्त 46-8-9. 15. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-सूत्रकृतांग-१/१/४/२२। 26. सयं सयं पसंसंता गरहन्ता परं वयं। 16. मज्झिमनिकाय-सूत्र 99 (उद्धृत, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० जे उ तत्थ विउस्सयन्ति संसारेते विउस्सिया- सूत्रकृतांग 1 53) / 2-23 // 17. भगवतीसूत्र 12-2-443 / 27. थेरगाथा, 1/106 18. देखिए-शून्यवाद और स्याद्वाद नामक लेख-पं० दलसुखभाई 28. उदान, 6/4 मालवणिया। 29. सुत्तनिपात, 40/16-17 -आचार्य आनन्द ऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 265 / 30. सुत्तनिपात, 51/2, 3, 10, 11, 16-20. 19. (अ) सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभंगीतिगीयते। 31. वही, 46/8-9. -स्याद्वादमंजरी कारिका 23 की टीका। 32. गीता, 16-10. (ब) प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना 33. वही, 17.19, 18/35. सप्तभंगी। -राजवार्तिक 1-6-5 / 34. विवेकचूड़ामणि, 60 20. देखें-जैन दर्शन-डॉ० मोहनलाल मेहता, पृ० 300-307 / 35. वही, 62 सव्वे सरा नियटृति, तक्का जत्थ न विज्जइ 36. वही, 61 मई तत्थ न गहिया......उवमा न विज्जइ 37. शुक्रनीति, 3/211-213. प्रमाण-लक्षण-निरूपण में प्रमाणमीमांसा का अवदान जैन न्याय का विकास : समन्वयात्मक सिद्धान्त बन सके। पं० सुखलालजी के अनुसार जैन न्याय एवं प्रमाण-चर्चा के क्षेत्र में सामान्य रूप से जैन ज्ञान-मीमांसा ने मुख्यत: तीन युगों में अपने क्रमिक विकास को पूर्ण दार्शनिकों का और विशेष रूप से आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थ प्रमाणमीमांसा किया है -- 1. आगम युग, 2. अ का क्या अवदान है, यह जानने के लिये जैन न्याय के विकासक्रम को न्याय प्रमाण स्थापन युग। यहाँ हम इन युगों की विशिष्टताओं की चर्चा जानना आवश्यक है। यद्यपि जैनों का पंचज्ञान का सिद्धान्त पर्याप्त न करते हुए केवल इतना कहना चाहेंगे कि जैनों ने अपने अनेकान्त प्राचीन है और जैन विद्या के कुछ विद्वान उसे पार्श्व के युग तक ले सिद्धान्त को स्थिर करके फिर प्रमाण विचार के क्षेत्र में कदम रखा। जाते हैं, किन्तु जहाँ तक प्रमाण-विचार का क्षेत्र है, उसमें जैनों का उनके इस परवर्ती प्रवेश का एक लाभ तो यह हुआ कि पक्ष और प्रवेश नैयायिकों, मीमांसकों और बौद्धों के पश्चात् ही हुआ है। प्रमाण- प्रतिपक्ष का अध्ययन कर वे उन दोनों की कमियों और तार्किक चर्चा के प्रसंग में जैनों का प्रवेश चाहे परवर्ती हो, किन्तु इस कारण वे असंगतियों को समझ सके तथा दूसरे पूर्व-विकसित उनकी अनेकान्त इस क्षेत्र में जो विशिष्ट अवदान दे सके है, वह हमारे लिये गौरव की दृष्टि का लाभ यह हुआ कि वे उन दोनों के मध्य समन्वय स्थापित कर वस्तु है। सके। उन्होंने पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच समन्वय स्थापित करने का जो इस क्षेत्र में परवर्ती होने का लाभ यह हुआ कि जैनों ने पक्ष प्रयास किया, उसी में उनका सिद्धान्त स्थिर हो गया और यही उनका और प्रतिपक्ष के सिद्धान्तों के गुण-दोषों का सम्यक् मूल्यांकन करके इस क्षेत्र में विशिष्ट अवदान कहलाया। इस क्षेत्र में उनकी भूमिका सदैव फिर अपने मन्तव्य को इस रूप में प्रस्तुत किया कि वह पक्ष और एक तटस्थ न्यायाधीश की रही। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की प्रतिपक्ष की तार्किक कमियों का परिमार्जन करते हुए एक व्यापक और समीक्षा के माध्यम से सदैव अपने को समृद्ध किया और जहाँ आवश्यक