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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 164 तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम बिण केम पीजे / / 4 / / (स) अनेकांत धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में : जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। सभी धर्म साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अक्षर न्यास घरा आराधक, आराधे घरी संगे रे।।५।। अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता है, तो बौद्ध धर्म की साधना लक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया (ब) राजनैतिक क्षेत्र में स्याद्वाद के सिद्धान्त का उपयोग: है। वहीं वेदान्त में अहं और आसक्ति से ऊपर उठना ही मानव का अनेकान्त का सिद्धान्त न केवल दार्शनिक अपितु राजनैतिक साध्य बताया गया है। लेकिन क्या एकांत या आग्रह वैचारिकराग, विवाद भी हल करता है। आज का राजनैतिक जगत् भी वैचारिक वैचारिक आसक्ति, वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं के ही रूप संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नहीं हैं और जब तक वे उपस्थित हैं धार्मिक साधना के क्षेत्र में लक्ष्य नाजीवाद आज अनेक राजनैतिक विचारधाराएँ तथा राजतन्त्र, कुलतन्त्र, की सिद्धि कैसे होगी? जिन साधना पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को अधिनायक तन्त्र, आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित स्वीकार किया गया उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक हिंसा का हैं। मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर साधना के वैयक्तिक पहलू की दृष्टि प्रत्यनशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है तो दूसरी ओर अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। साधना के समाजिक पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक हिंसा है। वैचारिक मुख्य बात यह है कि आज का राजनैतिक संघर्ष आर्थिक हितों का आसक्ति और वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह संघर्ष. न होकर वैचारिक संघर्ष है। आज अमेरिका और रूस अपनी और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः धर्म का आविर्भाव वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिये ही प्रतिस्पर्धा में लगे मानव जाति में शांति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआ था। धर्म हुए हैं। एक दूसरे को नाम-शेष करने की उनकी यह महत्त्वाकांक्षा कहीं मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था लेकिन आज वही धर्म मनुष्यमानव जाति को ही नाम शेष न कर दे। मनुष्य में विभेद की दीवारें खींच रहा है धार्मिक मतान्धता में हिंसा, आज के राजनैतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक संघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है? क्या फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय हैं। वस्तुत: इसका कारण धर्म हो सकता है? इसका उत्तर निश्चित रूप से मानव जाति ने राजनैतिक जगत् में, राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में 'धर्म' नहीं किन्तु धर्म का जो लम्बी यात्रा तय की है उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को आवरण डाल कर मानव की महत्त्वाकांक्षा, उसका अहंकार ही यह सब अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्मका नकाब डाले अधर्म है। प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते हैं? दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनैतिक जीवन की सबसे इस प्रश्न का उत्तर अनेकांतिक शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो और अनेक भी। साध्यात्मक धर्म या धर्मों का साध्य एक है जबकि सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने साधनात्मक धर्म अनेक हैं। साध्य रूप में धर्मों की एकता और साधना दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार-दृष्टि रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों और सहिष्णु भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल रह का साध्य है, समत्व लाभ (समाधि) अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र (पार्लियामेन्टरी शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और डेमोक्रेसी) वस्तुतः राजनैतिक स्याद्वाद है। इस परम्परा में बहुमत अस्मिता (अहंकार) का निराकरण। लेकिन राग-द्वेष और अस्मिता के दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने विचार प्रस्तुत निराकरण के उपाय क्या हों? यहीं विचार-भेद प्रारम्भ होता है, लेकिन करने का अधिकार मान्य करती है और यथा सम्भव उससे लाभ यह विचार-भेद विरोध का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की भी उठाती है। दार्शनिक क्षेत्र में जहाँ भारत स्याद्वाद का सर्जक है, ओर उन्मुख होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही वहीं वह राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र का समर्थक भी है। केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न रेखाओं में अतः आज स्याद्वाद सिद्धान्त को व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। इसी प्रकार हमें यह भी है। क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक दूसरे को काटने की समझना है कि राज्य-व्यवस्था का मूल लक्ष्य जनकल्याण है। अतः क्षमता नहीं होती है किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है वह जन कल्याण को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं दूसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है। साध्य एकता में ही साधना के मध्य एक सांग संतुलन स्थापित करना है। आवश्यकता सैद्धांतिक रूप धर्मों की अनेकता स्थित है। यदि धर्मों का साध्य एक है तो उनमें विवादों की नहीं अपितु जनहित से संरक्षण एवं मानव की पाशविक विरोध कैसा? अनेकान्त, धर्मों की साध्यपरक मूलभूत एकता और वृत्तियों के नियन्त्रण की है। साधना परक अनेकता को इंगित करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212228
Book TitleSyadwad aur Saptabhangi Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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