________________ 163 स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन जीवन की सार्थकता का अवसर है। से कहा था-हे गौतम तेरा मेरे प्रति जो ममत्व है वही तेरे केवलज्ञान (सत्य दर्शन) का बाधक है। महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का स्याद्वाद का लक्ष्य-एक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास : सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता। आग्रहबुद्धि (अ) दार्शनिक विचारों के समन्वय का आधार स्याद्वाद : या दृष्टिराग सत्य को असत्य बना देता है। सत्य का प्रगटन आग्रह में भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष नहीं, अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं, समन्वय में होता है। सत्य और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था। जैन आगमों के का साधक अनाग्रही और वीतरागी होता है, उपाध्याय यशोविजयजी अनुसार उस समय 363 और बौद्ध आगमों के अनुसार 62 दार्शनिक स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को स्पष्ट करते हुए मत प्रचलित थे। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक अध्यात्मसार में लिखते हैंऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो विवादों से ऊपर उठने के लिए यस्य सर्वत्र समता नयेषु, तनयेष्विव, दिशा निर्देश दे सके। भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्मुखता को अपनाया। सुत्तनिपात में वे तेन स्याद्वामालंव्य सर्वदर्शन तुल्यताम् / कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ। एक तो वह अपूर्ण व मोक्षोदेविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित् / / एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिद्ध्यति / अत: निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिश वल्गनम् / / पड़े।२३ बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभी पर विरोधी दार्शनिक माध्यस्थसहितं होकपदज्ञानमापि प्रमा। दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चौक्तं महात्मना / / दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बाँधा। वे कहते हैं पंडित किसी दृष्टि या -अध्यात्मोपनिषद्, 61,70-72 वाद में नहीं पड़ता।२४ बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वादविवाद निर्वाण सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं। अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवाद सम्पूर्ण दृष्टिकोण (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता।२५ इसी प्रकार जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव जो लोग अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही रखता है। वास्तव में माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में घूमते रहते हैं।२६ इस प्रकार धर्मवाद है। मध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद पर ज्ञान भी सफल भगवान् महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं है। अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। क्योंकि जहाँ आग्रह मतान्धता से जन मानस को मुक्त करना चाहते थे फिर भी बुद्ध और बुद्धि होती है वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन संभव नहीं होता। महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था। जहाँ बुद्ध इन विवादों से बचने वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है। पुरुषार्थवाद, आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकान्तवादों में समन्वय करने का सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गये चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में नित्यवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, भेदवाद- सत्य हैं द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों अभेदवाद आदि सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। में समन्वय किया जा सकता है। अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। यदि दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। इनको कोई असत्य बनाता है तो वह आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान परमयोगी आनन्दघनजी लिखते है-लेने का उनका आग्रह ही है। स्याद्वाद अपेक्षा भेद में इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी घट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय घडंग जो साधे रे / असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। यदि नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे / / 1 / / हमारी दृष्टि अपने को आग्रह के ऊपर उठाकर देखे तो हमें सत्य का जिन सुर पादप पाय बखाणं, सांख्य जोग दोय भेदे रे / दर्शन हो सकता हैं। सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे / / 2 / / मिल सकता है। महावीर के प्रथम शिष्य गौतम का जीवन स्वयं इसका भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे। एक प्रत्यक्ष साक्ष्य है। गौतम के केवल- ज्ञान में आखिर कौन सा तत्त्व लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे / / 3 / / बाधक बन रहा था। महावीर ने स्वयं इसका समाधान करते हुए गौतम लोकायतिक सुख कूख जिनवरकी, अंश विचार जो कीजे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org