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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन 159 अवक्तव्यच अथवा मान्य नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप अउ वि है. (अ)- 3 है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अत: हमें यह स्पष्ट रूप से जान अवक्तव्य है लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन स्यात् नास्ति च अरेउ वि नहीं है. यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते नहीं हैं, अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन (अ.अ)-3 है तो आत्या नित्य नहीं है किन्तु यदि प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख अवक्तव्य है अनन्त अपेक्षा की दृष्टि से विचार करते है तो आत्मा अवक्तव्य है। आवश्यक है। जैसे स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की (अ)53 वि नहीं है. अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (अ)4-3 अवक्तव्य है (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा है, तो स्यात् अस्ति च, अवि है. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार करते है तो हमारा कथन भ्रम पूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के नास्ति च अरेवि नहीं है. आत्मा नित्य है और यदि पर्याय दृष्टि से अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को अवक्तव्य च (अ) अवक्तव्य है विचार करते है तो आत्मा नित्य नहीं है अथवा किन्तु यदि अपनी अनन्त अपेक्षाओं की जन्म देते हैं। जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के उवि है. दृष्टि से विचार करते है तो आत्मा अवक्तव्य प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक अरेवि नहीं है. (अ.अ)-3 अवक्तव्य है भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से का उल्लेख किया है किन्त जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और बचने के लिए उसे निम्न सकितिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। भाव ऐसी चार अपेक्षाएँ मानी हैं. उसमें भी भाव-अपेक्षा व्यापक है सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों उसमें वस्तको अवस्थाओं पर्थयों गणों दोनों पर विचार किया का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है: जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें अर्थ तो ये अपेक्षाएँ भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। यदि- तो (हेतुफलाश्रित कथन) अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा अपेक्षा (दृष्टिकोण) सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव नहीं है। संयोजन (और) इस सप्तभंगी का प्रथम भंग "स्याद् अस्ति" है। यह स्वचतुष्टय युगपत् (एकसाथ) को अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। अनन्तत्व जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा व्याघातक से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का उद्देश्य बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का विधेय है या घटाकार है आदि। इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात् अस्ति अउ वि है यदि द्रव्यकी अपेक्षा से विचार 'अस्ति' नामक भंग का कार्य है। दूसरा स्यात् “नास्ति' नामक भंग करते हैं तो आत्मा नित्य है। वस्तुतत्त्व के अभावात्मक धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व स्यात् नास्ति की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न परअरेउ वि नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है। चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर से बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का स्याद् अस्ति नास्ति च अउ वि~है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार नहीं है आदि। मात्र इतना ही नहीं यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता .. अरे - उ वि नहीं है करते हैं तो आत्मा नित्य है और है कि घड़ा, पुस्तक, टेबल, कलम, मनुष्य आदि नहीं है। जहाँ प्रथम यदि पर्याय की अपेक्षा हे विचार करते है तो आत्मा नित्य नहीं है। भंग यह कहता है कि घड़ा घड़ा ही है, वहाँ दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है कि “सर्वमस्ति (अ.अ) 23 यदि द्रव्य और पर्याय दोनों की अपेक्षा से एक साथ विचार करते है तो आत्मा स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च" अर्थात् सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप अवक्तव्य है। (क्योंकि दो भिन्न-भिन्न से है पररूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गुण धर्मों की सत्ता अपेक्षाओं से दो अलग-अलग कथन हो सकते है किन्तु एक कथन नहीं हो सकता) भी मान ली जायेगी तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जावेगा, अत: वस्तु में स्यात् अस्ति च 153 वि है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते है (अ.अरे)य 3) तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि आत्मा पर-चतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि अवक्तव्य है की द्रव्य पर्याय दोनों या अनन्त की दृष्टि / से विचार करते है तो आत्मा अवक्तव्य है। वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है। pn .+8 104 स्याद् अवक्तव्य अवक्तव्य अवक्तव्य च अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212228
Book TitleSyadwad aur Saptabhangi Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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