________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 160 सामान्यतया इस द्वितीय भंग को "स्यात् नास्ति घटः" अर्थात् किसी नहीं, अपितु घट में पर द्रव्यादि का निषेध करना चाहते हैं। वे कहना अपेक्षा से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इसके यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं हैं, प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से किन्तु स्मरण रखना होगा कि इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो अपेक्षा नहीं बदली है। यदि प्रथम भंग से यह कहा जावे कि घड़ा मिट्टी विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्मा विरोधी कथन दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। अपेक्षा से हैं। अब दूसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, शंकर प्रभृति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहाँ दोनों भंगों में अपेक्षा बदल उसका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। ‘स्यात् अस्ति घटः' और 'स्यात् जाती है। यहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया नास्ति घटः' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को नित्य नहीं कहा गया सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया है। द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न-भिन्न हैं। दूसरे यह जाता है तो आत्म-विरोध का आभास होने लगता है। जहाँ तक मैं कहना कि परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है या पट की अपेक्षा घट समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी आचार्य की नहीं है, भाषा की दृष्टि से थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है क्योंकि दृष्टि में द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म परचतुष्टय वस्तु की सत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है। वस्तु में का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में परचतुष्टय अर्थात् स्व-भिन्न पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अभाव तो अस्ति रूप माने गये गुण धर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है होता है किन्तु उनकी अपेक्षा वस्तु का अभाव नहीं होता है। क्या यह अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता कहना कि कुर्सी की अपेक्षा टेबल नहीं है या पीतल की अपेक्षा यह है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पुष्ट करता है, घड़ा नहीं है, भाषा के अभ्रान्त प्रयोग हैं? इस कथन में जैनाचार्यों का खण्डित नहीं। यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग आशय तो यही है कि टेबल कुसी नहीं है या घड़ा पीतल का नहीं है। का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय ही यह सिद्धान्त अत: परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, यह कहने की अपेक्षा यह संशयवाद या आत्म विरोध के दोषों से ग्रसित हो जावेगा, किन्तु ऐसा कहना कि वस्तु में परचतुष्टय का अभाव है, भाषा का सम्यक् प्रयोग नहीं है। यदि प्रथम भंग में 'स्यादस्त्येव घटः' का अर्थ किसी अपेक्षा से होगा। विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप से घड़ा है ही और द्वितीय भंग में “स्यान्नास्त्येव घटः" का अर्थ किसी द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके अपेक्षा से घड़ा ही नहीं है ऐसा करेंगे तो आभास होगा कि दोनों कथन आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के विरोधी हैं। क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से ऐसा आभास होता सन्दर्भ में उसे पुनर्गठित करें तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी है कि इन कथनों में घट के अस्तित्व और नास्तित्व को ही सूचित उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के किया गया हैं। जबकि जैन-आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अत: यहाँ द्वितीय भंग के विविध उनमें प्रयुक्त “स्यात्" शब्द में ही है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि में भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है। दोनों भंगों में घट द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं: के सम्बन्ध में जिनका विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट का स्वयं का अस्तित्व या नास्तित्व। पुनः दोनों भंगों अर्थ (1) प्रथम भंग- अ उ वि है (1) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान के “अपेक्षाश्रित धर्म" एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम भंग में जिन न द्वितीय भंग-अरे - 3 नहीं है किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् पर-चतुष्टय के हैं। में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। अत: प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्म जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदृष्टि विरोध नहीं है। मेरी दृष्टि में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत वाक्य में से घड़ा नित्य नहीं है। उस विधेय पद (Predicate) के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, (2) प्रथम भंग- अ उ वि है (2) प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है। यदि "नास्ति' पद को द्वितीय भंग-अ - वि है गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में विधेय स्थानीय माना जाता है तो पुन: यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है? यदि यह है। जैसे द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। (3) प्रथम भंग-अ उ वि है. (3) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने कहा जाये कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, तो पर द्रव्यादि। क्षा से घट नहीं है, ता पर द्रव्याद द्वितीय भंग-अरेविन्द हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकते हैं? विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध यद्यपि यहाँ पूर्वाचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का कर देना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org