________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 166 प्रकार जाना जा सकता है। किसी धारणा पर स्थित हो, उसके द्वारा वह संसार में विवाद उत्पन्न वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई करता है, जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कलह नहीं करता।२९ कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे मैं विवाद के फल बताता हूँ। एक, यह अपूर्ण या एकांगी सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। पिता-पुत्र से जिस बात की होता है; दूसरे, वह विग्रह या अशान्ति का कारण होता है। निर्वाण को अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर निर्विवाद भूमि समझने वाले यह भी देखकर विवाद न करें। साधारण विचार कर ले। अधिकारी कर्मचारी से किस ढंग से काम लेना चाहता मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं, पण्डित इन सब में नहीं पड़ता। दृष्टि है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले। और श्रुति को ग्रहण न करने वाला, आसक्तिरहित वह क्या ग्रहण करें। यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में लोक व्यवहार असम्भव है (लोग) अपने धर्म को परिपूर्ण बताते हैं और दूसरे के धर्म को हीन और जिस आधार पर अनेकान्तवाद जगद्गुरु होने का दावा करता है। बताते हैं। इस प्रकार भिन्न मत वाले ही विवाद करते हैं और अपनी कहा है धारणा को सत्य बताते हैं। यदि कोई दूसरे की अवज्ञा (निन्दा) करके जेण विणा वि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वडई। हीन हो जाय तो धर्मों में श्रेष्ठ नहीं होता। जो किसी वाद में आसक्त है, तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स / / वह शुद्धि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह किसी दृष्टि को मानता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के विवेकी ब्राह्मण तृष्णा-दृष्टि में नहीं पड़ता। वह तृष्णा-दृष्टि का अनुसरण सिद्धान्त दार्शनिक धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक नहीं करता। मुनि इस संसार में ग्रन्थियों को छोड़कर वादियों में जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते पक्षपाती नहीं होता। अशान्तों में शान्त वह जिसे अन्य लोग ग्रहण हैं जिससे मानव जाति को संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती करते हैं उसकी अपेक्षा करता है। बाद में अनासक्त दृष्टियों से पूर्ण रूप है। संक्षेप में अनेकान्त विचार-पद्धति के व्यावहारिक क्षेत्र में तीन प्रमुख से मुक्त वह धीर संसार में लिप्त नहीं होता। जो कुछ दृष्टि, श्रुति या योगदान हैं विचार है, उन सब पर वह विजयी है। पूर्ण रूप से मुक्त, मार-त्यक्त वह (1) विवाद पराङ्मुखता या वैचारिक संघर्ष का निराकरण। संस्कार, उपरति तथा तृष्णा रहित है।३० (2) वैचारिक सहिष्णुता या वैचारिक अनाग्रह (विपक्ष में इतना ही नहीं, बुद्ध सदाचरण और आध्यात्मिक विकास के निहित सत्य का दर्शन)। क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह-वृत्ति को (3) वैचारिक समन्वय और एक उदार एवं व्यापक दृष्टि का अनुपयुक्त समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्माण। निर्वाण-मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है। यह तो मल्लविद्या है राजभोजन से पुष्ट पहलवान के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों बौद्ध आचार-दर्शन में वैचारिक अनाग्रह : के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रहा। जो बौद्ध आचारदर्शन में मध्यम मार्ग की धारणा अनेकान्तवाद किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते हैं और अपने मत को सत्य की विचारसरणी का ही एक रूप है। इसी मध्यम मार्ग के वैचारिक क्षेत्र बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ में अनाग्रह की धारणा का विकास हुआ है। बौद्ध विचारकों ने भी सत्य बहस करने को यहाँ कोई नहीं है।३१ इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध को अनेक पहलुओं से युक्त देखा और यह माना कि सत्य को अनेक * ने भी महावीर के समान ही दृष्टि राग को अनुपयुक्त माना है और पहलुओं के साथ देखना ही विद्वत्ता है। थेरगाथा में कहा गया है कि जो बताया कि सत्य का सम्पूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहाँ सारी दृष्टियाँ सत्य का एक ही पहलू देखता है, वह मूर्ख है।२७ पण्डित तो सत्य को शून्य हो जाती हैं यह भी एक विचित्र संयोग है कि महावीर के सौ (अनेक) पहलुओं से देखता है। वैचारिक आग्रह और विवाद का अन्तेवासी इन्द्रभूति के समान ही बुद्ध के अन्तेवासी आनन्द को भी जन्म एकांगी दृष्टिकोण से होता है, एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् पद प्राप्त नहीं हो सका। सम्भवत: यहाँ हैं और विवाद में उलझते हैं।२८ भी यही मानना होगा कि शास्ता के प्रति आनन्द का जो दृष्टिराग था, बौद्ध विचारधारा के अनुसार आग्रह, पक्ष या एकांगीदृष्टि- वही उसके अर्हत् होने में बाधा था। इस सम्बन्ध में दोनों धर्मों के राग में रत होता है। वह जगत् में कलह और विवाद का सृजन करता निष्कर्ष समान प्रतीत होते है। है और स्वयं भी आसक्ति के कारण बन्धन में पड़ा रहता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टि, पक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न गीता में अनाग्रह: तो विवाद में पड़ता है और न बन्धन में। बुद्ध के निम्न शब्द बड़े वैदिक परम्परा में भी अनाग्रह का समुचित महत्त्व और स्थान मर्मस्पर्शी हैं, जो अपनी दृष्टि से दृढ़ाग्रही हो दूसरे को मूर्ख और है। गीता के अनुसार आग्रह की वृत्ति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते हैं अशुद्ध बतानेवाला होता है वह स्वयं कलह का आह्वान करता है। कि आसुरी स्वभाव के लोग दम्भ, मान और मद से युक्त होकर किसी क्षेत्र म की वृत्ति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org