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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 168 11. न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम्।-अभिधानराजेन्द्र अपयस्स पयं नत्थि। आचारांग 1-5-171 कोश, खण्ड 4, पृ० 1853 22. पण्णवणिज्जा भावा अणंतभांगो दु अणभिलप्पानं। 87. "We can only know the relative truth, the real truth पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदनिबद्धो।। गोम्मटसार, जीव is known only to the universal Observer." काण्ड 334 / Quoted in Cosmology Old and New, P.XIII. 23. सुत्तनिपात 51-21. 13. स्यात्कार: सत्यलाञ्छनः। 24. सुत्तनिपात 51-3. 14. तत: स्याद्वाद अनेकांतवाद-स्याद्वादमंजरी। 25. सुत्तनिपात्त 46-8-9. 15. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-सूत्रकृतांग-१/१/४/२२। 26. सयं सयं पसंसंता गरहन्ता परं वयं। 16. मज्झिमनिकाय-सूत्र 99 (उद्धृत, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० जे उ तत्थ विउस्सयन्ति संसारेते विउस्सिया- सूत्रकृतांग 1 53) / 2-23 // 17. भगवतीसूत्र 12-2-443 / 27. थेरगाथा, 1/106 18. देखिए-शून्यवाद और स्याद्वाद नामक लेख-पं० दलसुखभाई 28. उदान, 6/4 मालवणिया। 29. सुत्तनिपात, 40/16-17 -आचार्य आनन्द ऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 265 / 30. सुत्तनिपात, 51/2, 3, 10, 11, 16-20. 19. (अ) सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभंगीतिगीयते। 31. वही, 46/8-9. -स्याद्वादमंजरी कारिका 23 की टीका। 32. गीता, 16-10. (ब) प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना 33. वही, 17.19, 18/35. सप्तभंगी। -राजवार्तिक 1-6-5 / 34. विवेकचूड़ामणि, 60 20. देखें-जैन दर्शन-डॉ० मोहनलाल मेहता, पृ० 300-307 / 35. वही, 62 सव्वे सरा नियटृति, तक्का जत्थ न विज्जइ 36. वही, 61 मई तत्थ न गहिया......उवमा न विज्जइ 37. शुक्रनीति, 3/211-213. प्रमाण-लक्षण-निरूपण में प्रमाणमीमांसा का अवदान जैन न्याय का विकास : समन्वयात्मक सिद्धान्त बन सके। पं० सुखलालजी के अनुसार जैन न्याय एवं प्रमाण-चर्चा के क्षेत्र में सामान्य रूप से जैन ज्ञान-मीमांसा ने मुख्यत: तीन युगों में अपने क्रमिक विकास को पूर्ण दार्शनिकों का और विशेष रूप से आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थ प्रमाणमीमांसा किया है -- 1. आगम युग, 2. अ का क्या अवदान है, यह जानने के लिये जैन न्याय के विकासक्रम को न्याय प्रमाण स्थापन युग। यहाँ हम इन युगों की विशिष्टताओं की चर्चा जानना आवश्यक है। यद्यपि जैनों का पंचज्ञान का सिद्धान्त पर्याप्त न करते हुए केवल इतना कहना चाहेंगे कि जैनों ने अपने अनेकान्त प्राचीन है और जैन विद्या के कुछ विद्वान उसे पार्श्व के युग तक ले सिद्धान्त को स्थिर करके फिर प्रमाण विचार के क्षेत्र में कदम रखा। जाते हैं, किन्तु जहाँ तक प्रमाण-विचार का क्षेत्र है, उसमें जैनों का उनके इस परवर्ती प्रवेश का एक लाभ तो यह हुआ कि पक्ष और प्रवेश नैयायिकों, मीमांसकों और बौद्धों के पश्चात् ही हुआ है। प्रमाण- प्रतिपक्ष का अध्ययन कर वे उन दोनों की कमियों और तार्किक चर्चा के प्रसंग में जैनों का प्रवेश चाहे परवर्ती हो, किन्तु इस कारण वे असंगतियों को समझ सके तथा दूसरे पूर्व-विकसित उनकी अनेकान्त इस क्षेत्र में जो विशिष्ट अवदान दे सके है, वह हमारे लिये गौरव की दृष्टि का लाभ यह हुआ कि वे उन दोनों के मध्य समन्वय स्थापित कर वस्तु है। सके। उन्होंने पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच समन्वय स्थापित करने का जो इस क्षेत्र में परवर्ती होने का लाभ यह हुआ कि जैनों ने पक्ष प्रयास किया, उसी में उनका सिद्धान्त स्थिर हो गया और यही उनका और प्रतिपक्ष के सिद्धान्तों के गुण-दोषों का सम्यक् मूल्यांकन करके इस क्षेत्र में विशिष्ट अवदान कहलाया। इस क्षेत्र में उनकी भूमिका सदैव फिर अपने मन्तव्य को इस रूप में प्रस्तुत किया कि वह पक्ष और एक तटस्थ न्यायाधीश की रही। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की प्रतिपक्ष की तार्किक कमियों का परिमार्जन करते हुए एक व्यापक और समीक्षा के माध्यम से सदैव अपने को समृद्ध किया और जहाँ आवश्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212228
Book TitleSyadwad aur Saptabhangi Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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