SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 156 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में 'यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के व्यक्ति सापेक्ष ही होता है। वयं? पुन: हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना करना चाहते हैं, वह किन्तु मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान है क्या? जहाँ एक ओर द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय कहा को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के गया है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणों का समूह भी कहा गया है। गुण पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है और द्रव्य से पृथक् लेता है। किन्तु क्या तार्किक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है? प्रथम तो गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है। यह है वस्तु की सापेक्षितता तार्किक ज्ञान भी पूरी तरह से इन्द्रिय संवेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, और यदि वस्तुतत्त्व सापेक्षिक, अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक है, दूसरे तार्किक ज्ञान वस्तुत: एक सम्बन्धात्मक ज्ञान है। बौद्धिक चिन्तन तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष एवं एकान्तिक दृष्टि कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचार-विधाओं से घिरा से कैसे सम्भव है? इसलिए जैन-आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) हुआ है और अपनी इन विचार-विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा से सम्भव नही है।११ होगा। तर्कबुद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी सम्बन्ध (ब) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों का स्वरूप : या असम्बन्ध की ही सूचना प्रदान करत है और ऐसा सम्बन्धात्मक ज्ञान यह तो हुई वस्तु स्वरूप की बातें, किन्तु जिस वस्तु स्वरूप सम्बन्ध सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। क्योंकि सभी सम्बन्ध (Relaका ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या tions) सापेक्ष होते हैं। है, हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। मनुष्य के पास अपनी सत्याभीप्सा और (स) मानवीय ज्ञान की सीमितता एवं सापेक्षता : जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिए ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं: वस्तुतः वस्तुतत्त्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता 1. इन्द्रियाँ और 2. तर्कबद्धि। वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है। अपूर्ण के द्वारा मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं का प्रयत्न करता है। जहाँ तक मानव के ऐन्द्रिक ज्ञान का प्रश्न है, यह जा पाये हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्षा मानव इन्द्रियों की है तो वह सत्य, सत्य न रह करके असत्य बन जाता है। वस्तुतत्त्व क्षमता सीमित है, अत: वे वस्तुतत्त्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, केवल उतना ही नहीं है जितना कि हम इसे जान पा रहे हैं। मनुष्य की वह पूर्ण नहीं हो सकता है। इन्द्रियाँ वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख ऐन्द्रिक ज्ञान क्षमता एवं तर्क बुद्धि इतनी अपूर्ण है कि वह सम्पूर्ण सत्य पाने के लिए सक्षम नहीं हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। साधारण मानव-बुद्धि पूर्ण सत्य हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है वैसा नहीं जान कर उसे जिस रूप को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। अतः साधारण मानव पूर्ण सत्य में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं। हम का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। जैन-दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो इन्द्रिय संवेदनों को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं। इसका अर्थ यह नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना हुआ कि हमारा आनुभविक ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है। मात्र इतना ही नहीं, जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि "हम वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई जहाँ से वस्तु देखी जा रही है और यदि हम उस कोण (स्थिति) के पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा।१२ और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त विचार का अपने ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान ज्ञान आंशिक, अपूर्ण तथा सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई भ्रान्त हो जायेगा। उदाहरणार्थ एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे ही हमें वृत्ताकार न लग कर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों पास है। हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत का दावा नहीं कर सकता है। अत: ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का ऊपर जाकर देखते हैं तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहाँ वह हमें निषेध नहीं करते हुए अपनी बात कह सके। हम अपने ज्ञान की स्थिर प्रतीत होती है। दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं (Possibilities) को निरस्त पर बड़ी दिखाई देती हैं एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटो लिए नहीं कर सकते हैं। जाते हैं तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार हमारा सारा आनुभविक ज्ञान सापेक्ष्य ही होता है, निरपेक्ष नहीं। इन्द्रिय संवेदनों को क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है? उन सब अपेक्षाओं (Conditions) से अलग हटकर नहीं समझा जा यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सकता है, जिनमें कि वे हुए हैं। अत: ऐन्द्रिकज्ञान दिक, काल और सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अत: यह प्रश्न स्वाभाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212228
Book TitleSyadwad aur Saptabhangi Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy