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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी : एक चिन्तन स्याद्वाद का अर्थ-विश्लेषण : “स्यात्" तथा "एव" शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। है। अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ- वस्तुत: इस प्रयोग में "एव" शब्द 'स्यात्' शब्द की अनिश्चितता को विश्लेषण आवश्यक है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी समाप्त कर देता है और "स्यात्" शब्द "एव" शब्द की निरपेक्षता एवं भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवत: उतनी अन्य किसी शब्द के एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर सम्बन्ध में नहीं। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ "शायद", कथित वस्तु-धर्म की सीमा नियत करते हुए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान “सम्भवतः", "कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में Probable, may प्रस्तुत करते हैं। अतः स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनावाद नहीं का be, perhaps, some how आदि किया गया है और इन्हीं अर्थों के जा सकता है। "वाद" शब्द का अर्थ कथनविधि है। इस प्रकार स्याद्वाद आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षिक निर्णय पद्धति का सूचक है। वह भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भो में स्यात् शब्द का एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है। किन्तु इस आधार आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चयवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही निर्णयों को इस प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष होगी। हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य “अनुक्त" अनेकानेक कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है, दूसरे अनेक धर्मों एवं सम्भावनाओं (पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुत: स्याद्वाद बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष होता है, जैसे जैन परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के रूप में एवं अहिंसक तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका होता है। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढंग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें अर्थ में ही किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने सम्बन्धी किसी भी मूलग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। संक्षेप में स्याद्वाद अपने समग्र स्यात् शब्द का जैन परम्परा में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता। स्यात् रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकान्त भी शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति उत्पन्न होती हैं, उसका मूल है। सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथनकारण उसे तिङ्न्त पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, पद्धति या वाक्य-योजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों की संभावना का अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या निषेध करते हुए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण अव्यय माना है। समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात्-यह निपात शब्द है, जो अर्थ के रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। इसी प्रकार अनेकांतवाद भी साथ संबंधित होने पर वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित वस्तुतत्त्व के सन्दर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह अर्थ का एक विशेषण है। इसी प्रकार पंचास्तिकाय की टीका में कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के सन्दर्भो में विभिन्न अपेक्षाओं के आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते आधार पर अनेक निर्णय (कथन) दिये जा सकते हैं अर्थात् अनेकांत हैं कि 'स्यात्' एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षों की सम्भाव्यता कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है।२ . का सिद्धांत है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता है कि 'सर्वथैकान्त- प्रतिक्षेपलक्षणोजनेकांत:' अर्थात् अनेकांत मात्र का द्योतक एक अव्यय माना है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर प्रकाशक है। अनेकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है। मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सहज थे कि आलोचक या जनसाधारण स्याद्वाद के आधारः द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, . सम्भवत: यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्याद्वाद इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ "एव" शब्द के प्रयोग की योजना या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है? स्याद्वाद या भी की है, जैसे-"स्यादस्त्येव घटः" अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलत: चार कारण हैंही है। यह स्पष्ट है कि “एव" शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है। १. वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212228
Book TitleSyadwad aur Saptabhangi Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size2 MB
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