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स्वप्नशास्त्र : एक मीमांसा
स्वप्नशास्त्र : एक मीमांसा
* मरुधर केसरी प्रवर्तक मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज
वि० सं० १९८० जोधपुर का चातुर्मास ! लगभग तीन महीने बीत गये थे। एक दिन मैं अचानक आमातिसार की व्याधि से ग्रस्त हो गया। वैद्य और हकीमों के अनेक उपचार करवाये, पर कोई लाभ नहीं हुआ । ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया । शरीर काफी दुर्बल व क्षीण हो गया, उपचारों से कुछ भी लाभ की आशा नहीं रही, कभी-कभी जीवन की आशा भी धुंधलाने लगी थी ।
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अस्वस्थता व दुर्बलता के कारण मैं प्रायः लेटा ही रहता था। एक रात लेटा लेटा अपने स्वास्थ्य के बारे में सोच रहा था। नींद की झपकी आ गई। नींद में ही एक स्वप्न आया कोई तेजस्वी व्यक्ति पुकार कर कह रहा था'तुम अमुक औषध का सेवन क्यों नहीं करते ? अमुक औषध सेवन करो स्वस्थ हो जाओगे ?"
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नींद उचट गई । प्रातःकाल परीक्षण के रूप में स्वप्न सूचित औषध लेकर आया, उसका प्रयोग किया। कुछ लाभ मालूम होने लगा । और आश्चर्य ! कुछ ही दिन के प्रयोग से इतनी लम्बी बीमारी से मुक्ति मिल गई ।
बहुत से व्यक्तियों को ऐसे स्वप्न आते हैं, जिनमें भविष्य का संकेत होता है, किसी उलझन का समाधान होता है । सुना है, कोई व्यक्ति गणित के किसी गूढ़ प्रश्न को हल करने में परेशान हो रहा था, काफी परिश्रम के बाद भी प्रश्न हल नहीं हुआ। पुस्तक सामने रखे रखे ही उसे नींद आ गई। नींद में उसे स्वप्न आया । उस प्रश्न का हल कोई बता रहा था। नींद में ही उठकर उसने कापी में हल लिख दिया और फिर सो गया। सुबह उठा तो कापी में गूढ़ प्रश्न का हल लिखा देखकर स्वयं ही चकित रह गया। वह हल बिल्कुल सही था ।
ऐसा होता है। भविष्य में होने वाली दुर्घटना की सूचना स्वप्न में मिल जाती है। अमरीका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को एक दिन स्वप्न आया कि किसी ने उनकी हत्या कर दी है। और कुछ दिन बाद ही उनकी हत्या की खबर संसार ने सुन ली ।
अपनी या किसी स्वजनकी
बीमारी दुर्घटना या लाभ-हानि आदि के संकेत अनेक बार अनेक लोगों को स्वप्न मे मिलते हैं और वे ठीक उसी रूप में सत्य सिद्ध होते हैं, तब हम चकित भी रह जाते हैं और बड़े गम्भीर होकर स्वप्न के विषय में सोचने लगते हैं। जिज्ञासाओं की हलचल से मन-मस्तिष्क चंचल हो उठते हैं । आखिर स्वप्न है क्या ? स्वप्न क्यों आते हैं ? सभी स्वप्न सत्य क्यों नहीं होते ? और सभी को अपनी विकट मानसिक व्यथाओं के समय स्वप्न में कोई न कोई मार्ग-दर्शन क्यों नहीं मिलता ? हमारा हजारों वर्ष का विकसित स्वप्नशास्त्र इस विषय में क्या कहता है ? इन्हीं प्रश्नों पर यहाँ कुछ विचार करना है ।
दिगम्बर परम्परा में भरत चक्रवर्ती के १६ स्वप्न बहुत प्रसिद्ध हैं, जिनमें वातावरण की सूचना थी। भरतजी ने प्रभु आदिनाथ से उनका अर्थ पूछा तो प्रभु
ने
शास्त्रों एवं ग्रन्थों में पढ़ते हैं- तीर्थंकर के जन्म से पूर्व उनकी माता ने १४ दिव्य स्वप्न देखे । इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव आदि की माता ने भी कुछ दिव्य स्वप्न देखे, जागृत हुईं। स्वप्न- पाठकों से फल पूछा तो उन्होंने उनके अर्थ बताये कि महान् तेजस्वी पुत्र होगा ।
भविष्य में होने वाले धार्मिक
धर्म तीर्थ के लिए वे अमंगल
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
सूचक बताये । इसी प्रकार श्रेयांसकुमार ने भी भगवान ऋषभदेव को दान देने से पूर्व शुभ स्वप्न देखा जिसमें श्याम वर्ण मेरु पर्वत को अमृत से सींचा था। इसका सम्बन्ध भगवान आदिनाथ को दान देने से था ।२ इसी रात को श्रेयांस कुमार के पिता राजा सोमप्रभ एवं श्रेष्ठी सुबुद्धि ने भी स्वप्न देखा जिसका भाव था कि श्रेयांस को कुछ विशिष्ट लाभ प्राप्त होगा। ये स्वप्न प्रतीकात्मक थे और दूसरे ही दिन सत्य सिद्ध हो गये।
छद्मस्थ अवस्था में भगवान महावीर ने भी अस्थिग्राम में शूलपाणि यक्ष के उपद्रव के बाद एक मुहूर्त भर निद्रा ली जिसमें १० स्वप्न देखे थे, जिनका अर्थ उत्पल नैमित्तिक ने लोगों को बताया।
भरत चक्रवर्ती की तरह ही मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त राजा के १६ स्वप्न भी दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में काफी प्रसिद्ध है । इन स्वप्नों का शुभाशुभ भावी फल श्रुतकेवली भद्रबाहु ने बताया था कि आने वाले समय में धर्म एवं समाज की कैसी हानि होगी।
प्राचीन चरित्रग्रन्थों में भी राजा आदि तथा अन्य चरित्र पात्रों के स्वप्न आदि की घटनाएँ प्रायः सुना करते हैं । इन सब घटनाओं को एकसूत्र में जोड़ने पर फिर वही प्रश्न सामने आता है कि वास्तव में यह स्वप्न है क्या ? क्यों आता है ? और कैसे इनके माध्यम से भविष्य के शुभाशुभ की सूचना हमारे मस्तिष्क तक पहुंचती है ? स्वप्न का दर्शन क्या है ?विज्ञान क्या है ? जो बातें जागते में हम नहीं जान पाते वे स्वप्न में कैसे हमारे मस्तिष्क में आ जाती हैं ? स्वप्न कब, क्यों आते हैं ?
___ स्वप्न के विषय में यही जिज्ञासा ढाई हजार वर्ष पूर्व महान् ज्ञानी गणधर गौतम के हृदय में उठी और भगवान महावीर से उन्होंने समाधान पूछा
भगवन् ! स्वप्न कब आता है ? क्या सोते हुए स्वप्न देखा जाता है, या जागते हुए ? अथवा जागृत और सुप्त अवस्था में ?
भगवान ने उत्तर दिया
गौतम ! न तो जीव सुप्त अवस्था में स्वप्न देखता है, न जागृत अवस्था में। किन्तु कुछ सुप्त और कुछ जागृत अर्थात् अर्धनिद्रित अवस्था में स्वप्न देखता है।
जागते हुए आँखें खुली रहती हैं, चेतना चंचल रहती है इसलिए स्वप्न आ नहीं सकता । गहरी नींद में जब स्नायु तन्तु पूर्ण शिथिल हो जाते हैं, अन्तर्मन (अचेतन मन) भी पूर्ण विश्राम करने लगता है, वह गति-हीन-सा हो जाता है उस दशा में भी स्वप्न नहीं आते, किन्तु जब मन कुछ थक जाता है, आँखें बन्द हो जाती हैं, चेतना की बाह्य प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं और अन्तर्जगत भाव-लोक में उसकी गति होती रहती है, वह अवस्था-जिसे अर्धनिद्रित अवस्था कहा जाता है-उसी समय में स्वप्न आते हैं।
प्रायः देखा जाता है कि स्वस्थ मनुष्य जो गहरी नींद सोता है, स्वप्न बहुत कम देखता है। अस्वस्थ मनुष्य चाहे शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ हो या मानसिक दृष्टि से वही अधिक और बार-बार स्वप्न देखता है और उसके स्वप्न प्रायः निरर्थक ही होते हैं।
प्राचीन आयुर्वेद के अनुसार जब इन्द्रियां अपने विषय से निवृत्त होकर शांत हो जाती हैं, अर्थात् इन्द्रियों की गति बन्द हो जाती है, और मन उन विषयों में शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श में लगा रहता है, उस समय मनुष्य स्वप्न देखता है
सर्वेन्द्रियव्युपरतो मनोऽनुपरतं यदा।
विषयेभ्यस्तदा स्वप्नं नानारूपं प्रपश्यति ॥ शरीर व मन की इस दशा को ही आगमों की भाषा में यों बताया है-सुत्त जागरमाणे सुविणं पासईसुप्त-जागृत अवस्था में स्वप्न देखता है। स्वप्न मनोविज्ञान :
स्वप्न क्यों आते हैं, इस प्रश्न पर विचार करने से अनेक कारण हमारे सामने आते हैं । जैन-दर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण है-दर्शन मोहनीयकर्म का उदय । दर्शन मोह मन की राग एवं द्वेषात्मक वृत्तियों का सूचक है। मन में जब राग तथा द्वेष का स्पन्दन होता है। तो चित्त में चंचलता उत्पन्न होती है, शब्दादि विषयों से सम्बन्धित
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सूक्ष्म एवं स्थूल विचार तरंगों से मन आलोड़ित होने लगता है और वे विचार तरंगें-संकल्प-विकल्प अथवा विषयोन्मुखी वृत्तियाँ इतनी तीव्र होती हैं कि नींद आने पर भी वे शांत नहीं होतीं। बाहर से इन्द्रियाँ सो जाती हैं पर भीतर में अन्तर् वृत्तियों भटकती रहती है, दृष्ट-अदृष्ट-अथ त पूर्व विषयों का भी स्पर्श करती रहती हैं। वृत्तियों का यह भटकाव स्वप्न कहा जाता है । आधुनिक मनोविज्ञान के जनक डा. सिगमंड फ्रायड ने स्वप्न का अर्थ किया है-'दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति ।' डॉ० फ्रायड ने 'इंटरप्रिटेशन आव ड्रीम्स' नामक अपने ग्रन्थ में स्वप्नों के संकेतों के अर्थ व प्रयोजन बताकर उनकी रचना को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। इनके कथनानुसार “स्वप्न व्यक्ति की उन इच्छाओं को सामान्य रूप से व्यक्त करता है जिसकी तृप्ति जागृत अवस्था में नहीं होती। समाज के मय, वस्तु के अभाव या वस्तु की अनुपलब्धि तथा संकोच आदि कारणों से जिन इच्छाओं को व्यक्ति पूरी नहीं कर सकता, वे इच्छाएं अनेक रूपान्तरों के साथ स्वप्न में व्यक्त होती है।" फ्रायड के अनुसार मन के तीन भाग हैं
चेतन मन–जहाँ सभी इच्छाएं आकर तृप्ति लेती है और मनुष्य अपनी इच्छा-शक्ति से काम लेता है । अचेतन मन-मन का वह भाग है जहाँ उसकी सभी प्रकार की अतृप्त भोगेच्छा दमित होकर रहती हैं।
अवचेतन मन-मन का तीसरा भाग है, जहाँ मनुष्य अपनी इच्छाओं पर विवेक की कैंची चलाता है। अनैतिक इच्छाओं की भर्त्सना भी करता है, और उत्तम इच्छाओं को प्रकट करता है।
. फ्रायड ने स्वप्न के ये मुख्य चार प्रकार बताये हैं-संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावांतरकरण तथा नाटकीकरण । जब बहुत बड़ा प्रसंग, अनुभव या स्मृति संक्षेप में ही स्वप्न में आती है, वह स्वप्न संक्षेपण है इसके विपरीत विस्तारीकरण में छोटा-सा भाव भी विस्तार के साथ पूरी रील की तरह सामने आ जाता है। भावांतरकरण में घटना का रूपान्तर हो जाता है, पात्र बदल जाते हैं पर मूल संस्कार नहीं बदलता। जैसे कोई व्यक्ति अपने पिता, बड़े भाई या अध्यापक से डरता है और स्वप्न में वह किसी राक्षस या बदमाश से अपने को लड़ते हुए, भयभीत होते हुए पाता है तो वह भय की भावना का रूपान्तरण है। क्योंकि प्रकट में वह उनके प्रति ऐसा भाव प्रकाशित करने में भी आत्म-ग्लानि अनुभव करता है।
नाटकीकरण में इच्छा अनेकों प्रतीकों का सहारा लेकर पूरा एक नाटक ही रच डालती है और स्वप्न चेतना उन मार्मिक बातों को चित्र रूप में उपस्थित कर देती है जो मन के किसी गुप्त कोने में दबी पड़ी हैं।
किंतु चार्ल्स युंग नामक स्वप्न विश्लेषक फ्रायड की तरह जड़वाद का पूर्ण कायल नहीं है। वह स्वप्न को सिर्फ पुराने अनुभव की प्रतिक्रिया ही नहीं मानता, किन्तु स्वप्न का मनुष्य के व्यक्तित्व-विकास तथा भावी जीवन के लिए भी बहुत अधिक महत्त्व मानता है। उसका कहना है-चेतना के सभी कार्य लक्ष्यपूर्ण होते हैं । स्वप्न भी इसी प्रकार का लक्ष्यपूर्ण कार्य है जिनके विश्लेषण से अपने भावी जीवन को सुखी, नीरोग व सुरक्षित रखा जा सकता है। फ्रायड और चार्ल्सयुग के स्वप्न विश्लेषण में मुख्य अन्तर यह है कि-फ्रायड के अनुसार अधिकतर स्वप्न मनुष्य की कामवासना से ही सम्बन्ध रखते हैं, जबकि युग के अनुसार-स्वप्नों का कारण मनुष्य के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छाओं का दमन मात्र ही नहीं होता, वरन् उसके गम्भीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभूतियां भी होती हैं।
वास्तव में जीवन के भूतकालीन अनुभव तथा संस्कारों पर टिके स्वप्नों का विश्लेषण तो स्वप्न-शास्त्र का एक अंग मात्र है, जीवन में भविष्य सूचक या आदेशात्मक जो स्वप्न आते हैं, उनके सम्बन्ध में मनोविज्ञान आज भी प्राथमिक स्थिति में है।
एक विकट प्रश्न यह है कि जो स्वप्न भविष्य-सूचक होते हैं, अथवा जो भगवान महावीर जैसे महापुरुषों ने देखे हैं जिनमें उनकी अपनी दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं, उन स्वप्नों का क्या कारण है ? आधुनिक मनोविज्ञान अनेक खोजों के बावजूद इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाया है। इन स्वप्नों को संयोगमात्र कहकर भी टाला नहीं जा सकता, क्योंकि उनमें एक अभूतपूर्व सत्यता छिपी रहती है जिसके सैकड़ों उदाहरण प्रत्यक्ष जीवन में भी देखे जा सकते हैं अतः उन स्वप्नों का क्या कारण है ? इसे खोजने के लिए क्या साधन है ? आइए, जिस विषय पर मनोविज्ञान अभी मौन है, उसे प्राचीन जैन मनीषियों के चिन्तन के प्रकाश में देखें।
स्वप्न के भेद प्रत्यक्ष जीवन में हम जो स्वप्न देखते हैं वे कई प्रकार के होते हैं : जैसे
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(१) अतृप्त इच्छाओं का वर्शन-जागृत अवस्था में मन में कुछ भावनाएँ व इच्छाएँ उठती हैं, वे तृप्त नहीं हो पातीं और धीरे-धीरे प्रबल इच्छा या लालसा का रूप धारण कर लेती हैं, वे इच्छाएं स्वप्न में पूर्ण होती दिखाई देती हैं-जैसे विवाह की तीव्र इच्छा वाले व्यक्ति का स्वप्न में विवाह होना । धन की तीव्र लालसा वाले व्यक्ति का स्वप्न में लाटरी निकलना या अन्य किसी माध्यम से यकायक धनवान हो जाना। इस प्रकार अनेक अतृप्त इच्छाएँ स्वप्न में पूर्ण होती दिखाई देती हैं । भिखारी का राजा बनने का स्वप्न भी इसी कोटि का है। इसप्रकार के मधुर स्वप्न बीच में मंग हो जाने या असत्य निकल जाने पर उन व्यक्तियों को दुःख भी होता है ।
(२) आदेशात्मक स्वप्न- कभी-कभी मनुष्य विषम परिस्थिति में फंस जाता है, समस्या का समाधान नहीं मिलता और वह रात-दिन उसी चिन्तन में लगा रहता है। उस दशा में स्वप्न में उसे उस समस्या का समाधान मिल जाता है। रोगी को अमुक औषधि लेने का आदेश, अर्थार्थी को अमुक व्यापार करना या अमुक स्थान पर जाने का आदेश । इन आदेशात्मक स्वप्नों के अनुसार कार्य करने पर लाभ भी होता है। ऐसे स्वप्न-आदेश कई बार तो अदृश्य आवाज के रूप में ही आते हैं और कभी-कभी अपने पूर्वज, या इष्टदेव आदि भी स्वप्न में दृष्टिगोचर होते हैं ।
(३) भविष्यसूचक स्वप्न-भविष्य में अपने जीवन में, परिवार में, समाज या राष्ट्र में घटित होने वाली घटनाओं के स्पष्ट या अस्पष्ट संकेत स्वप्न में मिल जाते हैं । जैसे स्वयं को या किसी अन्य को बीमार देखना, मत देखना, दुर्घटना में फंसे देखना या प्रकृति, समाज या राज्य में नए परिवर्तन देखना।
इस प्रकार के स्वप्नों के सम्बन्ध में दिगम्बर आचार्य जिनसेन ने लिखा हैस्वप्न दो प्रकार के हैं(१) स्वस्थ अवस्था वाले (२) अस्वस्थ अवस्था वाले
१. जो स्वप्न चित्त की शांति तथा धातुओं (शारीरिक रस आदि) की समानता रहते हुए दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्था वाले स्वप्न होते हैं । ये स्वप्न बहुत कम दीखते हैं और प्रायः सत्य होते हैं।
२. मन की विक्षिप्तता तथा धातुओं की असमानता की अवस्था में दिखाई देने वाले स्वप्न प्रायः असत्य होते हैं । ये शारीरिक व मानसिक विकारजन्य ही होते हैं।
इसी प्रकार दोषसमभव तथा देवसमुद्भव-स्वप्न के भी दो भेद बताये हैं-वात, पित्त, कफ आदि शारीरिक विकारों के कारण आने वाले स्वप्न दोषज होते हैं, जो प्रायः असत्य ही निकलते हैं।
किसी पूर्वज या इष्टदेव द्वारा अथवा मानसिक समाधि की अवस्था में जो स्वप्न दिखाई देते हैं वे देवसमुद्भव की कोटि में गिने गये हैं और वे प्रायः सत्य सिद्ध होते हैं।
स्थानांग सूत्र तथा भगवती सूत्र में स्वप्न के पाँच भेद भी बताये हैं
१. यथातथ्य स्वप्न-स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जागने पर उसी का दृष्टिगोचर होना या उपलब्धि होना अथवा उसके अनुरूप शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति होना।
यह यथातथ्य स्वप्न ध्यान एवं समाधि द्वारा प्रसन्नचित्त, त्यागी-विरागी संवृत (संयमी) व्यक्ति ही देखता है और उससे वह प्रतिबुद्ध होकर अपना आत्म-लाभ करता है।
२. प्रतान स्वप्न-विस्तार युक्त स्वप्न देखना । यह यथार्थ अथवा अयथार्थ दोनों ही हो सकता है। डा. सिगमंड फ्रायड ने स्वप्न के पांच प्रकार बताये हैं। उसमें भी 'विस्तारीकरण' एक प्रकार है जिसमें किसी भी घटना का विस्तारपूर्वक दर्शन होता है।
३. चिता स्वप्न-जागृत अवस्था में जिस वस्तु का चिन्तन रहा हो, मन पर जिसके संस्कारों की छवि पड़ती हो, उसी वस्तु को स्वप्न में देखना ।
४. सविपरीत स्वप्न-स्वप्न में जो वस्तु देखी हो, जो दृश्य या घटना दिखाई दी हो, उससे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना।
५. अव्यक्त स्वप्न-स्वप्न में देखी हुई वस्तु का स्पष्ट रूप में ज्ञान न होना ।
उक्त पाँच प्रकार के स्वप्नों में उन सभी स्वप्नों का समावेश हो जाता है जो कभी प्रतीक रूप में, कभी विपरीत रूप में और कभी नाटक रूप में, कभी आदेश रूप में तथा कभी भविष्य दर्शन के रूप में हमें स्वप्न लोक में ले जाते हैं और किसी तथ्य का संकेत कर जाते हैं ।
स्वप्नशास्त्र के आचार्यों ने इनकी व्याख्या का विस्तार कर स्वप्नों के नौ कारण और भी बताये हैं।" १. अनुभूत स्वप्न–अनुभव की हुई वस्तु को स्वप्न में देखना ।
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२. श्रुत स्वप्न-सुनी हुई घटना, कहानी आदि को स्वप्न में देखना। ३. दृष्ट स्वप्न-जागते में देखी हुई वस्तु को स्वप्न में देखना ।
४. प्रकृति विकार जन्य स्वप्न-वात, पित्त आदि किसी धातु की न्यूनाधिकता के कारण शरीर में विकार उत्पन्न हो जाता है, तब उसके कारण स्वप्न दिखाई देते हैं । जैसे-वात प्रकृति वाले को पर्वत या वृक्ष आदि पर चढ़ना, आकाश में उड़ना आदि स्वप्न आते हैं। इसी प्रकार पित्त प्रकोप वाला व्यक्ति जल, फूल, अनाज, जवाहरात, लाल-पीले रंग की वस्तुएँ, बाग-बगीचे आदि स्वप्न में देखता है । कफ की बहुलता वाला व्यक्ति अश्व, नक्षत्र, चन्द्रमा, तालाब, समुद्र आदि का लांघना ये दृश्य स्वप्न में देखता है ।
५. स्वाभाविक स्वप्न-सहज रूप में जो दिखाई दे ।
६. चिन्ता समुत्पन्न स्वप्न-जिस वस्तु का बार-बार चिन्तन किया जाता हो वही स्वप्न में दिखाई देती है।
७. देवता के प्रभाव से उत्पन्न होने वाला स्वप्न -किसी देवता के अनुकूल या प्रतिकूल होने पर स्वप्न में वह सूचना देता है।
८. धर्मक्रिया प्रभावोत्पन्न स्वप्न-धर्मक्रिया करने से, चित्त की समाधि से भविष्य की शुभ सूचना देने वाला स्वप्न ।
६. पापोदय से आने वाला स्वप्न-ये स्वप्न प्रायः मयानक त्रासदायी तथा भावी अनिष्ट व अमंगल सूचक होते हैं।
इनमें से प्रथम छह प्रकार के स्वप्न निरर्थक होते हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे, जीवन में उनकी कोई विशेष उपयोगिता या प्रभाव नहीं होता। किंतु देवता द्वारा दशित तथा धर्म एवं पाप-प्रभाव से आये हुए स्वप्न सत्य होते हैं, उनका शुभ या अशुभ जो भी फल हो, वह अवश्य मिलता है। भाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणि ने भी स्वप्न के इन्हीं नौ निमित्तों का वर्णन किया है।"
स्वप्नों को सत्यता उक्त वर्णन में स्वप्नों के जो निमित्त बताये हैं उनमें यह स्पष्ट सूचित किया है कि शरीर के वात-पित्त आदि दोषों के कारण जो स्वप्न आते हैं वे प्रायः अयथार्थ ही होते हैं, वे सपने, सपने ही रहते हैं। किन्तु पुण्योदय के प्रभाव से, मानसिक प्रसन्नता, समाधि आदि की अवस्था में जो भविष्य सूचक शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं वे प्रायः अवश्य ही सत्य सिद्ध होते हैं । सरलात्मा, भावितात्मा तथा विरक्त हृदय वाले व्यक्ति कभी-कभार ही स्वप्न देखते हैं और उन स्वप्नों में प्रायः भविष्य छुपा रहता है।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा था-मंते ! जो स्वप्न दिखाई देते हैं, क्या वे सत्य होते हैं या व्यर्थ ?
उत्तर में भगवान ने बताया
गौतम ! जो संवत-आत्मा-त्यागी संयमी श्रमण स्वप्न देखते हैं वे स्वप्न सत्य होते हैं-संवुडे सुविणं पासइ महातच्चं पासइ । उनका फल अवश्य ही सत्य सिद्ध होता है । इसके अतिरिक्त अव्रती (असंवत) या व्रताव्रती (श्रावक) आदि के स्वप्न सत्य भी हो जाते हैं और असत्य भी।
सामान्यतः साधारण मनुष्य भी कभी-कभी ऐसा स्वप्न देखता है जो सत्य होता है । प्राचीन तथा नवीन मनोविज्ञान की दृष्टि से इस पर विचार करें तो यही स्पष्ट होता है कि जब इन्द्रियाँ सोती हैं, तब भी अन्तर्मन जागता रहता है और उसके पर्दे पर भविष्य में होने वाली घटनाओं की छवि पहले से ही प्रतिबिम्बित हो जाती है। मन अज्ञात घटनाओं का साक्षात्कार करने में सक्षम है, अगर मन भविष्य का ज्ञान न कर पाता हो तो फिर भविष्यद्रष्टा, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अघटित भावी घटनाओं को कैसे जान पायेंगे? वे भी तो भविष्यवाणियाँ करते हैं और वे सत्य होती हैं। इसका कारण यह स्पष्ट है कि मन में, शक्ति का स्रोत छुपा है, जिनका मन अधिक सक्षम, ज्ञान बल से समर्थ, तपश्चरण तथा ध्यान से निर्मल हो गया हो, वे जागृत अवस्था में ही भविष्य का साक्षात्कार कर सकते हैं, किन्तु साधारण मनुष्य का मन जो वास्तव में इतना निर्मल और स्थिर नहीं रहता, सुषुप्ति या अनिद्रा दशा में जब वह कुछ स्थिर होता है तो भावी के कुछ अस्पष्ट संकेतों को ग्रहण कर लेता है और वे ही स्वप्न रूप में हमें दिखाई देते हैं।
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स्वप्न-दर्शन में समय की महत्ता
स्वप्नशास्त्र के अनुभवियों ने इस विषय पर भी काफी गंभीरतापूर्वक विचार किया है कि किस समय में देखा हुआ स्वप्न उत्तम है, किस समय का मध्यम । स्वप्न-दर्शन का फल समझने में समय का बहुत महत्व है। इसलिए स्वप्नशास्त्र में बताया है
रात्रि के प्रथम प्रहर में देखे गये शुभाशुभ फलप्रद स्वप्न का फल बारह महीने से मिलता है। * दूसरे प्रहर में देखे स्वप्न का छह महीनों से । तीसरे प्रहर में देखे स्वप्न का फल तीन महीनों से। चौथे प्रहर में जब एक मुहूर्त भर रात बाकी रहती है तब जो स्वप्न दिखाई दे उसका फल दस दिनों में और सूर्योदय के समय देखे स्वप्न का फल तुरन्त मिलता है
दृष्ट: सूर्योदये स्वप्नः सद्यः फलति निश्चितम् । 4 माला स्वप्न, दिवा स्वप्न और रोग एवं मल-मूत्रादि की पीड़ा के कारण आने वाले स्वप्न निरर्थक
होते हैं।
प्राचीन ग्रन्थों एवं आगमों में जहाँ भी वर्णन आता है कि अमुक माता ने स्वप्न देखे वहां प्रायः रात्रि के चतुर्थ प्रहर का ही उल्लेख मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने त्रिषष्टि शलाका० में महापुरुषों की माताओं के स्वप्न दर्शन का एक ही समय सर्वत्र सूचित किया है-यामिन्याः पश्चिमे यामे"," अथवा "यामिन्याः पश्चिमे क्षणे । महापुराणकार आचार्य जिनसेन ने भी-निशायाः पश्चिमे यामे-रात्रि के अन्तिम प्रहर मे ही शुभ स्वप्न दर्शन का उल्लेख किया है ।
पश्चिम रात्रि में शुभ स्वप्न देखने का एक यह भी कारण हो सकता है कि थका हुआ मन प्रथम तीन प्रहर तक गाढ़ निद्रा लेकर शांत हो जाता है, उस कारण चंचलता भी कम हो जाती है, और कुछ ताजगी एवं प्रसन्नता की अनुभूति होती है अतः उस समय में शांति एवं स्थिरता की मनःस्थिति में जो स्वप्न आता है वह प्रायः शीघ्र ही सत्य होता दिखाई देता है।
भगवान महावीर ने भी रात्रि के अन्तिम प्रहर में ही १० स्वप्न देखे थे ।२०
इस प्रकार पश्चिम रात्रि का या सूर्योदय के पूर्व का स्वप्न शोघ्र फलदायी माना गया है तथा रात्रि के प्रथम प्रहर में देखा गया स्वप्न दीर्घकाल से फल देने वाला होता है। स्वप्न जागरिका
स्वप्नशास्त्र के अनुसार यह भी माना गया है कि शुभ स्वप्न देखकर फिर सोना नहीं चाहिए। अशुभ स्वप्न देखने के बाद भले ही नींद ले लें। क्योंकि स्वप्न-दर्शन के पश्चात् नींद लेने से उसका फल व्यर्थ हो जाता है। शास्त्रों में जहाँ भी वर्णन आता है, प्रायः यही बताया गया है कि 'सुमिण देसणेण पडिबुद्धा-धम्म जागरियं करेमाणी' स्वप्न देखकर जागृत हो गई और फिर धर्म जागरिका करती हुई अर्थात् शेष रात्रि प्रमुस्तवन, धर्म चिन्तन आदि करके व्यतीत की । इसे ही आगम की भाषा में स्वप्न जागरिका कहा गया है । सुमिण जागरिया" का अर्थ करते हुए आचार्य शीलांक ने बताया है-शुभस्वप्न देखने के पश्चात् जागृत रहना, नींद नहीं लेना स्वप्नजागरिका है। अगर नींद आ गई अथवा फिर कोई अशुभ स्वप्न आ गया तो पूर्व दृष्ट स्वप्न का फल मंद या क्षीण हो जाता है । शुभ स्वप्न
स्वप्न-शास्त्रवेत्ताओं का कथन है कि रात्रि को सोते समय मनुष्य की जैसी वृत्तियाँ होती हैं, वैसे ही स्वप्न प्रायः आते हैं। भावना में उत्तेजना, भय, वासना या अन्य किसी प्रकार की मलिनता रहेगी तो रात्रि को प्रायः उसी प्रकार के भयप्रद अशुभ स्वप्न आयेंगे। सोते समय अगर मन प्रसन्न, चित्त शांत और भावनाएँ निर्मल रहीं तो प्रायः शुभस्वप्न दिखाई देते हैं । रात्रि को सोते समय प्रभुस्मरण, नवकार मन्त्र का ध्यान तथा आत्मचिन्तन करना इसलिए लाभदायक है कि उससे न केवल कर्म-निर्जरा ही होती है किन्तु अशुभ स्वप्नों का निवारण भी होता है और या तो अच्छी गहरी नींद आती है अथवा शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं।
सामान्यतः मनुष्य जानना चाहता है कि शुभ स्वप्न कौन से होते हैं और अशुभ स्वप्न कोन से ? मूलतः स्वप्नों का यह वर्गीकरण किसी एक ग्रन्थ में नहीं मिलता। कहीं-कहीं किसी स्वप्न को शुभ माना जाता है तो दूसरी जगह उसे अशुभ भी मान लिया जाता है। स्वप्नशास्त्रियों के अपने अनुभव के आधार पर इसकी मान्यता में अन्तर भी आ जाता है।
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प्राचीन आचार्यों ने शुभ स्वप्नों की एक तालिका देते हुए बताया है-देवता, बांधव, पुत्र, उत्सव, गुरु, छत्र, कमल आदि देखना दुर्ग, हाथी, मेघ, वृक्ष, पर्वत, महल पर चढ़ना, समुद्र का तरना, सुरा, अमृत दूध व दही का पीना, चन्द्र व सूर्य का ग्रहण-ये स्वप्न देखना शुभ है । २२
भगवती सूत्र में बहत्तर प्रकार के स्वप्न की चर्चा है जिसमें ४२ स्वप्न जघन्य (साधारण या अशुभ) बताये है और ३० स्वप्न उत्तम (शुभ या उत्कृष्ट) बताये हैं । २३
बयालीस जघन्य स्वप्न इस प्रकार हैं१. गंधर्व १५. बिल्ली . . .
२६. कलह २. राक्षस १६. श्वान
३०. विविक्त दृष्टि ३. भूत १७. दौस्थ्य (दुखी होना)
३१. जलशोष ४. पिशाच १८. संगीत
३२. भूकम्प ५. बुक्कस
१९. अग्नि-परीक्षा (अग्निस्नान) ३३. गृहयुद्ध ६. महिष २०. भस्म (राख)
३४. निर्वाण ७. सांप २१. अस्थि
३५. भंग ८. वानर २२. वमन
३६. भूमंजन ६. कंटक वृक्ष २३. तम
३७. तारापतन १०. नदी २४. दुःस्त्री
३८. सूर्यचन्द्र स्फोट (धब्बे) ११. खजूर २५. चर्म
३६. महावायु १२. श्मशान २६. रक्त
४०. महाताप १३. ऊँट २७. अश्म (पत्थर)
४१. विस्फोट १४. गर्दभ २८. वामन
४२. दुर्वाक्य प्राचीन स्वप्न-शास्त्र के अनुसार उक्त प्रकार के या उनसे मिलते-जुलते इसी प्रकार के अशुभ दर्शन कराने वाले स्वप्न अशुभ के सूचक होते हैं । अगर स्त्री गर्भाधारण के समय ऐसे स्वप्न देखती है तो कुपुत्र या दुखदायी संतान को जन्म देती है। अगर पुरुष यात्रा आदि के समय इनमें से कोई स्वप्न देखता है तो यात्रा असफल तथा त्रासदायी होती है, मृत्यु भी संभव है । अशुभ स्वप्न देखने के बाद उसकी निवृत्ति हेतु तुरन्त उठकर इष्ट स्मरण करना चाहिए और वापस नींद ले लेना चाहिए ताकि अशुभ स्वप्न का कुफल मंद हो जाय ।
भगवती सूत्र में ही गौतम स्वामी के उत्तर में भगवान ने तीस उत्तम स्वप्नों (महास्वप्नों) का वर्णन किया है। उत्तम स्वप्न इस प्रकार हैं१. अर्हत् ११. गौरी
२१. सरोवर २. बुद्ध १२. हाथी
२२. सिंह ३. हरि १३. गौ
२३. रत्नराशि ४. कृष्ण १४. वृषभ
२४. गिरि ५. शंभु १५. चन्द्र
२५. ध्वज ६. नृप १६. सूर्य
२६. जलपूर्ण कुंभ ७. ब्रह्मा १७. विमान
२७. पुरीष (विष्ठा) ८. स्कंद १८. भवन
२८. मांस ६. गणेश १६. अग्नि
२६. मत्स्य १०. लक्ष्मी २०. समुद्र
३०. कल्पद्रुम उक्त ३० स्वप्न या इसी प्रकार को शुभ वस्तु का अन्य कोई स्वप्न आये तो उसे शुभ सूचक माना गया है। स्वप्न-शास्त्र के अनुसार तीर्थकर या चक्रवर्ती की माताएँ उक्त तीस स्वप्नों में से कोई चौदह स्वप्न देखती है। परम्परागत मान्यता के अनुसार तीर्थंकर की माता निम्न १४ स्वप्न देखती है। भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवा ने भी ये ही स्वप्न देखे और भगवान महावीर की माता त्रिशलादेवी ने भी इसी प्रकार के १४ स्वप्न देखे । यहाँ १४ स्वप्न और स्वप्नपाठकों द्वारा बताया गया उनका शुभफल प्रस्तुत है
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
(१) गज-चार दांत वाले हाथी को देखने का अर्थ है-चार प्रकार के धर्म की प्ररूपणा करेंगे (श्रावकश्राविका, श्रमण-श्रमणी)
(२) वृषभ-वृषभ की भांति धर्म की खेती (बोधि बीज का वपनकर) तथा धर्म-धुरा का वहन करेंगे।
(३) सिंह-सिंह की मांति पराक्रमी, काम विकार रूप उन्मत्त हाथियों को विदीर्ण करेंगे। विकारों के वनचर सदा ही उनसे दूर रहेंगे।
(४) लक्ष्मी-त्रिभुवन की समस्त लक्ष्मी-धर्मलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, यशलक्ष्मी उनका वरण करेंगी तथा वे महान् दानी होंगे। साथ ही विपुल ऐश्वर्य उनके चरणों में लोटेगा।
(५) माला-माला की भांति सदा प्रसन्न, प्रफुल्ल व सभी को कंठ व मस्तक में धारण योग्य-पूज्यभाव
युक्त होंगे।
(६) चन्द्र-चन्द्रमा की मांति संसार को शांतिदायक, अमृतवर्षी तथा भव्यात्मारूप कुमुदों को प्रफुल्लित करने वाले होंगे।
(७) सूर्य-सूर्य की भांति तेजस्वी व अज्ञान अंधकार नष्ट करेंगे। (८) ध्वजा-अपने कुल व धर्म-परम्परा की यश ध्वजा फहरायेगा।
(8) कलश-वंश या धर्मरूपी प्रासाद शिखर पर स्वर्ण कलश की भांति शोभित होंगे। या कुम्भ की तरह धर्म जल को धारण करने में समर्थ होंगे।
(११) पन-सरोवर-फूलों से खिले सरोवर की भाँति उनका धर्म-परिवार सदा फला-फूल खिला हुआ रहेगा और स्वर्ण कमल पर उनका आसन रहेगा।
(११) समुद्र--समुद्र की तरह अनन्त ज्ञान-दर्शन रूप मणिरत्नों के आगार होंगे, तथा उनकी गंभीरता, शक्तिमत्ता का कोई पार नहीं पा सकेगा । आत्म-गुणों की अक्षमता होगी।
(१२) विमान-विमानवासी देवों के भी पूज्य होंगे। (१३) रत्नराशि-संसार की समस्त धन-संपदा उनके चरणों में लोटेगी और वे उससे निस्पृह रहेंगे।
(१४) निषूम अग्नि-अग्नि की भांति अन्तर विकारों को भस्म करने में समर्थ होंगे, किन्तु फिर भी निर्धूम-निष्प्रकम्प व अक्षुब्ध रहेंगे । कठोर तपश्चरण व ध्यान साधना करते हुए भी बाहर में शांत, सौम्य व तेजयुक्त ही दोखेंगे।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थंकर की मातो १६ स्वप्न देखती है । उनमें १३ स्वप्न तो उक्त स्वप्नों के अनुसार ही है । आठवें स्वप्न, ध्वजा के स्थान पर मीनयुगल है और सिंहासन तथा नागभवन दो अधिक हैं । मीनयुगल देखने से सुखी होना- सुखी मत्स्ययुगेक्षणात् और सिंहासन देखने से भूमंडल की राज्यलक्ष्मी के अधिपति-सिंहासनेन साम्राज्यम् । तथा नागभवन देखने का तात्पर्य है जन्म से ही वह पुत्र अवधिज्ञान से युक्त होगा
फणीन्द्र भवनालोकात् सोऽवधिज्ञानलोचनः ।२५ इस प्रकार तीर्थंकरों की माताएं ये शुभ स्वप्न देखती हैं जो होने वाली सन्तान के और उनकी माता के अनन्त सौभाग्य तथा कल्याण के सूचक होते हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार चक्रवति की माता भी इसी प्रकार के १४ शुभ स्वप्न देखती है, किंतु उनके अथं अधिकतर भौतिक समृद्धि सूचक ही माने जाते हैं। तीर्थकर जहाँ धर्म चक्रवर्ती होने से उनकी समृद्धि-धर्म लक्ष्मी रूप में मानी जाती है वहां चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्रायः भौतिक समृद्धियों की ही सूचक है।।
दिगम्बर परम्परा के आचार्य जिनसेन ने भरत चक्रवर्ती की माता का नाम महादेवी यशस्वती बताया है और वे १४ स्वप्न के स्थान पर सिर्फ ६ स्वप्न ही देखती है ।२६ (१) सुमेरू पर्वत
(२) सूर्य (३) चन्द्रमा
(४) ग्रसी हुई पृथ्वी (५) हंस सहित सरोवर (६) चंचल लहरों वाला समुद्र
वासुदेव की माता उक्त १४ स्वप्नों में से कोई भी सात स्वप्न देखती है । बलदेव की माता ४ स्वप्न । माण्डलिक राजा तथा भावितात्मा अणगार की माता कोई भी एक शुभ स्वप्न देखती है जो आने वाली संतान के सौभाग्य का सूचक होता है।
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स्वप्न शास्त्र : एक मीमांसा
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स्वप्नशास्ववेत्ताओं के अनुसार उक्त ३० शुभस्वप्नों में से कोई भी स्त्री या पुरुष अगर ये स्वप्न देखते हैं तो वे उनके लिए शुभ सूचक ही है।
कुछ विशिष्ट स्वप्न स्वप्नशास्त्रवेत्ताओं ने अपने अनुभव, अध्ययन तथा परम्परागत श्र तियों के आधार पर शुभाशुभ स्वप्नों की सूची दी है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि बस, शुभ या अशुभ स्वप्नों के इतने ही प्रकार हैं । वास्तव में तो स्वप्नों की कोई ईयत्ता (सीमा) नहीं है। किसी भी समय किसी भी प्रकार का स्वप्न देखा जा सकता है और उसका अर्थ व संकेत समझने के लिए वातावरण, परिस्थिति, व्यक्ति की अवस्था, पद आदि अनेक वस्तुओं पर विचार किया जाता है । एक ही प्रकार का स्वप्न यदि दो व्यक्ति देखते हैं तो उसका फल एक ही हो यह जरूरी नहीं। उनकी स्थिति के अनुसार एक ही स्वप्न के दो भिन्न अर्थ व फल मिल जाते हैं । आचार्यों ने एक उदाहरण देकर बताया है-एक भिखारी ने स्वप्न में पूर्ण गोल चन्द्र को मुंह में प्रवेश करते देखा । और एक श्रेष्ठी पुत्र ने भी यही स्वप्न देखा । दोनों ने स्वप्नशास्त्री से इसका अर्थ पूछा तो उसने भिखारी को बताया-तुम्हें आज एक गोल पूर्ण रोटी (पूरण पोली-मीठी रोटी)२ भिक्षा में प्राप्त होगी । और श्रेष्ठी पुत्र को बताया- तुम्हें राज्य की प्राप्ति होगी।
तो, स्वप्न-फल का निर्णय करने में पात्र एवं परिस्थितियाँ मुख्य कारण होती है। स्वप्नशास्त्र में स्वप्नों के जो अर्थ बताये हैं वे सामान्य अर्थ हैं । विशिष्ट अर्थ व्यक्ति अपनी बुद्धि से लगाता है । इस प्रकार के कुछ स्वप्नों का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में आता है जो स्वप्न भी विचित्र थे और उनके अर्थ भी विचित्र ही लगाये गये, समय पर उनकी यथार्थता भी जाहिर हो गई।
भरत चक्रवर्ती के स्वप्न-महापुराण में भरत चक्रवर्ती के १६ स्वप्नों का वर्णन है । एक रात भरत जी ने एक साथ ये विचित्र स्वप्न देखे । इनके क्या संकेत हैं, वे कुछ समझ नहीं पाये। मन में ऊहापोह लिये ही वे भगवान आदिनाथ की सेवा में पहुंचे तो भगवान ने उनका विशिष्ट अर्थ बताया है।
(१) भरत–एक सघन वन में २३ सिंह स्वेच्छया भ्रमण करते हुए पर्वत शिखर पर चढ़कर उस पार पहुँच गये । उनकी गूंज सुनाई देती रही।
भगवान ऋषभदेव-तेबीस सिंह भावी तेबीस तीर्थंकरों के प्रतीक हैं । तेबीस तीर्थंकरों के समय जैन साधु अपने धर्म में दृढ़ रहेंगे। इन तीर्थकरों के निर्वाण पद प्राप्त कर चुकने पर भी उनके उपदेशों की गूंज सुनाई देती रहेगी।
(२) मरत-एक सिंह के पीछे बहुत सारे हरिण चले जा रहे थे।
भगवान ऋषभदेव-सिंह चौबीसवें तीर्थंकर का द्योतक है। हरिण उनके धर्मानुयायी हैं, जिनमें उस सिंह जैसी न तो शक्ति है, और न धर्मपरायणता । वे लोग तीर्थंकर के पद-चिन्हों का अनुकरण करना तो चाहेंगे, किन्तु कर नहीं पायेंगे। ऐसा भी होगा कि भटक कर पथभ्रष्ट हो जायें और मिथ्या प्ररूपणाएँ करें।
(३) भरत-एक अश्व गज से भाराकान्त हो रहा था
भगवान ऋषभदेव-अश्व मुनि का प्रतीक है । पंचमकाल में मुनिजन अपने पर ऐसी सत्ताओं का आरोप कर बैठेंगे जो उन्हें दबा देंगी। उस युग में साधु लोग शक्ति प्राप्त करने के इच्छुक हो जायेंगे और वही शक्ति (चमत्कार) उनको धर दबोचेगी।
(४) भरत-अजा समूह सूखी पत्तियाँ चर रहा था ।
भगवान ऋषभदेव-इसके दो अर्थ हैं-पंचम काल में अतिवृष्टि और अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष होंगे। अन्न की अत्यन्त अल्पता हो जायेगी। जिससे जन-साधारण अभक्ष्य और अनुपसेव्य पदार्थों का भक्षण करेंगे । स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भावी सन्तति अजा समूह की तरह निर्बल हो जायेगी।
(५) भरत-हाथी की पीठ पर वानर बैठा था ।
भगवान ऋषभदेव-हाथी सत्ता का प्रतीक है। पंचम काल में सत्ता निम्नस्तरीय (पाशविक) व्यक्तियों के हाथ में चली जायेगी। राजसत्ता क्षत्रियों का साथ छोड़ देगी। धर्म-सत्ता मानवता से शून्य हो जायेगी। पाशविक वृत्तियाँ बढ़ेगी और सत्ता की बन्दर-बाँट होगी। राजनीति, समाज और धर्म में छल, दम्भ, चोरी, सीनाजोरी, स्वार्थ और वैमनस्य आदि अतिशय बढ़ जायेंगे । सत्ताधारियों में चरित्रवान व नीतिज्ञ व्यक्तियों की अल्पता हो जायेगी।
(६) भरत-एक हंस अनगिन कौवों द्वारा मारा जा रहा था ।
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ : पंचम खण्ड
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भगवान ऋषभदेव-उस युग में ज्ञानी और विवेकी सज्जनों पर धूर्तजन आक्षेप करेंगे उन्हें पीटेंगे और नाना प्रकार से त्रास देंगे। जैन साधुओं को अन्य मतानुयायी अनेक प्रकार की यातनायें भी देंगे।
(७) भरत-प्रेत नृत्य कर रहा था।
भगवान ऋषभदेव-भविष्य में प्रेत आत्माओं की पूजा बढ़ेगी, जनता राक्षसी शक्ति की उपासक हो जायेगी।
(८) भरत-तालाब का मध्य भाग तो सूखा पड़ा था, किन्तु उसके आसपास पानी भरा था।
भगवान ऋषभदेव-तालाब संसार है । जिसका मध्य भाग संस्कृति और ज्ञान का केन्द्र आर्यावर्त है। एक समय ऐसा आयेगा जबकि यहां ज्ञान और संस्कृति क्षीण रहेगी। आस-पास के अन्य देश संस्कृति और ज्ञान से समृद्ध हो जायेंगे।
(8) भरत-रत्नों का ढेर मिट्टी से आवृत था।
भगवान ऋषभदेव-ज्ञान और भक्तिरूपी रत्न अज्ञान और अश्रद्धा की मिट्टी के नीचे दब जायेगा। साधुजन शुक्लध्यान को प्राप्त नहीं कर पायेंगे।
(१०) भरत-एक कुत्त मौज से मिठाइयां उड़ा रहा था और लोग उसकी पूजा कर रहे थे। भगवान ऋषमदेव-उस युग में निम्न व्यक्ति मजे में रहेंगे, पूज्य माने जायेंगे और वे ही दर्शनीय होंगे।
(११-१२) भरत-एक जवान बैल मेरे आगे चिल्लाता हुआ निकला। दो बैल कन्धे से कन्धा मिलाये चले जा रहे थे।
भगवान ऋषभदेव-पंचम काल में युवक जैन मुनि होंगे और अनभिज्ञता के कारण बदनाम होंगे। धर्मप्रचार के लिए एकाकी भ्रमण का साहस नहीं कर सकेंगे।
(१३) मरत-चन्द्रमा पर धुन्ध-सी छाई हुई थी।
भगवान ऋषभदेव-चन्द्रमा संसारी आत्मा है । पंचमकाल में आत्मा अधिक कुलषित हो जायेगी। सद्भावनाएं क्षीण हो जायेंगी और तत्त्वज्ञान लुप्तप्रायः हो जायेगा।
(१४) मरत-सूर्य मेघाच्छन्न दिखाई दिया। भगवान ऋषमदेव-उस समय में किसी को सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होगी। (१५) भरत-छायाहीन एक सूखा पेड़ देखा। भगवान ऋषभदेव-धर्माचरण के अभाव में तृष्णा बढ़ेगी और उसके साथ ही अशान्ति भी बढ़ेगी। (१६) भरत-सूखे पत्तों का एक ढ़ेर देखा।
भगवान ऋषभदेव-पंचम काल में औषधियां और जड़ी-बूटियां अपनी शक्ति (रस) खो बैठेंगी और रोगों की वृद्धि होगी।
--(जिनसेन कृत महापुराण ४११६३-७६) यद्यपि ये स्वप्न चक्रवर्ती ने देखे थे, किन्तु इनका सम्बन्ध न तो उनके जीवन से जुड़ा है, और न प्रजा के जीवन से, किन्तु ये सभी स्वप्न आने वाले युग के सूचक माने गये हैं जिनका फल पंचम काल में होना बताया है। -
कहा जाता है कि तथागत बुद्ध के समय में भी किसी एक राजा ने १६ स्वप्न देखे थे। वह स्वप्नों के विचित्र रूपों पर विचार करके चिन्तित हो उठा। प्रातः वह तथागत बुद्ध के पास गया और अपने स्वप्न सुनाये तो बुद्ध ने उनका इस प्रकार अर्थ किया
___ स्वप्न-(१) चार भयंकर बैल चारों दिशाओं से लड़ने आये । सैकड़ों व्यक्ति दर्शक रूप में खड़े थे वे बिना लड़े ही वापिस लौट गये।
अर्थ-चारों ओर से उमड़ते-घुमड़ते बादल चढ़-चढ़कर आयेंगे । पिपासु लोग टकटकी लगाए निहारते रहेंगे। पर वे बिना बरसे ही लौट जायेंगे, क्योंकि लोगों में पापाचार फैला हुआ जो रहेगा।
(२) छोटे-छोटे वृक्षों पर इतने फल-फूल लगे थे कि वे उनका मार भी नहीं सह पा रहे थे।
अर्थ-आने वाले युग में छोटी-छोटी वय वाले व्यक्तियों की सन्तानों की बहुत वृद्धि होगी। उनका भार भी वहन करना उनके लिए दूभर होगा।
(३) तीसरे स्वप्न में लातें खा-खाकर भी गऊ अपनी बच्छिया का पय पान कर रही थी।
अर्थ-बूढ़ों को बच्चों का मुंहताज बनकर रहना पड़ेगा । उनका खट्टा-मीठा सब कुछ सहना होगा तभी वे उनका भरण-पोषण करेंगे।
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स्वप्न शास्त्र : एक मीमांसा
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(४) चौथे स्वप्न में एक रथ के बड़े-बड़े बैलों को खोलकर छोटे-छोटे बछड़े जोत दिये गये, पर वे भार वहन में असमर्थ रहे।
अर्य-सुयोग्य शासकों को हटाकर अयोग्यों को प्रशासन में जोड़ा जायेगा। पर वे उसका निर्वाह भली-भांति नहीं कर सकेंगे।
(५) पांचवें स्वप्न में देखा कि एक घोड़ा दोनों ओर से खा रहा है अर्थात् मुखद्वार से भी तथा मलद्वार से भी।
अर्थ-शासक गण दोनों ओर से खायेंगे-सामने से नौकरी के पैसे और पीछे से रिश्वत-उत्कोच !
(६) छठे स्वप्न में देखा-खाने का पात्र हाथ में लिए चतुर व्यक्ति बूढ़े सियाल को उसमें मूत्र करने की प्रार्थना कर रहे हैं।
अर्थ-धर्माचार्यों को कुछ स्वार्थी व्यक्ति अपने हाथों की कठपुतली बनायेंगे । वे भी धर्म की ओट में स्वार्थ साधने तत्पर रहेंगे।
(७) सातवें स्वप्न में देखा-एक व्यक्ति बहुत ही परिश्रम से रस्सी बंट रहा था। उसे पास बैठी सियारनी खा रही थी।
अर्थ-पति अथक श्रम कर जो पूंजी कमाकर लायेगा वह सारी तो उन गृह देवियों की सिंगार-सज्जा में ही पूरी हो जायगी।
(८) आठवें स्वप्न में देखा-भरे हुए घड़ों को सब भर रहे हैं। पास में एक खाली घड़ा पड़ा है उसको कोई नहीं देखता है।
अर्थ-धनिकों का धन राज-करों में तथा आराम में पूरा होगा। वे भी धन के बल से स्वर्ग जाना चाहेंगे किन्तु गरीबों पर ध्यान कोई नहीं देगा।
(8) नवें स्वप्न में देखा-तालाब का पानी किनारे-किनारे तो स्वच्छ है बीच में गन्दगी भरी हुई है। जबकि होता यह है कि किनारे पर जल गन्दा होता है और बीच में स्वच्छ होता है।
अर्थ-शासकों के पास में जी हजूरियों का जमघट लगा रहेगा, सज्जन दूर-दूर ही रहेंगे। (१०) दशवाँ स्वप्न यह था कि एक ही बर्तन में तीन तरह के चावल थे---कुछ पके, कुछ अधपके, कुछ कच्चे। अर्थ-अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा सुवृष्टि से फसलों का पाक भी तीन तरह का होगा। (११) ग्यारहवें स्वप्न में देखा-बावना चन्दन तक्र के मूल्य में बिक रहा है।
अर्थ-बड़े-बड़े धर्मगुरु धर्माचार्य धर्म का उपदेश पैसों से देंगे। यानि धर्म भी बाजार में बिकने की चीज मान ली जायेगी।
(१२) बारहवें स्वप्न में देखा-सुन्दर-सुन्दर फल डूब रहे हैं।
अर्थ-अच्छे-अच्छे समझदार और कुशल व्यक्ति भी खुशामदी भक्तों की चिकनी-चुपड़ी बातों में डूब जायेंगे।
(१३) तेरहवें स्वप्न में देखा-बड़ी-बड़ी चट्टानें पैरों में झूल रही है। छोटे-छोटे कंकर स्थान पर जमे पड़े हैं।
अर्थ-सज्जन मनुष्य पैरों में भटकेंगे, जबकि दुर्जन अपनी पांचों अंगुलियां घी में करेंगे। (१४) चौदहवें स्वप्न में देखा-छोटी-छोटी मेंढ़कियां बड़े-बड़े काले नागों को चट कर गई।
अर्थ-हर स्थान में क्षुद्रजनों व नारी जाति का बोलबाला होगा। बलशाली बुद्धिशाली व्यक्ति भी उनको खुश करने में प्रयत्नशील रहेंगे।
(१५) पन्द्रहवें स्वप्न में देखा-सोने के पंख वाली बतख कौवे के पीछे भटक रही है। अर्थ-गुणवान व्यक्ति अभाव से पीड़ित होकर गुण-हीनों के पैरों के तलवे चाटते रहेंगे। (१६) सोलहवें स्वप्न में देखा-बकरी से डर कर सिंह भाग रहा है । अर्थ-शासक वर्ग शासित वर्ग से भयभीत रहेंगे और अपनी जान बचाते छपेंगे।
तथागत के मुंह से ये स्वप्न फल सुनकर राजा कांप उठा । तब बुद्ध ने आश्वासन दिया-राजन् ! तुम्हारे राज्य में यह स्थितियां नहीं आयेंगी।"
चन्द्रगुप्त राजा के १६ स्वप्न पाटलिपुत्र नरेश मौर्य राजा चन्द्रगुप्त ने एक रात कुछ विचित्र स्वप्न देखे । आश्चर्य विमूढ होकर राजा उन
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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स्वप्नों पर विचार करता रहा । पर, कुछ भी समझ में नहीं आया । प्रात: पाटलिपुत्र में आचार्य भद्रबाहु पधारे । अवसर देखकर राजा ने उनसे अर्थ पूछना चाहा । आचार्यश्री ने जो अर्थ बताया उस आधार पर बने प्रन्थ का नाम 'व्यवहारचूलिका' है। उसमें वर्णित स्वप्नार्थ इस प्रकार हैं
(१) प्रथम स्वप्न-कल्पवृक्ष की शाखा टूटी हुई देखी। अर्थ-अब राजा लोग संयम नहीं लेंगे। (२) दूसरा स्वप्न-असमय में सूर्य को अस्त होते देखा । अर्थ-अब के जन्मे हुओं को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। (३) तीसरा स्वप्न-चन्द्रमा चालनी बन गया। अर्थ-जैन शासन विभिन्न सम्प्रदायों तथा समाचारियों में विभाजित हो जायेगा । (४) चौथा स्वप्न-अट्टहास करते भूत-भूतनी नाचते देखा। अर्थ-स्वच्छन्दाचारी और ढोंगी साधुओं का सम्मान बढ़ेगा। (५) पांचवां स्वप्न-बारह फन वाला काला सर्प देखा।
अर्थ-बारह-बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा। साधुओं को आहार मिलना कठिन हो जायेगा। ऐसी स्थिति में स्वाध्याय के अभाव में ज्ञान विलुप्त हो जायेगा।
(६) छठा स्वप्न-देवताओं का विमान वापिस लौटते देखा । अर्थ-विशिष्ट लब्धियाँ विलुप्त हो जायेंगी। (७) सातवां स्वप्न-कचरे के ढेर पर (अकूरड़ी) कमल खिला हुआ देखा। अर्थ-जैन शासन की बागडोर ऐसे व्यक्तियों के हाथ में आ जायेगी जो उसमें सौदाबाजी चलायेंगे । (८) आठवां स्वप्न-पतंगियों को उद्योत करते देखा । अर्थ-धर्म आडम्बरों में ही शेष रह जायेगा।
(8) नवा स्वप्न-तीन दिशाओं में समुद्र सूखा हुआ है। केवल दक्षिण दिशा में थोड़ा-सा जल है, वह भी मटमैला-सा।
अर्थ-जहाँ तीर्थंकरों का बिहार हुआ है । वहां प्रायः धर्म का ह्रास होगा । दक्षिण दिशा में थोड़ा-सा धर्म का प्रचार रहेगा।
(१०) दशवाँ स्वप्न-सोने के थाल में कुत्ता खीर खा रहा था। अर्थ-उत्तम पुरुष श्रीहीन होंगे। पापाचारी आनन्द करेंगे । (११) ग्यारहवां स्वप्न-हाथी पर बन्दर बैठा देखा। अर्थ-लौकिक और लोकोत्तर पक्षों में अधम व्यक्तियों-आचारहीन व्यक्तियों को सम्मान व उच्चपद मिलेगा। (१२) बारहवां स्वप्न-समुद्र मर्यादा छोड़कर भागा जा रहा था। अर्थ-उत्तम-उत्तम व्यक्ति भी पेट पालने के लिए मर्यादाहीन हो जायेंगे । (१३) तेरहवाँ स्वप्न-एक विशाल रथ में छोटे-छोटे बछड़े जुते हुए थे। अर्थ-छोटे-छोटे बालक संयम के रथ को खींचेंगे । (१४) चौदहवां स्वप्न-महामूल्य रत्न को तेजहीन देखा।। अर्थ साधुओं का परस्पर के कलह, अविनय आदि के कारण चारित्र का तेज घट जायेगा। (१५) पन्द्रहवां स्वप्न-राजकुमार को बैल की पीठ पर चढ़ा देखा।
अर्थ-क्षत्रिय आदि वर्ग जिन धर्म छोड़कर मिथ्यात्व के पीछे लगेंगे । सज्जनों को छोड़कर दुर्जनों का विश्वास करेंगे।
(१६) सोलहवां स्वप्न-दो काले हाथियों को युद्ध करते देखा। अर्थ-पिता-पुत्र और गुरु-शिष्य परस्पर विग्रह करेंगे । अतिवृष्टि और अनावृष्टि होगी।
ये स्वप्न प्रायः प्रतीकात्मक हैं और इनका सम्बन्ध भविष्यकाल से जोड़ा गया है । इन स्वप्नों का वर्णन व्यवहारचूलिका नामक ग्रन्थ में मिलता है। भगवान महावीर के बस स्वप्न
भगवान महावीर के दस स्वप्न भी काफी प्रसिद्ध हैं और उनका सम्बन्ध प्रायः उन्हीं के भावी जीवन से जोड़ा गया है। वे स्वप्न इस प्रकार हैं
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स्वप्न शास्त्र : एक मीमांसा
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(१) एक विशालकाय पिशाच को मारना । फल-मोहनीय कमरूपी पिशाच को नष्ट करेंगे। (२) श्वेत पुंस्कोकिल सामने स्थित है । फल-शुक्लध्यान की उच्च आराधना करेंगे। (३) रंग-बिरंगा पुंस्कोकिल सामने है। फल-विविध ज्ञान से भरे द्वादशांगी रूप श्र तज्ञान की प्ररूपणा करेंगे । (४) दो रत्न मालाएँ। फल-सर्वविरति एवं देशविरति धर्म की प्ररूपणा करेंगे। (५) श्वेत गायों का समूह । फल-श्वेत वस्त्रधारी श्रमण-श्रमणी शिष्य परिवार होगा। (६) विकसित फूलों वाला पद्म सरोवर । फल-देवगण सदा सेवा में उपस्थित रहेंगे। (७) महासमुद्र को हाथों से तैरना। फल-संसार सागर को पार करेंगे। (८) जाज्वल्यमान सूर्य का प्रकाश फैल रहा है। फल-केवल ज्ञानालोक से स्वप्न को प्रकाशित करेंगे। (E) मानुषोत्तर पर्वत को अपनी आँतों से आवेष्टित करना । फल-समूचे लोक में कीति व्याप्त हो जायेगी। (१०) मेरु पर्वत पर आरोहण करना । फल-छिन्न प्रायः धर्म-परम्परा की पुनः स्थापना करेंगे।
इन स्वप्नों के समय के सम्बन्ध में दो मान्यताएं मिलती हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ये स्वप्न शूलपाणि यक्ष के उपद्रव के बाद उसी अन्तिम रात्रि में आये, जबकि एक मान्यता है कि अन्तिम राइयंसि का अर्थ छमस्थकाल की अन्तिम रात्रि से होना चाहिए।"
अगर स्वप्न-शास्त्र की दृष्टि से विचार करें तो इनका समय छद्मस्थकाल की अन्तिम रात्रि भी उपयुक्त लगती है, क्योंकि सभी स्वप्नों के संकेत भगवान की वीतराग दशा और तीर्थस्थापना से सम्बन्धित है। अतः कालसामीप्य की दृष्टि से वह छमस्थकाल की अन्तिम रात्रि होती है। खैर इस विवाद में न पड़कर हमें तो स्वप्नों के सम्बन्ध में ही समझना है कि स्वप्नों के अर्थ किस प्रकार विचित्र-विचित्र होते हैं। उक्त स्वप्नों के अर्थ उत्पल निमित्तज्ञ ने लोकों को बताये, कहते हैं चौथे स्वप्न का अर्थ उसकी समझ में नहीं आया तो उसका अर्थ स्वयं भगवान महावीर ने स्पष्ट किया। बुद्ध के पांच स्वप्न
स्वप्नों की चर्चा में हमारे समक्ष तथागत बुद्ध के पांच स्वप्न भी आते हैं । बुद्ध भी अपने साधना काल की अन्तिम रात्रि में ये पांच स्वप्न देखते हैं और उनका अर्थ शीघ्र बोधि लाभ की प्राप्ति होना कहते हैं ।
स्वप्न १-बुद्ध ने देखा-मैं एक महापर्यंक पर सो रहा हूँ। हिमालय का तकिया (उपधान) कर रखा है। बायाँ हाथ पूर्व समुद्र को स्पर्श कर रहा है और दायां हाथ पश्चिमी समुद्र को। पैर दक्षिण समुद्र को छू रहे हैं।
अर्थ-तथागत पूर्ण बोधि (संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त करेंगे।33 स्वप्न २-एक तिरिया नामक महावृक्ष हाथ में प्रादुर्भूत होकर आकाश को छूने लगा है। अर्थ-अष्टांगिक मार्ग का निरूपण करेंगे। स्वप्न ३-काले सिर वाले श्वेत कीट घुटनों पर रेंग रहे हैं । अर्थ-श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ वर्ग चरणों में शरणागति लेंगे।
स्वप्न ४-रंग-बिरंगे चार पक्षी चार दिशाओं से आते हैं, चरणों में गिरते हैं, और सब एक समान श्वेत वर्ण हो जाते हैं।
अर्थ-चारों वर्ण के मनुष्य दीक्षित होंगे और निर्वाण प्राप्त करेंगे।
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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स्वप्न ५-बुद्ध एक गोमय (गोबर) के पर्वत पर चल रहे हैं, किन्तु फिर भी गति अस्खलित है । न फिसल रहे हैं और न गिर रहे हैं।
अर्थ-भौतिक सुख सामग्री के बीच अनासक्त रहेंगे।" फलश्रुति
भगवान महावीर तथा महात्मा बुद्ध ने ये स्वप्न साधना काल की उस अवस्था में देखे जब उनका अन्तःकरण साधना से अत्यधिक परिष्कृत व निर्मल हो चुका था और सिद्धि लाभ (कैवल्य तथा बोधि) की प्राप्ति हेतु उत्कण्ठित हो रहा था। मानस विज्ञान की दृष्टि से उस अवस्था में उनके मन में भावी जीवन की अनेक परिकल्पनाएं, अनेक संभावनाएँ आलोड़ित हो रही होंगी, मोहनाश, कैवल्य लाभ, संघ स्थापना और जन-कल्याण की तीव्र इच्छा अन्तःकरण को, चेतन व अचेतन मन को आवृत किये हुए होगी इसलिए उसी प्रकार की संभावनाएँ और दृश्य स्वप्न में परिलक्षित हों, यह सहज ही संभव है और स्वप्न शास्त्र उन्हीं इच्छाओं के आधार पर उनका भावी फल सूचित करता है। मोक्षफल सूचक १४ स्वप्न
भगवती सूत्र में १४ प्रकार के ऐसे स्वप्नों की चर्चा है जिनका फल दर्शक की जीवन-मुक्ति (निर्वाण) से सम्बन्धित बताया गया है। ३५
१. हाथी, घोड़ा, बैल, मनुष्य, किन्नर, गंधर्व आदि की पंक्ति को देखकर जागृत होना। इसका अर्थ हैउसी भव में दु:खों का अन्त कर मोक्ष-सुख की प्राप्ति होना।
२. समुद्र के पूर्व-पश्चिम छोर को छूने वाली लम्बी रस्सी को हाथों से समेटते देखना । इसका अर्थ है जन्ममरण की रस्सी को समेटकर उसी भव में मुक्त होना।
३. लोकान्त पर्यन्त लम्बी रस्सी को काटना । इस स्वप्न का भी यही अर्थ है-जन्म-मरण से मुक्ति ।
४. पाँच रंगों वाले उलझे हुए सूत के गुच्छों को सुलझाना। यह स्वप्न देखने वाला-अपनी भव-गुत्थियों को सुलझा कर उसी भव में मुक्त होता है ।
५. लोह, ताम्बा, कथीर और शीशे की राशि (ढेर) को देखे और स्वयं उस पर चढ़ता जाय । इस स्वप्न का अर्थ ऊर्ध्वारोहण अर्थात् निर्वाण है।
६. स्वर्ण, रजत, रत्न और वज्र रत्न की राशि देखे, और उस पर आरोहण करे तो इसका भी फल हैऊर्ध्वारोहण-मुक्ति-लाभ।
७. विशाल घास या कचरे के ढेर को देखे और उसे अपने हाथों से बिखेर दे तो इसका भी फलित हैउसी भव में मोक्ष-गमन ।
८. स्वप्न में-शरस्तम्भ, वीरणस्तम्म, वंशी मूल स्तम्भ और वल्लिमूल स्तम्भ को देखे और उसे स्वयं अपने हाथों से उखाड़कर फेंक देवे तो इस स्वप्न का फल भी उसी भव में संसार उच्छेद (मुक्ति) करना है ।
६. स्वप्न में दूध, दही, घृत और मधु का घड़ा देखे और उसे उठा ले तो इसका फल भी उसी भव में निर्वाणसूचक है।
१०. मद्य घट, सौवीर घट, तेल घट और वसा (चर्बी) घट देखकर उसे फोड़ डाले तो इसका भी फल उसी मव में निर्वाण-गमन सूचित करता है।
११. चारों दिशाओं में कुसुमित पद्म सरोवर को देखकर उसमें प्रवेश करना-इस स्वप्न का भी फल है उसी भव में मोक्ष-गमन ।
१२. तरंगाकुल महासागर को भुजाओं से तैरकर पार पहुंच जाना—इसका भी फल उसी जन्म में संसार सागर से पार होना है।
१३-१४ श्रेष्ठ रत्नमय भवन अथवा विमान को देखकर उसमें प्रवेश करता स्वप्न देखे तो इन दोनों का भी फल सूचित करता है कि वह-मुक्ति भवन या मुक्ति विमान में प्रविष्ट होगा-उसी जन्म में । फल-विचार
इन स्वप्नों का एक निश्चित अर्थ आगमों में बताया है कि इन उत्तमस्वप्नों का दर्शन मनुष्य की देहआसक्ति, भव-बंधन तथा राग-द्वेष की शृंखला से मुक्त होकर ऊर्ध्वगामी होना और मुक्तिरूप भवन में प्रवेश करना
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स्वप्नशास्त्र : एक मीमांसा
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है । क्योंकि ऐसे महान स्वप्न सभी को नहीं आते। जब अन्तःकरण परम पवित्र, शांत और निरुद्ध ग होता है, चित्तवृत्तियाँ स्व-लीन होती हैं उसी दशा में ऐसे उत्तम स्वप्न दिखाई देते हैं।
कभी-कभी इनसे मिलते-जुलते एक-दो स्वप्न सामान्य शान्त मनःस्थिति वालों को भी दिखाई देते हैं और उनका फल भी प्रायः उस स्थिति के अनुकूल दुःखों की श्रृंखला से मुक्ति पाना, किसी विशिष्ट वस्तु या सन्मान की प्राप्ति होना, उच्चपद की प्राप्ति होना आदि लगाये जाते हैं।
उपसंहार इस प्रकार स्वप्न-शास्त्र के विविध स्वरूप व प्रकारों पर विचार करने से निम्न बातें निष्कर्ष रूप में हमारे सामने आती हैं :
१. विगत एवं वर्तमान जीवन से सम्बन्धित स्वप्न अधिकतर मनुष्य के अचेतन मन से सम्बन्धित होते हैं । सुप्त इच्छा, दमित वासना या लुप्तप्राय संस्कार उनके प्रेरक होते हैं।
२. देखी, सुनी, अनुभव की हुई बातें, दृश्य आदि कभी विपरीत रूप में, कभी नाटक शैली में और कभी संक्षिप्त रूप में स्वप्न में आती हैं।
३. स्वप्न मनुष्य की गुप्त इच्छा या दमित वासना तथा मानसिक तनाव को उद्घाटित कर एक प्रकार की राहत पहुंचाता है। मानस विज्ञान, स्वप्न के आधार पर रोगी की चिकित्सा करने में सफल हो सकता है।
४. जिन स्वप्नों का वर्तमान या विगत जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं, ऐसे भविष्यसूचक स्वप्न बहुत ही कम आते हैं । अधिकतर भविष्यसूचक स्वप्नों का संस्कार वर्तमान जीवन में ही छुपा रहता है।
५. महापुरुषों की माताओं के स्वप्न उनके वर्तमान जीवन की उच्च आकांक्षा को व्यक्त करते हैं। किसी दिव्य तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति की कामना उनके अन्तःकरण में गुप्त रूप में छुपी रहती है, और गर्भधारण के समय उसी इच्छा के अनुरूप पुत्र जब गर्भ में अवतीर्ण होता है तो विशिष्ट स्वप्न उसकी इच्छा की पूर्ति की सूचना देते हैं।
६. भरत चक्रवर्ती, चन्द्रगुप्त राजा आदि के स्वप्न भविष्य के धर्म, समाज एवं राष्ट्र के सम्बन्ध में उनके मन में रही हुई आशंका, दुष्कल्पना और भय के सूचक भी हैं तथा उनकी चिन्तापरक चिन्तन धारा के भी।
७. भगवान महावीर के दस स्वप्न-उनके पवित्र एवं निर्मलतम अन्तःकरण में लहराती भावी की प्रतिच्छवि मात्र है। उनकी आन्तरिक चेतना इतनी विशुद्ध हो गई थी कि निकट भविष्य में होने वाला कैवल्य-लाभ तथा संघ स्थापना का महनीय कार्य स्वप्न-सागर में तैरने लग गया।
८. यह कोई आवश्यक नहीं कि प्रत्येक स्वप्न सार्थक ही हो। अधिकतर स्वप्न, स्वप्नमात्र ही होते हैं अर्थात् निरर्थक ! किन्तु सूक्ष्म विचार करने पर उनके द्वारा मनुष्य की आन्तरिक वृत्तियों की अस्फुट झलक मिल सकती है और उसके आधार पर की गई मनोचिकित्सा भी सफल हो सकती है।
६. रात्रि के अन्तिम प्रहर में, स्वस्थ तथा प्रसन्नमनःस्थिति में देखे गये स्वप्न अपना एक अर्थ रखते हैं और वातावरण तथा परिस्थिति के अनुकूल उनका फल विचार करने पर लाभ प्राप्ति तथा हानि से बचाव भी हो सकता है।
१०. शुभ स्वप्न देखने के बाद पुनः नींद नहीं लेना चाहिए। किन्तु अन्तिमरात्रि का स्वप्न शुभचिन्तन एवं पवित्र ध्यान आदि में व्यतीत करना चाहिए ।
११. अशुभ स्वप्न के निवारण हेतु सोते समय मन को शान्त व प्रसन्न रखना, इष्टदेव का स्मरण करना तथा अच्छे उत्तम विचारों से मन को भरकर शयन करना चाहिए।
१२. अशुम या भयावह स्वप्न देखकर डरना नहीं चाहिए किन्तु इष्टस्मरण, धर्मध्यान, दान-तपस्या आदि के द्वारा उसके अशुभफल की निवृत्ति का प्रयत्न करना चाहिए ।
१३. स्वप्न आखिर स्वप्न है, उसे यथार्थ मानने की ऐसी भूल नहीं करना चाहिए कि जीवन में अव्यवस्था या संकट उत्पन्न हो जाये।
१४. स्वप्न पर अधिक विश्वास खतरनाक होता है। १५. मनुष्य को स्वप्नद्रष्टा नहीं यथार्थद्रष्टा होकर आत्म-उत्थान के लिए सतत जागरूक रहना चाहिए।
७. भगवान
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल
१ महापुराण ४१।६३ से ७६
२ (क) त्रिषष्टिशलाका० १।३।२४४; तथा आवश्यक चूर्णि पृ० १६२
(ख) महापुराण २०१३४ में सात स्वप्नों का वर्णन है ।
२ आवश्यक मलयगिरिवृत्ति २००१
४] व्यवहारचूलिका
५ भगवतीसून १६६
६ अष्टांग हृदय निदान, स्थान० ६
७ हिन्दी विश्वकोष, खंड १२, पृ० २६४
८ ते च स्वप्ना द्विधा म्राता स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः
सस्तु पातुभिःस्य विषमेरितरंगता ॥५६॥
तथ्याः स्युः स्वस्थसंदृष्टा मिथ्यास्वप्ना विपर्ययात् ।
जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम् ६० महापुराण ४१ ।
वही, सर्ग ४१६१
१० स्थानांग ५ ।
११] भगवती सूत्र १६१६ पंच तुमि दंसणे पण जहा अहातच्चे, पचाणे, चितासुवि, सचिव, अभ्वत्तदंसणें ।
- पंचविहे
-तं
१२ अहातच्यं तु सुमिणं खिप्पं पासेइ संबुडे । - आयारदशा ५।३ १३ अनुभूतः श्रुतो दृष्टः प्रकृतेश्च विकारजः ।
स्वभावतः समुद्भूतः चिन्तासन्ततिसंभयः ॥ देवताय पदेशो धर्मकर्मप्रभावजः ।
पापोद्रक समुत्थश्च स्वप्नः स्यान्नवधा नृणाम् ॥ प्रकारैरादिः परिभवचापि वा।
दृष्टो निरर्थकः स्वप्नः सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः ॥ स्वप्न शास्त्र १४ अहमद वितिय सुय पयइ विचार देवमाणूवा ।
सुमिणस्स निमित्ताइं पुण्णं पावं व १५ भगवती १६।६
णाभावो ॥ - -विशेषावश्यकभाष्य गाथा १७०३
१६ रात्रश्चतुषु यामेषु दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः ।
मास द्वदिशभि: षमिस्त्रिभिरेकेन च क्रमात् ॥ निशान्त्य घटिका युग्मे दशाहात् फलति ध्रुवम् । दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः सद्यः फलति निश्चितम् ॥
१७ त्रिषष्टि० ४।१।२१७
१८ वही ४।१।१६८
१६ महापुराण पर्व १२॥१०३
२० राइस - कल्पसूत्र
२१ स्वप्न संरक्षणार्थमागरिका निद्रानिशेषः-स्वप्नजागरिका २२ (क) देवेष्यात्मवान्धवोत्सव
गुरुत्राम्बुजप्रेक्षणं प्राकारद्विरदाम्बुद,मगिरि प्रासादसंरोहणम् । अम्भोभेस्तरणं सुरामृतपयोध्यां च पानं तथा चन्द्रार्धं प्रसनं स्थितं शिवपदे स्वापे प्रशस्तं नृणाम् । (ख) अभिधान राजेन्द्र : भाग ७ । पृ०, ६६२ २३ भगवती सूत्र १६।६
२४ कल्पसूत्र ३२-४५ त्रिषष्टि शलाका० १०।२।३०-३१
- भगवती सूत्र वृत्ति ११।११
** 4444 44
-प्रवचन० २५७ द्वार
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________________ स्वप्नशास्त्र : एक मीमांसा 466 + ++ ++ ++ ++ + ++ ++ + + + ++ ++ ++ ++ + ++ + ++ ++ + ++ ++ ++ M a + ++++++++++++ + + + + 25 महापुराण 121155 से 161 तथा उत्तरपुराण 74 / 258-256 26 महापुराण 15 / 123-126 27 चंद मंडल सरिसं पोलियं लहेसि 28 राया भविस्सई-उत्तरा० 3 टीका-अभिधान राजेन्द्र 7, पृ० 1002 26 महापुराण 41163-76 30 नवनीत (मार्च) 1955, 31 देखें-भगवती सूत्र श्री अमोलकऋषिजीकृत अनुवाद पृष्ठ 22-24-25 तथा जैन सिद्धान्त बोल संग्रह : भाग 3, पृष्ठ 226-230 32 आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृ० 270 33 भगवती सूत्र 1636 सूत्र 580 में मोक्षगामी के चौदह स्वप्नों में इस स्वप्न का अर्थ बताया है-उसी भव में मोक्ष प्राप्ति होना। 34 अंगुत्तरनिकाय (3-240) तथा महावस्तु (2-136) में देखें 35 भगवतीसूत्र 16 / 6 सूत्र 580 MO-O-पुष्कर वाणी-0-0-0-0-or-o------------------------------ 4-0-0--0--0--0--0--0--0--0--0-0--0-0 अज्ञानी मनुष्य बालक के समान नादान है। बालक खिलौनों से खेलता है, वे ही उसे प्रिय लगते हैं / खिलौनों में रमकर वह अपनी पढ़ाई और माता-पिता तक को भूल जाता है। यही दशा अज्ञानी मनुष्य की है। वह संसार के नाशवान पदार्थों में इतना रम जाता है कि अपना स्वरूप भी मूल जाता है। प्रभु और गुरु को भी याद नहीं करता और सतत बालक की तरह इन्हीं भौतिक खिलौनों में मन लगाये रहता है। खिलौना टूटने-फूटने पर बालक रोता है। छीना जाने पर दुःखी होता है, ऐसा ही अज्ञान-मोहग्रस्त मनुष्य करता है, धन आदि वस्तुयें छूटने पर रोना-कलपना और उन्हें ही सब कुछ मान बैठना बिल्कुल बालक जैसी वृत्ति है। 4-0-0--0---0--0--0-0-0-0------ h-0-0--------------------------------------------------------------