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________________ ४८६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड * HHHHHHHHHHHHHHHHH HHer+--- - - (१) अतृप्त इच्छाओं का वर्शन-जागृत अवस्था में मन में कुछ भावनाएँ व इच्छाएँ उठती हैं, वे तृप्त नहीं हो पातीं और धीरे-धीरे प्रबल इच्छा या लालसा का रूप धारण कर लेती हैं, वे इच्छाएं स्वप्न में पूर्ण होती दिखाई देती हैं-जैसे विवाह की तीव्र इच्छा वाले व्यक्ति का स्वप्न में विवाह होना । धन की तीव्र लालसा वाले व्यक्ति का स्वप्न में लाटरी निकलना या अन्य किसी माध्यम से यकायक धनवान हो जाना। इस प्रकार अनेक अतृप्त इच्छाएँ स्वप्न में पूर्ण होती दिखाई देती हैं । भिखारी का राजा बनने का स्वप्न भी इसी कोटि का है। इसप्रकार के मधुर स्वप्न बीच में मंग हो जाने या असत्य निकल जाने पर उन व्यक्तियों को दुःख भी होता है । (२) आदेशात्मक स्वप्न- कभी-कभी मनुष्य विषम परिस्थिति में फंस जाता है, समस्या का समाधान नहीं मिलता और वह रात-दिन उसी चिन्तन में लगा रहता है। उस दशा में स्वप्न में उसे उस समस्या का समाधान मिल जाता है। रोगी को अमुक औषधि लेने का आदेश, अर्थार्थी को अमुक व्यापार करना या अमुक स्थान पर जाने का आदेश । इन आदेशात्मक स्वप्नों के अनुसार कार्य करने पर लाभ भी होता है। ऐसे स्वप्न-आदेश कई बार तो अदृश्य आवाज के रूप में ही आते हैं और कभी-कभी अपने पूर्वज, या इष्टदेव आदि भी स्वप्न में दृष्टिगोचर होते हैं । (३) भविष्यसूचक स्वप्न-भविष्य में अपने जीवन में, परिवार में, समाज या राष्ट्र में घटित होने वाली घटनाओं के स्पष्ट या अस्पष्ट संकेत स्वप्न में मिल जाते हैं । जैसे स्वयं को या किसी अन्य को बीमार देखना, मत देखना, दुर्घटना में फंसे देखना या प्रकृति, समाज या राज्य में नए परिवर्तन देखना। इस प्रकार के स्वप्नों के सम्बन्ध में दिगम्बर आचार्य जिनसेन ने लिखा हैस्वप्न दो प्रकार के हैं(१) स्वस्थ अवस्था वाले (२) अस्वस्थ अवस्था वाले १. जो स्वप्न चित्त की शांति तथा धातुओं (शारीरिक रस आदि) की समानता रहते हुए दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्था वाले स्वप्न होते हैं । ये स्वप्न बहुत कम दीखते हैं और प्रायः सत्य होते हैं। २. मन की विक्षिप्तता तथा धातुओं की असमानता की अवस्था में दिखाई देने वाले स्वप्न प्रायः असत्य होते हैं । ये शारीरिक व मानसिक विकारजन्य ही होते हैं। इसी प्रकार दोषसमभव तथा देवसमुद्भव-स्वप्न के भी दो भेद बताये हैं-वात, पित्त, कफ आदि शारीरिक विकारों के कारण आने वाले स्वप्न दोषज होते हैं, जो प्रायः असत्य ही निकलते हैं। किसी पूर्वज या इष्टदेव द्वारा अथवा मानसिक समाधि की अवस्था में जो स्वप्न दिखाई देते हैं वे देवसमुद्भव की कोटि में गिने गये हैं और वे प्रायः सत्य सिद्ध होते हैं। स्थानांग सूत्र तथा भगवती सूत्र में स्वप्न के पाँच भेद भी बताये हैं १. यथातथ्य स्वप्न-स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जागने पर उसी का दृष्टिगोचर होना या उपलब्धि होना अथवा उसके अनुरूप शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति होना। यह यथातथ्य स्वप्न ध्यान एवं समाधि द्वारा प्रसन्नचित्त, त्यागी-विरागी संवृत (संयमी) व्यक्ति ही देखता है और उससे वह प्रतिबुद्ध होकर अपना आत्म-लाभ करता है। २. प्रतान स्वप्न-विस्तार युक्त स्वप्न देखना । यह यथार्थ अथवा अयथार्थ दोनों ही हो सकता है। डा. सिगमंड फ्रायड ने स्वप्न के पांच प्रकार बताये हैं। उसमें भी 'विस्तारीकरण' एक प्रकार है जिसमें किसी भी घटना का विस्तारपूर्वक दर्शन होता है। ३. चिता स्वप्न-जागृत अवस्था में जिस वस्तु का चिन्तन रहा हो, मन पर जिसके संस्कारों की छवि पड़ती हो, उसी वस्तु को स्वप्न में देखना । ४. सविपरीत स्वप्न-स्वप्न में जो वस्तु देखी हो, जो दृश्य या घटना दिखाई दी हो, उससे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना। ५. अव्यक्त स्वप्न-स्वप्न में देखी हुई वस्तु का स्पष्ट रूप में ज्ञान न होना । उक्त पाँच प्रकार के स्वप्नों में उन सभी स्वप्नों का समावेश हो जाता है जो कभी प्रतीक रूप में, कभी विपरीत रूप में और कभी नाटक रूप में, कभी आदेश रूप में तथा कभी भविष्य दर्शन के रूप में हमें स्वप्न लोक में ले जाते हैं और किसी तथ्य का संकेत कर जाते हैं । स्वप्नशास्त्र के आचार्यों ने इनकी व्याख्या का विस्तार कर स्वप्नों के नौ कारण और भी बताये हैं।" १. अनुभूत स्वप्न–अनुभव की हुई वस्तु को स्वप्न में देखना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212248
Book TitleSwapnashastra Ek Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Science
File Size2 MB
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