Book Title: Shrutsagar Ank 2012 08 019
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ अगस्त २०१२ वि. सं. २०६८ श्रावण कृष्ण १३ श्रुतसागर अंक १९ संसार रूपी अथाह सागर में हिचकोले खाती हई जीवात्मा की जीवन नैया को सर्वज्ञ परमात्मा के बचनरूप श्रुत का सहारा मिल जाना है तो वह संसार समुद्र के पार पहुंचने में सफल हो जाती है. प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२, फेक्स (०७९) २३२७६२४९ Website : www.kobatirth.org, email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्राट संप्रति संग्रहालय में संगृहीत-प्रदर्शित बहुमूल्य शिल्पांकन चतुर्विंशति जिन मातृका शिला-पट्ट, २४तीर्थंकर बाल स्वरूप में चंद्रप्रभ एकतीर्थी प्रतिमा, परिकर सहित. माता के साथ अंकित हैं. सभी माताओं के नाम उनके अंकन के ऊपर विद्यमान हैं. सर्वोपरी प्रथम पंक्ति में मरुदेवी माता के दोनों ओर चामरधारिणी, छत्रधारिणी एवं परिचारिका (सेविका) खडी हैं. आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भंडार में संगृहीत प्राचीन शैली में आलेखित बहुरंगी सचित्र हस्तप्रत के पत्र जरतवाझवलिमयाम बामनिहिवली भरत बाहुबली युद्ध का चित्रांकन, मध्य में सैन्ययुद्ध का चित्रण है एवं दाहिनी ओर बाहुबलीजी मुनि-अवस्था में ध्यानस्थ खडे है. ए चहलीया देवकुलिका में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के समक्ष दर्शन-वंदन एवं भक्ति करते हुए चतुर्विध संघ का दृश्यांकन. साधु भगवंत के पीछे श्रावक वंदन करते हुए बैठे हैं तथा साध्वीजी के साथ श्राविकाएँ विनम्र भावपूर्वक वंदन मुद्रा में भक्तिरत हैं. राजस्थानी शैली में चित्रित यह चित्रांकन विविध रंगों के कारण अत्यन्त मनमोहक प्रतीत होता है. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र अंक : १९ * आशीर्वाद * राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. *संपादक मंडल * मुकेशभाई एन. शाह बी. विजय जैन कनुभाई एल. शाह डॉ. हेमन्त कुमार केतन डी. शाह *सहायक विनय महेता हिरेन दोशी - * प्रकाशक * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स : (०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org • email: gyanmandir@kobatirth.org ma १७ अगस्त, २०११, वि. सं. २०६८, श्रावण कृष्ण-१३ *अंक-प्रकाशन सौजन्य * श्रीमती विद्याबेन किशोरभाई चालीस हजार ह, श्री केतनभाई के. शाह मल्टीकेम कोर्पोरेशन 3री मंजिल, मोतीलाल सेन्टर आश्रम रोड, अहमदाबाद For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त २०१२ (संपादकीय अनन्त उपकारी सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवन्तों ने संसार के समस्त जीवों को अनन्त सुख की प्राप्ति करने हेतु धर्मतीर्थ की स्थापना की. सर्वज्ञ भगवन्तों के मुख से निकली धर्मदेशना को सुनकर पूज्य गणधर भगवन्तों ने द्वादशांगी द्वारा महासमुद्र की रचना की. इस महासमुद्र में से पूर्वाचार्यों एवं गीतार्थ गुरुभगवन्तों ने आत्म कल्याणकारी दार्शनिक पदार्थों के अनमोल रत्नों से भरपूर श्रुत साहित्य की रचना कर संसार के समक्ष प्रस्तुत किया है. जैन साहित्य के गौरवमय विशाल भण्डार में अनेक ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका अध्ययन करके आत्मकल्याण किया जा सकता है. वीरान वन में थके-हारे मुसाफिर को अपनी पिपासा शान्त करने हेतु जल की एक बूंद भी मिल जाए तो वह कितना आनन्द और संतोष का अनुभव कर सकता है, उसी प्रकार पूज्य गुरुभगवन्तों के सान्निध्य में इस अगाध श्रुतसागर में से थोड़ा भी जानने-सुनने का अवसर मिले तो यह हमारे लिये परम सौभाग्य की बात होती है. इस वर्षावास में परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा में बिराजमान हैं और प्रत्येक रविवार को विभिन्न विषयों पर हृदयस्पर्शी प्रवचनों के द्वारा उपस्थित श्रोताओं को परमात्मा महावीर की वाणी का रसास्वाद करवा रहे हैं. पूज्य आचार्यश्री अपने व्याख्यानों में जैनधर्म के मूल सिद्धान्तों को इतनी सरल व प्रभावक भाषा में प्रस्तुत करते हैं कि सामान्य व्यक्ति भी आसानी से समझ सके. पूज्यश्री अनेक महात्मा और महासतियों के जीवन प्रसंगों की अद्भुत कथाओं के माध्यम से मूल पदार्थों को समझा रहे हैं, जिससे सुनने वाले पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है. जब से पूज्य आचार्यश्री के सुमधुर प्रवचन शृंखला में परमात्मा महावीर की वाणी सुनने का अवसर मिला है, तब से मन में यह प्रश्न स्वतः हो रहा है कि वास्तव में हमने आज तक इस संसार की कितनी यात्राएँ की | होंगी? कितनी अकल्पनीय कष्ट-यातनाएँ सहन की होंगी? क्या अब भी करनी हैं? भावी भव में मेरी क्या गति होगी? नहीं! अब मुझे पूज्य आचार्य भगवन्त ने अन्तर्जगत की यात्रा करने का मार्ग बता दिया है, मैं अपने अन्तर्जगत की यात्रा करूँगा. पूज्यश्री ने पाप के जन्मस्थान को भी बता दिया है, मैं उनसे दूर रहूँगा. आपश्री ने आत्म प्रदेश में कर्म बन्धन और उससे मुक्ति का मार्ग भी बता दिया है. मैं अब यह प्रयास करूँगा कि कर्मों का बन्धन नहीं हो पाए. इसके लिये पूज्य आचार्य भगवन्त ने बहुत ही सुन्दर बात कही है कि स्वयं पर स्वयं का अनुशासन रखो. पूज्यश्री के प्रवचनों ने हमारी दृष्टि खोल दी है. अब समय आ गया है कि इस चातुर्मास की अवधि को अपने जीवन के लिये सर्वोपयोगी बनाएँ. तो आईए! पूज्य आचार्य भगवन्त ने परमात्मा महावीर की वाणी के माध्यम से हमारे जीवनोपयोगी जो! मार्ग बताया है, उसे अपनाएँ एवं अपना वर्तमान व भविष्य का जीवन सफल करें. लेखक डॉ. हेमन्त कुमार સ્વ. રતિલાલ મફાભાઈ શાહ (अनुक्रम लेख १. संपादकीय २. जैनधर्म व साहित्य : जैनेतर विद्वानों का अभिमत 3.नधभनी २क्षा ठे ૪. આચાર્યશ્રી કલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર સંક્ષિપ્ત અહેવાલ ५. बंधन और मुक्ति - प्रवचन सारांश ६. पुण्य का जन्मस्थान - प्रवचन सारांश ७. स्वयं पर स्वयं का अनुशासन - प्रवचन सारांश ८. विश्व कल्याण प्रकाशन सूचि ૯. રાસ રસાળ १०. समाचार सार डॉ. हेमन्त कुमार डॉ. हेमन्त कुमार डॉ. हेमन्त कुमार श्रुतसरिता (बुकस्टॉल) કનુભાઈ એલ. શાહ डॉ. हेमन्त कुमार For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-श्रावण जैनधर्म व साहित्य : जैनेत्तर विद्वानों का अभिमत संकलन- डॉ. हेमन्त कुमार जैनधर्म व साहित्य के प्रति जैनेतर विद्वानों का आरम्भिक काल से ही बहत आकर्षण रहा है. जैनधर्म-दर्शन के ग्रन्थों में वर्णित जीवादि तत्त्वों, पदार्थों गणित, खगोल, भूगोल, इतिहास आदि के ज्ञानों का सूक्ष्म से सूक्ष्मतर वर्णन इतना विशाल है कि इसके प्रति भारतीय दार्शनिक-चिन्तक, ऋषि-महर्षि, साहित्यकार-विचारक तो आकर्षित हुए ही साथ-साथ विदेशी दार्शनिक-चिन्तक भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे. अनेक पाश्चात्य विद्वानों-दार्शनिकोंविचारकों ने प्रचुर मात्रा में जैन साहित्यिक-दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन, संशोधन-संपादन कर जैन साहित्य को प्रकाश में लाया है तथा उन ग्रन्थों में वर्णित विषयों के अध्ययन और समय-समय पर जैनाचार्यों से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी शंकाओं को निर्मल किया है. इसके अतिरिक्त जैनशिल्प-स्थापत्य कला भी इनके आकर्षण का केन्द्र रहा है. पिछले पाँच दशकों में ज्ञानसंशोधन तथा तत्त्वज्ञान के प्रति विदेशियों का आकर्षण बढ़ा है, पूर्वाचार्यों द्वारा रचित विज्ञान के अनेक ग्रन्थ उनके लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुये हैं. ये ग्रन्थ बहुश्रुतभाषित होने तथा ज्ञान के आधार पर लिखे होने के कारण सत्य की ओर आकर्षित करते हैं. विलास, वैभव तथा समृद्धि के राग-रंग से विमुख होकर विदेशी संशोधक अब भारत की आध्यात्मिक समृद्धि को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं. उसमें भी जैनसंस्कृति के प्रति गहराई से छानबीन करने की अभिरुचि जाग्रत हुई है, जैनाचार्यों के प्रति इनका आदर-भाव बढ़ता जा रहा है. आध्यात्मिक आचार-विचारों के द्वारा ही आत्मशान्ति प्राप्त होगी ऐसी श्रद्धा उनके अन्दर दृढ़ होती जा रही है. डॉ. हसमुखभाई दोशी ने एक स्थान पर यह उल्लेख किया है कि समग्न विश्वसाहित्य का बीसवीं सदी का पूर्वार्ध, जैनी तर्कशुद्ध विचारणा से उज्ज्वल हुआ था. ईश्वर के अस्तित्व का निषेध करके भी जिन्होंने विश्व में प्रवर्तित किसी अगम्य चैतन्यशक्ति का सदा सम्मान किया था, ऐसे महान साहित्याचार्य बर्नार्ड शॉ ने सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रार्थना करते हए एक स्थान पर लिखा है कि, 'यदि मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ा, तो मैं जैन ही बनें: महामहोपाध्याय पं. गंगनाथजी, इलाहाबाद ने अपने लेख में लिखा है कि जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा किये गये जैनसिद्धांत पर खण्डन को पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धांत में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के आचार्य नहीं समझे, और मैं अभी तक जो जैनधर्म को जान सका हूँ, उससे मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि, उन्होंने जैनधर्म को यदि उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाया होता तो उनको जैनधर्म से विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती. श्री काका कालेलकर ने कहा- जैनतत्त्वज्ञान में स्याद्वाद का जो अर्थ निर्दिष्ट है, उसे जानने का पूरा-पूरा वादा तो नहीं कर सकता, परन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि स्याद्वाद मनुष्य की बुद्धि को एकांगी होने से बचाता है. श्री आनंदशंकर बापुभाई ने लिखा कि - शंकराचार्य ने स्याद्वाद पर जो आक्षेप किया वह मूल अर्थ के साथ कोई संबन्ध नहीं रखता है. यह निश्चित है कि विविध बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना किसी भी वस्तु को संपूर्णरूप से समझना असंभव है. स्याद्वाद संशयवाद नहीं, वल्कि यह 'विश्व का अवलोकन किस प्रकार किया जाय?' यह सिखलाता है, . सुप्रसिद्ध महात्मा श्री सुव्रतलालजी वर्मन ने लिखा है कि- महावीरस्वामी के लिए ही नहीं, बल्कि सभी जैन तीर्थंकरों, जैन मुनियों तथा जैन महात्माओं के संबन्ध में भी लिखा गया है कि 'गये दोनों जहान नजर से गुजर, For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त २०१२ तेरे हुस्न का कोई वशर न मिला. वे जैनों के आचार्य गुरु थे. पाकदिल, पाकखयाल, मुजस्सम पाकी व पाकीजगी से भरपूर थे. मि. कन्नुलाल जोधपुरी ने लिखा है कि - जैनधर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है, जिसकी उत्पत्ति तथा इतिहास का पता लगाना बहुत ही दुर्लभ बात है. श्रीयुत वरदाकांत मुखोपाध्याय ने एक लेख में लिखा है कि- 'जैनधर्म हिंदुधर्म से सर्वथा स्वतंत्र है. उसकी शाखा या रूपान्तर नहीं.' ___ श्रीयुत तुकारामकृष्ण शर्मा ने अपने व्याख्यान में कहा कि सबसे पहले इस भारतवर्ष में ऋषभदेव नाम के महर्षि उत्पन्न हुए, वे दयावान, भद्रपरिणामी, पहले तीर्थकर हुए. जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी मोक्षशास्त्र का उपदेश किया. इसके पश्चात अजितनाथ से लेकर महावीर तक तेईस तीर्थकर अपने-अपने समय में अज्ञानी जीवों का मोह-अन्धकार नाश करते रहे. नेपालचंद्रराय अधिष्ठाता ब्रह्मचर्याश्रम शांतिनिकेतन ने कहा-'मुझे जैन तीर्थंकरों की शिक्षा पर अतिशय भक्ति मुहम्मद हाफिज सय्यद, कानपुर ने लिखा है कि-'मैं जैनसिद्धांत के सूक्ष्मतत्त्वों से गहरा प्रेम करता हूँ. श्री एम. डी. पडी, बनारस ने लिखा है कि- 'मुझे जैनसिद्धांत का बहुत शौक है, क्योंकि कर्मसिद्धांत का इसमें सूक्ष्मता पूर्वक वर्णन किया गया है.' श्री स्वामी विरूपाक्ष वडियर, इन्दौर ने अपने जैनधर्म मीमांसा नामक लेख में लिखा- 'ईर्ष्या द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्ति के रहते हुए जैनशासन कभी पराजित नहीं होकर सर्वत्र विजयी ही होता रहा है.' एक बंगाली बैरिस्टर ने "प्रेक्टिकल पाथ नामक अपने ग्रन्थ में लिखा है कि-'ऋषभदेव का नाती मरीची प्रकृतिवादी था और वेद उसके तत्त्वानुसार होने के कारण ही ऋग्वेद आदि ग्रन्थों की ख्याति उसी के द्वारा हुई है, फलतः मरीची ऋषि के स्तोत्र वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में हैं. यदि स्थान-स्थान पर जैन तीर्थंकरों का उल्लेख पाया जाता है तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैनधर्म का अस्तित्व न मानें,' श्री अम्बजाक्ष सरकार ने अपने एक लेख में लिखा है कि- 'यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं है, जैनदर्शन में जीवतत्त्व की जैसी विस्तृत व्याख्या है, वैसी और किसी भी दर्शन में नहीं महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, कोलकाता ने अपने व्याख्यान में कहा है कि- जैनसाधु एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करते हुए पूर्णरीति से व्रत, नियम और इंद्रिय-संयम का पालन कर जगत् के सन्मुख आत्मसंयम का एक ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करते हैं. प्राकृत भाषा अपने संपूर्ण मधुमय सौन्दर्य को लिए हुए जैन वाङ्गमय में प्रगट हुई है. श्री वासुदेव गोविन्द आपटे, इन्दौर ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि-जैनधर्म में अहिंसा का तत्त्व अत्यन्त श्रेष्ठ है, जैनधर्म में यत्ति धर्म अति उत्कृष्ट है, जैनों में स्त्रियों को भी यतिदीक्षा लेकर परोपकारी कृत्यों में जन्म व्यतीत करने की आज्ञा है, वह सर्वोत्कृष्ट है, हमारे हाथों से जीवहिंसा न होने पाये इसके लिए जैन जितना डरते हैं उतने बौद्ध नहीं डरते. प्राचीन काल में जैनों ने उत्कृष्ट पराक्रम या राज्यभार का परिचालन किया है. एक समय हिन्दुस्तान में जैनों की बहुत उन्नतावस्था थी, धर्म-नीति, राजकार्य धुरन्धरता, शास्त्रदान, समाजोन्नति आदि में उनका समाज इतरजनों से बहुत आगे था. रायबहादुर पूर्णेन्दु नारायण सिंह, बांकीपुर ने अपने लेख में लिखा है कि- 'जैनधर्म पढ़ने की मेरी हार्दिक For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-श्रावण इच्छा है, क्योंकि मैं ख्याल करता हूँ कि व्यावहारिक योगाभ्यास के लिए यह साहित्य सबसे प्राचीन है, यह वेद की रीति रिवाजो से पृथक है, इसमें हिन्दुधर्म से पूर्व की आत्मिक स्वतन्त्रता विद्यमान है, परमपुरुषों ने जिसका अनुभव कर प्रकाशित किया है, यह समय है कि हम इसके विषय में अधिक जानें. ___टी.पी. कप्पुस्वामी शास्त्री, तंजोर ने अपने लेख में लिखा है कि- 'तीर्थंकर, जिन से जैनों के विख्यात सिद्धान्तों का प्रचार हुआ है, वह आर्य क्षत्रिय थे. जैन अवैदिक भारतीय आर्यों का एक विभाग है. श्री राममिश्र शास्त्री ने एक व्याख्यान में कहा है कि- जैनमत सृष्टि की आदि से बराबर अविच्छिन्न चला आया है. आजकल अनेक अल्पज्ञजन बौद्धमत और जैनमत को एक मानते हैं, यह महाभ्रम है. बड़े-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैनमत का खण्डन किया है, वह ऐसा किया है कि देखकर हँसी आती है. एक दिन वह था कि जैन संप्रदाय के आचार्यों के हुँकार से दशों दिशाएँ गूंज उठती थीं. भरी सभा में मुझे यह कहने में किसी प्रकार की अतिशयोक्ति प्रतीत नहीं होती कि जैनों का ग्रन्थसमुदाय सारस्वत महासागर है, उसकी ग्रन्थसंख्या इतनी विशाल है कि उन ग्रन्थों का सूचीपत्र भी एक महानिबन्ध हो जाएगा. उस पुस्तक समुदाय का लेख और लेख्य कितना गंभीर, युक्तिपूर्ण, भावपुरित, विशद और अगाध है कि जिन्होंने सारस्वत समुद्र में अपने मतिमथान को डाल कर चिरान्दोलन किया है, वही जानते हैं. लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने जैनधर्म के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा है कि- पूर्वकाल में यज्ञ के लिए असंख्य पशुहिंसा होती थी, इसके प्रमाण मेघदूत आदि अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं. रंतिदेव नामक राजा ने यज्ञ में इतना प्रचुर वध किया था कि नदी का जल खून से रक्तवर्ण हो गया था, उस नदी का नाम चर्मवती प्रसिद्ध है. ब्राह्मण और हिन्दुधर्म में मांसभक्षण और मदिरापान बन्द हो गया, यह भी जैनधर्म का प्रताप है, महावीर स्वामी का अहिंसा धर्म ही ब्राह्मणधर्म में मान्य हो गया. जैनशास्त्रों में वर्णित ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित होकर इटालियन विद्वान डॉ. टैसीटोरी ने कहा है- 'आधुनिक विज्ञान ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों जैन सिद्धान्तों को ही साबित करता जाता है. यूरोपियन विद्वान डॉ. परटोल्ड ने लिखा है कि- स्याद्वाद की वर्तमान पद्धति का स्वरूप देखना ही पर्याप्त है. धर्म के विचारों में जैनधर्म निश्चितरूप से असीम है. जर्मनी के डॉ. जोहनस हर्टल ने कहा- 'मैं अपने देशवासियों को दिखाऊँगा कि कैसे उत्तम नियम और ऊँचे विचार जैनधर्म और जैनाचार्यों में हैं, जैनों का साहित्य बौद्धों से बढ़कर है और ज्यों-ज्यों मैं जैनधर्म और उसके साहित्य को समझता हूँ, त्यों-त्यों मैं उन्हें अधिक पसन्द करता हूँ.' पेरिस के डॉ. ए. गिरनाट ने लिखा है कि 'मनुष्यों की तरक्की के लिए जैनधर्म का चरित्र बहुत लाभकारी है, यह धर्म असली, सादा, मूल्यवान तथा ब्राह्मणों के मत से भिन्न है, तथा बौद्धों के समान नास्तिक नहीं है.' मि. आये जे. ए. डवाई ने सन् १८१७ ई. में प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखा है कि- 'जैनधर्म बहुत प्राचीन धर्म है. इसके प्रथम तीर्थंकर आदीश्वर भगवान ने प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार वेदों की रचना जैनधर्मावलम्बियों के लिए की है. आदीश्वर भगवान जैनों के सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध पुरुष हैं.' ___डॉ. ओ. परटोल्डाना ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि- धर्मों के साथ विज्ञान की तुलना में जैनधर्म को कौन सा स्थान दिया जा सकता है तथा विज्ञान में उसका कितना महत्व है; यही बतलाने का मेरा प्रयत्न है. __ डॉ. हर्मन जैकोबी, प्रो. मेक्समूल्लर, प्रो. ल्युमन, प्रो. होर्नल, होफ्रेट बुल्डर, डॉ. फुहरर, एम.ए. बार्थ, मि. लेवीस राइस, प्रो. टीले, प्रो. मॉटेट, डॉ. एल.पी.टेसीटोरी, डॉ. हर्टल, मि. हर्वर्टर वारेन आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने जैनागमों, शिलालेखों आदि का भाषान्तर कर उन्हें प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त २०१२ ઘર્મની રક્ષા કાજે - સ્વ. રતિલાલ મફાભાઈ શાહ ‘શંકરદિગ્વિજય'ના લેખકના જણાવ્યા મુજબ, સુધન્વા રાજાની સરદારી નીચે, ભારતમાં કાશ્મીરથી માંડી કન્યાકુમારી સુધી શ્રમણોની કતલ ચાલી હો કે એ કેવળ એક લોકશ્રુતિ હો, છતાં એટલું તો ચોક્કસ છે કે એ કારણે અથવા તો અન્ય કોઈ પણ કારણો પ્રજાના મોટા ભાગમાં તત્કાલીન નૃપતિઓ સામે ભારે અસંતોષ પ્રવર્તતો હતો. એના પરિણામ રૂપે થોડા જ સમયમાં મુસલમાનોનાં એક પછી એક ધાડાં ભારતમાં ઊતરી આવવા છતાં પ્રજા એનો પ્રતિકાર કરવા જેટલો ઉત્સાહ દાખવી શકી નહોતી. નહિ તો અમુક હજાર જેટલા પરદેશીઓ કરોડોની સંખ્યામાં વસેલા ભારતને આવી ભૂંડી રીતે ચૂંથી ન શકત. અને એ ધાડાં એટલેથી જ અટક્યા નહીં, પણ બસો વર્ષ સુધી ચાલુ રહી ઉત્તર ભારતમાં સર્વભૌમ રાજ્ય મેળવીને જ જંપ્યાં. મુસ્લિમોએ આમ ઉત્તર ભારતમાં એકચક્રી રાજ્ય સ્થાપ્યું હતું. સાથે દક્ષિણમાં પણ એમણે રાજ્યો ઊભાં કરવા માંડ્યાં હતાં. આથી હોયશલ વંશના પરાક્રમી રાજા વીર બલાળદેવ ત્રીજાએ એ વેગને રોકવા કમર કસી. અને એણે એક પછી એક મુસ્લિમ થાણાં ઉખેડી નાખી વિજયનગરના સામ્રાજ્યનો પાયો નાખ્યો. એના મરણ પછી રાય હરિહર ત્યાર બાદ રાય બુક્કારાયના સમયમાં તો વિજયનગર એક સમૃદ્ધિશાળી અને શક્તિશાળી વિશાળ સામ્રાજ્ય બની ગયું. બુકારાય અને તેના અનુગામી કૃષ્ણદેવરાય (કૃષ્ણાજી નાયક) મહારાજા હર્ષવર્ધન પછી પ્રથમ હિન્દુ સમ્રાટ બન્યા હોઈ હિંદુ પ્રજામાં નવું ચેતન આવ્યું હતું. આથી બ્રાહ્મણોએ ફરી વેદ ધર્મના પ્રચાર અને પુનરુદ્ધાર માટે પ્રબળ પ્રયત્નો શરૂ કર્યા. નવા આવેલા મુસ્લિમો-મ્લેચ્છો માટે તે હિંદુ ધર્મમાં કોઈ સ્થાન નહોતું; અને બૌદ્ધો તો આ દેશમાંથી ક્યારના ચાલ્યા ગયા હતા, એટલે પછી એમનો સપાટો જૈનો સામે ચાલ્યો. શંકરાચાર્યના દિગ્વિજય પછી પણ જેનો લાખોની સંખ્યામાં પોતાના ધર્મમાં ટકી રહ્યા હતા. એટલે વૈદિકોએઅને તેમાંય ખાસ કરી નવા જન્મેલા વૈષ્ણવ સંપ્રદાયોએ-એ યુગની હવા પ્રમાણે, જૈનો વિરુદ્ધ જબરી હિલચાલ શરૂ કરી; કારણ કે નાસ્તિક, પાખંડી, વેદબાહ્ય મનાતા જૈનો, હિંદુ રાજ્યમાં અળખામણા થઈ પડ્યા હતા, તેમજ દિગંબર મુનિઓની ઉત્કટ આત્મસાધનાના પ્રતીક રૂપ દિગંબરાણાએ પણ પ્રજામાં ઠીકઠીક વિરોધભાવ પેદા કર્યો હતો. એમણે રાજા પાસે ફરિયાદ કરી કે એવા નાસ્તિક લોકોના સંસર્ગથી પ્રજા ધર્મવિમુક બનતી જાય છે, તો એવા વેદબાહ્ય લોકોને રાજ્યમાંથી દૂર કરવા જોઈએ. અને એ માટે જૈનોની નાસ્તિકતા, અને એમનું પાખંડીપણું સિદ્ધ કરી બતાવવા શાસ્ત્રચર્ચા કરવાની પણ માગણી મૂકવામાં આવી. શાસ્ત્રચર્ચાની વારંવાર કરવામાં આવતી આગ્રહભરી માગણીને વશ થઈને છેવટે મહારાજા બુકારાયે એમની શાસ્ત્રચર્ચા સાંભળવાનું સ્વીકાર્યું. અને જો જૈન પંડિતો પોતાના ધર્મની ઉપયોગિતા, આસ્તિકતા અને પાખંડરહિતપણું પુરવાર ન કરી શકે તો એમની સામે પગલાં લેવાની જાહેરાત એમણે કરી. અષાડ સુદી બીજનો દિવસ શાસ્ત્રચર્ચા માટે જાહેર કરવામાં આવ્યો અને જૈન પંડિતોને પોતાના ધર્મની ઉપયોગિતા સિદ્ધ કરવા આવાહન આપતી દાંડી પણ પિટાવવામાં આવી. કામ બહુ મોટું હતું, જવાબદારી પણ ઘણી મોટી હતી; અને સમય ત્રણેક મહિના જેટલો સાવ ઓછો હતો; એટલે રાત્રે વિજયનગરનો જૈનસંધ તરતજ આ બાબત પર વિચાર કરવા ધર્માગારમાં એકત્ર થયો. શિવસ્વામી, બંસીલાલજી મહારાજ તથા પ્રસિદ્ધ પંડિત બસવેશ્વર જેવા તે તે સંપ્રદાયના સમર્થ વિદ્વાનો સામે ટકી શકે એવો એક પણ પંડિત કે મુનિ સંઘના ધ્યાનમાં નહોતો. એટલે જો એ શાસ્ત્રચર્ચામાં જૈનોનો પરાજય થાય તો સમગ્ર દક્ષિણ ભારતમાંથી હમેશાને માટે જૈનોનો પગ નીકળી જાય, એમ એમને લાગ્યું. વળી દિગંબરપણા સામેના વિરોધમાંથી જન્મેલા લિંગાયત જેવા સંપ્રદાયો તો જૈનોના ખાસ વિરોધી બન્યા હતા તેમજ અન્ય પ્રજાને પણ એમની સામે એજ કારણે અણગમો હતો. આ પરિસ્થિતિમાં કોઈની પણ સાથ મળવો મુશ્કેલ હતો. તેથી સંઘમાં એક પ્રકારની ચિંતા અને ભયની લાગણી પેદા થઈ અને ઘડીભર તો સંઘનાયકો શુન્યમનસ્ક બનીને જ બેસી રહ્યા. For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir વિ.સં.૨૦૬૮-શ્રાવણ છેવટે સંઘપતિએ મૌન તજી સમગ્ર પરિસ્થિતિનો ખ્યાલ આપીને કહ્યું : “કેવળ ભયભીત થવાથી આવતી વિપત્તિને નિવારી શકાશે નહિ માટે જેને જેને જે જે ઉપાયો સૂઝે એ સંઘ સમક્ષ મૂકે. સંઘ એ પર વિચાર કરી, એ માર્ગ યોગ્ય હશે તો, એ માટે બધું જ બનતું કરી છૂટશે.' એક જણાએ જણાવ્યું કે “મહારાજાને મૂલ્યવાન ભેટ ધરી પ્રસન્ન કરવા જોઈએ.' બીજાએ વળી ‘બ્રાહ્મણ પડિતોને દ્રવ્યપૂજાથી સમજાવી લેવા જોઈએ,' એવું સૂચન કર્યું. તો ત્રીજાએ જણાવ્યું કે “હલેબીડના પ્રસિદ્ધ જૈનમંદિરમાં જૈન પૂજાવિધિ પહેલાં શૈવ ક્રિયાકાંડ અનુસાર ભસ્મ અને તાંબૂલ લાવવાની વિધિ અપનાવી જેમ લિંગાયતોને શાંત પાડવા પડયા હતા તેમ અત્યારે વૈષ્ણવ વિધિ અપનાવી વિરોધીઓને શાંત કરવા જોઈએ.' તો વળી કોઈએ રાજનો ત્યાગ કરવાની સલાહ આપી. આમ સહુએ પોતાને જે જે વિચાર સ્કૂર્યા એ રજૂ કર્યા, પણ એકે વિચાર કારગત થાય એવો ન લાગ્યો. આવી રીતે ભેટ આપીને કે લાલચથી સંતોષીને આ વિષમ પરિસ્થિતિનો ઉકેલ શોધવા જતાં તો કાયમી પરાધીનતામાં પડવા ઉપરાંત સંધને હમેશને માટે નિચોવવાનો એક નવો માર્ગ વિરોધીઓને મળી જતો હોઈ એનો અસ્વીકાર કરવામાં આવ્યો. તેમજ શૈવ કે વૈષ્ણવ વિધિ અપનાવવામાં પણ પહેલેથી ધર્માતર કરી લેવા જેવી નાલેશી સમાયેલી હોઈ એ માર્ગ પણ નકારી કાઢવામાં આવ્યો. બહુ લાંબી ચર્ચા પછી સમાજને ગૌરવ બક્ષનારો એક જ માર્ગ જણાયો, અને તે હતો શાસ્ત્રચર્ચાનું આહ્વાન ઝીલી લેવા જેટલી વીરતા દાખવવાનો. આ માટે નજીકમાં જેટજેટલા મુનિઓ, આચાર્યો તથા શાસ્ત્રના જાણકાર ગણાતા શ્રમણોપાસકો હતા એમને જલદી ધર્મરક્ષા માટે તૈયારી કરવા વિજયનગરમાં એકત્ર થવાનો આદેશ આપવામાં આવ્યો. સાથે સાથે શાસ્ત્રાર્થમાં વાદીઓને જીતવામાં સમર્થ મહાપંડિત તથા સિંહ સમાન પ્રભાવશાળી એવા આચાર્ય ધર્મસિંહસૂરિજીને પણ સઘળી બીના વિદિત કરી એમની પાસેથી યોગ્ય માર્ગદર્શન તથા એ બાબતમાં શક્ય મદદ મેળવવા માણસો મોકલવાનું નક્કી કરવામાં આવ્યું. એ કાળમાં આ સૂરિજી ઉત્કટ ચારિત્રસંપન્ન અને સમર્થ સર્વશાસ્ત્રપારગામી પુરુષ હતા, પણ તે હાલ વિજયનગરથી છસો-સાતસો ગાઉ દૂર અયોધ્યા નગરીમાં વિરાજતા હતા. એ જમાનામાં ત્રણેક મહિનાનો ગાળો આજની દૃષ્ટિએ ઘણો ટૂંકો હોઈ એક ક્ષણ પણ ગુમાવવી પાલવે તેમ નહોતી, જેથી તરત જ યોજનાઓનો અમલ કરવાનું નક્કી કરી સંઘ મોડેથી વિખરાયો, અને અશ્વારોહી સંદેશવાહકોને તરત જ અયોધ્યા તરફ રવાના કરવામાં આવ્યા. ઘોડાઓ ઉપર પંદર-વીસ દિવસની સતત મજલ કરીને સંદેશવાહકો અયોધ્યા પહોંચી ગયા. અને આચાર્યશ્રીના હાથમાં વિજયનગરના સંઘનો દર્દભર્યો પત્ર મૂક્યો. સંઘની હસ્તિ-નાસ્તિનો આ પ્રશ્ન પત્રમાં વાંચી સૂરિજી પળવાર તો ભારે વિમાસણમાં પડી ગયા. આવતી આપત્તિને કેમ નિવારવી એ ઉપાયો વિચારવા એ એકાંતમાં ચાલ્યા ગયા વિજયનગર સંઘના પત્ર અને ગુરુની ચિંતાની વાત, એક કાનેથી બીજે કાને ફરતી ફરતી, સકલ સંઘમાં પ્રસરી ગઈ. સંઘનાયકો ઉપાશ્રયે એકત્ર થયા. સૂરિજી તો હજી એકાંતમાં જ હતા. એકાંતમાંથી સૂરિજીએ સત્ય બીના જણાવી, સહેજ ધૈર્ય રાખવા કહેવડાવ્યું; સાથે સાથે પોતે જ્યારે બોલાવે ત્યારે હાજર થવા પણ સૂચવ્યું. આખી રાત સૂરિજીએ એ જ વિચારમંથનમાં ગાળી કે “અહીં બેઠા બેઠા શાસ્ત્રચર્ચામાં કેવી રીતે ભાગ લઈ શકાય? અને ન લઈ શકાય તો કેવી રીતે વિજય પ્રાપ્ત થઈ શકે? અને એમાં જો નિષ્ફળતા મળે તો તો ત્યાં સંઘનું નામનિશાન જ મટી જાય! પૂર્વકાળના જંઘાચરણ મુનિઓની જેમ મારામાં ઉડયન શક્તિ હોત તો કેવું સારું થાત! પણ હવે આ માટે કંઈક પણ ઉપાય તત્કાળ કરવો જ ઘટે .' આમ સતત મંથનને પરિણામે છેવટે જાણે એમને પોતાનો અંતર્નાદ સંભળાયો કે આટલા બધા દૂર હોવા માટે અફસોસ કરવાની શી જરૂર છે? ચાલ, તું પોતે જ ત્યાં પહોંચી જા! હજુ સમય પૂરતો છે. અને અત્યારે જ પ્રયાણ શરૂ કરી દે. જેના દિલમાં ધગશ છે, શાસનહિતની તીવ્ર ઝંખના છે, અને એ માટે મરી ફિટવાનો દઢ સંકલ્પ છે, એને છસો-સાતસો ગાઉ કંઈ બહુ દૂર નથી, માટે મુશ્કેલીના વિચારને ખંખેરી નાખી ધર્મશૌર્ય પ્રગટાવ, જે પુરુષાર્થ ખેડે છે એને સકલ વિશ્વ સાનુકૂળ બની બધી જ રીતે સાથ આપે છે, ને વિજયમાળ પહેરાવે છે. તો એ સૂત્ર ધ્યાનમાં રાખી ઉત્સાહિત બની ચાલી નીકળ. જા, તારો વિજય નક્કી છે. પણ એ માટે હવે એક ક્ષણ પણ ન ગુમાવીશ!” (વધુ આવતા અંકે) For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त २०१२ આચાર્યશ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર જુન-૨૦૧૨ નો સંક્ષિપ્ત કાર્ય અહેવાલ જ્ઞાનમંદિરના વિવિધ વિભાગોમાં પોત-પોતાના કાર્યો રાબેતા મુજબ ચાલી રહેલ છે. આ કાર્યોમાંથી જુન માસમાં થયેલાં મુખ્ય-મુખ્ય કાર્યોની ઝલક નીચે પ્રમાણે છે. ૧. કલાસ શ્રુતસાગર ગ્રંથ સૂચિ ભાગ ૧૩ માટે હસ્તપ્રત વિભાગમાં કાર્યરત પંડિત મિત્રો દ્વારા ૧૨૦૦ કૃતિઓનું લિંકીંગ કાર્ય કરવામાં આવ્યું. અત્યાર સુધી ૪૭૦૦ લિંકનું કાર્ય પૂર્ણ થઇ ગયેલ છે. ૨. હસ્તપ્રત વિભાગ હેઠળ ફૉર્મ ભરવા, કયૂટર ઉપર પ્રાથમિક માહિતી ભરવી, ગ્રંથ ઉપર નામ-નંબર લખવા, રેપર તૈયાર કરવાં, તાડપત્રોની સફાઈ-પૉલિશ, ફ્યુમિગ્રેશન તથા સ્કેનીંગ કાર્ય માટે હસ્તપ્રત ઇશ્યરીસીવ પ્રક્રિયા આદિ રાબેતા મુજબના કાર્યો થયા. ૩. પ. પૂ. રાષ્ટ્રસંત આચાર્ય શ્રીપદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. તરફથી જ્ઞાનમંદિરને કુલ ૧૩ હસ્તપ્રતો તથા ૧ ગુટકો ભેટ સ્વરૂપે પ્રાપ્ત થયા. ૪. લાયબ્રેરી વિભાગમાં જુદા-જુદા ૭ દાતાઓ તરફથી ૧૧૫ પુસ્તકો ભેટ સ્વરૂપે પ્રાપ્ત થયાં. પ. આ મહિના દરમ્યાન ૧,૦૭,૮૬૫ રૂ. ની કિંમતના પુસ્તકોની ખરીદી કરવામાં આવી. ૬. લાયબ્રેરી વિભાગમાં ૨૦૬ પ્રકાશનોની સંપૂર્ણ માહિતીનું શુદ્ધિકરણ કાર્ય કરવામાં આવ્યું. ૭. મેગેઝીન વિભાગમાં ૩૨૮ પેટાંકોની સંપૂર્ણ માહિતીઓ ભરવામાં આવી તથા તેની સાથે યોગ્ય કૃતિ લિક કરવામાં આવી. ૮. આ માસ દરમ્યાન કુલ ૧૪ વાચકોને હસ્તપ્રત તથા પ્રકાશનોના ૩૫૫૪ પાનાની પ્રીન્ટ કોપીઓ ઉપલબ્ધ કરાવવામાં આવી. આ સિવાય વાચકોને કુલ પ૧૯ પુસ્તકો ઇશ્ય થયાં તથા ૪૬૮ પુસ્તકો જમા લેવામાં આવ્યાં. ૯. સમ્રા સંપ્રતિ સંગ્રહાલયની ૭૭૬ યાત્રાળુઓ દ્વારા મુલાકાત લેવામાં આવી. ૧૨. હસ્તપ્રત સ્કેનીંગ પ્રોજેક્ટ હેઠળ સચિત્ર હસ્તપ્રતોના ૪૨૩૫ પાના તથા નોર્મલ હસ્તપ્રતોના ૭૨૩૦૫ પાનાઓને સ્કેન કરવામાં આવ્યા. આ સિવાય ૭૪૪ ગ્રંથોની પીડીએફ પ્રોગ્રામમાં લિંક કરવામાં આવી. ૧૧. પાટણમાં નવા તૈયાર થતા સંગ્રહાલય માટે વડોદરા મ્યુઝિયમમાંથી આવેલી ટીમને કેટલાંક ચિત્રો તૈયાર કરવા અંગે પ.પૂ. આચાર્ય ભગવંત શ્રી પદ્મસાગરસૂરિજીએ માર્ગદર્શન આપ્યું હતું. ૧૨. શહેર શાખા ગ્રંથાલય (સીટી સેન્ટર લાઇબ્રેરી)માં સાધુ-સાધ્વી ભગવંતો તથા વિદ્વાનો, જિજ્ઞાસુઓને પુસ્તકોની આપ-લેનું કામ થાય છે તથા તેમને જરૂરી માહિતીઓ પણ પૂરી પાડવામાં આવે છે. ૧૩. શ્રુત સરિતા-બુક સ્ટૉલ દ્વારા જૈન ધાર્મિક સાહિત્ય, જીવન ઘડતર અંગેનું ઉત્તમ સાહિત્ય તેમ જ જૈન ઉપકરણોનું નિયમિત વેચાણ કરવામાં આવે છે. ૧૪. જ્ઞાનમંદિરની મુલાકાતે આવેલ સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતો, વિદ્વાનો, સ્કૉલરો દ્વારા આપેલા અભિપ્રાયોમાંથી એક વિશિષ્ઠ અભિપ્રાય નીચે પ્રમાણે છે : આજે આ શ્રુતસાગર સમા સંકુલની સ્પર્શના કરવાનું સર્વ પ્રથમ સૌભાગ્ય પ્રાપ્ત થયું. જૈનશાસનની ભારતીય સંસ્કૃતિની મહામૂલ્યવાન ધરોહર અહીં સંગ્રહિત છે. પુ. આચાર્ય ભગવંતનો અનંત ઉપકાર છે. અહીં સચવાયેલ પ્રાચીન જ્ઞાનખજાનાને બહાર લાવી વર્તમાનકાલીન વિશ્વને નવો પ્રકાશ પ્રાપ્ત કરાવે તેવી પૂરી ગુંજાઈશ છે. આ સંસ્થા તેના ધ્યેયમાં સદાય પ્રગતિશીલ રહે તેવી હાર્દિક શુભકામના.' -જૈન મુનિ ભાસ્કરજીસ્વામી (સ્થાન. જેના લીંબડી અજરામર સંપ્રદાય, સુરેન્દ્રનગર) For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-श्रावण बन्धन और मुक्ति - प्रवचन सारांश | परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने बन्धन और मुक्ति के सम्बन्ध में कहा कि परमात्मा महावीर ने अपने धर्म प्रवचन में आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया है. आत्मा का स्वरूप अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र एवं अनन्त वीर्य युक्त है. किन्तु यह अनादिकाल से कर्म के बन्धन से घिरा हुआ है. सर्वप्रथम हमें इन कर्म बन्धनों से मुक्त होने का विचार करना होगा फिर परमात्मा महावीर द्वारा बताये उपाय करने होंगे तभी हम कर्म बन्धन से मुक्त हो सकते हैं. हम जैसा विचार करते हैं वैसे ही कर्मों का बन्धन होता है. मूलरूप से कर्म के आठ प्रकार हैं, इन्हीं आठ कर्मों के बन्धन में बंधकर हम बार-बार इस संसार का भ्रमण कर रहे हैं. अनेक योनियों में भटकते हुए आज इस मानव भव को प्राप्त किया है. पूज्यश्री ने कहा कि हम इन्द्रियों की वासना की पूर्ति हेतु तो कितने सारे उपाय करते रहते हैं किन्तु क्या कभी हमने आत्मा की मुक्ति का उपाय सच्चे मन से किया है? हमें तो यह भी पता नहीं है कि आत्मा का विषय सुख क्या है? मन का परिणमन जिस प्रकार का होगा वैसे ही कर्म बंधेगे. मन से राग-द्वेष को बाहर निकालना होगा तभी हम अपनी आत्मा के विषय सुख को प्राप्त कर सकेंगे. अपने सांसारिक दुःख दूर करने के अनेक उपाय करते हैं, किन्तु दुःख के कारण को दूर करने का कभी उपाय किया है क्या? हम दुःख के कारण को दूर करने का यदि उपाय करें तो दुःख ही नहीं होगा और जो सुखानुभूति होगी वही आत्मा का सच्चा सुख है. भगवान महावीर की आत्मा मोक्षगामी थी फिर भी उन्हें कितने भयंकर उपसर्गों को सहन करना पड़ा. श्री राम के राज्याभिषेक का समय महान तत्त्ववेत्ता महर्षि वशिष्ठ ने तय किया था फिर भी उन्हें चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा. क्या कभी विचार किया है कि यह सब कैसे हुआ? यह सब कर्मों का ही खेल है. कर्म अपना फल अवश्य देते हैं. कर्मों की निर्जरा करना सीखो. इसी संसार से अनन्त आत्माएँ मोक्ष में गई हैं, आप अभी तक यहीं हैं इसका कारण आप जानते हैं? कारण है राग और द्वेष. जैन कर्मवाद को समझने का प्रयास करें जैसे ही जैन कर्मवाद को समझ लेंगे वैसे ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा. संसार निर्दोष है, यह किसी को भी बन्धन या मुक्ति नहीं देता है. बन्धन और मुक्ति देते हैं हमारे विचार, हमारी मनोवृत्ति, हमारी इन्द्रियों के विषय, इन्द्रियों के विषयों का शमन ही कर्मों के बन्धन से मुक्ति का मार्ग है. वासना की जगह वात्सल्य की भावना धारण करें. विचार और आचरण शुद्ध करें, संसार से मुक्त हो जाएंगे. पुण्य का जन्म स्थान - प्रवचन सारांश पूज्य आचार्यश्री ने पुण्य की चर्चा करते हुए कहा कि पुण्य से विकास होता है. जिसका भी किसी भी क्षेत्र में विकास हो रहा हो आप समझ लेना की उसका पुण्य प्रबल है, पुण्य की प्राप्ति सरल नहीं है. अनन्तकाल तक यह आत्मा अनन्त दुःखों को सहन करते हुए आज मानव भव में आयी है. प्रभु महावीर ने कहा है कि इच्छा से दुःख का सहन करना पुण्य अर्जन का कारण बनता है और अनिच्छा से दुःख का सहन करना पाप का कारण बनता है. हमने अनन्त जन्मों में दुःखों को सहन करके पुण्य की प्राप्ति की और महावीर प्रभु के शासन में जन्म पाया है. पुण्य का जन्म स्थान कहाँ है यह हमें आज तक पता नहीं है. पुण्य का जन्म स्थान है भक्ति, सहनशक्ति, तप, परोपकार, प्रेम, भाईचारा, करुणा, दया, दान, धर्म आदि . दया और दान से ही धर्म की प्राप्ति होती है. महाराजा कुमारपाल ने पूर्व भव में परमात्मा की भक्ति की, पुष्प अर्पित किया. इस कार्य के कारण उनका पुण्य इतना प्रबल हुआ कि उन्हें अगले जन्म में राजा बना दिया. अनेक महापुरुषों का उदाहरण देते हुए पूज्यश्री ने कहा कि जन्म तो निर्धन परिवार में हुआ किन्तु पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य के कारण वे आज आदर्श पुरुष बन गये हैं. इस भूमि से अनन्त आत्मा मोक्ष को गये हैं और अनन्त आत्मा दुर्गति में भी गये हैं. इन दोनों के पीछे पुण्य ही कारण है. जिसका जैसा पुण्य है उसे वैसा ही फल मिलता है. For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० अगस्त २०१२ परोपकार पुण्य का प्रबल कारण है. परोपकार की भावना प्रबल पुण्य प्रदान करती है. पहले विचार आता है बाद में उसका परिणाम आता है. युद्ध तो बाद में होता है, पहले युद्ध का विचार आता है. उसी प्रकार मोक्ष तो बाद में मिलता है, पहले मोक्ष प्राप्ति का विचार करना होगा. सद्विचार के लिये आहार की शुद्धता बहुत आवश्यक है. आहार की शुद्धता के बिना अच्छे विचार नहीं आ सकते हैं. अच्छे विचार के बिना पुण्य की प्राप्ति असंभव है. जीवन का उद्देश्य परोपकार ही होना चाहिये. इसके लिये हमें अपने इन्द्रियों को वश में करना होगा. प्रत्येक इन्द्रिय को परोपकार में लगाएंगे तो ही सच्चा परोपकार कर सकेंगे, भगवान महावीर ने अनेकों उपसर्गों को समतापूर्वक सहन किया, अपने ऊपर उपसर्ग करने वाले संगम देव के प्रति भी दया की भावना रखी तो उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया. ऐसी ही भावना हमारी भी होनी चाहिए. संसार में सुख और संसार से मुक्ति दोनों ही पुण्य के बिना सम्भव नहीं है. परोपकार से ही पुण्य की प्राप्ति होती है यह बात सदैव याद रखनी चाहिए. अन्त में आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी महाराज ने भी पुण्य के प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमें अपने जीवन में पुण्य के प्रभाव से ही सुख की प्राप्ति हो सकती है. सदैव पुण्य की प्राप्ति हेतु सजग रहना चाहिए. | स्वयं पर स्वयं का अनुशासन - प्रवचन सारांश परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने स्वयं पर स्वयं का अनुशासन के सम्बन्ध में कहा कि परमात्मा महावीर ने अपने धर्म प्रवचन में आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया है. परम कृपालु परमात्मा के मंगल प्रवचन आपकी अन्तर चेतना को जागृत करने हेतु होते हैं. प्रवचनों के द्वारा हम अपने कर्मों के बन्धन और उनसे मुक्ति का मार्ग जान पाते हैं. कैसे हम इस संसार सागर को पार करेंगे इसका उपाय हमें ज्ञात होता है. प्रभु महावीरस्वामी ने कहा कर्मो के बन्धन से मुक्ति पाने के लिये हमें स्वयं पर स्वयं का अनुशासन करना होगा. इसके लिये अपने मन और इन्द्रियों को अनुशासित करना होगा. पूज्यश्री ने कहा कि इन्द्रियाँ कर्मों का आस्रवद्वार हैं, इसे हमें धर्म का आस्रवद्वार बनाना होगा. अपने आप पर अधिकार करना सबसे दुष्कर कार्य है. इस दुष्कर कार्य को करने के लिये हमें दुष्कर संकल्प भी करना होगा, मन को नियंत्रण में रखने की कला विकसित करनी होगी. मन नियंत्रण में होगा तभी हम अपने इन्द्रियों को भी नियंत्रित कर सकेंगे. प्रभु महावीर ने सत्ताईसवें भव में मुक्ति प्राप्त की. क्या हम सत्ताईस हजार भव में भी मुक्ति पा सकेंगे? आचार्य भगवन्त ने आगे कहा कि हमें सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिये भी संयम की आवश्यकता होती है. डॉक्टर हमें संयमित रहने को कहता है तो हम उसके द्वारा बताए संयमों का पालन करते हैं क्योंकि हमें आरोग्य लाभ लेना है, किन्तु हमें संसार से मुक्त होना है तो क्या इसके लिये संयम ग्रहण नहीं करेंगे? हम रोज देखते हैं कि घर में, समाज में कहीं भी जहाँ अनुशासन नहीं है वहाँ की क्या स्थिति है? जब हम अपने घर में अनुशासन की आवश्यकता महसूस करते हैं तो संसार से मुक्ति के लिये क्यो नहीं? किन्तु क्या आप यह नहीं जानते हैं कि यदि आप स्वयं अनुशासित नहीं होंगे तो दूसरों पर आपकी बात का कोई असर नहीं होता है. वहाँ भी पहले स्वयं को अनुशासित होना होता है, फिर दूसरों को अनुशासित करने की बात होती है. स्वयं पर स्वयं का अनुशासन करने के लिए आहार, वेशभूषा, वाणी, आचरण सब को संयमित करना होगा. इन सब का मन पर बहुत असर होता है. हमारा मन शुद्ध होगा तभी हम अपने आप पर अनुशासन रख सकेंगे. इसके लिये तप, उपवास, मौन आदि का सहारा लेना होगा. यम-नियम का पालन करो स्वयं अनुशासित हो जाएंगे. इन्द्रियों की वासना का बन्धन बहुत मजबूत है. इन्द्रियाँ कर्मों को आत्म प्रदेश तक ले जाने में सहयोगी हैं. मन को नियंत्रित करें और इन इन्द्रियों को धर्म का आस्रवद्वार बनाएँ. जब इन्द्रियाँ धर्म का आस्रवद्वार बनेंगी तब स्वतः स्वयं पर अनुशासन कायम हो जाएगा. For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-श्रावण चातुर्मास के पावन दिनों में इस लोकप्रिय साहित्य का वितरण प्रभावना/ उपहार-भेंट स्वरूप करके सम्यग्ज्ञान के प्रचार व प्रसार में सहयोगी बनकर अपूर्व पुण्योपार्जन आप स्वयं करें एवं अन्यों को इस हेतु प्रेरणा प्रदान करें। आज जब पठन-पाठन व सद्बाचन की परंपरा चिंताजनक हद तक कम हो रही है तब सम्यग्ज्ञानोपासना के लिए चिंतित हम सभी को सत्साहित्य को सर्वजनसुलभ बनाने हेतु अपना योगदान देना ही होगा। ३०.०० आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज (प्रियदर्शन) रचित व सर्जित साहित्य और विश्वकल्याण प्रकाशन, महेसाणा द्वारा प्रकाशित उपलब्ध पुस्तकें (अब श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ से उपलब्ध व प्रकाश्यमान) हिन्दी पुस्तकें प्रवचन १. *पर्व प्रवचनमाला २५.०० २-४. श्रावकजीवन (भाग २,३, ४) १५०.०० ५. शांतसुधारस (भाग १) ५०.०० कथा-कहानियाँ १. शोध-प्रतिशोध (समरादित्य : भव-१) ३०.०० द्वेष-अद्वेष (समरादित्य : भव-२) ३०.०० विश्वासघात (समरादित्य : भव-३) ३०.०० ४. वैर विकार (समरादित्य : भव-४) ५०.०० ५. स्नेह संदेह (समरादित्य : भव-६) ५०.०० ६. संसार सागर है ७. *प्रीत किये दुःख होय डी.-१९५.००/ज.-९०.०० व्रतकथा १५.०० ९. कथादीप १०.०० १०. फूलपत्ती ८.०० ११. छोटी सी बात ८.०० १२. *कलिकाल सर्वज्ञ डी.-१२०,००/ज-५५.०० १३. हिसाब किताब १५.०० १४. नैन बहे दिन रैन ३०.०० १५. सबसे ऊँची प्रेम सगाई ३०.०० तत्त्वज्ञान १. ज्ञानसार (संपूर्ण) ५०.०० २. *समाधान ५०.०० मारग साचा कौन बतावे ३०.०० ४. *पीओ अनुभव रस प्याला डी.-१०१.००/ज.-४२.०० शान्त सुधारस (अर्थ सहित) १२.०० मोती की खेती ५.०० For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त २०१२ ૨૬.૦૦ o is in so m રૂ૦,૦૦ રૂ૦.૦૦ ૧૦.૦૦ ૬,૦૦ ૬.૦૦ હી.-૧૭૬.૦૦/ન.-૮૦.૦૦ હી.-૧૪૨.૦૦/ન.-૬૬.૦૦ હી.-૧૨૦ ૦૦૧ ૧૦.૦૦ ૨૦.૦૦ ૨00.00 ૧૫૦.00 ૧પ૦.00 ૫૦.૦૦ ૧૫.00 9. પ્રશમરતિ (મા | - ૨) निबन्ध : मौलिक चिन्तन स्वाध्याय चिन्तन की चाँदनी जिनदर्शन शुभरात्रि सुप्रभातम् ૪. “યહી હૈ નિરી ૬. *નિંદ્ર પુતિન નૈતી હૈ ૬. *માયાવી રાની बच्चों के लिए (सचित्र) ૧-3. વિજ્ઞાન સેટ (પુસ્તક) ગુજરાતી પુસ્તકો પ્રવચનો ૧-૪. ધમ્મ સરણે પવન્જામિ ભાગ ૧ થી ૪ પ-૭. શ્રાવક જીવન ભાગ ૨, ૩, ૪ ૮-૧૦. શાંત સુધારસ ભાગ ૧ થી ૩ ૧૧. પર્વ પ્રવચનમાળા ૧૨. મનને બચાવો કથા-વાર્તા સાહિત્ય ૧૩-૧૫.*સમરાદિત્ય મહાકથા ભાગ ૧ થી ૩ ૧૬. “પાંપણે બાંધ્યું પાણિયારું ૧૭. *પ્રીત કિયે દુ:ખ હોય ૧૮. *એક રાત અનેક વાત ૧૯. નીલ ગગનનાં પંખેરુ ૨૦. મને તારી યાદ સતાવે ૨૧. દોસ્તી ૨૨. સર્વજ્ઞ જેવા સૂરિદેવ ૨૩. અંજના ૨૪. ફૂલ પાંદડી ૨૫. વ્રત ધરે ભવ તરે ૨૬. શ્રદ્ધાની સરગમ ૨૭. શોધ પ્રતિશોધ ૨૮. નિરાંતની વેળા ૨૯. વાર્તાની વાટે ૩૦. વાર્તાના ઘાટે ૩૧. હિસાબ કિતાબ ૩૨. રીસાયેલો રાજકુમાર ૪00.00 ડી.-૧૨પ-૦૦૪૫૦.૦૦ ડી.-૧૬પ-૦૦/-૩૦.૦૦ ડી.-૧૪૧-00જ.-૬૧.00 ૩૦.૦૦ ૩૦.00 ૨૫.૦૦ ૩૦.૦૦ ૨0.00 ૮.૦૦ ૧૫.00 ૩0.00 ૩૦.૦૦ ૨૦.00 ૨૦.૦૦ ૨૦.00 ૨૦.૦૦ 20.00 For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra વિ.સં.૨૦૬૮-આવ[ તત્ત્વજ્ઞાન-વિવેચન ૩૩. *સુલસા ૩૪-૩૬. જૈન રામાયણ ભાગ-૧ થી ૩ ૩૭. મયણા મૌલિક ચિંતન / નિબંધ વિવિધ ૩૮. મારગ સાચા કૌન બતાવે ૩૯. સમાધાન ૪૦. *પીઓ અનુભવ ૨સ પ્યાલા ૪૧. જ્ઞાનસાર ૪૨. *પ્રશમરતિ ૪૩. હું તો પલ પલમાં મુંઝાર્ડ ૪૪. તારા દુ:ખને ખંખેરી નાંખ ૪૫. ન પ્રિયને ૪૬. ભવના ફેરા ૪૭. જિનદર્શન (દર્શન વિધિ) ૪૮. માંગલિક (નિત્ય સ્વાધ્યાય) ૪૯. સ્વાધ્યાય ૫૦. તીર્થયાત્રા ૫૧. ત્રિલોકદર્શન પર. *લય-વિલય-પ્રલય પ૩. સંવાદ ૫૪. હું મને શોધી રહ્યો છું. ૫૫. હું તને શોધી રહ્યો છું. બાળકો માટે રંગીન સચિત્ર www.kohatirth.org ૫૬. વિજ્ઞાન સેટ (૩ પુસ્તકો) ૫૭. ગીતગંગા (ગીર્તા) ૫૮. સમતા સમાધિ ૫. *વિચાર પંખી 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. English Books The Way Of Life [Part 1 to 4] Jain Ramayana [Part 1 to 3] Bury Your Worry Children's 3 Books Set A Code of Conduct The Treasure of mind *The Guidelines Of Jainism Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ડી.-૧૬૫-૦૦૪.-૬૦,૦૦ ડી.-૪૬૫-૦૦૪.-૧૯૫.૦૦ ડી.-૧૭૦-૦૦૪-૬૫.૦૦ १३ ૩૦,૦૦ ૪૦.૦૦ ડી.-૧૦૧-૦૦/૪.૪૨૦૦ ડી.-૨૨૦-૦૪, ૧૧૫.૦૦ ડી.-૩૦૧--૦૦|જ.-૧૧૫.૦૦ * श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा द्वारा पुनः प्रकाशित ડી.-૧૬૮-૦૦|-૭૫,૦૦ 30.00 80,00 ૧૦.૦૦ 94.00 ૧૦,૦૦ ૮.૦૦ ૩૦.૦૦ ૮.૦૦ 24.00 ૪૦.૦૦ ૪૦,૦૦ ૪૦.૦૦ ૨૦:૦૦ ૨૦,૦૦ 14.00 ડી. ૧૨૦-૦૦ ૪,-૫૦.૦૦ 160.00 130.00 30.00 20.00 6.00 5.00 60.00 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ अगस्त २०१२ | રાસ રસાળ | જૈન કવિ ઋષભદાસ કૃત (શ્રી શ્રેણિક રાસ અને શ્રી અભયકુમાર રાસ) સંશોધક અને સંપાદક- શ્રીમતી ડૉ. ભાનુબેન શાહ (સત્રા) જૈન સાહિત્ય પ્રકાશક સમિતિ, મુંબઈ-૪૦૦૦૦૭ કિંમત રૂ. ૩૦૦/- પ્રકાશન વર્ષ-૨૦૧૧ - કનુભાઈ એલ. શાહ મધ્યકાલીન સાહિત્ય રાસા, બારમાસા, સ્તવનો, સઝાયો જેવી પદ્યરચનાઓથી સમૃદ્ધ છે. આ સાહિત્યને સમૃદ્ધ કરવામાં જૈન કવિઓનું યોગદાન સવિશેષ છે. જૈન કવિઓએ વિવિધ વિષયો પર રાસાઓ લખ્યા છે. મધ્યકાલીન જૈન સાહિત્યને રાસ સાહિત્યથી સમૃદ્ધ કરનારા ખંભાત નિવાસી શ્રાવક કવિ ઋષભદાસે પોતાના જીવન સમય દરમિયાન ૩૪ જેટલી રાસ કૃતિઓની રચનાઓ કરી છે. શ્રીમતી ડૉ. ભાનુબહેન શાહે “શ્રેણિક રાસ’ અને ‘અભયકુમાર રાસ'ની હસ્તપ્રતો મેળવી સંશોધન કરી બંને કથાઓનું રસપાન કરાવ્યું છે. લેખિકાએ ધર્મકથાઓમાંની એક વિખ્યાત કતિ શ્રી “શ્રેણિક રાસ'નો સંક્ષેપમાં સુંદર પરિચય આપ્યો છે. તેવીજ રીતે ‘અભયકુમાર રાસ' કૃતિનો પણ રસાળ પરિચય કરાવ્યો છે. શ્રેણિક રાસમાં શ્રેણિક એ મહાવીરસ્વામીના સમયમાં મગધ દેશના રાજા હતા. આ રાસમાં શ્રેણિક રાજાનું ચરિત્ર આલેખેલું છે. આ ચરિત્રના આલેખનમાં વાર્તારસ પીરસતાં કવિશ્રીની જે ખૂબીઓ છે તેને લેખિકાએ એમના વિવેચન દ્વારા પ્રત્યક્ષ કરી બતાવી છે. શાંતરસ, અદ્ભુત રસ, શૃંગારરસ, હાસ્યરસ, વીરરસ, ભયાનક રસ, વાત્સલ્ય રસ, ભક્તિરસ, કરુણરસ વગેરે રસોનો લેખિકાએ કૃતિમાંથી તેના દૃષ્ટાંતો આપીને સરળ ભાષામાં કૃતિનો અર્થબોધ આપ્યો છે. આ રાસમાં ઢાળ ૮૩, ચોપાઈ૧૯ અને દુહા ૯૮નો સમાવેશ થયેલો છે. ‘અભયકુમાર રાસ' કવિ ઋષભદાસની અપ્રકાશિત રાસકૃતિનું સંશોધન કરી સંપાદન કર્યું છે. આ રાસકૃતિમાં દુહા-૪૬, ઢાળ-૩૬ અને ચોપાઇ-૧૯નો સમાવેશ થયેલો છે. કવિ ઋષભદાસે ધર્મકથામાંથી અભયકુમારનું ચરિત્ર પસંદ કરીને તેમના જીવનના પ્રસંગોની ગૂંથણી કરીને “ચરિત્રનાયક' તરીકે ઉપસાવવાનો સુંદર પ્રયાસ કરેલો છે. મહારાજા શ્રેણિકના પાટવી કુંવર, પ00 મંત્રીઓના શિરોમણિ અભયકુમારના જીવનચરિત્રનું આલેખન હૃદયસ્પર્શી છે. આ બંને રાસની કથા રસિક હોવા ઉપરાંત ધર્મનો બોધ કરાવવામાં મહત્ત્વનું યોગદાન આપે છે. આ બંને રાસકૃતિઓની દરેક ઢાળની કડીઓના અર્થો આપ્યા છે. રાસમાં આવતા કઠિન શબ્દોની યાદી પરિશિષ્ટમાં આપી છે અને તેના અર્થો આપ્યા છે. પાંચ પરિશિષ્ટોમાં કથાને સમજવામાં ઉપયોગી પૂરક માહિતી આપીને સંશોધનને પુષ્ટ કર્યું છે. જૈન સાહિત્યમાં સંશોધનનું કાર્ય અત્યંત ધીમું છે ત્યારે શ્રીમતી ડૉ. ભાનુબેને આ બંને ઐતિહાસિક રાસ કૃતિઓ વિશે સંશોધન કરીને તેને સરળ ભાષામાં સામાન્ય જનોને સમજાય તે રીતે તેનો અર્થબોધ કરાવીને અનુમોદનીય કાર્ય કર્યું છે. આ સંશોધન પ્રવૃત્તિ સાચી શ્રુતભક્તિનું દર્શન કરાવે છે. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-श्रावण रविवारीय शिक्षाप्रद मधुर प्रवचन शंखला (शिबिर) के अंतर्गत प. पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की प्रवचन प्रसादी पर कवि हृदय की विनयांजलि प्रस्तुति : मुकेशभाई एन, शाह, मुंबई तृतीय प्रवचन शिबिर विषय : बंधन और मुक्ति हे मुक्तिदाता! गुरुवर, हमारी मुक्ति भी कब होगी? फंसे हुए है अनंत काल से आतम शुद्धि कब होगी? अष्टकर्म के बादल घीरे है, सुरज की आभा कब होगी? कैसे छुडाऊँ जड़की बाजी, आतम राजी कब होगी? नाच नाचु में जग के आगे, मदारी की भी बाजी कब होगी? भेडीयाँ बन के थर थर कांपू. शेर की सिद्धी कब होगी? प्रवचन पथ पर उसे कैसे पाऊँ, आतम ऋद्धि कब होगी? चतुर्थ प्रवचन शिबिर विषय : स्वयं पर स्वयं का अनुशासन हे धीर सेनानायक, और सभी पर रोफ़ जमाया! अफ़सोस वही कि, स्वयं को कुछ भी न कर पाया! बाहर की दुनिया देखते देखते, अंदरको सदा ही भूलाया! मेरा कुछ भी नहीं है, फिर भी बाहर को ही मैंने अपनाया। कैसे लोर्ट में अपने राज्य में खुद का खजाना ना लूटाया! करुं कैसे मैं अनुशासित, अपने आप ही में राया! प्रवचन पथ पर गुरुवाणी से, स्थिर करो मुझे गुरुमाया! पंचम प्रवचन शिबिर विषय : भावना एवग भक्ति से भगवान की यात्रा! हे भाव पुरुष ! भाव और भक्ति ही कलि में न्यारी संघयण छूटा, ध्यान है तूटा, भावना ही है सब से भारी तीर्थकर का अभी वियोग है, भरत की पृथ्वी सब से खाली नाम स्मरण और प्रभु की भक्ति, कलि में दे आज भी तारी सारे रस्ते अब तूट चूके है, भक्ति की केडी है फूलवारी खुदा से मिलती खुलके भक्ति, यही मंझिल है छोटी प्यारी प्रवचन पथ पर आगे बढाओ, प्रभुमिलन की यात्रा न्यारी! સાધનાની કેડીએ આગળ વધતા સાધકો માટે સદ્ગુરુના વચનો દિવ્ય અંજનનું કામ કરે છે. For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त २०१२ समाचार सार पूज्य मुनि श्री सौभाग्यपद्मसागर म. सा. समाधिपूर्वक कालधर्म हुए योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायवर्ती परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रशिष्य एवं परम पूज्य ज्योतिर्विद् आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य परम पूज्य मुनि श्री सौभाग्यपद्मसागरजी म. सा. (बासा महाराज साहब) का श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा में विक्रम संवत् २०६८ श्रावण शुक्ल ५. दिनांक २४ जुलाई २०१२ मंगलवार को प्रातःकाल में नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ. पू. श्री का जन्म दिनांक १९/ ०२ / १९३९ को माता श्रीमती धापूबाई की कुक्षी से पिता श्री चुनीलालजी बोहरा के यहाँ हुआ था. आपका सांसारिक नाम श्री गुलाबचन्दजी बोहरा था. आपने सुव्यवस्थित सांसारिक जीवन यापन करते हुए दिनांक १२/१२/ २००२ को पाली में परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के करकमलों से संयम दीक्षा ग्रहण कर परम पूज्य ज्योतिर्विद् आचार्य अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी म. सा. को अपना गुरु स्वीकार किया. दश वर्षों के संयमपूर्ण जीवन में अनेक तप व आराधना करते हुए समाधि पूर्वक देह का त्याग किया. रविवारीय सुमधुर प्रवचन शृंखला में श्रोता मोक्ष मार्ग के पथ पर अग्रसर परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने चातुर्मास अवधि में आयोजित रविवारीय सुमधुर प्रवचन शृंखला में परमात्मा महावीर प्रभु की वाणी का विवेचन करते हुए निम्न विषयों पर हृदयस्पर्शी प्रवचन देकर उपस्थित श्रोताओं को मोक्षमार्ग के पथ पर अग्रसर कराया. संगीतकार संकेत शाह ने गुरुभक्तिमय सुमधुर गीत-संगीत के द्वारा संपूर्ण वातावरण को भक्तिमय बना दिया तो शिविर के लाभार्थियों द्वारा प्रवचन के पश्चात गुरुभक्त अतिथियों के लिये साधर्मिक भक्ति की सुन्दर व्यवस्था की गई थी. कोबा ट्रस्ट के ट्रस्टियों द्वारा उपस्थित श्रोताओं का स्वागत एवं शिविर के लाभार्थियों का सम्मान किया गया. श्री मुकेशभाई एन. शाह ने प्रत्येक शिविर में विषय से संबन्धित स्वरचित काव्य का पाठ करते हुए पूज्य आचार्य भगवन्त से आशीर्वचन रूप प्रवचन देने का निवेदन किया. प्रवचन श्रेणी की द्वितीय शृंखला में दिनांक ८/७/१२ को पुण्य का जन्म स्थान विषय पर परमात्मा महावीर की वाणी का उल्लेख करते हुए कहा कि अनन्त उपकारी, अनन्त ज्ञानी परमात्मा महावीर प्रभु के शासन में जन्म लेना पूर्व जन्म के पुण्य के बिना सम्भव नहीं है. इस शिविर का लाभ शेठ श्री अरविंदभाई टी. शाह, मातुश्री रेवावेन ताराचंदभाई परिवार, पालनपुर / मुम्बई, फर्म- एशियन स्टार कम्पनी लिमिटेड ने लिया. प्रवचन श्रेणी की तृतीय शृंखला में दिनांक १५ / ७ /१२ को बन्धन और मुक्ति विषय पर अनन्त उपकारी, अनन्त ज्ञानी परमात्मा महावीर की वाणी का उल्लेख करते हुए पूज्यश्री ने कहा कि परमात्मा महावीर प्रभु ने बन्धन से मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहा है कि राग और द्वेष का त्याग करो मुक्त हो जाओगे. इस शिविर का लाभ शेठ श्री सेवंतिभाई मोरखिया, श्री मणिलाल प्रेमचंद मोरखिया परिवार थराद / मुम्बई, फर्म- मोरखिया मेटल्स एन्ड एलोयज कं. लि. ने लिया प्रवचन श्रेणी की चतुर्थ शृंखला में दिनांक २२/७/१२ को स्वयं पर स्वयं का अनुशासन विषय पर अनन्त उपकारी, अनन्त ज्ञानी परमात्मा महावीर की वाणी का उल्लेख करते हुए पूज्य आचार्य भगवंत ने कहा कि परमात्मा महावीर प्रभु ने स्वयं पर स्वयं का अनुशासन का मार्ग बताते हुए कहा है कि इन्द्रियों और मन पर अनुशासन करो मुक्त हो जाओगे. इस शिविर का लाभ शेठ श्री नगीनदास डुंगरसी शाह परिवार, अडपोदरा / मुम्बई, हस्ते श्रीमती मंजुलावेन प्रवीणभाई शाह ने लिया. For Private and Personal Use Only आनन्दघननी आत्मानुभूति का विमोचन परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्री हेमचन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्री कल्याणबोधिसूरीश्वरजी महाराज के चातुर्मास प्रवेशोत्सव के मंगलमय प्रसंग पर आनन्दघननी आत्मानुभूति भाग १६ से २५ तक का विमोचन दिनांक २३ जून २०१२ को समा रोड जैन संघ, बड़ोदा में किया गया. इस पावन अवसर पर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के ट्रस्टी माननीय श्री मुकेशभाई एन. शाह भी उपस्थित थे. दस भागों में से ५ भागों का लाभ कोबातीर्थ के ट्रस्टी माननीय श्री मुकेशभाई एन. शाह परिवार ने लिया एक भाग का लाभ कोबातीर्थ के ट्रस्टी माननीय श्री अरविन्दभाई टी. शाह ने मातुश्री रेवाबेन टी. शाह की पुण्य स्मृति में एवं एक भाग का लाभ माननीय शेठ श्री श्रेणिकभाई लालभाई शाह परिवार ने लिया, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोबा तीर्थ में आयोजित रविवारीय शिक्षाप्रद मधुर प्रवचन शृंखला के कतिपय दृश्य For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावना एवं भक्ति से भगवान तक की यात्रा - प्रवचन सारांश परम पूज्य आचार्य भगवंत ने “भावना एवं भक्ति से भगवान तक की यात्रा" के संबन्ध में कहा कि किसी भी क्रिया का मूल भावना है और भावना का आधार सम्यक श्रद्धा है. जहाँ भावना है वहीं भक्ति है, जहाँ भक्ति है वहीं भावना है. निर्मल, निर्दोष भावना से भक्ति करेंगे तो भगवान तक स्वयं पहुँच जाएंगे. अनेक महापुरुषों का उदाहरण देते हुए पूज्य आचार्यश्री ने बताया कि किस प्रकार उन लोगों ने परमात्मा की शुद्ध भावना पूर्वक भक्ति की और स्वकीय मानव जीवन को सफल बनाया. उन्होंने कहा कि हमारा इतिहास ऐसे अनेक महापुरुषों के जीवन चरित्र से भरा है, जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिये अपने प्राण तक को न्यौछावर कर दिया. अटूट श्रद्धा होगी तभी भगवान की भक्ति कर सकते हैं. पूज्य राष्ट्रसंत ने अनेक धर्ममय भावना वाले व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए भक्ति और भावना को बहुत सुन्दर ढंग से समझाया. उन्होंने कहा संसार का सुख क्षणिक सुख है, मोक्ष का सुख अनन्त सुख है. सांसारिक सुख के लिये अर्जित धन में सभी का भाग होता है किन्तु आध्यात्मिक सुख के लिये अर्जित धन स्वयं के लिये होता है, इसमें किसी का भी भाग या हिस्सा नहीं होता है. आप सांसारिक सुख की पूर्ति में विश्वास करते हैं, डॉक्टर, वकील, व्यापार आदि में विश्वास करके जो सुख पाते हैं, उससे अधिक सुख परमात्मा की वाणी में विश्वास करने से मिलेगा; एक बार विश्वास करके देखिये! समर्पण में पाने की लालसा, भावना नहीं होनी चाहिए, जबतक कुछ पाने की लालसा रहेगी तबतक संपूर्ण समर्पण नहीं होगा. संपूर्ण समर्पण करने के लिये अहंकार, लोभ, मान, माया आदि का त्याग करना होगा, किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो इसका ध्यान रखना होगा. यह सब सामायिक, स्वाध्याय, चिन्तन आदि से प्राप्त हो सकता है. यह आत्मिक साधना से प्राप्त धन है, इसमें से कोई भी बाँट नहीं सकता है. सामायिक से प्राप्त आध्यात्मिक शक्ति के सहारे हम अपनी भावना को निर्मल, शुद्ध बना सकते हैं. निर्मल भावना से परमात्मा की भक्ति करें, उनके प्रति समर्पण करें, आप स्वयं भगवान बन जाएंगे. जिन्होंने समर्पण कर दिया है उन्हें कोई भय नहीं है, जहाँ भय नहीं है वहीं मुक्ति है, जहाँ मुक्ति है वहाँ भय नहीं है. जो मुक्त आत्मा है वही मुक्ति दिला सकते हैं. जो स्वयं मुक्त नहीं हैं वे मुक्ति कैसे दिला सकते हैं? जो मुक्त हैं उनकी शरण स्वीकार करें, अन्तर की शुद्ध भावना से समर्पण करें, श्रद्धा से भक्ति करें, आप की मुक्ति अवश्य निश्चित हो जाएगी. जीवन के अनादि अनन्त जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाएगा. मन में सदैव शुद्ध भावना रखें आने वाला भव सुधर जाएगा. केवल श्रद्धा और भक्ति के सहारे अनन्त आत्मा मुक्त हो गये हैं. आप भी मुक्त हो जाएंगे. (रविवारीय शिक्षाप्रद मधुर प्रवचन शृंखला ता. 29-07-2012, पंचम शिविर, कोबा) प्रस्तुतकर्ता : डॉ. हेमन्त कुमार BOOK POST अंक प्रकाशन सौजन्य : श्रीमती विद्याबेन किशोरभाई चालीस हजार है. श्री केतनभाई के. शाह मल्टीकेम कोर्पोरेशन 3री मंजिल मोतीलाल सेन्टर आश्रम रोड, अहमदाबाद. For Private and Personal Use Only