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अगस्त २०१२ तेरे हुस्न का कोई वशर न मिला. वे जैनों के आचार्य गुरु थे. पाकदिल, पाकखयाल, मुजस्सम पाकी व पाकीजगी से भरपूर थे.
मि. कन्नुलाल जोधपुरी ने लिखा है कि - जैनधर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है, जिसकी उत्पत्ति तथा इतिहास का पता लगाना बहुत ही दुर्लभ बात है.
श्रीयुत वरदाकांत मुखोपाध्याय ने एक लेख में लिखा है कि- 'जैनधर्म हिंदुधर्म से सर्वथा स्वतंत्र है. उसकी शाखा या रूपान्तर नहीं.' ___ श्रीयुत तुकारामकृष्ण शर्मा ने अपने व्याख्यान में कहा कि सबसे पहले इस भारतवर्ष में ऋषभदेव नाम के महर्षि उत्पन्न हुए, वे दयावान, भद्रपरिणामी, पहले तीर्थकर हुए. जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी मोक्षशास्त्र का उपदेश किया. इसके पश्चात अजितनाथ से लेकर महावीर तक तेईस तीर्थकर अपने-अपने समय में अज्ञानी जीवों का मोह-अन्धकार नाश करते रहे.
नेपालचंद्रराय अधिष्ठाता ब्रह्मचर्याश्रम शांतिनिकेतन ने कहा-'मुझे जैन तीर्थंकरों की शिक्षा पर अतिशय भक्ति
मुहम्मद हाफिज सय्यद, कानपुर ने लिखा है कि-'मैं जैनसिद्धांत के सूक्ष्मतत्त्वों से गहरा प्रेम करता हूँ.
श्री एम. डी. पडी, बनारस ने लिखा है कि- 'मुझे जैनसिद्धांत का बहुत शौक है, क्योंकि कर्मसिद्धांत का इसमें सूक्ष्मता पूर्वक वर्णन किया गया है.'
श्री स्वामी विरूपाक्ष वडियर, इन्दौर ने अपने जैनधर्म मीमांसा नामक लेख में लिखा- 'ईर्ष्या द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्ति के रहते हुए जैनशासन कभी पराजित नहीं होकर सर्वत्र विजयी ही होता रहा है.'
एक बंगाली बैरिस्टर ने "प्रेक्टिकल पाथ नामक अपने ग्रन्थ में लिखा है कि-'ऋषभदेव का नाती मरीची प्रकृतिवादी था और वेद उसके तत्त्वानुसार होने के कारण ही ऋग्वेद आदि ग्रन्थों की ख्याति उसी के द्वारा हुई है, फलतः मरीची ऋषि के स्तोत्र वेद-पुराण आदि ग्रन्थों में हैं. यदि स्थान-स्थान पर जैन तीर्थंकरों का उल्लेख पाया जाता है तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैनधर्म का अस्तित्व न मानें,'
श्री अम्बजाक्ष सरकार ने अपने एक लेख में लिखा है कि- 'यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं है, जैनदर्शन में जीवतत्त्व की जैसी विस्तृत व्याख्या है, वैसी और किसी भी दर्शन में नहीं
महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, कोलकाता ने अपने व्याख्यान में कहा है कि- जैनसाधु एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करते हुए पूर्णरीति से व्रत, नियम और इंद्रिय-संयम का पालन कर जगत् के सन्मुख आत्मसंयम का एक ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करते हैं. प्राकृत भाषा अपने संपूर्ण मधुमय सौन्दर्य को लिए हुए जैन वाङ्गमय में प्रगट हुई है.
श्री वासुदेव गोविन्द आपटे, इन्दौर ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि-जैनधर्म में अहिंसा का तत्त्व अत्यन्त श्रेष्ठ है, जैनधर्म में यत्ति धर्म अति उत्कृष्ट है, जैनों में स्त्रियों को भी यतिदीक्षा लेकर परोपकारी कृत्यों में जन्म व्यतीत करने की आज्ञा है, वह सर्वोत्कृष्ट है, हमारे हाथों से जीवहिंसा न होने पाये इसके लिए जैन जितना डरते हैं उतने बौद्ध नहीं डरते. प्राचीन काल में जैनों ने उत्कृष्ट पराक्रम या राज्यभार का परिचालन किया है. एक समय हिन्दुस्तान में जैनों की बहुत उन्नतावस्था थी, धर्म-नीति, राजकार्य धुरन्धरता, शास्त्रदान, समाजोन्नति आदि में उनका समाज इतरजनों से बहुत आगे था.
रायबहादुर पूर्णेन्दु नारायण सिंह, बांकीपुर ने अपने लेख में लिखा है कि- 'जैनधर्म पढ़ने की मेरी हार्दिक
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