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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-श्रावण जैनधर्म व साहित्य : जैनेत्तर विद्वानों का अभिमत संकलन- डॉ. हेमन्त कुमार जैनधर्म व साहित्य के प्रति जैनेतर विद्वानों का आरम्भिक काल से ही बहत आकर्षण रहा है. जैनधर्म-दर्शन के ग्रन्थों में वर्णित जीवादि तत्त्वों, पदार्थों गणित, खगोल, भूगोल, इतिहास आदि के ज्ञानों का सूक्ष्म से सूक्ष्मतर वर्णन इतना विशाल है कि इसके प्रति भारतीय दार्शनिक-चिन्तक, ऋषि-महर्षि, साहित्यकार-विचारक तो आकर्षित हुए ही साथ-साथ विदेशी दार्शनिक-चिन्तक भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे. अनेक पाश्चात्य विद्वानों-दार्शनिकोंविचारकों ने प्रचुर मात्रा में जैन साहित्यिक-दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन, संशोधन-संपादन कर जैन साहित्य को प्रकाश में लाया है तथा उन ग्रन्थों में वर्णित विषयों के अध्ययन और समय-समय पर जैनाचार्यों से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी शंकाओं को निर्मल किया है. इसके अतिरिक्त जैनशिल्प-स्थापत्य कला भी इनके आकर्षण का केन्द्र रहा है. पिछले पाँच दशकों में ज्ञानसंशोधन तथा तत्त्वज्ञान के प्रति विदेशियों का आकर्षण बढ़ा है, पूर्वाचार्यों द्वारा रचित विज्ञान के अनेक ग्रन्थ उनके लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुये हैं. ये ग्रन्थ बहुश्रुतभाषित होने तथा ज्ञान के आधार पर लिखे होने के कारण सत्य की ओर आकर्षित करते हैं. विलास, वैभव तथा समृद्धि के राग-रंग से विमुख होकर विदेशी संशोधक अब भारत की आध्यात्मिक समृद्धि को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं. उसमें भी जैनसंस्कृति के प्रति गहराई से छानबीन करने की अभिरुचि जाग्रत हुई है, जैनाचार्यों के प्रति इनका आदर-भाव बढ़ता जा रहा है. आध्यात्मिक आचार-विचारों के द्वारा ही आत्मशान्ति प्राप्त होगी ऐसी श्रद्धा उनके अन्दर दृढ़ होती जा रही है. डॉ. हसमुखभाई दोशी ने एक स्थान पर यह उल्लेख किया है कि समग्न विश्वसाहित्य का बीसवीं सदी का पूर्वार्ध, जैनी तर्कशुद्ध विचारणा से उज्ज्वल हुआ था. ईश्वर के अस्तित्व का निषेध करके भी जिन्होंने विश्व में प्रवर्तित किसी अगम्य चैतन्यशक्ति का सदा सम्मान किया था, ऐसे महान साहित्याचार्य बर्नार्ड शॉ ने सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रार्थना करते हए एक स्थान पर लिखा है कि, 'यदि मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ा, तो मैं जैन ही बनें: महामहोपाध्याय पं. गंगनाथजी, इलाहाबाद ने अपने लेख में लिखा है कि जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा किये गये जैनसिद्धांत पर खण्डन को पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धांत में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के आचार्य नहीं समझे, और मैं अभी तक जो जैनधर्म को जान सका हूँ, उससे मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि, उन्होंने जैनधर्म को यदि उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाया होता तो उनको जैनधर्म से विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती. श्री काका कालेलकर ने कहा- जैनतत्त्वज्ञान में स्याद्वाद का जो अर्थ निर्दिष्ट है, उसे जानने का पूरा-पूरा वादा तो नहीं कर सकता, परन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि स्याद्वाद मनुष्य की बुद्धि को एकांगी होने से बचाता है. श्री आनंदशंकर बापुभाई ने लिखा कि - शंकराचार्य ने स्याद्वाद पर जो आक्षेप किया वह मूल अर्थ के साथ कोई संबन्ध नहीं रखता है. यह निश्चित है कि विविध बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना किसी भी वस्तु को संपूर्णरूप से समझना असंभव है. स्याद्वाद संशयवाद नहीं, वल्कि यह 'विश्व का अवलोकन किस प्रकार किया जाय?' यह सिखलाता है, . सुप्रसिद्ध महात्मा श्री सुव्रतलालजी वर्मन ने लिखा है कि- महावीरस्वामी के लिए ही नहीं, बल्कि सभी जैन तीर्थंकरों, जैन मुनियों तथा जैन महात्माओं के संबन्ध में भी लिखा गया है कि 'गये दोनों जहान नजर से गुजर, For Private and Personal Use Only
SR No.525269
Book TitleShrutsagar Ank 2012 08 019
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMukeshbhai N Shah and Others
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2012
Total Pages20
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size2 MB
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