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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० अगस्त २०१२ परोपकार पुण्य का प्रबल कारण है. परोपकार की भावना प्रबल पुण्य प्रदान करती है. पहले विचार आता है बाद में उसका परिणाम आता है. युद्ध तो बाद में होता है, पहले युद्ध का विचार आता है. उसी प्रकार मोक्ष तो बाद में मिलता है, पहले मोक्ष प्राप्ति का विचार करना होगा. सद्विचार के लिये आहार की शुद्धता बहुत आवश्यक है. आहार की शुद्धता के बिना अच्छे विचार नहीं आ सकते हैं. अच्छे विचार के बिना पुण्य की प्राप्ति असंभव है. जीवन का उद्देश्य परोपकार ही होना चाहिये. इसके लिये हमें अपने इन्द्रियों को वश में करना होगा. प्रत्येक इन्द्रिय को परोपकार में लगाएंगे तो ही सच्चा परोपकार कर सकेंगे, भगवान महावीर ने अनेकों उपसर्गों को समतापूर्वक सहन किया, अपने ऊपर उपसर्ग करने वाले संगम देव के प्रति भी दया की भावना रखी तो उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया. ऐसी ही भावना हमारी भी होनी चाहिए. संसार में सुख और संसार से मुक्ति दोनों ही पुण्य के बिना सम्भव नहीं है. परोपकार से ही पुण्य की प्राप्ति होती है यह बात सदैव याद रखनी चाहिए. अन्त में आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरीश्वरजी महाराज ने भी पुण्य के प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमें अपने जीवन में पुण्य के प्रभाव से ही सुख की प्राप्ति हो सकती है. सदैव पुण्य की प्राप्ति हेतु सजग रहना चाहिए. | स्वयं पर स्वयं का अनुशासन - प्रवचन सारांश परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने स्वयं पर स्वयं का अनुशासन के सम्बन्ध में कहा कि परमात्मा महावीर ने अपने धर्म प्रवचन में आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया है. परम कृपालु परमात्मा के मंगल प्रवचन आपकी अन्तर चेतना को जागृत करने हेतु होते हैं. प्रवचनों के द्वारा हम अपने कर्मों के बन्धन और उनसे मुक्ति का मार्ग जान पाते हैं. कैसे हम इस संसार सागर को पार करेंगे इसका उपाय हमें ज्ञात होता है. प्रभु महावीरस्वामी ने कहा कर्मो के बन्धन से मुक्ति पाने के लिये हमें स्वयं पर स्वयं का अनुशासन करना होगा. इसके लिये अपने मन और इन्द्रियों को अनुशासित करना होगा. पूज्यश्री ने कहा कि इन्द्रियाँ कर्मों का आस्रवद्वार हैं, इसे हमें धर्म का आस्रवद्वार बनाना होगा. अपने आप पर अधिकार करना सबसे दुष्कर कार्य है. इस दुष्कर कार्य को करने के लिये हमें दुष्कर संकल्प भी करना होगा, मन को नियंत्रण में रखने की कला विकसित करनी होगी. मन नियंत्रण में होगा तभी हम अपने इन्द्रियों को भी नियंत्रित कर सकेंगे. प्रभु महावीर ने सत्ताईसवें भव में मुक्ति प्राप्त की. क्या हम सत्ताईस हजार भव में भी मुक्ति पा सकेंगे? आचार्य भगवन्त ने आगे कहा कि हमें सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिये भी संयम की आवश्यकता होती है. डॉक्टर हमें संयमित रहने को कहता है तो हम उसके द्वारा बताए संयमों का पालन करते हैं क्योंकि हमें आरोग्य लाभ लेना है, किन्तु हमें संसार से मुक्त होना है तो क्या इसके लिये संयम ग्रहण नहीं करेंगे? हम रोज देखते हैं कि घर में, समाज में कहीं भी जहाँ अनुशासन नहीं है वहाँ की क्या स्थिति है? जब हम अपने घर में अनुशासन की आवश्यकता महसूस करते हैं तो संसार से मुक्ति के लिये क्यो नहीं? किन्तु क्या आप यह नहीं जानते हैं कि यदि आप स्वयं अनुशासित नहीं होंगे तो दूसरों पर आपकी बात का कोई असर नहीं होता है. वहाँ भी पहले स्वयं को अनुशासित होना होता है, फिर दूसरों को अनुशासित करने की बात होती है. स्वयं पर स्वयं का अनुशासन करने के लिए आहार, वेशभूषा, वाणी, आचरण सब को संयमित करना होगा. इन सब का मन पर बहुत असर होता है. हमारा मन शुद्ध होगा तभी हम अपने आप पर अनुशासन रख सकेंगे. इसके लिये तप, उपवास, मौन आदि का सहारा लेना होगा. यम-नियम का पालन करो स्वयं अनुशासित हो जाएंगे. इन्द्रियों की वासना का बन्धन बहुत मजबूत है. इन्द्रियाँ कर्मों को आत्म प्रदेश तक ले जाने में सहयोगी हैं. मन को नियंत्रित करें और इन इन्द्रियों को धर्म का आस्रवद्वार बनाएँ. जब इन्द्रियाँ धर्म का आस्रवद्वार बनेंगी तब स्वतः स्वयं पर अनुशासन कायम हो जाएगा. For Private and Personal Use Only
SR No.525269
Book TitleShrutsagar Ank 2012 08 019
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMukeshbhai N Shah and Others
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2012
Total Pages20
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size2 MB
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