Book Title: Shrutsagar Ank 1996 11 005
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र श्रूत सागर ALL डिनरम जास-दीप त्याला तिवस्तवनममम लियान वाचस्पति आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. प्रधान संपादक : मनोज जैन वर्ष : २, अंक : ५ कार्तिक वि.सं. २०५३ नवम्बर १९९६ संपादक : डॉ. बालाजी गणोरकर * नूतन वर्ष की शुभकामना । भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण कल्याणक से प्रारम्भ होने परम पूज्य आवाज वाला दीपमालिका पर्व आप सब के अंतरभाव में सम्यक् ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करने वाला बने। गणधर श्री गौतम स्वामीजी के कैवल्यज्ञान की प्राप्ति का मंगल प्रभात (नूतन वर्ष) आप सब के लिये सुख-शांति समाधि प्रदान करने वाला हो एवं धर्म आराधनामय बर्ने, यही मंगल कामना पूर्वक आशीर्वाद है। शुभेच्छुक प अजीमगंज (पं.बंगाल) अजिमगंज, दि. - १०-११-९६. राष्ट्रसंत आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी की निश्रा में ___शानदार शासन प्रभावना इतिहास के झरोखे से) पूज्य शासन प्रभावक, राष्ट्रसंत,आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदि साधुभगवंतों की पुण्य निश्रा में अजीमगंज (मुर्शिदाबाद,प.बंगाल) में चातुर्मास अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरु हीरविजयसूरि. की सुंदर आराधना-तपस्यादि चल रही है. पर्युषणा पर्व की आराधना भी तपश्चर्या मनोज जैन प्रभुभक्ति एवं प्रभावक प्रवचनों द्वारा ठाठ से सम्पन्न हुई है. श्रीसंघ में मासक्षमण, [पूरे भारतवर्ष में भाद्रपद सुदि ११ के दिन जिनका चतुःशताब्दी महोत्सव १५ उपवास,अट्ठाई,अट्ठम आदि विविध तपश्चर्या भी सराहनीय रही. मुनिश्री | |सोल्लास मनाया गया, उन जंगम युगप्रधान, जगद्गुरु, जैनाचार्य श्री प्रेमसागरजी म. की अट्ठाई की तपस्या भी सुख शाता पूर्वक सम्पन्न हुई. स्थायी, | डीरविजयसूरीश्वरजी को आज कौन नहीं जानता. ४00 वर्ष पूर्व जिन्होंने सम्राट साधारण एव अन्यान्य खातों में भी पूज्यश्री की प्रेरणा से अच्छा फंड एकत्र हुआ|| नियोगका अहिंसा परमो धर्मः' का ईका बजाया था इस है. तदुपरांत देव द्रव्य की भी बहुत अनुमोदनीय उपज इस वर्ष में हुई है. बहुत | ऐतिहासिक घटना को कौन भूल सकता है. तत्कालीन विद्वानों ने अपने ग्रंथों से स्थानीय बंगाली लोगों ने भी आचार्यश्री के प्रवचन परिचय से आहार शुद्धि की||में का सम्मान पर्वक उल्लेख किया है. तब से आज तक संसार भर में प्रतिज्ञा की है. अकबर के विषय में हो रहे संशोधनों में जगद्गुरु श्री हीरविजयसरिजी को पूज्य आचार्यश्री दीक्षा के पश्चात् प्रथम बार खुद की जन्म भूमि में पधारे हैं. || जोड़े बिना परिपूर्णता नहीं होती है. यही उनके महान व्यक्तित्व की पहचान है: अतः श्रीसंघ में एक अपूर्व उत्साह देखने को मिला है. यह भी स्वभाविक ही है कि इतने बड़े प्रभावी महापुरुष के जीवन चरित्र भादो शुदि एकादशी २३ सितम्बर के शुभ दिन पूज्य आचार्यश्री के ६१ वें जन्म || के विषय में हमें जिज्ञासा उत्पन्न हो. शासन प्रभावकजैनाचार्य की गरिमा और दिन के उपलक्ष में संयम अनुमोदन दिन बड़े समारोह के साथ मनाया गया. इस | | महिमा क्या होती है यह उनके जीवन चरित्र से अवगत होता है. हमने इस लेखांश अवसर पर हजारों की संख्या में मुर्शिदाबाद, कलकत्ता सहित आसपास के जिलों | | में श्रद्धाञ्जलि के रूप में उनका यत्किञ्चित् परिचय देने का प्रयत्न किया है. तथा अहमदाबाद, मुंबई, चेन्नइ,बेंगलोर, राजस्थान आदि दूरस्थ स्थानों से आए | | यद्यपि लोकोत्तर महर्षियों का संपूर्ण परिचय कराना अशक्य मालूम होता है तथापि गुरुभक्तों ने पूज्य आचार्यश्री के दर्शन, वन्दन कर आशीर्वाद ग्रहण किया. |स्वपर बोधाय यत्न किया है. अतः पाठकगण इससे अपनी जिज्ञासा को और इस अवसर पर श्री सुंदरलालजी पटवा (पूर्व मुख्यमंत्री-म.प्र.) विशेष रूप | जागरुक करेंगे. साथ ही इन आर्षदृष्टा के विषय में अधिकाधिक जानकारी से उपस्थित थे. पटवाजी ने पूज्य आचार्यश्री के प्रति अपनी श्रद्धा प्रवचन द्वारा | प्राप्त कर प्रचार-प्रसार के द्वारा कल्याण कामी बनेंगे. -संपादक] अभिव्यक्त की. अन्य वक्ताओं ने भी प्रासंगिक उद्बोधन किया. महावीर मंडल || ठीक आज से चार सौ वर्ष पूर्व गुर्जरदेशवर्ती प्रहलादनपुर (पालनपुर) में वि.सं (अजिमगंज) के द्वारा सुंदर गुरुभक्ति गीत प्रस्तुत किये गये. कलकत्ता से आए|| १५८३ मार्गशीर्ष शुक्ला ९ के दिन कुराशाह नामक श्रेष्ठि थे. उनकी श्राविका श्री देवेन्द्र बेंगाणी के गीत ने सबको मुग्ध बना दिया. अनुकंपा के रुप में १०० || नाथीबाई की कुक्षी से पुत्ररत्न का जन्म हुआ.जन्मोत्सव पूर्वक बालक का नाम से अधिक लोगों को जयपुर फुट दिये गये.वर्षों से अपंग, चलने में लाचार व्यक्तियों | हीराचन्द रखा गया. माता ने स्वप्न में हीरे की राशि देखी थी, तदनुरूप सार्थक के चेहरों पर देखने लायक चमक थी. व्हील चेयर एवं वैशाखी आदि| | नाम रखा गया. दिये गये. रक्तदान शिविर में भी लोगों ने उत्साहपूर्वक [शेष पृष्ठ २ पर|| माता-पिता की ममता और लाड़-प्यार में हीराचन्द [शेष पृष्ठ २ पर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ २ पृष्ठ १ का शेष राष्ट्रसंत की शासन प्रभावना चित्ताकर्षक सुंदर अंगरचनाएँ की गई. भाग लिया. दीन-दुखी लोगों के भोजन समारंभ में ९ से १० हजार व्यक्तियों | • मुनिश्री निर्मलसागरजी म.सा. एवं मुनिश्री पद्मोदयसागरजी म.सा. ने भाग लिया. सारा ही समारोह खूब उत्साहवर्धक रहा. पूजायात्रा का दृश्य की निश्रा में गोल (राजस्थान) श्रीसंघ में पर्युषण पर्व की आराधना भी दर्शनीय था. श्री नेमिनाथ जिनमंदिरमें भव्य आंगी, पूजा, कुमारपाल परिपूर्ण हुई. श्रीसंघ ने उपधान तप कराने का तय किया है. प्रथम महाराजा की आरती का आयोजन भी रखा गया था. पूज्य आचार्यश्री ने कुछ प्रवेशः मुहूर्त वि.सं.२०५२ आश्विन शुक्ल १४, दिनांक २५.१०.९६; द्वितीय दिनों के लिये श्रीसंघ की विनती पर जीयागंज भी स्थिरता की. प्रवेश मुहूर्तः संवत् आश्विन कृष्ण १, दिनांक २७.१०.९६. अजीमगंज में विशाल भवन का निर्माण • प.पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न श्री जैन संघ, अजीमगंज द्वारा अजीमगंज के पनोते पत्र, राष्ट्रसंत. ज्योतिर्विद् गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी के संयम जीवन के २५ वर्ष आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की संसारी मातुश्री श्रीमती परिपूर्णता के निमित्त संयम जीवन की अनुमोदनार्थ मार्गशीर्ष शुदि ३, भवानीदेवी की पुण्यस्मृति में विशाल जैन भवन का निर्माण करना तय शुक्रवार, दि १३/१०/९६ के दिन डांगरवाँ (महेसाणा के समीप) किया गया है. इस भवन का नाम श्री भवानी देवी स्मृति हॉल रखा परमात्म-भक्ति स्वरूप महापूजन आदि का आयोजन किया गया है. इस जाएगा. साथ ही मातृ सदन (हॉस्पिटल) व गृह उद्योग भवन भी बनेंगे. प्रसंग पर दूरस्थ बंबई, बैंगलोर, मद्रास, जोधपुर आदि शहरों से एवं वि. सं. २०५३ कारतक वद दूज के दिन अजीमगंज में राष्ट्रसंतश्री अहमदाबाद आदि समीपस्थ शहरों से भक्ति संपन्न अनेक श्रावकगण की निश्रा में श्रीनेमिनाथजी मंदिर सहित तीन मंदिरो में प्रतिष्ठा महोत्सव सहभागी बनेंगें. मागसर सदि ५. रविवार के दिन श्री संघ के जिनालय मनाया जायगा. | की वर्षगांठ भी उल्लास पूर्वक मनाई जाएगी. माघ सु. दूज दि. ०९-०२-९७ के दिन कलकत्ता में मुमुक्षु श्री संदीप |. पू. आचार्य श्रीमद्बुद्धिसागरसूरि की समुदायवर्तिनी संयम-वय स्थवीरा, कुमार रामपुरिया की भागवती दीक्षा व भव्य अंजनशलाका प्रतिष्ठा | पू. साध्वी महत्तरा श्री कुसुमश्रीजी म. की ३७वीं ओलीजी की पूर्णाहुति महोत्सव भी आयोजित किया गया है. सुखशाता पूर्वक हुई. आप विशाल शिष्या परिवार सह बुद्धिसागरसूरि भक्ति अगला चातुर्मास दिल्ली में वि.सं.२०५३ में राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज आराधना भवन, रामनगर साबरमती में चातुर्मास हेतु बिराजमान है. . को दिल्ली में चातुर्मास करने हेतु दिल्ली श्रीसंघ के १५० व्यक्तियों ने | पृष्ठ १ का शेष] आचार्य हीरसूरि... विनती की. जिसे आपश्री ने अत्याग्रहवश स्वीकार किया है. का शैशव काल गुजर गया. समाज की परम्परा के अनुसार हीराचन्द भी व्यावहारिक ज्ञान हेतु पाठशाला में भेजे गये. साथ-साथ धार्मिक वृत्तान्त सागर ज्ञान हेतु संवेगी साधुओं की निश्रा में जाने लगे. पूर्वकृत पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हीराचन्द छोटी उम्र में ही व्यवहारिकता में दक्ष और धार्मिक • परमात्मभक्तिरसिक प.पू. आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा.. | शिक्षा में प्रवीण हो सर्वजन प्रिय बने. एवं ज्योतिर्विद् गणिवर्य श्रीअरुणोदयसागरजी म.सा. आदि की निश्रा में । एक दिन पालनपुर में जैनाचार्य श्री दानसूरीश्वरजी का शुभागमन विजयनगर जैन संघ, अहमदावाद में पर्व पर्युषण की सुन्दर आराधना | हुआ. प्रौढप्रभावी व्यक्तित्व के धनी आचार्यश्री की अमृत देशना सम्पन्न हुई. पू. गणिवर्यश्री ने ११ उपवास सुखशाता पूर्वक किए थे. पुष्करावर्त के मेघ की तरह बरसने लगी. चतुर बालक हीराचन्द भी • दि. ०३.१२.९६ को श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा में | प्रवचन पान करने लगे. धीरे-धीरे बालमानस में संसार का स्वरूप परमात्मभक्तिरसिक ज्योतिषज्ञ पू.आ. कल्याणसागरसूरीश्वरजी का स्पष्ट होता गया और हीराचन्द वैराग्यवासित होता गया. इसी बीच शुभागमन हुआ. आपके आगमन पर श्री संघ ने भव्य स्वागत एवं | एक दिन प्रवचन श्रवण में मुग्ध हीराचन्द के उपर आचार्यश्री का पवित्र परमात्मभक्ति का आयोजन किया. यहाँ की गतिविधियों को देख | दृष्टिपात हुआ. अपने ज्ञानबल से उन्होंने हीराचन्द मे छिपी महानता आचार्यश्री ने बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की और ज्ञानमंदिर सहित इस तीर्थ के को पहचान ली. उन्होंने श्रावक अग्रणियों को बुलाकर कहा कि यह विकास हेतु शुभकामना व्यक्त की. बालक दीक्षा लेकर महान शासन प्रभावक आचार्य बन सकता है. अतः • आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न पंन्यासश्री | इसके माता-पिता को समझा कर इस बालक को शासन को सौंपा वर्धमानसागरजी म.सा., पू.गणिश्री विनयसागरजी म.सा. आदि मुनिवरों | जाय. श्रीसंघ ने कुराशाह और नाथीबाई को हीराचंद के विषय में एक की निश्रा में जीयागंज जैन संघ में पर्वाधिराज पर्युषण पर्व की आराधना समर्थ विद्वान जैनाचार्य द्वारा की गई भविष्यवाणी से वाकिफ कराया. आध्यात्मिक आनंद उल्लास के साथ सम्पन्न हुई. मासक्षमण, अट्ठाई | परन्तु उनकी ममता ने इस बात का तत्काल अस्वीकार कर दिया. आदि की महान् तपश्चर्या भी उल्लेखनीय रही. मुनिश्री विवेकसागरजी । कुछ समय पश्चात् कुराशाह और नाथीबाई का देहान्त हो गया. म.सा. ने बालक-बालिकाओं को धार्मिक सूत्रों की वाचना देकर छोटे इस दुःखद घटना से हीराचन्द के मन में संसार के प्रति उदासीनता बच्चों मे धार्मिक उत्साह बढ़ाया. और वैराग्य भावना पुष्ट होने लगी. कुराशाह के और तीन पुत्र एवं • मुनिश्री हेमचन्द्रसागरजी म.सा., मुनिश्री निर्वाणसागरजी म.सा. तीन पुत्रियाँ थी. उनके नाम क्रमशः संघजी, सूरजी, श्रीपाल, रम्भा, मुनिश्री अजयसागरजी म.सा. आदि मुनिवरों की शुभ निश्रा में पंडित राणी और विमला थे. हीराचन्द सबसे छोटी सातवीं संतान थी. अब श्रीवीरविजयजी उपाश्रय, भट्ठी की बारी (अहमदाबाद) जैनसंघ में पर्व हीराचन्द अपनी बहन के घर पाटण में रहने लगे. पर्युषणा की आराधना सोल्लास सम्पन्न हुई. मासक्षमण, १५ उपवास, ____ एक बार संयोगवशात् आचार्य श्री दानसूरिजी का पाटन में अट्ठाई इत्यादि तपों का तांता लगा रहा. तपस्या की अनुमोदनार्थ आगमन हुआ, उनके समक्ष अपनी दृढ़ भावना व्यक्त करते हुए श्रीसंघ ने विविध पूजनों से युक्त प्रभुभक्ति महोत्सव आयोजित किया था. हीराचन्द ने दीक्षा लेने का निर्धार किया. बाद में बहन और उनके श्रीसंघ ने प्रभु भक्ति के महोत्सवपूर्वक तपोनुमोदना की .. परिवार की अनुमति से सं.१५९६, कार्तिक कृष्ण द्वितीया के दिन • श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा (गुजरात) तीर्थ में पर्व पर्युषण महामहोत्सव पूर्वक प्रावजित हुए. नूतन मुनि का नाम हीरहर्ष के दिनों में प्रभु महावीर से अलंकृत महावीरालय में आठों दिन | उद्घोषित किया गया. गुरुकृपा से हीरहर्षमुनि अल्पकाल में ही स्व-पर For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ शास्त्रों के निष्णात हुए. कोई शास्त्र ऐसा नहीं रहा जिसका हीरहर्ष तथा अबुलफजल, थानसिंह, अमीपाल आदि विद्वानों को आपकी सेवा मुनि ने अध्ययन न किया हो. आचार्यश्री दानसूरिजी ने उनकी प्रकाण्ड में नियुक्त किया. सम्राट् और आचार्य के बीच राज दरबार में भेंट हुई . विद्वत्ता को देखकर अपने उत्तराधिकारी के पद पर नियुक्त करना और कई दिनों तक नियमित रूप से धर्मदर्शन संबंधित अनेक विध चाहा. अब आपने एक बार सूरिमन्त्र की आराधना कर अधिष्ठायक देव संगोष्ठियां की. धर्म के विषय में प्रश्नोत्तर हुए एवं आचार्यश्री के विद्वत्ता को प्रसन्न किया. अधिष्ठायक देव ने भी हीरहर्ष मुनिवर को योग्य भरे जवाबों से एवं साधु आचारों से सम्राट् काफी प्रभावित हुआ. इतने घोषित किया. तब आचार्यश्री ने सिरोही नगर में वि.सं.१६१० में दूर देश से आचार्यश्री को बुलाकर अपनी जिज्ञासा परितृप्त कर मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी के शुभ दिन मुनि हीरवर्ष को आचार्यपद से श्रद्धावनत हो धन्यवाद दिया तथा अपने लिये कुछ माँगने का आग्रह अलंकृत किया. इस अवसर पर राणकपुर तीर्थ के निर्माता धरणाशाह किया. तब निस्पृह साध्वाचार का परिचय देकर सूरिजी ने उसे और के वंशज चांगा संघपति ने बड़ा महोत्सव करके शासन प्रभावना की. प्रभावित किया. अन्त में जब अत्यंत आग्रह किया कि कुछ तो लेना ही कहते हैं उस महोत्सव में सुवर्ण मुहरों की प्रभावना की गई थी. होगा तब सूरिसम्राट ने सिर्फ इतना ही माँगा कि पर्युषण पर्व में हमारी आचार्य पदवी के बाद आपका नाम हीरविजयसूरि रखा गया. अब आप साधना में सहायक अहिंसा का पालन पूरे राज्य में प्रवर्तमान करें. इस तपागच्छ की पाट परम्परा के उत्तराधिकारी बने. वि.सं.१६२१ में आपके पर सम्राट ने बड़ी खुशी के साथ पर्युषणा के आठ दिन और अपनी गुरु श्री दानसूरिजी म.सा. का वटपल्ली (वडाली) नगर में समाधिपूर्वक ओर से चार दिन मिलाकर १२ दिन तक पूरे राज्य में अहिंसा का कड़ा कालधर्म हो गया. आपको उस वेला में बड़ा हृदयशोक हुआ. तब पालन होगा ऐसा वचन दिया तथा ५ फरमान तैयार कर गुजरात, इष्टदेव ने आकर आपको आश्वस्त किया. गुरुभक्ति निमित्त वहाँ पर मालवा, अजमेर, दिल्ली, फतहपुर, लाहौर और मुल्तान आदि प्रान्तों में चरणपादुका युक्त गुरुमंदिर बनबाया गया. तदनन्तर आप पं.जयविमल भेजे गये. आदि मुनिवरों सहित ग्राम-नगर वन-उपवन विहार करते हुए भव्य अकबर को इतने से संतोष नहीं हुआ क्योंकि यह सब तो जीवों को उपदेश देते हुए गान्धार नगर पधारे. श्रीसंघ में आपके परोपकार के लिये था. अतः व्यक्तिगत कुछ ग्रहण करने के लिए बाध्य पदार्पण से धर्म भावना नवपल्लवित होने लगी. किया. अन्त में सम्राट ने पद्मसुंदरयति का ज्ञान भण्डार जो वर्षों से इस ओर फतहपुरसिकरी में सम्राट अकबर अपने झरोखे में | खुद ने सम्भाल रखा था उसे समर्पित किया. वह भण्डार सूरिजी ने बैठा-बैठा नगर शोभा निहार रहा था. इतने में उसने देखा कि एक स्त्री आगरा में श्रीसंघ को अर्पित किया. सूरिजी के तप-त्याग और विद्वत्ता को पालकी में बिठाकर जुलूस जा रहा था. "आचार्य हीरविजयसूरि की से सम्राट् के हृदय में परिवर्तन आया. उसने अपने जीवन से हिंसा को जय" इस प्रकार की ध्वनि गगनमण्डल में प्रसरित हो रही थी. पूछने अलग कर दिया तथा परस्त्रीगमनादि त्याग का नियम ग्रहण किया. पर सेवकों से पता चला कि थानसिंह नामक एक श्रावक की चम्पाबाई इतना ही नहीं बाद में समस्त राज्य में ६ महीने तक अमारि का प्रवर्तन श्राविका ने छ:मासी तप किया है तथा यह भी जाना कि जैन उपवास कराया. इसके लिये कुछेक मुसलमानों ने सम्राट् की निंदा भी की, में दिन रहते सिर्फ उबाला हुआ पानी के सिवाय कुछ नहीं लिया लेकिन सम्राट ने उसके लिये जरा भी परवाह नहीं की. जाता. अकबर को आश्चर्य हुआ. तुरन्त फरमान देकर पालकी आचार्य हीरसूरि म.सा. की प्रेरणा पाकर एक मुसलमान शहनशाह राजमहल में बुलाई और चम्पाबहन से वार्तालाप किया. विश्वास न होने के जीवन में जो परिवर्तन आया और समस्त हिन्दुस्तान में उसकी जो पर शेष एक महीने तक अपनी व्यवस्था में तप की परीक्षा की. जब असर हुई वह तो अवर्णनीय है. इस घटना को इतिहास के पन्नों पर सत्यता प्रतीत हुई तब सम्राट् के हृदय में कोमलता पैदा हुई. उसने विस्तार से लिखा गया. हिन्दु, मुस्लिम, जैन एवं पाश्चात्य विद्वानों ने पूछा कि "यह तप तुम किसके प्रभाव से कर रही हो ?" जबाब मिला अपने-अपने ग्रंथों में इसका गौरव युक्त उल्लेख किया है. गुरुदेव आचार्यश्री हीरविजयसूरि के आशीर्वाद से. सम्राट को जिज्ञासा अन्त में सम्राट अकबर ने सूरिजी को जगद्गुरु की उपाधि से हुई कि इसके गुरु में ऐसी कौन सी दिव्य शक्ति होगी कि जिसके नवाजा. सूरिसम्राट ने समाज कल्याण के लिये जजिया कर बन्द प्रभाव से यह इतनी महान तपस्या कर रही है. अन्ततः सम्राट ने अपने कराया एवं आर्य संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिये पालिताना, आबु, अमलदारों को बुलाया और हीरविजयसूरिजी के बारे में पूछताछ की. गिरनार, राजगृही के पाँच पहाड़ तथा सम्मेतशिखर आदि तीर्थों को उस समय थानसिंह ने बताया कि हमारे गुरुवर इन दिनों गुर्जरदेशवर्ती श्रीसंघ के स्वाधीन करवाये. बाद में धर्मोपदेश हेतु सम्राट् के कहने से गान्धार नगर में विराजमान हैं. अकबर ने तुरन्त मोदी और कमाल को उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी को वहीं छोडकर आप आगरा, मथुरा आदि बुलाकर अहमदावाद के सुबेदार शाहबुद्दिन पर फरमान जारी किया. जैन स्तुपों की यात्रा करते हुए गोपगिरि पधारे. सं.१६४१ का चातुर्मास उसमें इस बात का आग्रह किया था कि "आचार्यश्री को किसी प्रकार इलाहाबाद और सं. १६४२ का आगरा में व्यतीत कर शेष काल की असुविधा न हो उसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय". गुजरात में बिताने के लिए पालिताणा, गिरनार की ओर विहार कर श्रीसंघ को जब इस वृत्तान्त का पता चला तो पहले कुछ । उन्नतपुरी (ऊना) पधारे. तर्क-वितर्क हुआ. बाद में आचार्यश्री ने संघ को कहा कि "भविष्य में आपने न सिर्फ अकबर को ही प्रतिबोधित किया था बल्कि शासन की प्रभावना होने वाली है" इसलिए हमारा जाना ठीक ही अन्यान्य सुबेदारों और राजा महाराजाओं पर भी ऐसा ही प्रभाव डाला होगा. श्रीसंघ ने आचार्यश्री को जाने देने का सर्वसम्मति से निश्चय था. खानखाना, महाराव सुरताण, सुल्तान हबीबुल्लाह, आजमखाँ, किया. गांधार से आपने फतहपुर की ओर प्रस्थान किया. सुल्तान मुराद आदि को भी प्रतिबोध देकर धर्मप्रेमी बनाया. आचार्यश्री अहमदावाद-पाटन-सिद्धपुर-सिरोही व चित्तौड़ होते हुए आप का निजी जीवन भी कठोर तप साधना से परिप्लावित था. आपने २२५ वि.सं.-१६३९ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन फतहपुर सिकरी पधारे. अट्टम, १८० छठ्ठ, ३६०० उपवास, २००० आयम्बिल २००० निवी, आपके साथ उस समय विमलहर्ष गणि, सिंहविमल गणि, पं. हेमविजय वीश स्थानक तप २० बार, ग्यारह महीने का प्रतिमातप, सूरिमन्त्र गणि, पं. लाभविजय गणि, पं. धनविजय गणि, शान्तिचंद्र उपाध्याय आराधना तप, गुरुदेव के समाधिमरण निमित्त एकासन १३ मास तक आदि १३ मुनिवर थे. किये. चार करोड़ सज्झाय, नित्य जप आदि ज्ञान-ध्यान आदि प्रवृत्तियों अकबर ने आपके आगमन पर शाही जलूस के साथ स्वागत किया । में रात दिन अप्रमत्त रहते थे. आपकी आज्ञा में २५०० साधु थे. जिसमें For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ एक आचार्य, ६ उपाध्याय, १६० पण्डित तथा शेष मुनि थे. साध्वीजी || पश्चिम भारतीय जैन चित्रकला : तकनीक लगभग ५००० और श्रावक श्राविका लाखों की संख्या में थे. इतना बड़ा धर्म साम्राज्य होने पर भी आपमें गर्व आदि दोष नाम मात्र भी नहीं थे. ललित कुमार "सवी जीव करु शासनरसी" इस भावना से लाखों जीवों को धर्मबोध पश्चिम भारतीय जैन चित्र शैली के चित्रों को बनाने की तकनीक कराने के लिये आपने भारतवर्ष में कितना कठोर-उग्र विहार किया था सरल थी. ग्रंथ लेखन के समय चित्रों के लिये रिक्त स्थान छोड़ दिए वह अन्यान्य ग्रन्थों से हम जान सकते हैं. जाते थे. ग्रंथ लेखन का कार्य पूरा होने पर उसे चित्रकार को दे दिया ___ आचार्यश्री हीरविजयसूरिजी ने अपना अन्त समय नज़दीक जाता था. कितनी बार तो लिखने और चित्र बनाने दोनों कार्य एक ही जानकर श्रद्धालु भक्त श्राद्ध एवं मुनिगण से क्षमायाचना की और कहा व्यक्ति करता था. जब चित्रकारी का कार्य किसी चित्रकार द्वारा होता कि "अब मेरी मृत्यु होनेवाली है परन्तु मुझे इसकी चिन्ता नहीं है था तब प्रति का लेखक पृष्ठ के हाँसिए पर दृश्य अंकन या दृश्य के क्योंकि जातस्य ध्रुवं मृत्यु संसार में सभी जीवों को मृत्यु अवश्यंभावी है. विषय का निर्देश कर देता था. अनपढ़ कलाकार के लिए लेखक दृश्य अतः हे भव्यजीवों ! आप लोग अपने-अपने संयम धर्म की आराधना में के विषय को एक संक्षिप्त रेखांकन द्वारा इंगित कर देता था. जिससे उद्यत बनना. मेरी पाट पर आचार्य सेनसूरिजी मौजूद है, अतः आपको कलाकार को पृष्ठ के रिक्त स्थान पर कौन सा चित्र बनाना है उसका पता चल जाता था. अथवा कलाकार स्वयं अपनी समझ के लिये इन किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है. परमात्मा वीर के शासन की उन्नति संक्षिप्त रेखांकनों को लिपिकार के समक्ष बना लेता था. इस प्रकार करने में कटिबद्ध रहना." इस प्रकार साधु और श्रावकों को अन्तिम चित्र के विषय सूचक संक्षिप्त रेखाचित्र अपने आप में बड़े रोचक लगते उपदेश देकर सबको सावधान करके, पंच परमेष्ठि का शरण करके, हैं. इन्हें प्रायः चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की चित्रित नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करते हुए वि.सं.१६५२ में भाद्रपद शुक्ल कल्पसत्र की पोथियों में देखा जा सकता है. श्रीमहावीर जैन आराधना एकादशी, गुरुवार के दिन भव संबंधि औदारिक शरीर को त्यागकर केन्द्र, कोबा के सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय की एक चित्रित कल्पसूत्रदेवलोक सिधारे. कालकाचार्य कथा के कुछ प्रदर्शित पत्रों में हाँसिए पर इन रेखाचित्रों आपके कालधर्म के समाचार पाते ही पाटण स्थित आचार्य को देखा जा सकता है. सेनसूरिजी, फतहपुर में सम्राट अकबर और पूरे हिन्दुस्तान का श्रीसंघ चित्र बनाने के लिये सबसे पहले कलाकार पीले या लाल रंग से गहरे शोक में डूब गया, हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हो विलाप | तूलिका द्वारा संपूर्ण रेखाचित्र बनाता था. इसी दौरान रेखाओं को सुदृढ करने लगे. ऊना नगर के उद्यान में आपकी देह का अग्निसंस्कार और स्पष्ट करने की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाती थी. वैसे इन किया गया. अकबर ने अपने राज्य में उस दिन शोक मनाया तथा | चित्रकारों को इतना अभ्यास होता था कि वे एक बार में ही स्पष्ट नाच-गान आदि बन्द करवा दिये. अग्निसंस्कार के लिये ८४ बीघा रेखाचित्र बना लेते थे. जमीन श्रीसंघ को भेंट कर अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की. श्रीसंघ ने इस शैली में भूमि या सफेद रंग के आरम्भिक लेप लगाने की कोई परम्परा नहीं थी. परन्तु आरम्भिक काल की चित्रित काष्ठ पट्टिकाओं वहाँ पर गुरु स्तूप बनाया और चरणपादुका की प्रतिष्ठा की. में सफेद रंग की भूमि बनाने की प्रक्रिया देखी जा सकती है. आज भी जिस भूमि पर आचार्यश्री का स्तूप है वहाँ रहा हुआ रेखांकन के बाद रंग भरने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती थी. जिसमें आम्रवृक्ष प्रतिवर्ष भादो सुदि ११ के दिन फल देता है. अन्य भी आबू, एक-एक कर अनेक रंग चित्र में भर दिए जाते थे. सबसे पहले जमीन पाटन, खंभात, अहमदाबाद, सुरत, हैदराबाद, आगरा, महुआ, मालपुर, या पृष्ठभूमि को लाल रंग से भर दिया जाता था. इसके बाद मानव सांगानेर, जयपुर आदि शहरों में हीरविहार (गुरुमंदिर) देखा जाता है. आकृतियों, वास्तु, वृक्ष और पशु-पक्षियों को रंगा जाता था. विशेष में श्रद्धापूर्वक जगद्गुरु की पूजा भक्ति करनेवालों के दुःख मानव आकृतियों में प्रायः पीले रंग का ही प्रयोग किया जाता था. दारिद्रय दूर हो जाते हैं. शेष हेतु लाल एवं पीले रंग के अतिरिक्त नीला, सफेद और काला रंग भी प्रयोग में आता था, पश्चिम भारतीय जैन चित्र शैली में प्रायः शुद्ध ___ अन्त में जगद्गुरु हीरविजयसूरीश्वरजी के विषय में अधिक रंगों का ही प्रयोग किया गया है अर्थात् मिश्रित रंगों का प्रयोग नहीं जानकारी प्राप्त करने के इच्छुकों के मार्गदर्शन हेतु कुछेक प्राचीन, किया जाता था. पंद्रहवीं शताब्दी से सोने के रंग का प्रयोग भी इस अर्वाचीन ग्रंथों की सूची यहां प्रस्तुत है. पाठकगण इससे लाभान्वित । शैली में होने लगा. होंगे इसी मंगलकामना के साथ. इस शैली में प्रयुक्त प्रायः सभी रंग खनिज व रासायनिक ही होते १. हीर सौभाग्य महाकाव्य (संस्कृत, गुजराती) २.हीरसुंदर काव्य थे जिन्हें पीस कर बनाया जाता था. इन रंगों को बबल के गोंद में मिलाकर प्रयोग किया जाता था. ब्रश या तूलिका गिलहरी, ऊंट या ३. हीरप्रश्न (संस्कृत) ४. जगद्गुरु हीर निबंध (हिन्दी) ५. जगद्गुरु बकरी के मुलायम बालों से बनाई जाती थी. सोने के रंग का प्रयोग दो आचार्य हीरसूरीश्वरजी (गुजराती) ६. हीरसूरीश्वरजी की स्तुति प्रकार से होता था, पहली रीति में सोने के वरख को शहद या शक्कर (गुजराती) ७. हीरसूरीश्वर रास (मारू गूर्जर) ८. के पानी के साथ हाथ या एक विशेष प्रकार के खरल (खल) में धूंटा हीरविजयसूरिपादुकाष्टक (संस्कृत) ९. हीरविजयसूरि सज्झाय (मारू जाता था, जिससे उसके बहुत बारीक कण बन जाते थे. सोने के इन गूर्जर) १०. हीरकीर्ति परम्परा (मारु गुर्जर) ११. हीरविजयसूरि अष्टक कणों को पानी से धो कर अलग निथार लिया जाता था. सोने के प्रयोग की दसरी रीति में सोने के वरख का सीधा प्रयोग किया जाता (संस्कृत) १२. मुसलमानी रियासत (गुजराती) १३. सम्राट् और सूरीश्वर था. इसके लिये चित्र के जिस भाग में सोने का रंग चढ़ाना हो उस (हिन्दी) १४. भारतवर्ष (बंगाली) १५. आइन-ए-अकबरी (उर्दू) १६. पर गोंद का एक लेप लगा कर सोने के वरख को सीधा चिपका दिया अकबर (विन्सेंटकृत) (अंग्रेजी) १७. तपागच्छपट्टावली (संस्कृत) १८.. जाता था. गोंद के सूखने पर वरख को ऊंगली से घिस दिया जाता था कोन्फरन्स हेरल्डनो ऐतिहासिक अंक (गुजराती) जिससे अतिरिक्त वरख निकल जाती थी. सोने के रंग से आच्छादित मानव आकृतियों के अंग-प्रत्यंग और वस्त्रों को स्पष्ट [शेष पृष्ठ ६ पर For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ जैन साहित्य ४ · अभी तक हमनें प्राचीन जैन साहित्य का प्रारम्भिक परिचय किया है. अब ४५ आगमों का क्रमशः परिचय करेंगे. १. आचारांगसूत्र : यह सर्वविदित ही है कि अंगों के क्रम में आचारांग का नाम सर्वप्रथम है. आचारांग के पर्याय नाम इस प्रकार हैं आयार, आचाल, आगाल, आसास, आयरिस, अंग, आइण्ण, आजाति तथा आमोक्ष आदि. समवायांगसूत्र के अनुसार आचारांगसूत्र में निर्ब्रय सम्बन्धी आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योगयोजना, भाषासमिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, आहार- पानी सम्बन्धी उद्गम, उत्पाद एषणा विशुद्धि शुद्धाशुद्ध ग्रहण, व्रत, नियम, तप, उपधान, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार से सम्बद्ध सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है. . www.kobatirth.org - मुख्यतः जैन साधुओं को अपने आचार धर्म का पालन किस प्रकार करना है उससे सम्बन्धित सांगोपांग उत्कृष्ट वर्णन किया गया है. क्योंकि अपेक्षित ज्ञान के बिना विवक्षित वस्तु को स्व पर पर्याय के भेद वाले उसके सभी रूपों में समझना संभव नहीं होता जो साधक एक वस्तु को भी स्व पर पर्याय भेद से यथार्थ जानता है, वह सर्व पदार्थ को जानता है. इस प्रकार यह ज्ञानादिक आसेवन विधि का प्रतिपादन करने वाला प्रथम अंग है. नन्दीसूत्र से ज्ञात होता है कि आचारांग में श्रमण निर्ग्रथों के आचार, गोवर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण करण, यात्रा, मात्रा तथा विविध अभिग्रह विषयक वृत्तियों तथा ज्ञानाचार आदि पांच प्रकार के आचारों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है. प्रथम आचारांग के दो श्रुतस्कंध तथा पच्चीस अध्ययन हैं. श्रुतस्कंध का नाम ब्रह्मचर्य है और इसमें नौ अध्ययन होने के कारण इसे नव ब्रह्मचर्य भी कहा गया है. यहां पर ब्रह्मचर्य शब्द का संयम के व्यापक अर्थ में उपयोग हुआ है. द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम श्रुतस्कंध की चूलिका के रूप में है. इसका अपरनाम आचाराग्र है. वर्तमान मान्यता के अनुसार इसे प्रथम श्रुतस्कंध का परिशिष्ट भी कहा गया है. द्वितीय श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन हैं. नियुक्तिकार व वृत्तिकार इस भाग के विषय में कहते हैं कि स्थविर पुरुषों ने शिष्यों के हित की दृष्टि से आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अप्रकट अर्थ को विभागानुसार स्पष्ट कर चूलिका के रूप में द्वितीय श्रुतस्कंध की रचना की है. नवब्रह्मचर्य (प्रथम श्रुतस्कंध) के अध्ययनों के नाम स्थानांग एवं समवायांगसूत्रों के अनुसार इस प्रकार हैं : १. सत्यपरिण्णा ( शस्त्रपरिज्ञा), २. लोगविजय ( लोकविजय), ३. सीओसणिज्ज ( शीतोष्णीय ) ४ सम्मत्त (सम्यक्त्व), ५. आवन्ति ( यावन्तः ), ६. धूअ (धूल), ७. विमोह (मोक्ष) ८. उवहाणसुअ (उपधानश्रुत) ९. महापरिणा (महापरिज्ञा). आचारांगसूत्र की उपलब्ध वाचना में छठां धूअ सातवां महापरिण्णा आठवां विमोह एवं नवयां उवहाणसुअ ऐसा क्रम है. निर्युक्तिकार आर्यभद्रबाहुस्वामि एवं वृत्तिकार आचार्य शीलांकसूरि ने इसी क्रम को स्वीकार किया है. " शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में ७ उद्देशक (प्रकरण ) हैं. जिसमें पहले उद्देशक में जीव के अस्तित्त्व का विवेचन तथा शेष ६ उद्देशकों में जीव समूह के आरम्भ समारम्भ रूप हिंसा का विशद् वर्णन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ है. इस अध्ययन में शस्त्र शब्द का कई बार प्रयोग किया गया है जो लौकिक शस्त्र की अपेक्षा से भिन्न जीवहिंसा के साधन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. इस प्रकार अलग ही अर्थ के अभिधेय का स्पष्ट परिज्ञान कराया गया है. इसलिये शब्दार्थ की दृष्टि से इस अध्ययन का नाम शस्त्रपरिज्ञा सार्थक प्रतीत होता है. लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन में छः प्रकरण हैं. विजय का अर्थ लोक पर विजय प्राप्त करना अर्थात् संसार के मूल कारण क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार कषायों को जीतना है. यही इस अध्ययन का सार कहा जा सकता है. इसका मुख्य उद्देश्य वैराग्य में वृद्धि, संयम में दृढ़ता, जातिगत अभिमान को दूर करना, भोगों में विरक्ति, आरम्भ समारम्भ का त्याग करवाना तथा ममता छुड़वाना है. शीतोष्णीय नामक तीसरे अध्ययन में चार उद्देशक हैं. इसमें शीत (सुख) एवं ताप (दुःख) आदि परिषह सहन करके कषाय-त्याग का उपदेश दिया गया है. पहले उद्देशक में असंयमी व्यक्ति को सोये हुए की कोटी में रखा गया है. दूसरे उद्देशक में बताया गया है कि ऐसा व्यक्ति असंख्य दुःख का अनुभव करता है. साधु-साध्वी के लिये देह दमन के साथ ही चित्त शुद्धि की वृद्धि करते रहने के लिये तीसरे उदेशक में निर्देश दिया गया है. चतुर्थ उद्देशक में कषाय त्याग, पाप कर्म त्याग एवं संयमोत्कर्ष हेतु प्रेरित किया गया है. चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है तथा इसमें भी चार उद्देशक हैं. प्रथम उद्देशक में अहिंसा धर्म की स्थापना तथा सम्यक्त्व सन्मार्ग में दृढ़तापूर्वक प्रवर्तन की चर्चा है दूसरे उद्देशक में हिंसकों को अनार्य बता कर उनसे पूछा गया है कि उन्हें मन की अनुकूलता सुखरूप प्रतीत होती है कि मन की प्रतिकूलता ? तृतीय उद्देशक में चित्त की शुद्धि का पोषण करने वाले अक्रोध, अलोभ, क्षमा, संतोष आदि गुणों की वृद्धि हो ऐसे तप करने का उपदेश दिया गया है. चतुर्थ उद्देशक में सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तप की प्राप्ति के लिये प्रयास करने का उपदेश है. आवन्ति नामक पांचवें अध्ययन में साधु-साध्वीजी भगवंतो के लिए आचार पद्धति ( श्रमणचर्या) का वर्णन है तथा अन्त में शब्दातीत एवं बुद्धि तथा तर्क से अगम्य आत्मतत्त्व का विवेचन है. धूत नामक छठें अध्ययन में धूत शब्द का अर्थ प्रचलित अवधूत शब्द जैसा ही है. इसमें पांच उद्देशक हैं. इसमें तृष्णा का समूल नाश कर देने के लिये कहा गया है. महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन अनुपलब्ध है किन्तु इसकी निर्युक्ति मिलती है. इसकी अन्तिम गाथा में बताया गया है कि साधक को देवांगना, नरांगना तथा तिर्यञ्च इन तीनों का मन, वचन व काया से त्याग करना चाहिये. इस त्याग का नाम महापरिज्ञा है. विमोक्ख या विमोक्ष नामक आठवें अध्ययन के आठ उद्देशक हैं. प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि जिन अनगारों का आचार शास्त्रोक्त आचार से न मिलता हो उनके संसर्ग से दूर रहना चाहिये. दूसरे उद्देशक में कहते हैं कि आहार, पानी, वस्त्र आदि दूषित (आगम मर्यादा से विपरीत) हों तो मोह न कर उनका त्याग कर देना चाहिये. बाद के उद्देशकों में विमोक्ष अथवा कर्म से मुक्ति और स्वरूप प्राप्ति के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है. इस अध्ययन का सारांश यह है कि कभी ऐसी परिस्थिति आ जाय कि संयम की रक्षा न हो सके अथवा स्त्री आदि के अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग होने पर संयम भंग की स्थिति आ जाय तब विवेकपूर्वक जीवन का त्याग कर देना चाहिये. [शेष पृष्ठ ६ पर For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ | सम्पादकीय | श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा मान्यवर श्रुत भक्त, नूतन वर्षाभिनन्दन ! श्री शान्तिलाल मोहनलाल शाह : संस्था को मिला आत्मीय स्पर्श श्रुतसागर का यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष श्रीमान् शान्तिलाल मोहनलाल शाह का जन्म २० सिप्तंबर १९२० हो रहा है क्योंकि परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी को दहेगाम में एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ है. जब वे महाराज साहब की प्रेरणा से इस पत्रिका के प्रकाशन को एक वर्ष चार वर्ष के थे तब उनकी माता दिवंगत हो गई. श्री शान्तिभाई ने पूरा हो रहा है. इसके प्रकाशन में आप सभी के उदार सहयोग तथा मैट्रिक तक की शिक्षा अहमदाबाद में ग्रहण की तथा मात्र १८ वर्ष की मन्तव्यों के लिए हम आभारी हैं. अवस्था में सौ. माणेकबेन के साथ विवाह किया. लगभग २५ वर्षों तक इस बार 'इतिहास के झरोखे से' आपको सम्राट अकबर टेक्सटाइल मिल में सेवा करने के बाद आपने व्यापार में प्रवेश किया. प्रतिबोधक आचार्य श्री हीरसूरि महाराज के जीवन चरित्र का दर्शन करा रहे हैं. 'जैन साहित्य' मे आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध का प्रारम्भ में श्रीशान्तिभाई को धर्म में सामान्य रूचि थी. उनकी आपको परिचय मिलेगा. धर्मपत्नी बहुत ही धर्मनिष्ठ श्राविका हैं. सन् १९६५ में उन्होंने परम राष्ट्रसंत की निश्रा में हो रही महान शासन प्रभावना के समाचार पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्रीकैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा आपको मन्त्रमुग्ध करेंगे. में ओळी की थी तब श्री शान्तिभाई को धर्म में अभूतपूर्व जिज्ञासा और 'पश्चिम भारतीय जैन चित्रकला' लेख में आपको गुजरात, रूचि उत्पन्न हुई. आचार्यश्री के सम्पर्क ने उनके जीवन में परिवर्तन राजस्थान में प्राचीन जैन चित्र शैली के निर्माण की प्रक्रिया से परिचय कर दिया. धीरे-धीरे वे कई यम-नियम धारण कर श्रावक भी बनें. होगा. आपने परिग्रह का परिमाण भी निश्चित किया. श्री शान्तिभाई को दीक्षा श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र के जन्म, विकास एवं प्रगति में लेने की भी इच्छा थी किन्तु किन्हीं सांसारिक कारणों से सब कुछ तय कई मूर्धन्य महानुभावों का तन-मन-धन से सहयोग प्राप्त हुआ है, उन हो जाने के बाद भी यह संभव नहीं हो सका. परम पूज्य गुरु महाराज सभी का केन्द्र आभारी है. समाज से इन हस्तियों का परिचय कराने ने आपको प्रेरित कर कई धार्मिक कार्य सम्पन्न करवाए. सन् १९८० में के लिए हम यथासंभव अपने इन सहयोगियों का परिचय इस अंक से जब श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा ट्रस्ट की स्थापना हुई तब करा रहे हैं. उन्हें इसका प्रमुख बनाया गया. लगभग १२ वर्षों तक प्रमुख के रूप में आशा है आपको यह अंक भी पसंद आएगा. अपने सुझाव आपने गुरु भगवंत के निर्देशानुसार इस केन्द्र को विकसित करने के लिखना न भूलें. लिए अपना जीतोड़ प्रयास किया है. १९८० में कोई यह सोच भी नहीं पृष्ठ ५ का शेष] जैन साहित्य सकता था कि कोबा में जैन धर्म का इतना बड़ा डंका बजेगा कि ___ उपधानश्रुत नामक नौवें अध्ययन में उपरोक्त आठों अध्ययनों में भारत ही नहीं विश्व के नक्शे पर कोबा का स्थान अंकित होगा. कथित आचारादि भगवान महावीर ने स्वयं आचरे हैं उसका तथा लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या वाली कहावत आचार्य श्री उनकी धीर-गंभीर, घोर तपश्चर्या का उल्लेख है. उपधान शब्द तप का कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में अपनी गजब की सूझ पर्यायवाची है. इसमें चार उद्देशक हैं. पहले उद्देशक में भगवान महावीर एवं दक्षता से आपने सिद्ध कर दी. मन्दिर की जगती मात्र ही बनी थी को दीक्षा लेने के बाद जो कुछ उपसर्ग सहन करने पड़े उसका वर्णन कि आचार्य श्रीकैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. काल धर्म को प्राप्त हुए. है. दूसरे और तीसरे उद्देशकों में उन्होंने कैसे-कैसे कष्ट (परिषह) तत्पश्चात् गुरु भगवंत के सुयोग्य प्रशिष्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री सहन किये उसका प्रभावपूर्ण वर्णन है. चतुर्थ उद्देशक में उन्होंने किस पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने अपने दादा गुरु के स्वप्न को पूरा प्रकार तपश्चर्या की उसका उल्लेख है. पूर्व अध्ययनों में जिस प्रकार करने का अथक प्रयास किया तथा उनके निर्देशानुसार श्री शान्तिभाई की चर्या का उल्लेख है उसी चर्या के आचरण का इस अध्ययन में ने अपने सहयोगी ट्रस्टियों सर्वश्री हेमन्तभाई सी. ब्रोकर, सोहनलालजी उल्लेख है. इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए इस अध्ययन का नाम लालचंदजी चौधरी आदि के सहयोग से श्री महावीरालय, आचार्य श्री आचारांग रखा गया मालूम होता है. कैलाससागरसूरि स्मारक मंदिर, उपाश्रय (आराधना भवन), आचार्य श्री आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के ९ अध्ययनों के कुल ५१ उद्देशक हैं। कैलाससागरसूरि ज्ञान मन्दिर तथा मुमुक्षु कुटीर को अपने वर्तमान किन्तु सातवें अध्ययन के ७ उद्देशकों के आधुनिक काल में दुर्लभ होने स्वरूप में जैन समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है. के कारण अभी मात्र ४४ उद्देशक उपलब्ध हैं. इतने बड़े विशाल कार्य को सम्पन्न करना कोई मामूली बात नहीं अगले अंक में आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध की चर्चा की जाएगी. हैं. श्री शान्तिभाई लगभग १८ वर्षों से जब श्री महावीर जैन आराधना क्रमशः] | केन्द्र की स्थापना हुई तब से अभी तक अपना ज्यादातर समय इसकी पृष्ठ ४ का शेष] पश्चिम भारतीय जैन.... सेवा में दे रहे हैं. अपनी कर्मठ तथा उद्यमी प्रवृत्तियों के बावजूद श्री करने के लिये आलते (अलक्तक) का प्रयोग किया जाता था, जो | शान्तिभाई सीधे एवं सरल तथा मृदु स्वभाव के धनी हैं. अपने जीवन में पीपल के गोंद से बनता था. वे प.पू. गच्छाधिपति आचार्यश्री कैलाससागरसूरि महाराज को तारक चित्र में रंग भर जाने के बाद काले रंग से आकृतियों की रेखाओं गुरु मानते हैं तथा उनके उपकार को बहुत बड़ा आशीर्वाद मानते हैं. को स्पष्ट कर चित्र पूरा किया जाता था. चौदहवीं शती में ये रेखाएं श्री शान्तिभाई का पूरा परिवार राष्ट्रसंत आचार्य श्री बहुत बारीक और सशक्त हैं परन्तु पंद्रहवीं शती के उत्तरार्द्ध के बाद ये पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का भक्त है. श्रुतसागर की ओर से श्रद्धेय रेखाएं मोटी और कमजोर सी हो गईं. शान्ति काका के स्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की मंगल कामना... . For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर कार्तिक २०५३ 6 a D a ● संपादक श्रुतानुरागी पूज्य उपाध्याय श्री धरणेंद्रसागरजी म. सा. के शिष्य रत्न मुनिराज श्री निर्वाणसागरजी म. सा. t-t प्रति B B B www.kobatirth.org B A B - ................................ खबर प्रतिक्रमण सूत्र सह विवेचन (हिन्दी-अंग्रेजी) - भाग - १,२ Pratikramana Sūtra With Explanation (Hindi-English) - Part - 1,2 खुश देश-विदेश में अंग्रेजी माध्यम से पढ़नेवाले जैन बालकों के लिये शीघ्र प्रकाशित होनेवाला अति उपयोगी पुस्तक. Q ● आशीर्वाद दाता राष्ट्रसंत प्रवचन प्रभावक सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. • प्रथम भाग में सूत्र १ से २४ (पृष्ट ३०४) एवं द्वितीय भाग में सूत्र २५ से ५१ ( पृष्ट ३६४ ) का समावेश सजिल्द प्रताकार पुस्तक ११५ की साइज़ में. Q Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir аваа रियायती मूल्य भारत में स. १२५/- विदेश में रु. २००/- (भाग पुस्तक की विशेषताएँ ० जैन श्री संघ में प्रकाशित होने वाला अपने आप में अद्वितीय, अनुठा प्रकाशन. D दो प्रतिक्रमण के मूल सूत्र के साथ शब्दार्थ गाथार्थ, समृद्ध विशेषार्थ एवं सूत्र परिचय से युक्त. D संपूर्ण पुस्तक दो भाषा हिन्दी एवं अंग्रेजी में (रोमन लिप्यंतरण एवं सरल अंग्रेजी भाषा में अनुवाद के साथ). D वर्णमाला के संपूर्ण रोमन लिप्यंतरण के कोष्टकों के साथ. * प्रकाशक ● श्री अरुणोदय फाउण्डेशन कोबा ३८२००९ (जि. गांधीनगर, गुजरात) (०२७१२) ७६२०४/०५/५२ D सर्व प्रथम बार कंप्यूटर द्वारा सर्वांग शुद्ध रोमन लिप्यंतरण के साथ स्वच्छ व सुंदर ऑफसेट प्रिंटिंग में तैयार हुई पुस्तक. D दोनों भागों में आवश्यक दोहे, चैत्यंवदन, स्तवन, स्तुति व सज्झाय से समृद्ध. · सरल भाषा में गुरुवंदन, चैत्यंवदन, देववंदन, सामायिक, देवसिअ राइअ प्रतिक्रमण एवं पच्चक्खाण पारने की विधियों से युक्त. प्रतिक्रमण आदि की क्रिया में उपयोगी विविध मुद्राओं के साथ आयातित युगो आर्ट पेपर पर ४० रंगीन चित्रों का सरल भाषा में परिचय. • देश-विदेश में बसे मित्र संबंधियों को विशिष्ट प्रसंग पर भेंट देने के लिये श्रेष्ठ उपहार, • अपन लिये आवश्यक प्रतियाँ आज ही आरक्षित करायें. • पुस्तक का मूल्य ड्राफ्ट / एम. ओ. द्वारा श्री अरुणोदय फाउण्डेशन, अहमदाबाद के नाम से ही भेजे. संपर्क सूत्र : श्री अरुणोदय फाउण्डेशन, C/o चंद्रकांत भाई जे. शाह, ५/९/३, अर्जुन कोम्प्लेक्स, जय शेफाली रो हाऊस के सामने, सेटेलाइट रोड, अहमदाबाद ३८००१५ (गुज.) ६५६५३२९ ऑर्डर फॉर्म [ORDER FORM] For Private and Personal Use Only - 9,2) श्री अरुणोदय फाउण्डेशन, अहमदाबाद १,२ की......... प्रतियाँ आरक्षित करें. इन प्रतियों का मूल्य कृपया हमारे लिए प्रतिक्रमण सूत्र सह विवेचन (हिन्दी-अंग्रेजी) भाग १.२ की .... रू....... .का ड्राफ्ट संलग्न है/ एम. ओ. द्वारा मिजवाया है. पुस्तक प्रकाशित होते ही आरक्षित प्रतियाँ निम्न पत्ते पर शीघ्र मिजवाइएगा. संलग्न : ड्राफ्ट नं.: ता. भवदीय बेन्क नाम : पत्ता : *-* ввввввввввввв 8 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर : कार्तिक २०५३ Happy News Soon publishing a very useful book for the children studying through English medium in country and abroad. Pratikramana Sūtra With Explanation [Hindi-English) - Part-1,2 * Editor . Blessings * Publishers * Muni Shri Nirvan Sagarji Impressive discourser, Sammet Shri Arunoday Foundation deciple of upadhaya Sikhar Tirth saviour Acharyadev Koba - 382 009. Shri Dharanendra Sagarji Shri Padma Sagar Surishwarji Dist. Gandhinagar (Guj.) Inclusion of sūtra no. 1 to 24 in first part (304 pages) and sūtra no. 25 to 51 in second part (364 pages) in 11' 53" landscape binded book. Concessional cost Rs. 125/- In India; Rs. 200/- abroad (Part 1 & 2). Peculiarities of the book → An unique, uncomman publication being published in Jain Shri Sangh. Main sūtras of two pratikramana accompained by literal meaning, stanzaic meaning, rich specific meaning and introduction of the sutra. Complete book in two languages - Hindi and English (with Roman transliteration and easy translation in English language). With the charts of complete transliteration of alphabets. Book prepared with neat and clean offset printing along with correct transliteration in all respects done through computer for the first time. Rich with necessary dohe (couplets), caityavandana, stavana, stūti and sajjhāyas in both the parts. Inclusion of procedures of guru vandana, caitya vandana, deva vandana, sāmāika, devasiatāia pratikramana and completing the paccakkhāņa in an easy language. a Introduction of various postures useful in the rites like pratikramana in an easy language along with 40 colour pictures on imported yugo art paper. A best gift for giving to friends and relatives settled in country and abroad on special occations. Reserve your copies today itself. Cost of the book should be sent through D.D./M. O. in favour of Shri Arunoday Foundation, Ahmedabad. Correspondence address : Shri Arunoday Foundation, Clo Chandrakantbhai J. Shah, 5/A/3, Arjun Complex, Opp. Jay Shefali Row House, Satelite Road, Ahmedabad-380015. [Gujarat - India) 6565329 ----- - Order Form To Shri Arunoday Foundation, Ahmedabad Kindly reserve ....... copies of Pratikramana Sūtra With Explanation (English-Hindi] Part - 1,2 for me. A D.D. for Rs. ..........., being the cost of books, is enclosed along with/M. O. is sent. Send the reserved copies to the address given below as soon as the book is published. Encl. :-D. D. no. : Dt. Yours Bank name : Postal Address : For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ लेकर जाये. उपाश्रय में भी गुरु महाराज के पास जाकर जो नहीं । गृह मंदिर : दिग्दर्शन । आता उस ज्ञान का अभ्यास करे. जहाँ तक यह मनुष्य देह है तब तक सद्गृहस्थ को हमेशा देव उद्यमवन्त पुरुषों को चाहिये कि वे धर्म-अर्थ, काम और मोक्ष इन पूजा और गुरुभक्ति करना उचित है. रोगादिक कारणों से ऐसा न हो तो चार पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिये इष्ट देव का स्मरण करते हुए रात्रि | दोष नहीं है. के अन्तिम प्रहर (ब्राह्ममुहूर्त) में शय्या से उठे. भव्यात्मा को मन वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग कर माता-पिता और वृद्ध पुरुषों को नमस्कार करने वालों को | मन, वचन और काया की शुद्धि पूर्वक पूजा करके सर्व सिद्धि दायक तीर्थयात्रा का फल मिलता है अतः उनको प्रतिदिन नमस्कार करें। अरिहंत भगवान का ध्यान करना चाहिये. घर में प्रवेश द्वार से बायीं ओर सुंदर देव मंदिर करना चाहिये. । जिन प्रतिमा के अगर नाखून खंडित हो तो शत्रु से भय उत्पन्न गृह मंदिर की भूमि घर के समतल से डेढ़ हाथ ऊँची होनी चाहिये. | होता है. अंगुलि खंडित होने पर देशभङ्ग, बाहु खंडित होने पर बंधन, पूजा करने वाले को पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो नासिका से कुल क्षय और चरण खंडित होने पर धन हानि होती है. बैठना चाहिये. दक्षिण, पश्चिम, अग्नि, नैऋत्य, वायव्य और ईशान यह सिंहासन खंडित हो तो स्थान भंग, वाहन खंडित होने पर अपने छः दिशा पूजा के लिये त्याज्य हैं. वाहन का नाश और परिकर के खंडित होने पर अपने नौकर चाकर का पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पूजा करने से चौथी पीढी तक ! नाश होता है. संतति का विच्छेद होता है और दक्षिणाभिमुख करने से संतति वृद्धि प्रवचनांश नहीं होती है. श्री-गणेश इसी प्रकार आग्नेयी दिशा अभिमुख पूजा करने से धन हानि, ___आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी वायव्य दिशा में बांझपना और नैऋत दिशा में कुलक्षय होता है। व्यवहार में किसी शुभ कार्य के प्रारम्भ में लोग जिनकी वन्दना ईशान दिशा में दारिद्रप्राप्ति होती है. पूजा करने वालों को प्रथम करते है, उन गणेश का उदर बहुत बड़ा है. यह बताता है कि जो गण दो चरणांगुष्ठ फिर क्रमशः दोनों जानु दोनों हाथ, दोनों भुजा, मस्तक, के स्वामी है, समुदाय के नेता हैं, देशनेता हैं, जिनको प्रमुख बनना है, भाल, कंठ, हृदय, नाभि स्थान पर पूजा करनी चाहिये. उनका पेट दुनियां की बातों को हजम कर सके उतना विशाल सागर बिना केशर चन्दन के जिन प्रतिमा का पूजन कभी नहीं करना जैसा होना चाहिए. चाहिये. ___ गणेश की आँखें छोटी हैं, जो बताती हैं कि जो गण का नेता होता नौ तिलक द्वारा जिन प्रतिमा का पूजन करना चाहिये और विधि | है उसकी दृष्टि सूक्ष्म होनी चाहिए. हर एक बात को सूक्ष्म दृष्टि से के जानकार को प्रभात काल में प्रथम वासक्षेप पूजा करनी चाहिये. देखना चाहिए इससे वस्तु में रहा हुआ मर्म समझ में आता है. आत्मा ____ मध्याहन काल में सुगंधि पुष्पों द्वारा और संध्या काल में धूप से | | और परमात्मा का विचार करने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की ही आवश्यकता है. पूजा करना उचित है, जिन प्रतिमा की दायीं ओर दीपक रखना गणेश के कान बड़े हैं, अर्थात् जो देश का नेता अथवा कुटुम्ब का मुखिया हो उसके कान बड़े होने चाहिए जिससे सबकी बातों को सुनकर चाहिये. जो योग्य हो वही अपनाए. भगवान की बायीं ओर धूप तथा नैवेद्य सन्मुख रखें. ध्यान सन्मुख बैठकर करें तथा चैत्यवंदन दायीं ओर बैठकर करना चाहिये. गणेश की नाक लम्बी है, इसका अर्थ यह हुआ कि उसे चारों ओर सज्जनों को जल, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप-दीप, नैवेद्य और फल सूंघ-सूंघ कर अच्छी वस्तु को अपना लेनी चाहिए. बड़े लोग अच्छाई को इन चीजों से पूजा करनी इष्ट है. श्वेत पुष्प शान्ति कारक, पीत पुष्प | अपनाते है और निकम्मी बातों को छोड़ देते हैं. लाभ दायक, श्यामपुष्प पराभव कारक, रक्तपुष्प मांगलिक और पंचवर्णी गणेश बड़े और उनका वाहन छोटा. चूहा छोटा होता है. इसी तरह पुष्प सिद्धिदायक है, पंचामृत पूजा अथवा शान्ति हो तो गड और भी बड़ आदमा का सहायक छोटा होना चाहिए, जो चारों ओर की का दीपक जलावें. छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखे. सद्गृहस्थ को पद्मासन करके नासिकाग्रभाग उपर दृष्टि स्थिर दूसरा, बड़े आदमी को छोटे आदमी को भी सम्मान देना चाहिए, करके मौन रहकर, शुद्ध वस्त्र परिधान कर मुखकोश बांधकर, जिनेश्वर | स्थान देना चाहिए. छोटे आदमी में भी बहुत से सद्गुण होते हैं. प्रभु की पूजा करनी चाहिये. गणेश सद्गुणों के प्रतीक हैं. पूर्व दिशा में मुख करके स्नान, पश्चिम में दंतधावन, उत्तर में मुख भगवान से केवल प्रकाश की मांग करके अपने मार्ग में आगे बढ़ते करके देव पूजा करनी चाहिये. ही जाना चाहिए. राज्य का त्याग करने के बाद एक दिन भर्तृहरि जब धर्म, शोक, भय, आहार, निद्रा, काम, कलह और क्रोध यह आठों गुदड़ी सी रहे थे, तब धागा सूई में से निकल गया, रात हो गई थी इस जितना चाहे उतना बढा-घटा सकते है अतः विवेक करें. वजह से वे फिर सूई में धागा डाल नहीं सके, तब लक्ष्मीदेवी ने रेशम की सत्कार्य करने वाले सुकृतकर्मों से कभी पीछे नहीं हटते. (तृप्त | गुदड़ी दी तो भर्तृहरि ने लेने से इन्कार कर दिया. जब देवी ने वरदान मांगने नहीं होते) अतः सुज्ञों को सुकार्य करने से कभी चूकना नहीं चाहिये. | को कहा तो, भर्तृहरि ने सूई में धागा डालने की मांग की. सुख-संपत्तिवान गृहस्थों को सुंदर वस्त्र आभूषण पहन कर मंदिर ल पाठको से नम्र निवेदन 6 व उपाश्रय आदि धर्म स्थानक में जाना चाहिये. ऐसा करने से पूर्वभव। यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की का पुण्य लक्ष्मी के दर्शन से अन्य लोगों की नजर में आता है और खुद प्रतीक्षा है. आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिखकर नया पुण्य उपार्जित करता है, हमें भेज सकते हैं. उचित लगने पर उसे प्रकाशित किया जायेगा. मंदिर जाते समय हाथ में फल-फूल अक्षतादि यत्किंचित भी हमेशा | -संपादक For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 श्रुत सागर, कार्तिक 2053 श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र बोरीज, गांधीनगर में प्रस्तावित विश्व मैत्री धाम में भव्य मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन सम्पन्न कोबा, गांधीनगर - 382009 परम पूज्य, शासन प्रभावक, राष्ट्रसंत, महान जैनचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से अपने सभी सहयोगियों, दाताओं, शुभेच्छकों एवं यात्रिओं का आश्विन शुदि 8, रविवार, 20.10.1996 को गांधीनगर स्थित बोरीज में आभारी है. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा की बोरीज शाखा - विश्व मैत्री दाताओं के उदार सहयोग से इस जैन तीर्थ ने सफलता के धाम में वर्तमान श्री महावीरस्वामी के मंदिर के जीर्णोद्धार रूप नवीन कीर्तिमान स्थापित किये हैं. नतन वर्ष में आप सभी का सहयोग मंदिर के निर्माण हेतु भूमि-पूजन सोल्लास सम्पन्न हुआ. इस अवसर पर इसी प्रकार प्राप्त होता रहेगा, ऐसा विश्वास है. यहाँ पर विकास ट्रस्टीगण सहित जैन समाज के अग्रणी तथा महुडी, साबरमती, अहमदाबाद, गांधीनगर आदि कई संघों के प्रमुख उपस्थित थे. जैन की कई योजनाएं एवं कार्यक्रम आपके सहयोग की अपेक्षा रखतें समाज को यह जान कर प्रसन्नता होगी कि प्रस्तावित मंदिर अद्वितीय एवं अनूठा मंदिर होगा. आप अपना बहुमूल्य सहयोग निम्न योजनाओं हेतु प्रदान कर हम वाचकों को याद दिलाते हैं कि इस परिसर में स्थित वर्तमान सकते हैं: मंदिर में भगवान महावीरस्वामी की प्रतिष्ठा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् आचार्य श्रीकैलाससागरसरि ज्ञान मंदिर बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा लगभग 83 वर्ष पूर्व की गई थी. यह प्रतिमा इसी स्थान के भूगर्भ से प्राप्त हुई थी. में विविध जगहों पर तक्ति में नाम हेतु : 1. आचार्य हरिभद्रसूरि कक्ष दीपावली एवं नूतन वर्ष के मंगलमय अवसर पर 2. याकिनी महत्तरा कक्ष हार्दिक शुभाभिनन्दन 3. पेथड शाह मन्त्री खण्ड 4. जगत् शेठ खण्ड 5. ठक्कर फेरु खण्ड सोहनलाल लालचंदजी चौधरी प्रमुख 6. विमल मन्त्री खण्ड हेमन्त सी. ब्रोकर उप प्रमुख 7. वाचक नागार्जुन कक्ष चांदमलजी पी. गोलिया सचिव 8. महाकवि धनपाल खण्ड शांतिलाल मोहनलाल शाह 9. आचार्य स्कंदिल कक्ष उदयनभाई आर. शाह १०.श्रेष्ठी धरणा शाह खण्ड लालचंदजी चोपड़ा ११.श्राविका अनुपमा देवी कक्ष कांतिलालजी धनराजजी कांकरिया " १२.श्रावक ऋषभदास कक्ष तेजराजजी जुगराजजी सालेचा " १३.सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय की प्रयोगशाला १४.स्वागत कक्ष बाबूलालजी जैन ज्ञान मंदिर की विविध प्रवृत्तियों हेतु : श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र ट्रस्ट बोर्ड १५.श्रुतरक्षक ___ कोबा, गांधीनगर 382 009 १६.श्रुत प्रसार सहयोगी फोन : (02712) 76204, 76205, 76252 १७.श्रुत भक्त फेक्स : 02712-76249 १८.हस्तप्रत मंजूषा सहयोगी. Printed Matter - Book Post १९.श्रुत संवर्धन योजना २०.पुस्तक प्रकाशन उपर्युक्त योजनाओं हेतु आप अपने अधिकार क्षेत्र के ज्ञान द्रव्य अथवा व्यक्तिगत कोष में से यथा योग्य सहयोग देकर सुकृतानुभागी बनें. विशेष जानकारी हेतु सम्पर्क सूत्रः श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र Published & Despatched by Secretary, Sri Mahavir Jain Aradhana Kendra कोबा, गांधीनगर 382009 Koba, Gandhinagar - 382009. Ph. 76204,76205,76252 फोन : (02712) 76204, 76205, 76252 Printed at ट्रस्टी For Private and Personal Use Only