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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ एक आचार्य, ६ उपाध्याय, १६० पण्डित तथा शेष मुनि थे. साध्वीजी || पश्चिम भारतीय जैन चित्रकला : तकनीक लगभग ५००० और श्रावक श्राविका लाखों की संख्या में थे. इतना बड़ा धर्म साम्राज्य होने पर भी आपमें गर्व आदि दोष नाम मात्र भी नहीं थे. ललित कुमार "सवी जीव करु शासनरसी" इस भावना से लाखों जीवों को धर्मबोध पश्चिम भारतीय जैन चित्र शैली के चित्रों को बनाने की तकनीक कराने के लिये आपने भारतवर्ष में कितना कठोर-उग्र विहार किया था सरल थी. ग्रंथ लेखन के समय चित्रों के लिये रिक्त स्थान छोड़ दिए वह अन्यान्य ग्रन्थों से हम जान सकते हैं. जाते थे. ग्रंथ लेखन का कार्य पूरा होने पर उसे चित्रकार को दे दिया ___ आचार्यश्री हीरविजयसूरिजी ने अपना अन्त समय नज़दीक जाता था. कितनी बार तो लिखने और चित्र बनाने दोनों कार्य एक ही जानकर श्रद्धालु भक्त श्राद्ध एवं मुनिगण से क्षमायाचना की और कहा व्यक्ति करता था. जब चित्रकारी का कार्य किसी चित्रकार द्वारा होता कि "अब मेरी मृत्यु होनेवाली है परन्तु मुझे इसकी चिन्ता नहीं है था तब प्रति का लेखक पृष्ठ के हाँसिए पर दृश्य अंकन या दृश्य के क्योंकि जातस्य ध्रुवं मृत्यु संसार में सभी जीवों को मृत्यु अवश्यंभावी है. विषय का निर्देश कर देता था. अनपढ़ कलाकार के लिए लेखक दृश्य अतः हे भव्यजीवों ! आप लोग अपने-अपने संयम धर्म की आराधना में के विषय को एक संक्षिप्त रेखांकन द्वारा इंगित कर देता था. जिससे उद्यत बनना. मेरी पाट पर आचार्य सेनसूरिजी मौजूद है, अतः आपको कलाकार को पृष्ठ के रिक्त स्थान पर कौन सा चित्र बनाना है उसका पता चल जाता था. अथवा कलाकार स्वयं अपनी समझ के लिये इन किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है. परमात्मा वीर के शासन की उन्नति संक्षिप्त रेखांकनों को लिपिकार के समक्ष बना लेता था. इस प्रकार करने में कटिबद्ध रहना." इस प्रकार साधु और श्रावकों को अन्तिम चित्र के विषय सूचक संक्षिप्त रेखाचित्र अपने आप में बड़े रोचक लगते उपदेश देकर सबको सावधान करके, पंच परमेष्ठि का शरण करके, हैं. इन्हें प्रायः चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की चित्रित नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करते हुए वि.सं.१६५२ में भाद्रपद शुक्ल कल्पसत्र की पोथियों में देखा जा सकता है. श्रीमहावीर जैन आराधना एकादशी, गुरुवार के दिन भव संबंधि औदारिक शरीर को त्यागकर केन्द्र, कोबा के सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय की एक चित्रित कल्पसूत्रदेवलोक सिधारे. कालकाचार्य कथा के कुछ प्रदर्शित पत्रों में हाँसिए पर इन रेखाचित्रों आपके कालधर्म के समाचार पाते ही पाटण स्थित आचार्य को देखा जा सकता है. सेनसूरिजी, फतहपुर में सम्राट अकबर और पूरे हिन्दुस्तान का श्रीसंघ चित्र बनाने के लिये सबसे पहले कलाकार पीले या लाल रंग से गहरे शोक में डूब गया, हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हो विलाप | तूलिका द्वारा संपूर्ण रेखाचित्र बनाता था. इसी दौरान रेखाओं को सुदृढ करने लगे. ऊना नगर के उद्यान में आपकी देह का अग्निसंस्कार और स्पष्ट करने की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाती थी. वैसे इन किया गया. अकबर ने अपने राज्य में उस दिन शोक मनाया तथा | चित्रकारों को इतना अभ्यास होता था कि वे एक बार में ही स्पष्ट नाच-गान आदि बन्द करवा दिये. अग्निसंस्कार के लिये ८४ बीघा रेखाचित्र बना लेते थे. जमीन श्रीसंघ को भेंट कर अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की. श्रीसंघ ने इस शैली में भूमि या सफेद रंग के आरम्भिक लेप लगाने की कोई परम्परा नहीं थी. परन्तु आरम्भिक काल की चित्रित काष्ठ पट्टिकाओं वहाँ पर गुरु स्तूप बनाया और चरणपादुका की प्रतिष्ठा की. में सफेद रंग की भूमि बनाने की प्रक्रिया देखी जा सकती है. आज भी जिस भूमि पर आचार्यश्री का स्तूप है वहाँ रहा हुआ रेखांकन के बाद रंग भरने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती थी. जिसमें आम्रवृक्ष प्रतिवर्ष भादो सुदि ११ के दिन फल देता है. अन्य भी आबू, एक-एक कर अनेक रंग चित्र में भर दिए जाते थे. सबसे पहले जमीन पाटन, खंभात, अहमदाबाद, सुरत, हैदराबाद, आगरा, महुआ, मालपुर, या पृष्ठभूमि को लाल रंग से भर दिया जाता था. इसके बाद मानव सांगानेर, जयपुर आदि शहरों में हीरविहार (गुरुमंदिर) देखा जाता है. आकृतियों, वास्तु, वृक्ष और पशु-पक्षियों को रंगा जाता था. विशेष में श्रद्धापूर्वक जगद्गुरु की पूजा भक्ति करनेवालों के दुःख मानव आकृतियों में प्रायः पीले रंग का ही प्रयोग किया जाता था. दारिद्रय दूर हो जाते हैं. शेष हेतु लाल एवं पीले रंग के अतिरिक्त नीला, सफेद और काला रंग भी प्रयोग में आता था, पश्चिम भारतीय जैन चित्र शैली में प्रायः शुद्ध ___ अन्त में जगद्गुरु हीरविजयसूरीश्वरजी के विषय में अधिक रंगों का ही प्रयोग किया गया है अर्थात् मिश्रित रंगों का प्रयोग नहीं जानकारी प्राप्त करने के इच्छुकों के मार्गदर्शन हेतु कुछेक प्राचीन, किया जाता था. पंद्रहवीं शताब्दी से सोने के रंग का प्रयोग भी इस अर्वाचीन ग्रंथों की सूची यहां प्रस्तुत है. पाठकगण इससे लाभान्वित । शैली में होने लगा. होंगे इसी मंगलकामना के साथ. इस शैली में प्रयुक्त प्रायः सभी रंग खनिज व रासायनिक ही होते १. हीर सौभाग्य महाकाव्य (संस्कृत, गुजराती) २.हीरसुंदर काव्य थे जिन्हें पीस कर बनाया जाता था. इन रंगों को बबल के गोंद में मिलाकर प्रयोग किया जाता था. ब्रश या तूलिका गिलहरी, ऊंट या ३. हीरप्रश्न (संस्कृत) ४. जगद्गुरु हीर निबंध (हिन्दी) ५. जगद्गुरु बकरी के मुलायम बालों से बनाई जाती थी. सोने के रंग का प्रयोग दो आचार्य हीरसूरीश्वरजी (गुजराती) ६. हीरसूरीश्वरजी की स्तुति प्रकार से होता था, पहली रीति में सोने के वरख को शहद या शक्कर (गुजराती) ७. हीरसूरीश्वर रास (मारू गूर्जर) ८. के पानी के साथ हाथ या एक विशेष प्रकार के खरल (खल) में धूंटा हीरविजयसूरिपादुकाष्टक (संस्कृत) ९. हीरविजयसूरि सज्झाय (मारू जाता था, जिससे उसके बहुत बारीक कण बन जाते थे. सोने के इन गूर्जर) १०. हीरकीर्ति परम्परा (मारु गुर्जर) ११. हीरविजयसूरि अष्टक कणों को पानी से धो कर अलग निथार लिया जाता था. सोने के प्रयोग की दसरी रीति में सोने के वरख का सीधा प्रयोग किया जाता (संस्कृत) १२. मुसलमानी रियासत (गुजराती) १३. सम्राट् और सूरीश्वर था. इसके लिये चित्र के जिस भाग में सोने का रंग चढ़ाना हो उस (हिन्दी) १४. भारतवर्ष (बंगाली) १५. आइन-ए-अकबरी (उर्दू) १६. पर गोंद का एक लेप लगा कर सोने के वरख को सीधा चिपका दिया अकबर (विन्सेंटकृत) (अंग्रेजी) १७. तपागच्छपट्टावली (संस्कृत) १८.. जाता था. गोंद के सूखने पर वरख को ऊंगली से घिस दिया जाता था कोन्फरन्स हेरल्डनो ऐतिहासिक अंक (गुजराती) जिससे अतिरिक्त वरख निकल जाती थी. सोने के रंग से आच्छादित मानव आकृतियों के अंग-प्रत्यंग और वस्त्रों को स्पष्ट [शेष पृष्ठ ६ पर For Private and Personal Use Only
SR No.525255
Book TitleShrutsagar Ank 1996 11 005
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1996
Total Pages10
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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