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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ जैन साहित्य ४ · अभी तक हमनें प्राचीन जैन साहित्य का प्रारम्भिक परिचय किया है. अब ४५ आगमों का क्रमशः परिचय करेंगे. १. आचारांगसूत्र : यह सर्वविदित ही है कि अंगों के क्रम में आचारांग का नाम सर्वप्रथम है. आचारांग के पर्याय नाम इस प्रकार हैं आयार, आचाल, आगाल, आसास, आयरिस, अंग, आइण्ण, आजाति तथा आमोक्ष आदि. समवायांगसूत्र के अनुसार आचारांगसूत्र में निर्ब्रय सम्बन्धी आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योगयोजना, भाषासमिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, आहार- पानी सम्बन्धी उद्गम, उत्पाद एषणा विशुद्धि शुद्धाशुद्ध ग्रहण, व्रत, नियम, तप, उपधान, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार से सम्बद्ध सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है. . www.kobatirth.org - मुख्यतः जैन साधुओं को अपने आचार धर्म का पालन किस प्रकार करना है उससे सम्बन्धित सांगोपांग उत्कृष्ट वर्णन किया गया है. क्योंकि अपेक्षित ज्ञान के बिना विवक्षित वस्तु को स्व पर पर्याय के भेद वाले उसके सभी रूपों में समझना संभव नहीं होता जो साधक एक वस्तु को भी स्व पर पर्याय भेद से यथार्थ जानता है, वह सर्व पदार्थ को जानता है. इस प्रकार यह ज्ञानादिक आसेवन विधि का प्रतिपादन करने वाला प्रथम अंग है. नन्दीसूत्र से ज्ञात होता है कि आचारांग में श्रमण निर्ग्रथों के आचार, गोवर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण करण, यात्रा, मात्रा तथा विविध अभिग्रह विषयक वृत्तियों तथा ज्ञानाचार आदि पांच प्रकार के आचारों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है. प्रथम आचारांग के दो श्रुतस्कंध तथा पच्चीस अध्ययन हैं. श्रुतस्कंध का नाम ब्रह्मचर्य है और इसमें नौ अध्ययन होने के कारण इसे नव ब्रह्मचर्य भी कहा गया है. यहां पर ब्रह्मचर्य शब्द का संयम के व्यापक अर्थ में उपयोग हुआ है. द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम श्रुतस्कंध की चूलिका के रूप में है. इसका अपरनाम आचाराग्र है. वर्तमान मान्यता के अनुसार इसे प्रथम श्रुतस्कंध का परिशिष्ट भी कहा गया है. द्वितीय श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन हैं. नियुक्तिकार व वृत्तिकार इस भाग के विषय में कहते हैं कि स्थविर पुरुषों ने शिष्यों के हित की दृष्टि से आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अप्रकट अर्थ को विभागानुसार स्पष्ट कर चूलिका के रूप में द्वितीय श्रुतस्कंध की रचना की है. नवब्रह्मचर्य (प्रथम श्रुतस्कंध) के अध्ययनों के नाम स्थानांग एवं समवायांगसूत्रों के अनुसार इस प्रकार हैं : १. सत्यपरिण्णा ( शस्त्रपरिज्ञा), २. लोगविजय ( लोकविजय), ३. सीओसणिज्ज ( शीतोष्णीय ) ४ सम्मत्त (सम्यक्त्व), ५. आवन्ति ( यावन्तः ), ६. धूअ (धूल), ७. विमोह (मोक्ष) ८. उवहाणसुअ (उपधानश्रुत) ९. महापरिणा (महापरिज्ञा). आचारांगसूत्र की उपलब्ध वाचना में छठां धूअ सातवां महापरिण्णा आठवां विमोह एवं नवयां उवहाणसुअ ऐसा क्रम है. निर्युक्तिकार आर्यभद्रबाहुस्वामि एवं वृत्तिकार आचार्य शीलांकसूरि ने इसी क्रम को स्वीकार किया है. " शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में ७ उद्देशक (प्रकरण ) हैं. जिसमें पहले उद्देशक में जीव के अस्तित्त्व का विवेचन तथा शेष ६ उद्देशकों में जीव समूह के आरम्भ समारम्भ रूप हिंसा का विशद् वर्णन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ है. इस अध्ययन में शस्त्र शब्द का कई बार प्रयोग किया गया है जो लौकिक शस्त्र की अपेक्षा से भिन्न जीवहिंसा के साधन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. इस प्रकार अलग ही अर्थ के अभिधेय का स्पष्ट परिज्ञान कराया गया है. इसलिये शब्दार्थ की दृष्टि से इस अध्ययन का नाम शस्त्रपरिज्ञा सार्थक प्रतीत होता है. लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन में छः प्रकरण हैं. विजय का अर्थ लोक पर विजय प्राप्त करना अर्थात् संसार के मूल कारण क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार कषायों को जीतना है. यही इस अध्ययन का सार कहा जा सकता है. इसका मुख्य उद्देश्य वैराग्य में वृद्धि, संयम में दृढ़ता, जातिगत अभिमान को दूर करना, भोगों में विरक्ति, आरम्भ समारम्भ का त्याग करवाना तथा ममता छुड़वाना है. शीतोष्णीय नामक तीसरे अध्ययन में चार उद्देशक हैं. इसमें शीत (सुख) एवं ताप (दुःख) आदि परिषह सहन करके कषाय-त्याग का उपदेश दिया गया है. पहले उद्देशक में असंयमी व्यक्ति को सोये हुए की कोटी में रखा गया है. दूसरे उद्देशक में बताया गया है कि ऐसा व्यक्ति असंख्य दुःख का अनुभव करता है. साधु-साध्वी के लिये देह दमन के साथ ही चित्त शुद्धि की वृद्धि करते रहने के लिये तीसरे उदेशक में निर्देश दिया गया है. चतुर्थ उद्देशक में कषाय त्याग, पाप कर्म त्याग एवं संयमोत्कर्ष हेतु प्रेरित किया गया है. चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है तथा इसमें भी चार उद्देशक हैं. प्रथम उद्देशक में अहिंसा धर्म की स्थापना तथा सम्यक्त्व सन्मार्ग में दृढ़तापूर्वक प्रवर्तन की चर्चा है दूसरे उद्देशक में हिंसकों को अनार्य बता कर उनसे पूछा गया है कि उन्हें मन की अनुकूलता सुखरूप प्रतीत होती है कि मन की प्रतिकूलता ? तृतीय उद्देशक में चित्त की शुद्धि का पोषण करने वाले अक्रोध, अलोभ, क्षमा, संतोष आदि गुणों की वृद्धि हो ऐसे तप करने का उपदेश दिया गया है. चतुर्थ उद्देशक में सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तप की प्राप्ति के लिये प्रयास करने का उपदेश है. आवन्ति नामक पांचवें अध्ययन में साधु-साध्वीजी भगवंतो के लिए आचार पद्धति ( श्रमणचर्या) का वर्णन है तथा अन्त में शब्दातीत एवं बुद्धि तथा तर्क से अगम्य आत्मतत्त्व का विवेचन है. धूत नामक छठें अध्ययन में धूत शब्द का अर्थ प्रचलित अवधूत शब्द जैसा ही है. इसमें पांच उद्देशक हैं. इसमें तृष्णा का समूल नाश कर देने के लिये कहा गया है. महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन अनुपलब्ध है किन्तु इसकी निर्युक्ति मिलती है. इसकी अन्तिम गाथा में बताया गया है कि साधक को देवांगना, नरांगना तथा तिर्यञ्च इन तीनों का मन, वचन व काया से त्याग करना चाहिये. इस त्याग का नाम महापरिज्ञा है. विमोक्ख या विमोक्ष नामक आठवें अध्ययन के आठ उद्देशक हैं. प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि जिन अनगारों का आचार शास्त्रोक्त आचार से न मिलता हो उनके संसर्ग से दूर रहना चाहिये. दूसरे उद्देशक में कहते हैं कि आहार, पानी, वस्त्र आदि दूषित (आगम मर्यादा से विपरीत) हों तो मोह न कर उनका त्याग कर देना चाहिये. बाद के उद्देशकों में विमोक्ष अथवा कर्म से मुक्ति और स्वरूप प्राप्ति के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है. इस अध्ययन का सारांश यह है कि कभी ऐसी परिस्थिति आ जाय कि संयम की रक्षा न हो सके अथवा स्त्री आदि के अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग होने पर संयम भंग की स्थिति आ जाय तब विवेकपूर्वक जीवन का त्याग कर देना चाहिये. [शेष पृष्ठ ६ पर For Private and Personal Use Only
SR No.525255
Book TitleShrutsagar Ank 1996 11 005
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1996
Total Pages10
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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