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श्रुत सागर, कार्तिक २०५३
| सम्पादकीय
| श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा मान्यवर श्रुत भक्त, नूतन वर्षाभिनन्दन !
श्री शान्तिलाल मोहनलाल शाह : संस्था को मिला आत्मीय स्पर्श श्रुतसागर का यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष श्रीमान् शान्तिलाल मोहनलाल शाह का जन्म २० सिप्तंबर १९२० हो रहा है क्योंकि परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी को दहेगाम में एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ है. जब वे महाराज साहब की प्रेरणा से इस पत्रिका के प्रकाशन को एक वर्ष
चार वर्ष के थे तब उनकी माता दिवंगत हो गई. श्री शान्तिभाई ने पूरा हो रहा है. इसके प्रकाशन में आप सभी के उदार सहयोग तथा
मैट्रिक तक की शिक्षा अहमदाबाद में ग्रहण की तथा मात्र १८ वर्ष की मन्तव्यों के लिए हम आभारी हैं.
अवस्था में सौ. माणेकबेन के साथ विवाह किया. लगभग २५ वर्षों तक इस बार 'इतिहास के झरोखे से' आपको सम्राट अकबर
टेक्सटाइल मिल में सेवा करने के बाद आपने व्यापार में प्रवेश किया. प्रतिबोधक आचार्य श्री हीरसूरि महाराज के जीवन चरित्र का दर्शन करा रहे हैं. 'जैन साहित्य' मे आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध का
प्रारम्भ में श्रीशान्तिभाई को धर्म में सामान्य रूचि थी. उनकी आपको परिचय मिलेगा.
धर्मपत्नी बहुत ही धर्मनिष्ठ श्राविका हैं. सन् १९६५ में उन्होंने परम राष्ट्रसंत की निश्रा में हो रही महान शासन प्रभावना के समाचार
पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्रीकैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा आपको मन्त्रमुग्ध करेंगे.
में ओळी की थी तब श्री शान्तिभाई को धर्म में अभूतपूर्व जिज्ञासा और 'पश्चिम भारतीय जैन चित्रकला' लेख में आपको गुजरात, रूचि उत्पन्न हुई. आचार्यश्री के सम्पर्क ने उनके जीवन में परिवर्तन राजस्थान में प्राचीन जैन चित्र शैली के निर्माण की प्रक्रिया से परिचय कर दिया. धीरे-धीरे वे कई यम-नियम धारण कर श्रावक भी बनें. होगा.
आपने परिग्रह का परिमाण भी निश्चित किया. श्री शान्तिभाई को दीक्षा श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र के जन्म, विकास एवं प्रगति में लेने की भी इच्छा थी किन्तु किन्हीं सांसारिक कारणों से सब कुछ तय कई मूर्धन्य महानुभावों का तन-मन-धन से सहयोग प्राप्त हुआ है, उन हो जाने के बाद भी यह संभव नहीं हो सका. परम पूज्य गुरु महाराज सभी का केन्द्र आभारी है. समाज से इन हस्तियों का परिचय कराने ने आपको प्रेरित कर कई धार्मिक कार्य सम्पन्न करवाए. सन् १९८० में के लिए हम यथासंभव अपने इन सहयोगियों का परिचय इस अंक से
जब श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा ट्रस्ट की स्थापना हुई तब करा रहे हैं.
उन्हें इसका प्रमुख बनाया गया. लगभग १२ वर्षों तक प्रमुख के रूप में आशा है आपको यह अंक भी पसंद आएगा. अपने सुझाव
आपने गुरु भगवंत के निर्देशानुसार इस केन्द्र को विकसित करने के लिखना न भूलें.
लिए अपना जीतोड़ प्रयास किया है. १९८० में कोई यह सोच भी नहीं पृष्ठ ५ का शेष] जैन साहित्य
सकता था कि कोबा में जैन धर्म का इतना बड़ा डंका बजेगा कि ___ उपधानश्रुत नामक नौवें अध्ययन में उपरोक्त आठों अध्ययनों में भारत ही नहीं विश्व के नक्शे पर कोबा का स्थान अंकित होगा. कथित आचारादि भगवान महावीर ने स्वयं आचरे हैं उसका तथा लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या वाली कहावत आचार्य श्री उनकी धीर-गंभीर, घोर तपश्चर्या का उल्लेख है. उपधान शब्द तप का कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में अपनी गजब की सूझ पर्यायवाची है. इसमें चार उद्देशक हैं. पहले उद्देशक में भगवान महावीर एवं दक्षता से आपने सिद्ध कर दी. मन्दिर की जगती मात्र ही बनी थी को दीक्षा लेने के बाद जो कुछ उपसर्ग सहन करने पड़े उसका वर्णन कि आचार्य श्रीकैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. काल धर्म को प्राप्त हुए. है. दूसरे और तीसरे उद्देशकों में उन्होंने कैसे-कैसे कष्ट (परिषह) तत्पश्चात् गुरु भगवंत के सुयोग्य प्रशिष्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री सहन किये उसका प्रभावपूर्ण वर्णन है. चतुर्थ उद्देशक में उन्होंने किस पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने अपने दादा गुरु के स्वप्न को पूरा प्रकार तपश्चर्या की उसका उल्लेख है. पूर्व अध्ययनों में जिस प्रकार करने का अथक प्रयास किया तथा उनके निर्देशानुसार श्री शान्तिभाई की चर्या का उल्लेख है उसी चर्या के आचरण का इस अध्ययन में ने अपने सहयोगी ट्रस्टियों सर्वश्री हेमन्तभाई सी. ब्रोकर, सोहनलालजी उल्लेख है. इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए इस अध्ययन का नाम लालचंदजी चौधरी आदि के सहयोग से श्री महावीरालय, आचार्य श्री आचारांग रखा गया मालूम होता है.
कैलाससागरसूरि स्मारक मंदिर, उपाश्रय (आराधना भवन), आचार्य श्री आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के ९ अध्ययनों के कुल ५१ उद्देशक हैं। कैलाससागरसूरि ज्ञान मन्दिर तथा मुमुक्षु कुटीर को अपने वर्तमान किन्तु सातवें अध्ययन के ७ उद्देशकों के आधुनिक काल में दुर्लभ होने स्वरूप में जैन समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है. के कारण अभी मात्र ४४ उद्देशक उपलब्ध हैं.
इतने बड़े विशाल कार्य को सम्पन्न करना कोई मामूली बात नहीं अगले अंक में आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध की चर्चा की जाएगी.
हैं. श्री शान्तिभाई लगभग १८ वर्षों से जब श्री महावीर जैन आराधना क्रमशः] |
केन्द्र की स्थापना हुई तब से अभी तक अपना ज्यादातर समय इसकी पृष्ठ ४ का शेष] पश्चिम भारतीय जैन....
सेवा में दे रहे हैं. अपनी कर्मठ तथा उद्यमी प्रवृत्तियों के बावजूद श्री करने के लिये आलते (अलक्तक) का प्रयोग किया जाता था, जो |
शान्तिभाई सीधे एवं सरल तथा मृदु स्वभाव के धनी हैं. अपने जीवन में पीपल के गोंद से बनता था.
वे प.पू. गच्छाधिपति आचार्यश्री कैलाससागरसूरि महाराज को तारक चित्र में रंग भर जाने के बाद काले रंग से आकृतियों की रेखाओं
गुरु मानते हैं तथा उनके उपकार को बहुत बड़ा आशीर्वाद मानते हैं. को स्पष्ट कर चित्र पूरा किया जाता था. चौदहवीं शती में ये रेखाएं
श्री शान्तिभाई का पूरा परिवार राष्ट्रसंत आचार्य श्री बहुत बारीक और सशक्त हैं परन्तु पंद्रहवीं शती के उत्तरार्द्ध के बाद ये पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का भक्त है. श्रुतसागर की ओर से श्रद्धेय रेखाएं मोटी और कमजोर सी हो गईं.
शान्ति काका के स्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की मंगल कामना... .
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