SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, कार्तिक २०५३ शास्त्रों के निष्णात हुए. कोई शास्त्र ऐसा नहीं रहा जिसका हीरहर्ष तथा अबुलफजल, थानसिंह, अमीपाल आदि विद्वानों को आपकी सेवा मुनि ने अध्ययन न किया हो. आचार्यश्री दानसूरिजी ने उनकी प्रकाण्ड में नियुक्त किया. सम्राट् और आचार्य के बीच राज दरबार में भेंट हुई . विद्वत्ता को देखकर अपने उत्तराधिकारी के पद पर नियुक्त करना और कई दिनों तक नियमित रूप से धर्मदर्शन संबंधित अनेक विध चाहा. अब आपने एक बार सूरिमन्त्र की आराधना कर अधिष्ठायक देव संगोष्ठियां की. धर्म के विषय में प्रश्नोत्तर हुए एवं आचार्यश्री के विद्वत्ता को प्रसन्न किया. अधिष्ठायक देव ने भी हीरहर्ष मुनिवर को योग्य भरे जवाबों से एवं साधु आचारों से सम्राट् काफी प्रभावित हुआ. इतने घोषित किया. तब आचार्यश्री ने सिरोही नगर में वि.सं.१६१० में दूर देश से आचार्यश्री को बुलाकर अपनी जिज्ञासा परितृप्त कर मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी के शुभ दिन मुनि हीरवर्ष को आचार्यपद से श्रद्धावनत हो धन्यवाद दिया तथा अपने लिये कुछ माँगने का आग्रह अलंकृत किया. इस अवसर पर राणकपुर तीर्थ के निर्माता धरणाशाह किया. तब निस्पृह साध्वाचार का परिचय देकर सूरिजी ने उसे और के वंशज चांगा संघपति ने बड़ा महोत्सव करके शासन प्रभावना की. प्रभावित किया. अन्त में जब अत्यंत आग्रह किया कि कुछ तो लेना ही कहते हैं उस महोत्सव में सुवर्ण मुहरों की प्रभावना की गई थी. होगा तब सूरिसम्राट ने सिर्फ इतना ही माँगा कि पर्युषण पर्व में हमारी आचार्य पदवी के बाद आपका नाम हीरविजयसूरि रखा गया. अब आप साधना में सहायक अहिंसा का पालन पूरे राज्य में प्रवर्तमान करें. इस तपागच्छ की पाट परम्परा के उत्तराधिकारी बने. वि.सं.१६२१ में आपके पर सम्राट ने बड़ी खुशी के साथ पर्युषणा के आठ दिन और अपनी गुरु श्री दानसूरिजी म.सा. का वटपल्ली (वडाली) नगर में समाधिपूर्वक ओर से चार दिन मिलाकर १२ दिन तक पूरे राज्य में अहिंसा का कड़ा कालधर्म हो गया. आपको उस वेला में बड़ा हृदयशोक हुआ. तब पालन होगा ऐसा वचन दिया तथा ५ फरमान तैयार कर गुजरात, इष्टदेव ने आकर आपको आश्वस्त किया. गुरुभक्ति निमित्त वहाँ पर मालवा, अजमेर, दिल्ली, फतहपुर, लाहौर और मुल्तान आदि प्रान्तों में चरणपादुका युक्त गुरुमंदिर बनबाया गया. तदनन्तर आप पं.जयविमल भेजे गये. आदि मुनिवरों सहित ग्राम-नगर वन-उपवन विहार करते हुए भव्य अकबर को इतने से संतोष नहीं हुआ क्योंकि यह सब तो जीवों को उपदेश देते हुए गान्धार नगर पधारे. श्रीसंघ में आपके परोपकार के लिये था. अतः व्यक्तिगत कुछ ग्रहण करने के लिए बाध्य पदार्पण से धर्म भावना नवपल्लवित होने लगी. किया. अन्त में सम्राट ने पद्मसुंदरयति का ज्ञान भण्डार जो वर्षों से इस ओर फतहपुरसिकरी में सम्राट अकबर अपने झरोखे में | खुद ने सम्भाल रखा था उसे समर्पित किया. वह भण्डार सूरिजी ने बैठा-बैठा नगर शोभा निहार रहा था. इतने में उसने देखा कि एक स्त्री आगरा में श्रीसंघ को अर्पित किया. सूरिजी के तप-त्याग और विद्वत्ता को पालकी में बिठाकर जुलूस जा रहा था. "आचार्य हीरविजयसूरि की से सम्राट् के हृदय में परिवर्तन आया. उसने अपने जीवन से हिंसा को जय" इस प्रकार की ध्वनि गगनमण्डल में प्रसरित हो रही थी. पूछने अलग कर दिया तथा परस्त्रीगमनादि त्याग का नियम ग्रहण किया. पर सेवकों से पता चला कि थानसिंह नामक एक श्रावक की चम्पाबाई इतना ही नहीं बाद में समस्त राज्य में ६ महीने तक अमारि का प्रवर्तन श्राविका ने छ:मासी तप किया है तथा यह भी जाना कि जैन उपवास कराया. इसके लिये कुछेक मुसलमानों ने सम्राट् की निंदा भी की, में दिन रहते सिर्फ उबाला हुआ पानी के सिवाय कुछ नहीं लिया लेकिन सम्राट ने उसके लिये जरा भी परवाह नहीं की. जाता. अकबर को आश्चर्य हुआ. तुरन्त फरमान देकर पालकी आचार्य हीरसूरि म.सा. की प्रेरणा पाकर एक मुसलमान शहनशाह राजमहल में बुलाई और चम्पाबहन से वार्तालाप किया. विश्वास न होने के जीवन में जो परिवर्तन आया और समस्त हिन्दुस्तान में उसकी जो पर शेष एक महीने तक अपनी व्यवस्था में तप की परीक्षा की. जब असर हुई वह तो अवर्णनीय है. इस घटना को इतिहास के पन्नों पर सत्यता प्रतीत हुई तब सम्राट् के हृदय में कोमलता पैदा हुई. उसने विस्तार से लिखा गया. हिन्दु, मुस्लिम, जैन एवं पाश्चात्य विद्वानों ने पूछा कि "यह तप तुम किसके प्रभाव से कर रही हो ?" जबाब मिला अपने-अपने ग्रंथों में इसका गौरव युक्त उल्लेख किया है. गुरुदेव आचार्यश्री हीरविजयसूरि के आशीर्वाद से. सम्राट को जिज्ञासा अन्त में सम्राट अकबर ने सूरिजी को जगद्गुरु की उपाधि से हुई कि इसके गुरु में ऐसी कौन सी दिव्य शक्ति होगी कि जिसके नवाजा. सूरिसम्राट ने समाज कल्याण के लिये जजिया कर बन्द प्रभाव से यह इतनी महान तपस्या कर रही है. अन्ततः सम्राट ने अपने कराया एवं आर्य संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिये पालिताना, आबु, अमलदारों को बुलाया और हीरविजयसूरिजी के बारे में पूछताछ की. गिरनार, राजगृही के पाँच पहाड़ तथा सम्मेतशिखर आदि तीर्थों को उस समय थानसिंह ने बताया कि हमारे गुरुवर इन दिनों गुर्जरदेशवर्ती श्रीसंघ के स्वाधीन करवाये. बाद में धर्मोपदेश हेतु सम्राट् के कहने से गान्धार नगर में विराजमान हैं. अकबर ने तुरन्त मोदी और कमाल को उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी को वहीं छोडकर आप आगरा, मथुरा आदि बुलाकर अहमदावाद के सुबेदार शाहबुद्दिन पर फरमान जारी किया. जैन स्तुपों की यात्रा करते हुए गोपगिरि पधारे. सं.१६४१ का चातुर्मास उसमें इस बात का आग्रह किया था कि "आचार्यश्री को किसी प्रकार इलाहाबाद और सं. १६४२ का आगरा में व्यतीत कर शेष काल की असुविधा न हो उसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय". गुजरात में बिताने के लिए पालिताणा, गिरनार की ओर विहार कर श्रीसंघ को जब इस वृत्तान्त का पता चला तो पहले कुछ । उन्नतपुरी (ऊना) पधारे. तर्क-वितर्क हुआ. बाद में आचार्यश्री ने संघ को कहा कि "भविष्य में आपने न सिर्फ अकबर को ही प्रतिबोधित किया था बल्कि शासन की प्रभावना होने वाली है" इसलिए हमारा जाना ठीक ही अन्यान्य सुबेदारों और राजा महाराजाओं पर भी ऐसा ही प्रभाव डाला होगा. श्रीसंघ ने आचार्यश्री को जाने देने का सर्वसम्मति से निश्चय था. खानखाना, महाराव सुरताण, सुल्तान हबीबुल्लाह, आजमखाँ, किया. गांधार से आपने फतहपुर की ओर प्रस्थान किया. सुल्तान मुराद आदि को भी प्रतिबोध देकर धर्मप्रेमी बनाया. आचार्यश्री अहमदावाद-पाटन-सिद्धपुर-सिरोही व चित्तौड़ होते हुए आप का निजी जीवन भी कठोर तप साधना से परिप्लावित था. आपने २२५ वि.सं.-१६३९ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन फतहपुर सिकरी पधारे. अट्टम, १८० छठ्ठ, ३६०० उपवास, २००० आयम्बिल २००० निवी, आपके साथ उस समय विमलहर्ष गणि, सिंहविमल गणि, पं. हेमविजय वीश स्थानक तप २० बार, ग्यारह महीने का प्रतिमातप, सूरिमन्त्र गणि, पं. लाभविजय गणि, पं. धनविजय गणि, शान्तिचंद्र उपाध्याय आराधना तप, गुरुदेव के समाधिमरण निमित्त एकासन १३ मास तक आदि १३ मुनिवर थे. किये. चार करोड़ सज्झाय, नित्य जप आदि ज्ञान-ध्यान आदि प्रवृत्तियों अकबर ने आपके आगमन पर शाही जलूस के साथ स्वागत किया । में रात दिन अप्रमत्त रहते थे. आपकी आज्ञा में २५०० साधु थे. जिसमें For Private and Personal Use Only
SR No.525255
Book TitleShrutsagar Ank 1996 11 005
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1996
Total Pages10
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy