Book Title: Mahavir Vani Lecture 43 Kaun hai Pujya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? सोलहवां प्रवचन 313 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य-सूत्र आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं / जहोवइ8 अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो / / अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं / अलद्धयं नो परिदेवएज्जा, लद्धं न विकत्थई स पुज्जो / / संथारसेज्जासणभत्तपाणे अपिच्छाया अइलाभे वि सन्ते / जो एवमप्पाणऽभितोसएज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो / / गुणेहि साहू अगुणेहि साहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंच साहू। वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पूज्जो / / जो आचार-प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनों को सुनता है एवं स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अवज्ञा नहीं करता, वही पूज्य है। जो केवल संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए अपरिचित भाव से दोष-रहित उन्छ-वृत्ति से भिक्षा के लिए भ्रमण करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता है, वही पूज्य है। जो संस्तारक, शय्या, आसन और भोजन-पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, संतोष की प्रधानता में रत होकर अपने आपको सदा संतुष्ट बनाये रखता है, वही पूज्य है। गुणों से ही मनुष्य साधु होता है और अगुणों से असाधु / अतः हे मुमुक्षु! सदगुणों को ग्रहण कर और दुर्गुणों को छोड़ / जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य है। 314 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AL मने सुना है, एक अंधेरी रात में भयंकर आंधी-तूफान उठा, साथ में भूकंप के धक्के भी आये / मुल्ला नसरुद्दीन का पूरा मकान गिर गया। कुछ बचा भी नहीं, सब नष्ट हो गया। नसरुद्दीन, लेकिन बिना चोट खाये बाहर भागकर आ गया / घबड़ा तो बहुत गया, हाथ-पैर उसके कांपते थे, लेकिन हाथ में एक शराब की बोतल बचाये हुए बाहर आ गया। जो बचाने योग्य उसे लगा, उस गिरते हुए, टूटते घर में, वह शराब की बोतल थी! बाहर आकर बैठ गया; आंख से आंसू बहने लगे। सब जीवन की कमाई नष्ट हो गयी। पड़ोस के लोग आ गये। पड़ोस के ही एक चिकित्सक ने आकर नसरुद्दीन को कहा कि थोड़ी-सी ये शराब ले लो तो थोड़ी स्नायुओं को ताकत मिले। तुम बहत घबड़ा गये हो, थोड़े आश्वस्त हो सकते हो। नसरुद्दीन ने कहा, 'नथिंग डूइंग, दैट आई एम सेविंग फार सम इमरजेन्सी! यह जो शराब की बोलत है, किसी दुर्घटना के लिए है; इसे किसी आपत्कालीन, संकटकालीन स्थिति के लिए बचा रहा हं!' जीवन में आप भी जीवन की निधि को किसलिए बचा रहे हैं ? जीवन की ऊर्जा को किसलिए बचा रहे हैं ? कल पर टाल रहे हैं, परसों पर टाल रहे हैं, और दुर्घटना अभी घट रही है। प्रतिपल जीवन मृत्यु में फंसा है, और जिसे आप जीवन कहते हैं, वह सिवाय मरने के और कुछ भी नहीं है। नीत्से ने कहा है कि जीवन अपना अतिक्रमण कर सके, सेल्फ ट्रान्सेन्डेन्स, तो ही जीवन है / जो जीवन अपने ही भीतर घूम-घूमकर नष्ट हो जाये, वह जीवन नहीं है / जब मनुष्य स्वयं को पार करता है, जिन क्षणों में पार होता है, उन्हीं क्षणों में जीवन की वास्तविक परम अनुभूति उपलब्ध होती है। जब आप अपने से ऊपर उठते हैं, तभी आप परमात्मा के निकट सरकते हैं। जितना ही कोई व्यक्ति स्वयं के पार जाने लगता है, उतना ही प्रभु के निकट पहुंचने लगता है। लेकिन आप जीवन की ऊर्जा का क्या उपयोग कर रहे हैं ? किस संकट के लिये बचा रहे हैं? संकट अभी है-इसी क्षण / और जिसे आप जीवन कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है, उसे कैसे जीवन कह पाते हैं---सिवाय दुख, और पीड़ा और संताप के वहां कुछ भी नहीं है—न कोई आनंद का संगीत है; न कोई अस्तित्व की सुगंध है; न कोई शांति का अनुभव है-न किसी समाधि के फूल खिलते हैं, और न किसी परमात्मा का साक्षात्कार होता है। क्षुद्र में व्यतीत होता जीवन...उसे जीवन कहना ही शायद उचित नहीं। प्रथम महायुद्ध के पहले जब एडोल्फ हिटलर दुनिया की सारी ताकतों का मनोबल तोड़ने में लगा था, युद्ध के पहले उनका संकल्प 315 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 तोड़ने में लगा था, तब इंग्लैंड का एक बड़ा राजनीतिज्ञ उससे मिलने गया—एक बड़ा कूटनीतिज्ञ / सातवीं मंजिल पर हिटलर अपने आफिस में बैठकर उससे बात कर रहा था। और हिटलर ने उससे कहा कि 'ध्यान रखो, जाकर अपने मुल्क में कह देना कि जर्मनी से उलझने में लाभ नहीं है। मेरे पास ऐसे सैनिक हैं. जो मेरे इशारे पर जीवन को ऐसे फेंकदे सकते हैं. जैसे कोई हाथ से कचरे को फें __ तीन सैनिक द्वार पर खड़े थे। इतना कहकर एडोल्फ हिटलर ने पहले सैनिक से कहा कि खिड़की से कूद जा! वह पहला सैनिक दौड़ा। अंग्रेज कूटनीतिज्ञ तो समझ ही नहीं पाया, वह खिड़की से छलांग लगा गया। उसने यह भी नहीं पूछा, 'क्यों ?' अंग्रेज राजनीतिज्ञ की छाती कांपने लगी। वह बहुत परेशान हो गया; उसे पसीना आ गया। और हिटलर ने कहा, 'शायद इतने से तुझे भरोसा न हो'-दूसरे सैनिक को कहा, 'खिड़की से कूद जा !' दूसरा सैनिक भी खिड़की से कूद गया ! हिटलर ने कहा कि 'शायद अभी भी भरोसा नहीं आया।' और तीसरे सैनिक से कहा, 'तू भी खिड़की से कूद जा!' तब तक अंग्रेज राजनीतिज्ञ ने हिम्मत जुटा ली। वह भागा खिड़की से कूदते सैनिक को बांह पकड़कर रोका और कहा, 'पागल हो गये हो? जीवन को ऐसे खोने की क्या आतुरता है?' उस सैनिक ने कहा 'यू काल दिस लाइफ? इसे तुम जीवन कहते हो?' / जिसे हम जीवन कहते हैं, वह भी जीवन नहीं है। लेकिन हम उसे ही जानते हैं, उसके अतिरिक्त जीवन का हमें कोई अनुभव नहीं है। अगर हमें थोड़ी-सी भी प्रतीति हो जाये वास्तविक जीवन की, तो इस जीवन को हम भी वैसे ही छोड़ने को राजी हो जायेंगे जैसे एडोल्फ हिटलर का सैनिक उसके नीचे हिटलर की ज्यादतियों से परेशान होकर जीवन को छोड़ने को उत्सुक है, आतुर है। लेकिन हमें किसी और जीवन का अनुभव न हो तो बड़ी कठिनाई है। जो है, उसे ही हम सब कुछ मानकर जी लेते हैं। क्षुद्र सब कुछ मालूम होता रहता है, क्योंकि विराट का कोई स्वाद नहीं मिलता। और हमने इस ढंग की व्यवस्था कर ली है कि विराट का स्वाद मिल भी नहीं सकता / हमने कोई जगह . भी नहीं छोड़ी कि विराट हम में उतर सके। __महावीर का यह सूत्र कहता है, कौन पूज्य है। पूज्य वही है जो विराट को उतरने की अपने में जगह दे / क्षुद्र वही है, अपूज्य वही है, जो सब तरफ से अपने को बंद कर ले और अपनी क्षुद्रता में ही डूब मरे, लेकिन हम तो पूजते भी उन्हीं को हैं, जो अपनी क्षुद्रता को ही जीवन का शिखर बना लेते हैं। हम पूजते ही उनको हैं, जो अपने अहंकार को गौरीशंकर बना लेते हैं। पूजते हैं हम राजनीतिज्ञों को; पूजते हैं हम शक्तिशालियों को; पूजते हैं हम अभिनेताओं को, हमारे मन में पूज्य की धारणा भी बड़ी अजीब है। जहां पूज्य जैसा कुछ भी नहीं, जहां विराट का कोई संस्पर्श नहीं हुआ है जीवन में, जहां अंधेरे हृदय में कोई प्रकाश की किरण नहीं उतरी है-वहां हमारी पूजा ____समझ लेना जरूरी है कि हम क्या-क्यों इस तरह के लोगों को पूजते हैं, जहां पूज्य कुछ भी नहीं है। शायद आप खयाल भी न किये होंगे। आप वही पूजते हैं, जो आप होना चाहते हैं। पूज्य आपका भविष्य है। अगर आप अभिनेता को पूजते हैं, और उसके आसपास भीड़ इकट्ठी हो जाती है पागलों की, तो उसका अर्थ है कि वे सब पागल हैं, जीवन का एक लक्ष्य मन में लिए हुए हैं कि वे भी अभिनेता हो सकते हैं, नहीं हो पाये, हो जायें किसी दिन, उसी आशा से जी रहे हैं। ___ आप जिसे पूजते हैं, उससे खबर देते हैं कि आपके जीवन का आदर्श क्या है? अगर राजनीतिज्ञों के आसपास भीड़ इकट्ठी होती है, तो उसका अर्थ है कि आप भी शक्ति, पद, यश को पूजते हैं। और जिसे आप पूजते हैं, वह आपकी महत्वाकांक्षा की खबर है। आप जहां दिखायी पड़ते हैं, वहां अकारण दिखायी नहीं पड़ते। जिन चरणों में आपके सिर झुकते हैं, अकारण नहीं झुकते। आप उन्हें में सिर झुकाते हैं, जो आपके भविष्य की प्रतिमा हैं, जो आप चाहते हैं कि हो जायें। तो महावीर पूज्य-सूत्र में कुछ सूत्र दे रहे हैं कि 'कौन पूज्य है?' 316 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? मैंने सुना है कि एक इजरायली तेल-अबीव के एक बड़े अस्पताल में गया, उसका मस्तिष्क जीर्ण-जर्जर हो गया था, और उसने चिकित्सकों से कहा कि मैं चाहता हूं कि किसी और का मस्तिष्क ट्रांसप्लांट कर दिया जाये। यह भविष्य की कथा है। जैसे आज खून के बैंक हैं, ऐसे मस्तिष्क के बैंक भी भविष्य में हो जायेंगे। उस इजरायली ने कहा कि मेरे चिकित्सक कहते हैं कि मेरा मस्तिष्क अब ज्यादा दिन काम नहीं दे सकता, इसे हटा दिया जाये, रिप्लेस कर दिया जाये। तो मैं पता लगाने आया हूं कि बैंक में कितने प्रकार के मस्तिष्क उपलब्ध हैं। तो चिकित्सक उसे ले गया। उसने एक पहला मस्तिष्क दिखलाया और कहा, 'इसके पांच हजार रुपये होंगे। यह एक साठ वर्ष के गणितज्ञ का मस्तिष्क है और साठ वर्ष के बूढ़े आदमी का मस्तिष्क है, इसलिए दाम थोड़े कम हैं।' पर उस इजरायली ने कहा कि साठ वर्ष! मेरी उम्र से बहुत ज्यादा हो गया। इतना बूढ़ा मस्तिष्क नहीं, कुछ थोड़ा जवान... तो दिखाया कि यह एक स्कूल शिक्षकका मस्तिष्क है, यह आदमी तीस साल में मर गया, तो उस इजरायली ने कहा, 'स्कूल शिक्षक की हैसियत मुझसे बड़ी नीची है, जरा मेरे योग्य !' तो उसने एक धनपति का मस्तिष्क दिखाया कि इसकी कीमत पंद्रह हजार रुपये है। यह आदमी पचास साल में मरा। और तभी इजरायली की नजर गई एक खास कांच के बर्तन में, जिस पर एक बल्ब जल रहा है। इस बर्तन में जो मस्तिष्क रखा है, वह किसका है?' तो उस डाक्टर ने कहा, 'वह जरा महंगी चीज है। उसके दाम हैं पांच लाख रुपये। क्या वह आपकी हैसियत में पड़ेगा?' उस इजरायली ने कहा कि मैं इसके संबंध में ज्यादा जानना चाहूंगा / इतने दाम की क्या बात है ? पांच लाख रुपये! तो उस डाक्टर ने कहा कि यह एक राजनीतिज्ञ का मस्तिष्क है, एक पालिटीशियन का। तो भी इजरायली ने कहा कि इतनी कीमत की क्या जरूरत है ? तो उस डाक्टर ने कहा, 'अब आप नहीं मानते तो मैं बताये देता हूं, इट हैज बीन नेवर युज्ड-इसका कभी उपयोग नहीं किया गया है !' राजनीतिज्ञ को मस्तिष्क का उपयोग करने की जरूरत भी नहीं है। मस्तिष्क जितना कम हो उतनी संभावना सफलता की ज्यादा है। लेकिन बुद्धिहीनता को हम आदर देते हैं, अगर बुद्धिहीनता अहंकार के शिखर पर चढ़ जाये। मूढ़ता आदृत है-हम भी मूढ़ हैं इसलिए, और हम भी वही चाहते हैं इसलिए। आप जिसे पूजते हैं, उस पर विचार कर लेना। आपकी पूजा आपका मनोविश्लेषण है। किसे आप पूजते हैं ? कौन है आपका आदृत? तो आपकी जीवन-दिशा कहां जा रही है, उसका पता चलता है। अगर आप सफल हो जायें तो आप वही हो जायेंगे। अगर असफल हो जायें तो बात अलग है, लेकिन असफल भी आप उसी मार्ग पर होंगे। __ अपने हृदय के कोने में इसकी जांच-पड़ताल कर लेनी जरूरी है कि कौन है मेरा पूज्य? और किस कारण मैं पूजता हूं? जो पूज्य है, उसका सवाल नहीं है, इससे आप अपने को समझने में समर्थ हो पायेंगे। यह आत्मविश्लेषण होगा। और अगर आप अपने को बदलते हैं तो आपकी पजा का भाव भी बदलता जायेगा. पजा के पात्र भी बदलते जायेंगे। पीछे लौटें / आज जैसा अभिनेता पूज्य है, वैसा कभी संन्यासी पूज्य था, क्योंकि लोग संन्यास को जीवन का परम मूल्य समझते थे। आज अभिनेता पूज्य है, जीवन इतना झूठा हो गया है! अभिनेता से ज्यादा झूठा और क्या होगा? अभिनेता का होने का मतलब ही झूठा होना है-एक असत्य / संन्यास अगर सत्य का प्रतीक था तो अभिनेता असत्य का प्रतीक है। संन्यास अगर निरहंकार भाव का प्रतीक था तो नेता अहंकार भाव का प्रतीक है। अगर भिक्षु त्याग का प्रतीक था तो धनपति भोग का प्रतीक है। किसे आप पूजते हैं? नेता से भी ज्यादा कीमत अभिनेता की बढ़ती जा रही है। यह किस बात की खबर है? किस मौसम की खबर है यह? आपके भीतर झूठ की प्रतिष्ठा बढ़ती जा रही है; मनोरंजन की प्रतिष्ठा बढ़ती जा रही है, सत्य की कम होती जा रही है। 317 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 और ध्यान रहे, मनोरंजन की प्रतिष्ठा तभी बढ़ती है, जब लोग बहुत दुखी होते हैं, क्योंकि दुखी आदमी ही मनोरंजन खोजता है। सुखी आदमी मनोरंजन नहीं खोजेगा। अगर आप प्रसन्नचित्त हैं, आनंदित हैं, तो आप फिल्म में जाकर नहीं बैठेंगे, क्योंकि तीन घंटा व्यर्थ की मूढ़ता हो जायेगी। समय खराब होगा; मस्तिष्क खराब होगा; तीन घंटे में आंखें खराब होंगी; स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचेगा, और मिलेगा कुछ भी नहीं। लेकिन दुखी आदमी भागता है, दुखी आदमी मनोरंजन खोजता है। तो जितना मनोरंजन की तलाश बढ़ती है, उससे पता चलता है कि आदमी ज्यादा दुखी होता जा रहा है। सुखी आदमी एक झाड़ के नीचे बैठकर भी आनंदित है; अपने घर में भी बैठकर आनंदित है; अपने बच्चों के साथ खेलकर भी आनंदित है; अपनी पत्नी के पास चुपचाप बैठकर भी आनंदित है / कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं है। कहीं जाने का मतलब यह है कि जहां आप हैं, वहां दुख है—वहां से बचना चाहते हैं। __ अभिनेता असत्य है, लेकिन उसकी कीमत बढ़ती जाती है / नेता मनुष्य में निम्नतम का प्रतीक है। राजनीति मनुष्य के भीतर जो निम्नतम वृत्तियां हैं, उनका खेल है; लेकिन वह आदृत है। झूठ हमारा आदर्श होता चला जा रहा है। सुना है मैंने, एक स्त्री एक पुल के पास से गुजरती थी / पुल के किनारे पर उसने एक अंधे आदमी को बैठे देखा, तख्ती लगाये हुए है, जिस पर उसने लिखा है, 'प्लीज हेल्प दि ब्लाइंड-कृपया अंधे की मदद करें।' उसकी दशा इतनी दुखद है कि उस स्त्री ने पांच रुपये का एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया / उस अंधे ने कहा, 'नोट बदल दें तो अच्छा है। थोड़ा पुराना, फटा-सा मालूम पड़ता है; पता नहीं, चले, न चले।' उस स्त्री ने कहा, 'अंधे होकर तुम्हें पता कैसे चला कि नोट पुराना, गंदा-सा मालूम होता है?' उस आदमी ने कहा, 'क्षमा करें, अंधा मैं नहीं हूं, मेरा मित्र अंधा है। वह आज सिनेमा देखने चला गया है; मैं उसकी जगह काम कर रहा हूं—सिर्फ प्रतिनिधि हूं। और जहां तक मेरी बात है, मैं गूंगा-बहरा हूं।' ___ 'अंधा फिल्म देखने चला गया है; मैं गूंगा-बहरा हूं'; वह कह रहा है ! मगर करीब-करीब ऐसी ही असत्य हो गयी है जीवन की सारी व्यवस्था / तख्तियों से कुछ पता नहीं चलता है कि पीछे कौन है ? नामों से कुछ पता नहीं चलता है कि पीछे कौन है? प्रचार से कुछ पता नहीं चलता कि पीछे कौन है? एक झूठा चेहरा है सबके ऊपर, भीतर कोई और है; भीतर कुछ और चल रहा है। अभिनय की पूजा इस पाखंड का सबूत है। पद की, प्रतिष्ठा की पूजा आपके भीतर एक रोग की खबर देती है कि आप पागल हैं, आप चाहते हैं कि आप विशिष्ट हो जायें। आप चाहते हैं, सबकी छाती पर चढ़ जायें, सबसे ऊपर हो जायें / चढ़ने की सीढ़ियां कोई भी हो सकती हैं-धन, पद, ज्ञान, त्याग भी। अगर चढ़ने की ही सीढ़ी बनानी हो तो कोई भी चीज सीढ़ी बन सकती है। महावीर किसे पूज्य कहते हैं ? महावीर जैसे आदमी जिसे पूज्य कहते हैं, उस पर विचार कर लेना जरूरी है। 'जो आचार-प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है।' बड़ी कठिन शर्त है। आप भी आचारवान होना चाहते हैं, लेकिन महावीर विनय की शर्त लगा रहे हैं, जो कि बड़ी उल्टी है। हम बचपन से ही बच्चों को सिखाते हैं कि तुम्हारा चरित्र ऊंचा रखना, क्योंकि चारित्र्य का सम्मान है। अगर तुम चरित्रवान हो तो सभी तुम्हें आदर देंगे। अगर तुम चरित्रवान हो तो कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम चरित्रवान हो तो समाज की श्रद्धा तुम्हारी तरफ होगी, तुम पूज्य बन जाओगे। ___ हम बच्चे को अहंकार सिखा रहे हैं, आचरण नहीं। हम बच्चे को यह कह रहे हैं कि अगर तुझे अपने अहंकार को सिद्ध करना है, तो आचरण जरूरी है। क्योंकि जो आचारहीन है उसको कोई श्रद्धा नहीं देता; कोई आदर नहीं देता; लोग उसकी निंदा करते हैं / ऊपर से दिखायी पड़ता है कि मां-बाप आचरण सिखा रहे हैं, पर मां-बाप अहंकार सिखा रहे हैं। मां-बाप यह नहीं कह रहे हैं कि तू विनम्र होना, 318 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य? कि तू निरहंकारी होना / मां-बाप यह कह रहे हैं कि तू चालाक होना, कनिंग होना, क्योंकि अगर तेरे पास आचरण है तो समाज तुझे कम असुविधा देगा, सुविधा ज्यादा देगा। अगर तू आचरणहीन है तो समाज असुविधायें देगा; दिक्कतें डालेगा; दंड देगा, परेशान करेगा-समाज दुश्मन हो जायेगा। तो तुझे जो भी पाना है जीवन में-धन, पद, प्रतिष्ठा, वह तुझे मिल नहीं सकेगी। __ और हमारा आचार इसी प्रतिष्ठा के आग्रह में निर्मित होता है। हमारे बीच जो आचारवान भी मालूम पड़ते हैं, भीतर उनका आचार भी विनय पर आधारित नहीं है; ह्युमिलिटी पर आधारित नहीं है, अहंकार पर आधारित है। महावीर कहते हैं, बात खराब हो गयी, यह तो जड़ में ही जहर डाल दिया / जो फूल आयेंगे वे जहरीले होंगे / विनय आधार है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि विनय में सारा आचार समा जाता है। विनय का अर्थ है निरहंकार भाव; 'मैं कुछ हं', इस पागलपन का त्याग / यह अकड़ भीतर से खो जाये कि 'मैं कुछ हूं।' मगर दूसरी अकड़ फौरन हम बिठा लेते हैं। आदमी की चालाकी को ठीक से समझ लेना जरूरी है—हम यह कह सकते हैं कि मैं कुछ भी नहीं हूं', और यह अकड़ बन सकती है— 'मैं ना-कुछ हूं लेकिन इसके कहते वक्त एक प्रबल अहंकार भीतर कि 'मैं विनम्र हूं'; कि 'मुझसे ज्यादा विनीत और कोई भी नहीं...!' ___ आदमी तरकीबें निकाल लेता है और जब तक होश न हो, तरकीबों से बचना मुश्किल है। तो आप विनीत भी हो सकते हैं और भीतर अहंकार हो सकता है / विनम्र होने का अर्थ है—न तो इस बात की अकड़ कि 'मैं कुछ हूं', और न इस बात की अकड़ कि 'मैं ना-कुछ हूं'-इन दोनों के बीच में विनम्रता है। जहां मुझे यह पता ही नहीं है कि 'मैं हूं'---मेरा होना सहज है, इस सहजता को महावीर कहते हैं, आचार का आधार। 'जो आचार-प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनों को सुनता है एवं स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की कभी अवज्ञा नहीं करता, वही पूज्य है।' 'विनय' का अर्थ है, अपने को शून्य समझना और जब तक आप शून्य नहीं हो जाते तब तक गुरु उपलब्ध नहीं हो सकता। आप गुरु को नहीं खोज सकते, ध्यान रखना। आप तो जिसको खोजेंगे वह आप-जैसा ही गुरु-घंटाल होगा, गुरु नहीं हो सकता / आप खोजेंगे ना ! आप अपने से अन्यथा कुछ भी नहीं खोज सकते। आप सोचेंगे, आप व्याख्या करेंगे-आप करेंगे न ! गुरु तो गौण होगा, नंबर दो होगा! नंबर एक तो आप होंगे, आप पता लगायेंगे कि कौन ठीक है, कौन गलत है? गुरु कैसा होना चाहिये, यह आप पता लगायेंगे। आप तय करेंगे कि आचरणवान है कि आचरणहीन है। आप—जिनको कुछ भी पता नहीं है। आप गुरु के निर्धारक होंगे, तो जिसे आप चुन लेंगे वह आपका ही प्रतिबिंब होगा, आपकी ही प्रतिध्वनि होगा, और अगर आप गल // गुरु सही नहीं हो सकता; आप गलत गुरु ही चुन लेंगे। गुरु की खोज का पहला सूत्र है कि आप न हों। तब आप नहीं चुनते, गुरु आपको चुनता है / तब आप अपने को बीच में नहीं लाते; आप कोई शर्त नहीं लगाते; आप परीक्षक नहीं होते। इधर मैं देखता हूं, लोग गुरुओं की परीक्षा करते घूमते हैं / देखते हैं कि कौन गुरु ठीक, कौन गुरु ठीक नहीं / आप अगर इतना ही तय कर सकते हैं और परीक्षक हैं, आपको शिष्य होने की जरूरत ही नहीं है; आप गुरु के भी महा-गुरु हैं ! आप अपने घर बैठिये, जिनको सीखना है वे खुद ही आपके पास आ जायेंगे। आप मत जाइये। __ और आप कितने ही भटकें, आपको गुरु नहीं मिल सकता / आपको गलत आदमी ही प्रभावित कर सकता है, जो आपकी शर्ते पूरी करने को राजी हो / कौन आपकी शर्ते पूरी करेगा? कोई महावीर, कोई बुद्ध आपकी शर्त पूरी करेगा? कोई क्षुद्र आपकी शर्त पूरी कर सकता है। अगर वह आपका गुरु होना चाहता है, आपकी शर्त पूरी कर दे सकता है। आपकी शर्ते जाहिर हैं, उसमें कुछ कठिनाई नहीं 319 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है। क्षुद्र आदमी के मन की क्या भावनाएं हैं, वे सब जाहिर हैं / जो आदमी चालाक है, वह आपकी शर्ते पूरी कर देगा और आपका गुरु बन बैठेगा। अगर आप उपवास को आदर देते हैं, उपवास किया जा सकता है। अगर आप गंदगी को आदर देते हैं, तो आदमी गंदा रह सकता है। जैन साधु हैं, उनके भक्त महावीर के वचनों का ऐसा अनर्थ कर लिये हैं, जिसका हिसाब नहीं है। महावीर ने कहा है, शरीर को सजाना मत, सजाने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह कामवासना से भरे हुए व्यक्ति की बात है। __ शरीर को आप अपने लिए तो नहीं सजाते, शरीर को आप सदा दूसरे के लिए सजाते हैं-कोई देखे, कोई आकर्षित हो, किसी में वासना जगे, चाहे आप सचेतन न हों-यह तो आदमी की दुविधा है कि वह अचेतन में सब करता जाता है। सड़कों पर चलती हुई स्त्रियों को देखें कोई उनको धक्का मार दें तो वे नाराज होती हैं, लेकिन घर से वे पूरी तरह सजावट करके चली हैं कि धक्का मारने का निमंत्रण छिपा है। कोई धक्का न मारे तो भी वे उदास लौटेंगी, शायद सजावट में कोई कमी रह गई-कोई धक्का मार दे तो परेशानी खड़ी कर देंगी, लेकिन निमंत्रण साथ लेकर चलेंगी। यह बड़े मजे की बात है कि स्त्रियां घर में तो महाकाली बनी बैठी रहती हैं-चंडी का अवतार और घर से निकलते वक्त ? उसका कारण है कि पति को आकर्षित करने की अब कोई जरूरत नहीं है-टेकन फार ग्रांटेड, वह स्वीकृत है / लेकिन पूरा बाजार भरा है-और फिर कोई धक्का मार दे; कोई ताना कस दे; कोई गाली फेंक दे, कुछ बेहूदी बात कह दे, तो अड़चन है! आदमी बड़ा अचेतन जी रहा है, वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है उसे कुछ ठीक-ठीक साफ भी नहीं है। मैंने सुना है, एक दिन एक आदमी अपनी पत्नी के साथ नसरुद्दीन के घर पर दस्तक दिया / दरवाजा खुला तो वे दोनों चकित हो गये। पत्नी तो बहुत भयभीत हो गयी / नसरुद्दीन बिलकुल नंगा खड़ा है, सिर्फ एक टोप लगाये हुए। आखिर स्त्री से नहीं रहा गया, उसने कहा कि क्या आप घर में ऐसा दिगम्बर वेश ही रखते हैं ? नसरुद्दीन ने कहा, 'हां, क्योंकि मुझे कोई मिलने-जुलने आता नहीं।' तो स्त्री की जिज्ञासा और बढ़ गयी। उसने कहा, 'अगर ऐसा ही है तो फिर वह टोप और काहे के लिए लगाये हुए हैं? नसरुद्दीन ने कहा, 'कभी-कभार कोई आ ही जाये तो, उस खयाल से।' कोई मिलने नहीं आता, इस खयाल से नंगे हैं. और टोप इसलिए लगाये हैं कि कभी-कभार कोई आ ही जाये तो उसके लिए / आदमी बड़े द्वंद्व में बंटा हुआ है। कुछ साफ नहीं है। महावीर ने कहा है, शरीर की सजावट भोगी के लिए है; योगी के लिए शरीर की सजावट नहीं। लेकिन जब भोगियों ने महावीर के मार्ग पर कदम रखे तो उन्होंने इसका बड़ा अनूठा अर्थ लिया। सजावट एक बात है, स्वच्छता बिलकुल दूसरी बात है। स्वच्छता अपने लिए है, सजावट दूसरे के लिए होगी। स्वच्छता का तो अपना निजी सुख है, दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं। लेकिन, स्वच्छता भी सजावट हो गयी है / तो जैन मुनि स्नान नहीं करेगा, शरीर से बदबू आती रहेगी; दातौन नहीं करेगा, मुंह से बदबू आती रहेगी। ___ अब यह बड़े मजे की बात है कि जैसे सजावट दूसरों को प्रभावित करने के लिए थी, यह गंदगी भी दूसरों को प्रभावित करने के लिए है। और अगर जैन श्रावक को पता चल जाये कि मुनिजी के मुंह से मैक्लीन्स की बास आ रही है, सब गड़बड़ हो गया! वह जाकर फौरन प्रचार कर देगा कि यह आदमी भ्रष्ट हो गया है; दातौन कर रहा है। दातौन ही नहीं कर रहा, ब्रश कर रहा है। आप दांत में सुगंध भी चाहते हैं दूसरे के लिए और दुर्गंध भी दूसरे के लिए, तो कुछ फर्क नहीं हुआ। महावीर का जोर इस बात का है कि दूसरे को भूल जायें। अपने लिए, स्वयं के लिए, निज के लिए जो हितकर है, स्वस्थ है, उस दिशा में खोज करें। 320 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? जैसा मैंने कल आपको कहा कि कैसी विकृतियां संभव हो जाती हैं। मैंने आपको कहा कि महावीर ने कहा है, मल-मूत्र विसर्जित जरूरी है. किसी को दखन हो, किसी को पीडा न हो / महावीर ने बहत विचार किया है, सक्षम, गंदगी से किसी को कष्ट न हो। पच्चीस सौ साल पहले न तो सेप्टिक टैंक थे और न फ्लश लैट्रिन थीं। और भारत तो पूरा-का-पूरा गांव के बाहर ही मल-मूत्र विसर्जन करता रहा है। तो महावीर ने कहा है, गीली जगह पर घास उगी हो, जहां कि कीड़े-मकोड़े के होने की संभावना है-जीवन की / घास भी जीवन है / तुम्हारे मल-मूत्र से घास को भी नुकसान पहुंच जायेगा-वह भी नहीं। तो सूखी जमीन पर, साफ जमीन पर, जहां कोई जीवन की कोई संभावना न हो, वहां तुम मल-मूत्र का विसर्जन करना। ___ अब बड़ा पागलपन हो गया ! अब बम्बई में जैन साधु-साध्वियां ठहरे हैं। जहां सपाट जमीन खोजनी मुश्किल है, सिवाय रोड के। तो वे रोड का उपयोग कर रहे हैं / तरकीब से कर रहे हैं ! अब मजा यह है कि बर्तनों में इकट्ठा कर लेंगे पेशाब को, मल-मूत्र को और रात के अंधेरे में सड़कों पर उड़ेल देंगे। ___ अब किसी नियम से कैसी मूढ़ता का जन्म हो सकता है, सोचें / फ्लश लैट्रिन इस समय सर्वाधिक उपयोगी होगी। लेकिन वहां नियम में उलटा हो गया, क्योंकि गीली जगह पर...वहां पानी है फ्लश का, तो उस पानी की वजह से शास्त्र...! शास्त्र लोगों को अंधा कर सकते हैं। और जो इस तरह अंधे हो जाते हैं उनके जीवन में कैसे प्रकाश होगा, कहना बहुत मुश्किल है। शास्त्र की लकीर के फकीर हैं वे / उसमें लिखा है, 'गीली जमीन पर नहीं ...तो वहां फ्लश का पानी है, इसलिए वहां पेशाब भी नहीं कर सकते, वहां मल-विसर्जन भी नहीं कर सकते। तो सूखी थाली या बर्तन में कर लेंगे, फिर सम्हालकर रखे रहेंगे और जब रात हो जायेगी, अंधेरा हो जायेगा तो सड़क पर, सूखी जमीन पर छोड़ देंगे। अब यह पागलपन हो गया। लाओत्से कभी-कभी ठीक लगता है कि पैगंबरों से बड़ी मूढ़ता पैदा होती है। महावीर को कल्पना भी नहीं रही होगी, हो भी नहीं सकती। फ्लश लैट्रिन का उनको पता होता तो शास्त्र में थोड़ा फर्क करते / लेकिन उनको यह खयाल भी नहीं रहा होगा कि उनके पीछे ऐसे पागलों की जमात आ जायेगी, जो उसको नियम बना लेगी। कोई शास्त्र नियम नहीं हैं। सब शास्त्र निर्देशक हैं: सिर्फ सचना मात्र हैं। उनका भाव पकड़ना चाहिये शब्द पकड़ेंगे तो गड़बड़ हो जायेगी, क्योंकि सभी शब्द पुराने पड़ जायेंगे। महावीर ने जिनसे कहा है, उनके लिये ठीक थे। समय बदलेगा, स्थिति बदलेगी, व्यवस्था बदलेगी, उपकरण बदलेंगे-शब्द वही रह जायेंगे। शास्त्र कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि बढ़ें, उनमें नये फूल लगें। शास्त्र तो मुर्दा हैं / उन मुर्दा शास्त्रों को जकड़कर लोग बैठ जाते हैं। महावीर ने कहा है कि 'आचार-प्राप्ति के लिए विनय का उपयोग करता है जो व्यक्ति...।' लेकिन आप गौर से देखें, जब भी कभी आप आचार-प्राप्ति का कोई उपयोग करते हैं, तो उसमें अहंकार कारण होता है। इसलिए आचारवान व्यक्ति अकड़कर चलता है; दुराचारी चाहे डरकर चले / दुराचारी थोड़ा चिंतित भी होता है कि किसी को पता न चल जाये। दुराचारी डरता है कि मेरे आचरण का पता न चल जाये। जिसको हम सदाचारी कहते हैं, वह कोशिश करता है कि उसके आचरण का आपको पता चलना चाहिये / मगर आप ही बिंदु हैं। तो दुराचारी अंधेरे में छिपता है, सदाचारी प्रचार करता है अपने आचरण का / वह हिसाब रखता है कि किस वर्ष कितने उपवास किये, कितनी पूजा की. कितने मंत्र का जाप किया: सब हिसाब रखता है, कितने लाख जाप कर लिया। किसके लिए यह हिसाब है ? हिसाब बता रहा है कि भीतर चालाक आदमी मौजूद है, मिटा नहीं है, बही-खाते रख रहा है। 321 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 'विनय' है पहली शर्त / विनय का अर्थ है : स्वयं को 'ना-कुछ' की अवस्था में ले आना / 'ना-कुछ' हूं, ऐसा बोध भी न पकड़े। इतना जो विनम्र आदमी है, उसे गुरु उपलब्ध होगा। और अगर आप उसे खोजने भी न जायें तो वह आपको खोजते हुए आ जायेगा। जीवन के अंतर्नियम हैं। जहां भी जरूरत होती है गुरु की, वहां जिनके जीवन में भी जागृति का फूल खिला है, उनको अनुभव होना शुरू हो जाता है। जैसे प्रकृति में होता है कि जहां बहुत गर्मी हो जायेगी वहां हवा के झोंके भागते हुए आ जायेंगे / जब हवा आती है तो आपको पता है, क्यों आती है ? हवा अपने कारण नहीं आती। जहां गर्म हो जाता है बहुत, विज्ञान के हिसाब से जहां गर्मी ज्यादा हो जाती है वहां की हवा विरल हो जाती है, कम सघन हो जाती है, ऊपर उठने लगती है गर्म होकर-वहां गड्ढा हो जाता है / उस गड्डे को भरने के लिए आसपास की हवाएं दौड़ पड़ती हैं। आप पानी भरते हैं, एक मटकी में नदी से, गड्ढा हो जाता है। जैसे ही गड्ढा हुआ कि आसपास का पानी दौड़कर गड़े को भर देता है। ठीक ऐसा ही आत्मिक जीवन का नियम है कि जब भी कोई व्यक्ति मिट जाता है, तो कोई जो शिखर को उपलब्ध है, दौड़कर उसको भर देता है। लेकिन वे सूक्ष्म-जगत के नियम हैं; इतने साफ नहीं हैं। ईजिप्ट में कहा जाता है कि 'व्हेन दि डिसाइपल इज रेडी, दि मास्टर -जब शिष्य तैयार है तो गरु उपस्थित हो जाता है।' शिष्य को गरु खोजना नहीं पड़ता, गुरु शिष्य को खोजता हैक्योंकि जरूरत पैदा हो गयी, तो जिसके पास है वे देने को दौड़ पडेंगे। पात्र तैयार हो गया / जिनके पास है, वे उसे भर देंगे, क्योंकि जिनके पास है, वे अपने होने से भी बोझिल होते हैं— ध्यान रखें। __ जैसे वर्षा के बादल होते हैं, भर जाते हैं पानी से तो बोझिल हो जाते हैं; अगर न बरसें तो भार होता है। जैसे मां है : गर्भ हो गया, बच्चा आ गया, तो उसके स्तन भर जाते हैं दूध से / वह न बच्चे को दे, तो पीड़ा होगी। अगर बच्चा मर भी जाये तो वह पड़ोस के किसी बच्चे को दूध देगी, क्योंकि देना हिस्सा है अब-भर गयी है। नहीं निकलेगा दुध तो कठिनाई होगी। तो यंत्र बनाये गये हैं। अगर बच्चा मर जाये तो स्तन से दूध निकालने के लिए यंत्र बनाये गये हैं, जो बच्चे की तरह दूध को खींच लें। ___जब कहीं ज्ञान सघन होता है, जब कहीं ज्ञान उत्पन्न होता है, तो जैसे स्तन मां के भर जाते हैं, ऐसे गुरु का हृदय भर जाता है। वह चाहता है कि कोई आ जाये और उसे हल्का कर दे। तो जब आप तैयार हैं तो गुरु मौजूद हो जाता है। आप खोजने जाते हैं, तो गलती में हैं। पहले आप मिटें और मिटकर आप चल पड़ें; गुरु आपको पकड़ लेगा। और आप निर्णय करेंगे तो भटकते रहेंगे। आप निर्णय करने की स्थिति में नहीं हैं; हो भी नहीं सकते। तब डर लगता है कि यह अंधश्रद्धा हो जायेगी। तर्क कहेगा कि यह तो अंधी बात हो जायेगी, तब हम कुछ भी नहीं ! - अगर तर्क अभी न थका हो तो तर्क करके कुछ और उपाय करके खोजने की व्यवस्था कर लें। एक घड़ी आयेगी कि आप तर्क से थक जायेंगे। और एक घड़ी आयेगी कि आप जान लेंगे इस बात को कि जिसे भी आप खोजते हैं, वह आप ही जैसा गलत है। इस विषाद के क्षण में ही आदमी अपनी खोज बंद करता है; खुद मिटकर एक सूना पात्र होकर घूमता है। जहां भी कोई भरा हुआ व्यक्ति होता है-जैसे हवा दौड़ पड़ती है खाली जगह की तरफ, पानी दौड़ पडता है गड्ढे की तरफ, मां का दूध बहता है बच्चे की तरफ—ऐसा गुरु बहने लगता है शिष्य की तरफ। इस घड़ी में जो मिलन है, इस घड़ी में जो गुरु शिष्य के बीच मिलन है, वह इस जगत की महत-से-महत घटना है। जिनके जीवन में वह घटना नहीं घटी, वे अधुरे मर जायेंगे। उन्होंने एक अनूठे अनुभव से अपने को वंचित रखने का उपाय कर रखा है। ___ इससे बड़े सुख का क्षण पृथ्वी पर कभी भी नहीं होता, जब आप पात्र की तरह खाली होते हैं, और कोई भरा हुआ व्यक्ति आपकी तरफ बहने लगता है। लेकिन इस बहाव के लिये ग्राहक होना जरूरी है, और ग्राहक वही हो सकता है जो आलोचक नहीं है। आलोचक 322 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य? तो अकड़ा हुआ सोचता है, खुद ही जांच-परख करता है / इसलिए विज्ञान और धर्म के सूत्र अलग-अलग हैं / विज्ञान आलोचना से जीता है, तर्क से जीता है। धर्म अतर्क है, श्रद्धा से जीता है, समर्पण से जीता है। एक मित्र, मेरे साथ एक पर्वतीय स्थल पर गये थे; बीमार आलोचक हैं। आलोचक बीमार होते ही हैं। कोई भी चीज देखकर, क्या गलती है, यही उनके ध्यान में आता है। ठीक कुछ हो सकता है, इस पर उनका भरोसा नहीं है। जो भी होगा, गलत ही होगा। ___ तो जहां भी उन्हें मैं ले जाता—उन्हें एक सुंदर जल-प्रपात के पास ले गया, तो उन्होंने कहा, 'क्या रखा है इसमें?...जरा पानी को हटा लो, फिर कुछ भी नहीं है।' खूबसूरत पहाड़ पर ले गया, जहां सूर्यास्त देखने जैसा है। उन्होंने कहा, 'ऐसा कुछ खास नहीं है। इतनी दूर चलकर आने का कोई मतलब नहीं है। क्षणभर में सूर्य अस्त हो जायेगा, फिर क्या रखा है?' लौटते वक्त उन्होंने कहा कि बेकार ही आना हुआ! सिवाय पहाड़, झरने, सूरज-इनको हटा लो, सब सपाट मैदान है। ऐसा आदमी गुरु को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। उसने गलत तरफ से खोज शुरू कर दी। ठीक तरफ खोज का अर्थ है, संवेदनशीलता. रिसेप्टिविटी, ग्राहकता / जितना विनम्र होगा व्यक्ति, उतना ग्राहक होगा। उतनी शीघ्रता से गुरु उसकी तरफ दौड़ सकता '...जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनों को सुनता है।' 'भक्तिपूर्वक'-जैसे प्रेमी सुनता है प्रेयसी के वचन / और आपको पता है कि वचनों का अर्थ बदल जाता है, कैसे आप सुनते हैं। एक नयी स्त्री के प्रेम में पड़ गये हैं आप। वह जो भी बोलती है वह स्वर्णिम मालूम होता है / कोई दूसरा पास से गुजरता हुआ सुने तो समझेगा कि बचकाना है / आपको स्वर्णिम मालूम पड़ता है, स्वर्गीय मालूम पड़ता है। आप जो भी उससे कहते हैं, क्षुद्र-सी बातें भी, बहुत क्षुद्र-सी साधारण-सी बातें भी, वे भी हीरे-मोतियों से जड़ जाती हैं, वे भी बहुमूल्य हो जाती हैं / जरा-सा इशारा भी कीमती हो जाता है। कोई दूसरा सुनेगा तो कहेगा कि ठीक है, क्या रखा है ? उसे कुछ भी नहीं रखा है। लेकिन प्रेम से भरा हुआ हृदय बहुत गहरे तक चीजों को ले जाता है, क्योंकि उतना खुल जाता है। चीजों के अर्थ अलग हो जाते हैं। एक साधारण-सा फूल उठाकर आपका प्रेमी आपको दे दे, तो वह फूल स्मरणीय हो जाता है / कोई कोहिनूर से भी बदलना चाहे तो आप बदलने को राजी न होंगे। कोहिनूर दो कौड़ी का है उस फूल के मुकाबले / फूल में कुछ और आ गया। क्या आ गया? फूल सिर्फ फूल है; वैज्ञानिक परीक्षण से कुछ भी ज्यादा नहीं मिलेगा। लेकिन फूल आपके हृदय में गहरे उतर गया है; किसी प्रेम के क्षण में लिया गया है। तब आप खुले थे और चीजें भीतर तक झंकृत हो गयीं। इसलिए प्रेमी पत्थर का टुकड़ा भी भेंट दे, तो कीमती हो जाता है। ___ गुरु जो वचन बोल रहा है, वे साधारण मालूम पड़ सकते हैं, अगर भक्ति से नहीं सुने गये हैं। अगर भक्ति से सुने गये हैं, तो उसके साधारण वचन भी क्रान्तिकारी हो जाते हैं / वचनों में कुछ भी नहीं है, भक्ति से सुनने में सब कुछ है / इसलिए आप कुरान को पढ़ें अगर आप मुसलमान नहीं हैं तो पायेंगे, क्या रखा है? कुरान पढ़नी हो, तो मुसलमान का हृदय चाहिये, तो ही कुरान का अर्थ प्रगट होगा। जैन ता पढ़ता है; कहता है, 'क्या रखा है ? क्यों हिंदू इतना शोरगुल मचाये रखते हैं ?' गीता के लिए फिर हिंदू का हृदय चाहिये। अगर जैन भागवत पढ़ेगा तो कहेगा, 'यह क्या हो रहा है ? रासलीला है कि सब पाखंड हो रहा है ?' उसकी अपनी धारणा प्रवेश कर जायेगी। चैतन्य से पूछो, या मीरा से भागवत का रस, तो वे पागल होकर नाचने लगते हैं। पर वह जो नाच है, वह चैतन्य की अपनी ग्राहकता से आता है, भागवत से नहीं आता है। भागवत तो सिर्फ सहारा है, निमित्त है। 323 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 गुरु निमित्त है; आनंद तो आप से जगेगा। लेकिन निमित्त को आप भीतर ही न घुसने दें तो कठिनाई है / और ध्यान रखें एक बात, गुरु आक्रामक नहीं हो सकता, एग्रेसिव नहीं हो सकता, क्योंकि जो आक्रामक हो सकता है, वह तो गुरु होने की योग्यता को भी उपलब्ध नहीं होगा। गुरु तो बिलकुल अनाक्रामक है / वह जबरदस्ती आपकी गर्दन पकड़कर नहीं कुछ पिला देगा। आप खुले होंगे, तो उस खुले क्षण में ही वह प्रवेश करेगा। वह द्वार पर दस्तक भी नहीं देगा आपके, क्योंकि वह भी हिंसा है। अगर आप सो रहे हों गहरे, मधुर स्वप्न देख रहे हों, और आप राजी ही न हों अभी लेने को, तो जो राजी नहीं है उसे कुछ भी नहीं दिया जा सकता। तो गरु आप पर जबरदस्ती नहीं करेगा। लेकिन हमें खयाल है जबरदस्ती का / जिनको भी हमने जाना है, मां-बाप, स्कूल, कालेज, विद्यालय, वहां सब जबरदस्ती चल रही है। वे सब हिंसा के उपाय हैं / ठोंका जा रहा है जबरदस्ती आपके सिर में / आध्यात्मिक जीवन उस तरह नहीं ठोंका जा सकता। एक महिला के घर में मेहमान था—बहुत सुशिक्षित, सुसंस्कृत, पश्चिम में पढ़ी हुई महिला हैं। जब भी उनके घर जाता था तो वह हमेशा एक ही रोना रोती थीं कि मेरे मां-बाप ने मुझे जबरदस्ती प्यानो बजाना सिखाया, वह मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। और ठीक भी है उसकी बात, क्योंकि वह 'टोन डेफ' है। उसे कोई ध्वनियों में बहुत रस नहीं है। ध्वनियों के प्रति बहरी है, वह संवेदना उसमें है नहीं। लेकिन मां-बाप पीछे पड़े थे कि लड़की को प्यानो बजाना जानना ही चाहिये; तो उन्होंने जबरदस्ती सब तरह से उसे ठोंक-पीटकर प्यानो बजाना सिखा दिया। किसी तरह रटकर, कंठस्थ करके पाठ करके परीक्षाएं भी उसने पास कर लीं। तो मैंने एक दिन जब वह अपना रोना रो रही थी फिर से सुबह-सुबह, तो उससे मैंने कहा कि जो तुम्हारे मां-बाप ने तेरे साथ किया, इतना कम से कम खयाल रखना लड़की के साथ तू मत करना / क्योंकि उस महिला ने मुझे कहा कि मैं तो नाचना सीखना चाहती थी, और मां-बाप ने प्यानो में लगा दिया। काश! मैं नृत्य सीख लेती। तो उस स्त्री ने बड़े जोर से कहा कि निश्चित ही, मैं यह भूल अपनी लड़की के साथ कभी भी नहीं करूंगी। व्हेदर शी लाइक्स इट आर नाट, शी विल हैव टु लर्न डान्सिंग। __यही चल रहा है। मां-बाप थोप रहे हैं, विद्यालय थोप रहा है, स्कूल का शिक्षक थोप रहा है। सब तरफ आदमी पर चीजें थोपी जा रही हैं। इससे आपको एक भ्रांति पैदा होती है कि शायद गुरु भी आप पर थोपेगा। आप सिर्फ पहुंच जाएं मिट्टी के लौदे की तरह और वह आपको ठोंक-पीटकर मूर्ति बना देगा। ___ ध्यान रहे, जो गुरु आप पर थोपता हो उसे अध्यात्म की खबर भी नहीं है। वह इसी दुनिया का गुरु है। बेहतर था, किसी स्कूल में में फर्क है। शिक्षक सिखाने के लिए उत्सुक है। शिक्षक आपको बनाने के लिए आतर है। शिक्षक आक्रामक है। इसलिए अगर सारे विश्वविद्यालयों में हिंसा फूट पड़ रही है तो उसका कारण विद्यार्थी तो नंबर दो है, नंबर एक तो शिक्षक है। ___ अब तक शिक्षक थोपता रहा। अब वक्त आ गया है कि लोग-उनके ऊपर कुछ भी थोपा जाये, इसके लिए राजी नहीं हैं। हिंसा शिक्षक करता रहा है हजारों साल से, बच्चे अब बगावत कर रहे हैं। अब बच्चे हिंसा कर रहे हैं। और जब तक शिक्षक नहीं रोकता हिंसा करना, तब तक अब विश्वविद्यालय शांत नहीं हो सकते। लेकिन हमारा सारा सोचने का ढंग ही आक्रामक है / गुरु ऐसा नहीं कर सकता, वह असंभव है। अगर आप राजी हैं पीने को, लेने को तो वह देगा, बेशर्त, अथक, असीम आप में उड़ेल देगा। आपकी छोटी-सी गागर में पूरा सागर भर देगा। लेकिन पुकार आपकी तरफ से आयेगी। प्यास आपकी तरफ से आयेगी, इस प्यास और पुकार का नाम है भक्तिभाव। 'जो गुरु-वचनों को भक्तिभाव से सुनता है, स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है...।' 324 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? यह एक अलग कीमिया है; अध्यात्म की अपनी एलकेमी है, अपना रसायन-विज्ञान है। गुरु कुछ कहे, तो पहले तो मन यही होगा कि पहले हम सोच लें, ठीक भी कह रहा है कि गलत / क्या सोचेंगे आप? कैसे सोचेंगे आप? आपको ठीक का पता है, तो आप पता लगा सकते हैं कि गुरु जो कह रहा है, वह ठीक कह रहा है या गलत / अगर आपको ठीक का पता ही नहीं है, और निश्चित ही पता नहीं है, नहीं तो गुरु के पास आने की कोई आवश्यकता न थी, आप कैसे सोचेंगे कि क्या ठीक है और क्या गलत? और जिस बुद्धि से आप सोचेंगे, वह तो आपका ज्ञान है अब तक का इकट्ठा किया हुआ; उससे आप कहीं भी नहीं पहुंचे / उसी से सोचेंगे अतीत के अनुभव और ज्ञान को आगे ले आकर गुरु का भविष्य में जाता हुआ ज्ञान आप परखेंगे। गुरु वह कह रहा है जो आप भविष्य में होंगे और आप उस ज्ञान से जांचेंगे जो आप अतीत में थे। ___ कोई मिलना नहीं हो पायेगा। आपको, जैसे आप जूते बाहर उतार देते हैं मंदिर के, ऐसे ही अपनी खोपड़ी भी बाहर ही रखकर आनी होगी। तो ही गुरु के साथ कोई मिलन हो सकता है। ऐसा नहीं कि गुरु आपके पूछने से इनकार करता है। पूछने की कोई मनाही नहीं है, लेकिन पूछने का ढंग स्वीकार करने के लिए हो / आप इसलिए पूछते हैं, ताकि और जान सकें; इसलिए नहीं पूछते हैं कि आप विरोध में कोई बात खड़ी कर रहे हैं। आप अपने को ला रहे हैं और आप जांचेंगे। जांचना हो तो पहले काफी जांच लेना चाहिये, लेकिन एक बार किसी के पास गुरु-भाव उत्पन्न हुआ हो तो फिर सब जांच-परख नीचे रख देनी चाहिये / करीब-करीब ऐसे ही जैसे आपको आपरेशन करवाना हो, डेलिकेट, नाजुक आपरेशन हो, तो आप पता लगाते हैं, कौन सबसे अच्छा सर्जन है / ठीक है, पहले पता लगा लें। लेकिन एक बार आपरेशन की टेबिल पर लेट जाने के बाद कृपा करके अब कुछ न करें। यह मत कहें कि यह चमचा उठा, वह कांटा उठा, यह छुरी से काम कर और इस तरह काट, और इस तरह निकाल! आप बिलकुल अब कुछ न करें। अब आप पूरी तरह छोड़ दें सर्जन के हाथ में / एक भरोसा, एक ट्रस्ट चाहिये। अगर आप पूरी तरह छोड़ दें तो आपको कम से कम कष्ट होगा। मनोविज्ञान तो यह अनुभव करता है कि अगर सर्जन की टेबिल पर मरीज अपने को पूरी तरह छोड़ दे, तो उसे बेहोश करने की जरूरत नहीं होगी। अगर वह इतना स्वीकार कर ले-ठीक है, तो उसे बेहोश भी करने की जरूरत नहीं होगी। बेहोश भी इसीलिए करना पड़ता है कि वह जो भीतर बैठा हुआ अहंकार है, वह बीच में दखलंदाजी करेगा कि यह आप क्या कर रहे हो? कहीं गलती तो नहीं कर दोगे? कहीं जान तो नहीं ले लोगे? यह क्या हो रहा है? उसे बेहोश करना इसलिए जरूरी है ताकि वह बिलकुल सो जाये और सर्जन उन्मुक्त-भाव से मरीज को भूलकर, मरीज का आपरेशन कर सके। __ अध्यात्म बड़ी गहरी सर्जरी है। कोई सर्जन इतनी गहरी सर्जरी तो नहीं करता है। क्योंकि हड्डी नहीं काटनी, न मांस-मज्जा काटना है; आपकी पूरी आत्मा के साथ जुड़े हुए संस्कार, आत्मा के साथ जुड़े हुए परमाणु, उनको काटना है। इससे बड़ी और कोई शल्य-चिकित्सा नहीं हो सकती। इतनी बड़ी शल्य-चिकित्सा तभी संभव है, जब कोई इतने सहज भाव से गुरु के हाथ में छोड़ दे कि अगर वह मारता भी हो, तो भी संदेह न उठाये। . __ इस निस्संदिग्ध अवस्था में सुने हुए वचन सहज ही स्वीकृत हो जाते हैं। बुद्धि बीच में नहीं आती, पूरे जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं। दरवाजे पर कोई पहरेदार नहीं रोकता, हृदय तक बात चली जाती है। और उसके स्वीकृत वचनों के अनुसार कार्य पूरा करता है। ‘जो गुरु की कभी अवज्ञा नहीं करता, वही पूज्य है।' गुरु की अवज्ञा करनी हो तो गुरु को छोड़ देना चाहिये, अवज्ञा की कोई जरूरत नहीं है। कोई और गुरु की तलाश में निकल जाना चाहिये। गुरु का मतलब ही यह है कि आपने वह आदमी खोज लिया जिसकी आप अवज्ञा न करेंगे। गुरु का और कोई मतलब नहीं 325 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 होता। आपने ढूंढ़ ली वह जगह, जहां आप अपने को छोड़ सकते हैं पूरा किसी के हाथ में, पूरे भरोसे के साथ। अब अवज्ञा नहीं करेंगे। और गुरु निश्चित ही बहुत-सी ऐसी बातें कहेगा, जिनमें मन होगा कि अवज्ञा की जाये, निश्चित ही! क्योंकि अगर गुरु ऐसी ही बातें कहे जिनकी आप अवज्ञा कर ही नहीं सकते, तो आपके शिष्यत्व का जन्म नहीं होगा। इसे समझ लें, अगर गुरु सच में ही गुरु है तो वह बहुत सी ऐसी बातें कहेगा और करेगा जिनमें अवज्ञा करना बिलकुल स्वाभाविक मालूम हो। और जब उस स्वाभाविक अवज्ञा को भी आप छोड़ देते हैं, तभी, तभी शिष्य का पूरा जन्म होता है। लेकिन, हम बड़े होशियार हैं। हम वह मान लेंगे जो हम मानना चाहते हैं। मेरे पास बहुत तरह के लोग हैं / एक व्यक्ति आया, उसे मैंने कहा-संन्यासी है—कि अच्छा हो कि तू कुछ दिन के लिए भ्रमण करती कीर्तन मंडली में सम्मिलित हो जा। उसने कहा, 'मेरी तबियत ठीक नहीं है, तो मैं तो किसी यात्रा पर न जा सकूँगा।' फिर मैंने थोड़ी देर दूसरी बात की। और फिर मैंने कहा, 'अच्छा, ऐसा कर, तुझे मैं अमरीका भेज देता हूं। वहां एक आश्रम है, उसको तू संभाल ले। उसने कहा कि जैसे आपकी आज्ञा! जब सभी आपको समर्पित कर दिया, तो फिर क्या! फिर थोड़ी देर बात चली / मैंने कहा कि ऐसा है, अमरीका तो तुझे भेज दंगा, पहले तू कीर्तन-मंडली में एक छह महीने...। उसने कहा, 'आप जानते ही हैं कि मेरी तबियत ठीक नहीं रहती।' मगर वह आदमी यही सोचता है कि वह मेरी अवज्ञा कभी नहीं करता! आज्ञाकारी होना बहुत आसान है, जब आज्ञा आपके अनुकूल हो। तब आज्ञाकारी होने का कोई अर्थ ही नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा रो रहा है / मुल्ला उससे कह रहा है, 'रोना बंद कर / मैं तेरा बाप हूं, मेरी आज्ञा मान / ' मगर वह रोना बंद नहीं करता / बाप भी क्या कर सकता है, अगर बच्चा रोना बंद न करे / नसरुद्दीन उसकी पिटाई करता है। पिटाई करता है तो वह और रोता है। इतने में ही एक आदमी नसरुद्दीन से मिलने आ गया। उस आदमी को देखकर नसरुद्दीन ने कहा, 'बेटा, दिल खो जितना रोना है, रो! मेरी आज्ञा है!' ___ वह लड़का भी थोड़ा चौंका और उस आदमी ने भी पूछा कि यह क्या मामला है? क्यों उसको रोने को कह रहे हो? उसने कहा, 'सवाल रोने का नहीं है। मैं तो चाहता हूं कि यह रोये न, लेकिन उसमें मेरी आज्ञा टूटती है। और हर हालत में मुझे अपने पिता का गौरव बचाना जरूरी है। इसलिये इसे कह रहा हूं कि रो, यही मेरी आज्ञा है।' लेकिन वह बेटा भी चुप हो गया। अब नसरुद्दीन कह रहा है कि नालायक, कोई भी हालत में मेरी आज्ञा मानने को तैयार नहीं है। - आप भी, जब मन की बात होती है तो मानने को तैयार होते हैं, जब मन की बात नहीं होती तो अड़चनें डालते हैं; पचीस बहाने करते हैं; होशियारियां निकालते हैं। गुरु के पास ये होशियारियां न चलेंगी। आपकी सब होशियारी अज्ञान है। आपको बिलकुल निर्दोष होकर जाना पड़ेगा। '...कभी गुरु की अवज्ञा नहीं करता, वही पूज्य है।' 'जो केवल संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए अपरिचित भाव से दोष-रहित उन्छ वृत्ति से भिक्षा के लिए भ्रमण करता है, जो आहार आदि न मिलने पर भी खिन्न नहीं होता और मिल जाने पर प्रसन्न नहीं होता, वही पूज्य है।' 'संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए...।' महावीर कहते हैं, जीवन का एक ही उपयोग है कि महाजीवन उपलब्ध हो जाये। अगर जीवन उपकरण बन जाता है, साधन बन जाता है महाजीवन को पाने के लिए, परमात्म-जीवन को पाने के लिए, तो ही उसका उपयोग हुआ / उसका और कोई उपयोग नहीं है। इसलिए 326 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? महावीर कहते हैं कि अगर जीना है, तो बस एक ही जीने योग्य बात है कि जितने से संयम सध जाये, जितनी शक्ति की जरूरत है शरीर को, ताकि साधना हो सके। इस भाव से निर्वाह; बस, इतना। '...अपरिचित घरों से...।' महावीर की शर्ते बड़ी अनूठी हैं। महावीर कहते हैं कि उनका भिक्षु, उनका साधु परिचित घरों में भीख मांगने न जाए, क्योंकि जहां परिचय है वहां मोह बन जाता है; जहां मोह बन जाता है वहां देनेवाला ऐसी चीजें देने लगता है, जो वह चाहता है कि दी जाएं। अगर भिक्षु रोज आपके घर आता है-आपका मोह बन जाये, तो आप मिठाइयां देने लगेंगे, अच्छा भोजन बनाने लगेंगे। और, महावीर कहते हैं कि वह जो गृहस्थ है, जिसके घर आप परिचित भाव से भीख मांगने लगेंगे, आपके लिए तैयारी में जुट जायेगा / उसके लिये चिंता पैदा होगी। वह विचार करेगा। वह कल रात से ही सोचेगा कि कल मुनिजी आते हैं, तो उनके लिए क्या तैयार करना है? तो उसकी चिंता, विचार का आप कारण बनते हैं और यह चिंता, विचार कर्म हैं, और ये बांधते हैं। इसलिए अपरिचित घर में भिक्षा मांगना / अचानक पहुंच जाना, ताकि उसे कोई तैयारी न करनी पड़े। और महावीर कहते हैं, आपके लिए विशेष रूप से तैयारी करनी पड़े तो उससे भी अहंकार निर्मित होता है, विशिष्टता। अपरिचित घर के सामने खड़े हो जाना, जिसको पता ही नहीं था कि आप भिक्षा मांगेंगे वहां / फिर वह जो दे दे, और वह वही देगा जो वह रोज खाता है। जो उसने अपने लिए तैयारी किया था, वही देगा। विशिष्ट आपके लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन अपरिचित घर के सामने हो सकता है, वह दे या न दे। इसलिए तो हम परिचित घर खोजना पसंद करेंगे। अपरिचित घर के सामने वह दे या न दे, इसलिए महावीर कहते हैं : दे तो प्रसन्न मत होना, न दे तो खिन्न मत होना / क्योंकि अपरिचित का मतलब ही यह है कि सब अनिश्चित है, कि देगा कि नहीं देगा। और ध्यान रहे, जितना अपरिचित घर होगा उतनी ही खिन्नता असंभव होगी क्योंकि अपेक्षा नहीं होगी। आप मुझे जानते हैं, और मैं आपके द्वार पर भिक्षा मांगने आ जाऊं और आप न दें, तो खिन्नता पैदा होने की संभावना ज्यादा है। क्योंकि जिस आदमी को जानते थे, जिस पर भरोसा किया था, उसने दो रोटी देने से इनकार कर दिया। अपरिचित आदमी कह दे कि नहीं है, तो खिन्नता की संभावना कम है। ___ ध्यान रहे, खिन्नता की मात्रा उतनी ही होती है जितनी ऐक्सपेक्टेशन, अपेक्षा की मात्रा होती है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है; इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। अगर आप परिचित आदमी के घर जाएं और वह आपको भिक्षा न दे...! महावीर अपने भिक्षुओं से बोल रहे हैं, अपने मुनियों से, साधकों से। इसे आप अपने जीवन में भी समझ लेना, क्योंकि बहुत तरह के संदर्भ गृहस्थ के लिए भी वही हैं। अगर आप परिचित आदमी के घर जाएं और वह भिक्षा न दे तो बड़ी खिन्नता होगी, एक बात; अगर वह भिक्षा दे तो बहुत प्रसन्नता नहीं होगी, क्योंकि देनी ही थी। इसमें कोई खास बात ही न थी। नदे तो दुख होगा, दे तो कोई सूख नहीं होगा। अपरिचित आदमी अगर नदे तो खिन्नता कम होगी; लेकिन अगर दे तो प्रसन्नता बहुत होगी, कि कितना अच्छा आदमी है। जरूरी नहीं था कि देता और दिया। तो ध्यान, महावीर कहते हैं, दोनों बातों का रखना जरूरी है-प्रसन्नता न हो। अपरिचित के घर मांगना, खिन्नता की संभावना कम है। लेकिन संभावना है, अपेक्षा आदमी कर लेता है और खासकर मुनि, साधु, स्वामी बड़ी अपेक्षा कर लेते हैं / वे मान ही लेते हैं कि मैं इतना बड़ा त्यागी, और मुझे दो रोटी देने से इनकार किया। क्या समझ रखा है इन लोगों ने? मैंने सारा संसार छोड़ दिया; लात मार दी सब चीजों को और मुझे दो रोटी देने से इनकार कर दिया! 327 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 हिंदू ऋषियों की तो आपको कथाएं पता ही हैं कि जरा में श्राप दे दें; अभिशाप दे दें, नाराज हो जायें, अभी भी हिन्दू भिक्षु जब द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है, तो आपमें डर पैदा हो जाता है कि अगर नहीं दिया तो पता नहीं...? चाहे वह कुछ जानता हो या न जानता हो, अगर अपना चिमटा ही हिलाने लगे, आंख बंद कर ले, कुछ मंत्र वगैरह पढ़ने लगे, तो आपको जल्दी देना पड़ता है कि निबटाओ। महावीर कहते हैं, खिन्न मत होना, प्रसन्न मत होना, वही पूज्य है—एक / और भिक्षा अपरिचित के घर मांगना, ताकि उसे कोई चिन्ता न हो / अपरिचित के घर मांगना ताकि तुम्हें भी विचार न हो, क्या मिलेगा? नहीं तो तुम भी सोचोगे / अनजान में जाना, भविष्य को निश्चित मत करना। __ लेकिन जैन साधु ऐसा कर नहीं रहा है। जैन साधु परिचित के घर भिक्षा मांग रहा है। जैन साधु अजैन के घर भिक्षा नहीं मांगता, जैनी का पता लगाता है, और उन्हीं घरों में भिक्षा मांगता है, जहां उसे अच्छा भोजन मिलता है / जैन साधु जिस गांव से गुजरते हैं पद-यात्रा में, वहां अगर जैन न हों तो उनके साथ गृहस्थ चलते हैं, बैलगाड़ी में सामान लादकर / तो हर गांव में जाकर वे चौका तैयार करते हैं। ___ अब यह साधारण गृहस्थ से भी ज्यादा खर्चीला धंधा है / दस-पांच आदमी साथ चलते हैं। और ये श्वेताम्बर साधुओं का तो उतना मामला नहीं है; क्योंकि एक आदमी भी चले और वही भोजन तैयार कर दे, तो भी चल जायेगा। लेकिन दिगम्बर मुनि की और भी तकलीफ है, क्योंकि दिगम्बर मुनि एक ही जगह से भोजन नहीं लेता, जैसा कि महावीर के सूत्र में लिखा है। वह अनेक जगह से भोजन लेता है। दस, पंद्रह, बीस आदमियों का जत्था उसके पीछे चलता है; क्योंकि सभी जगह जैन नहीं हैं, अजैन के घर वह भिक्षा ले नहीं सकता, तो दस-पचीस चौके तैयार होंगे हर गांव में, ये पचीस जो उसके पीछे चल रहे हैं, पचीस चौके बनायेंगे, एक आदमी के भोजन के लिए! फिर वह इन सब चौकों से थोड़ा-थोड़ा मांगकर ले जायेगा! चीजें कितनी पागल हो जाती हैं! ये पचीस आदमियों का भोजन एक आदमी खराब कर रहा है। ये पचीस चौके व्यर्थ ही मेहनत उठा रहेहैं; ये पचीस आदमियों के साथ चलने का खर्च, सामान ढोना / यह सब फिजूल चल रहा है। और महावीर कहते हैं, अपरिचित के घर... / निश्चित ही ये पचीस आदमी जो चौका लेकर चलेंगे मुनि के साथ, ये थोड़े ही दिनों में मुनि की आदतों से परिचित हो जायेंगे, क्या उसे पसंद है, क्या उसे पसंद नहीं है और अच्छी-अच्छी चीजें बनाने लगेंगे। और मुनि सहजभाव से लेता रहेगा। ___ यह सहजभाव धोखे का है। महावीर कहते हैं, अपरिचित के घर से भिक्षा, उन्छ वृत्ति से...और एक ही घर से भी मत लेना, क्योंकि किसी पर ज्यादा बोझ पड़ जाये! तो थोड़ा-थोड़ा, जैसे कबूतर चलता है, एक दाना यहां से उठा लिया, फिर दूसरा दाना कहीं और से उठा लिया, फिर तीसरा...। उन्छ वत्ति का मतलब है, कबतर की तरह, एक घर के सामने आधी रोटी मिल गयी, आगे बढ़ गये; दसरे घर के सामने कुछ दाल मिल गयी, आगे बढ़ गये; तीसरे घर के सामने कोई सब्जी मिल गयी...ताकि किसी पर बोझ न हो। और रोज उसी घर में मत पहुंच जाना, अपरिचित घरों की तलाश करना। _महावीर ने कहा है कि तीन दिन से ज्यादा एक गांव में रुकना भी मत / बड़ी अदभुत बात है। क्योंकि मनसविद कहते हैं कि तीन दिन का समय चाहिये कोई भी मोह निर्मित होने के लिए। अगर आप घर बदलते हैं तो आपको तीन दिन नया लगेगा, चौथे दिन से पुराना हो जायेगा। अगर आप किसी नये घर में सोते हैं तो तीन दिन तक, ज्यादा से ज्यादा आपको नींद की तकलीफ होगी, चौथे दिन सब ठीक हो जायेगा, आदी हो जायेंगे। तीन दिन कम से कम का समय है, जिसमें मन चीजों को पुराना कर लेता है। तो महावीर कहते हैं, तीन दिन से ज्यादा एक गांव में मत रुकना, ताकि कोई मोह निर्मित न हो। और जब रुकना ही नहीं है तो मोह निर्मित करने का कोई प्रयोजन नहीं है; आगे बढ़ जाना है। अभी जैन साधु करते हैं यह काम, मगर गणित से करते हैं / विलेपार्ले को 328 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? अलग गांव मानते हैं; फिर सांताक्रुज चले गये तो अलग गांव; फिर मैरीन ड्राइव आ गये तो अलग गांव; तो पचीसों साल बम्बई में बिता देते हैं। आदमी की चालाकी इतनी है कि महावीर हों, कि बुद्ध, कि कृष्ण, वह सबको रास्ते पर रख देता है। तुम कुछ भी करो, वह तरकीब निकाल लेता है, और सब योजना से चलता है। महावीर का मतलब इतना है केवल कि साधक योजना न बनाये, प्लानिंग न करे, आयोजित / गृहस्थ का अर्थ है कि वह योजना करेगा, कल का विचार करेगा, परसों का विचार करेगा, वर्ष का, दो वर्ष का, पूरे जीवन का विचार करेगा / वह संसारी का लक्षण है। साधु का लक्षण महावीर कहते हैं, वह कल का विचार न करे, आज जो हो-उसे जीता रहे। और जो उनकी साधना को मानकर चलते हैं, उन्हें चालाकियां नहीं खोजनी चाहिये / चालाकियां ही खोजनी हों तो उनकी साधना नहीं माननी चाहिये / और साधनाएं हैं दूसरी, हट जाना चाहिये। जिस गुरु के पीछे चलना हो, पूरा चलना चाहिये, तो ही कहीं पहुंचना हो सकता है। अन्यथा बेहतर है, किसी और गुरु के पीछे चलो। पूरे चलने से कोई पहुंचता है। पूरे भाव से संयुक्त होने से कोई पहुंचता है। गुरुओं का उतना सवाल नहीं है / महावीर के पीछे चलो, कि बुद्ध, कि कृष्ण, कि क्राइस्ट, कि मुहम्मद, कोई बड़ा फर्क नहीं है। रास्ते अलग-अलग हैं, लेकिन एक शर्त सबके साथ है कि जिसके साथ चलो, फिर पूरे भाव से चलो, फिर चालाकियां मत खोजो। गुरु के साथ खेल मत खेलो, क्योंकि खेल में तम्हीं हारोगे, गरु को हराने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि हराने का कोई सवाल नहीं है। मेरे पितामह, मेरे दादा कपड़े की दुकान करते थे। मैं जब छोटा था, तब मुझे उनकी बातें सुनने में बड़ा रस आता था। क्योंकि वे कभी-कभी कम बोलते थे, लेकिन ग्राहकों से कभी-कभी वह ऐसी बात कह देते थे जो बड़ी मतलब की होती थी। ग्रामीण थे, अशिक्षित थे, मगर बड़ी चोट की बात कहते थे। वे ग्राहक को एक ही भाव कहना पसंद करते थे। तो एक ही भाव कह देते कि यह साड़ी दस रुपये की है। अगर ग्राहक मोल-भाव करता तो वे उसे कहते कि देख, तरबूज छुरी पर गिरे कि छुरी तरबूज पर, दोनों हालत में तरबूज कटेगा। अगर तुझे मोल-भाव करना हो तो वैसा कह दे; यह साड़ी अलग कर देते हैं, दूसरी साड़ी तेरे सामने लाते हैं। मगर ध्यान रखना, कटेगा तू ही; चाहे मोल-भाव कर और चाहे एक भाव कर / छुरी कटनेवाली नहीं है। दुकानदार कैसा कटेगा? __जब भी मैं गुरु-शिष्य के संबंध में सोचता हूं, मुझे उनकी बात याद आ जाती है। शिष्य ही कटेगा; गुरु के कटने का कोई उपाय नहीं है। वह अब है ही नहीं जो कट सके / इसलिए चालाकी कम से कम गुरु के साथ मत करना। लेकिन सारे साधु-संन्यासी यही कर रहे हैं; अपने को बचाये रखते हैं तरकीबें निकालकर, और धोखा भी देते रहते हैं कि वे पालन कर रहे हैं, और महावीर के साथ चल रहे हैं। __मत चलो। कोई महावीर का आग्रह नहीं है / कोई जरूरत भी नहीं हैं चलने की, अगर पसंद नहीं है। वहां चलो जो पसंद है, लेकिन जहां भी चलो, पूरे मन से। ___ 'जो संस्तारक, शय्या, आसन, और भोजन-पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, संतोष की प्रधानता में रत होकर अपने आपको सदा संतुष्ट बनाये रखता है, वही पूज्य है।' गृहस्थ का लक्षण है, सदा अभाव में जीना / वह उसका मूल लक्षण है / हमेशा जो उसे चाहिये, वह उसके पास नहीं है / जिस मकान में आप रह रहे हैं, वह आपको चाहिये नहीं / आपको चाहिये कोई बड़ा, जो नहीं है / जिस कार में आप चल रहे हैं वह आपके लिए नहीं है। आपको कोई और गाड़ी चाहिये, जो नहीं है। जो कपड़े आप पहन रहे हैं, वह आपके योग्य नहीं हैं। आपको कोई और कपड़े चाहिये। जिस पत्नी के साथ आपका विवाह हो गया है, वह योग्य नहीं है। आपको कोई और स्त्री चाहिये। / कटगा? 329 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 पूरे वक्त जो नहीं है, वह चाहिये। जो है, वह व्यर्थ मालूम पड़ता है, और जो नहीं है, वह सार्थक मालूम पड़ता है / वह भी मिल जायेगा, उसको भी आप व्यर्थ कर लेंगे, क्योंकि आप कलाकार हैं। ऐसी कोई स्त्री नहीं है, जिसको आप एक न एक दिन तलाक देने को राजी न हों, क्योंकि तलाक स्त्री से नहीं आते, आपकी वृत्ति से आते हैं। जो आपके पास नहीं होता, वह पाने योग्य मालूम पड़ता है; जो आपके पास होता है, वह जाना-माना परिचित है; कुछ पाने योग्य मालूम नहीं होता। ऐसा पति अगर आप खोज लें, जो अपनी पत्नी को ही प्रेम किये जा रहा है, अनूठा है, साधु है। बड़ा कठिन है अपनी पत्नी को प्रेम करना; बड़ी साधना है। दूसरे की पत्नी के प्रेम में पड़ना एकदम आसान है। जो दूर है, वह आकर्षित करता है / दूर के ढोल ही सुहावने नहीं होते, दूर की सभी चीजें सुहावनी होती हैं। साधु का लक्षण है, संतोष / गृहस्थ का लक्षण है, अभाव / गृहस्थ उस पर आंख टिकाये रखता है, जो उसके पास नहीं है और जो उसके पास है वह बेकार है। साधु उस पर आंख रखता है, जो है; वही सार्थक है। जो नहीं है, उसका उसे विचार भी नहीं होता / जो है वही सार्थक है, ऐसी प्रतीति का नाम संतोष है। इसलिए जरूरी नहीं है कि आप घर-द्वार छोड़ें तब साधु हो पायेंगे। जो है, अगर आप उससे संतुष्ट हो जायें, तो साधुता आपके पास–जहां आप हैं वहीं आ जायेगी। संतष्ट जो हो जाए वह साध है। असाधता गिर गयी। लेकिन जिनको आप साध कहते हैं. वे भी संतष्ट नहीं हैं। हो सकता है उनके असंतोष की दिशा बदल गयी हो। वे कुछ नयी चीजों के लिए असंतुष्ट हो रहे हों, जिनके लिए पहले नहीं होते थे। मगर असंतुष्ट हैं। वहां भी बड़ी प्रतिस्पर्धा है। कौन महात्मा का नाम ज्यादा हुआ जा रहा है, तो बेचैनी शुरू हो जाती है। कौन महात्मा की प्रसिद्धि ज्यादा हई जा रही है, तो छोटे महात्मा उसकी निंदा में लग जाते हैं। क्योंकि उसे नीचे खींचना, सीमा में रखना जरूरी है। महात्माओं की बातें सनें तो बडी हैरानी होगी कि वे उसी तरह की चर्चाओं में लगे हए हैं, जैसे आम आदमी लगा हआ है। सिर्फ फर्क इतना है कि उनका धंधा जरा अलग है, इसलिए जब वे एक महात्मा के खिलाफ बोलते हैं तो आपको ऐसा नहीं लगता है कि कुछ गड़बड़ कर रहे हैं। लेकिन जब एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के खिलाफ बोलता है तो आप समझते हैं कि कुछ गड़बड़ कर रहा है; नुकसान पहुंचाना चाहता है। उनकी भी आकांक्षाएं हैं। वहां भी चेष्टा बनी हुई है कि और...और... / ऐसा भी हो सकता है कि वे परमात्मा को पाने के लिए ही चिंतारत हों और सोच रहे हों, और परमात्मा कैसे मिले, और परमात्मा कैसे मिले? अभी एक समाधि मिल गयी है, अब और गहरी समाधि कैसे मिले? लेकिन ध्यान भविष्य पर लगा हुआ है, तो ग्राहस्थ्य ही चल रहा है। संन्यस्त का अर्थ है कि जो है, हम उससे इतने राजी हैं कि अगर अब कुछ भी न हो, तो असंतोष पैदा न होगा। - कठिन बात है! घर छोड़ना बड़ा आसान है, अभाव की दृष्टि छोड़ देना बड़ा कठिन है। जो मुझे मिला है, अगर मैं इसी वक्त मर जाऊं तो मरते क्षण में मुझे ऐसा नहीं लगेगा कि कोई चीज की कमी रह गयी, कि कुछ और पाने को था, अगर कल जिंदा रह जाता तो उसे भी पा लेता। ऐसी भावदशा कि मृत्यु अचानक आ जाये तो आपको बिलकुल राजी पाये, और आप कहें कि मैं तैयार हूं। क्योंकि जो होना था हो चुका, जो पाना था पा लिया, जो मिल सकता था मिल गया, मैं संतुष्ट हूं। इससे ज्यादा की कोई मांग न थी। जीवन अपने पूरे अर्थ को खोल गया है। __सोचें, अगर मृत्यु अभी आ जाये तो आपको राजी पायेगी? आप कहेंगे कि दो दिन तो ठहर जा! एक धंधे में पैसा उलझाया है, कम से कम नतीजे का तो पता चल जाये! कि लाटरी की टिकट खरीदी है, अभी परसों ही तो वह खुलनेवाली है, खबर आनेवाली है; कि लड़की का विवाह करना है; कि बेटा युनिवर्सिटी गया है; परीक्षा दे दी है, रिजल्ट खुलने को दो दिन हैं...या आप राजी पायेंगे? मौत आकर कहे कि तैयार हैं, आप खड़े हो जायेंगे कि चलता हूं? 330 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? अगर आप खड़े हो सकें, तो आप संन्यस्त हैं। अगर आप समय मांगें, तो आप गृहस्थ हैं / महावीर कहते हैं, संतोष पूज्य है, जो संतुष्ट है, वही पूज्य है। _ 'गुणों से ही मनुष्य साधु होता है, और अगुणों से असाधु / अतः हे मुमुक्षु! सदगुणों को ग्रहण कर और दुर्गणों को छोड़ / जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य है।' ___ गुणों से मनुष्य साधु होता है, घर छोड़ने से नहीं; वस्त्र छोड़ने से नहीं; पति, पत्नी, परिवार छोड़ने से नहीं; धंधा-दुकान, बाजार छोड़ने से नहीं / गुणों से व्यक्ति साधु होता है। लेकिन दुनिया के अधिक साधु गुण की फिकर नहीं करते, क्योंकि गुणों को बदलना कठिन है, जटिल है / परिस्थिति को बदलते हैं, मनःस्थिति को नहीं। जिसको भी साधु होने का खयाल हो जाता है, वह सोचता है, छोड़ो घर-द्वार; सच तो यह है कि घर-द्वार किसके सुखद हैं। जो रह रहे हैं, बड़े साधक हैं। जो भाग गये हैं. वे केवल इतनी ही खबर देते हैं कि कमजोर रहे होंगे। कमजोरी पलायन बन जाती है। महावीर का पलायन कमजोरी का पलायन नहीं है। महावीर कहते हैं : संसार छोड़ा जा सकता है, लेकिन शक्ति से, कमजोरी से नहीं। उस दिन संसार छोड़ना जिस दिन वह व्यर्थ हो जाये / लेकिन हम दुःख के कारण छोड़ते हैं, व्यर्थता के कारण नहीं। यह बड़ा फर्क है। महावीर संसार छोड़ते हैं, क्योंकि वहां कुछ है ही नहीं जिसको पकड़ने की जरूरत हो / सब व्यर्थ है। तो संसार ऐसे गिर जाता है जैसे सांप की केंचुली गिर जाती है और सांप आगे सरक जाता है। फिर सांप लौट-लौटकर नहीं देखता है कि कितनी बहुमूल्य केंचुल को छोड़ दिया...'अरे, कोई तो समझो! कोई तो आओ, देखो कि त्याग कर दिया! महात्यागी हूं, खोल छोड़ दी अपनी!' सांप खोल से बाहर निकल जाता है, खोल व्यर्थ हो गयी / महावीर कहते हैं : संसार छोड़ा जा सकता है, लेकिन तभी, जब संसार इतना व्यर्थ हो जाये कि छोडने-जैसा भी मालम न पडे। __ध्यान रहे, आपको वही चीज छोड़ने-जैसी मालूम पड़ती है, जो पकड़ने-जैसी मालूम पड़ती थी पहले। छोड़ने का खयाल, पकड़ने की वृत्ति का हिस्सा है। अगर एक-एक आदमी से हम पूछे कि अगर तुझे सच में पूरा मौका हो भागने का घर से, और कोई असुविधा नहीं आयेगी इससे बड़ी वहां जो यहां आ रही है, तो सभी लोग राजी हो जायेंगे। वे इसी डर से नहीं छोड़ते हैं कि छोड़कर जाओगे कहां? और जहां जाओगे वहां फिर असुविधाएं हैं। लेकिन कमजोर आदमी भाग जाता है। कमजोर आदमी दुखी की भाषा ही समझता है। ___ मैंने सुना है, एक बड़ी फर्म में मालिक कुछ इकसेंट्रिक-थोड़ा झक्की आदमी था; मौजी और झक्की, उसने अचानक एक दिन घोषणा की अपने सारे कर्मचारियों को इकट्ठा करके कि मैं तुम सबको तुम्हारी पेंशन का जो पुराना हिसाब था वह तो दूंगा ही और हर व्यक्ति को जब वह रिटायर होगा, तो उसको पचास हजार रुपये भी दूंगा। सब लोग लेने को राजी हैं, तो सब लोग महीने के भीतर दस्तखत कर दें फार्म पर / शर्त एक ही है : सबके दस्तखत होने चाहिये; अगर एक ने भी दस्तखत न किया तो यह नियम लागू न होगा ___ पर लोगों ने कहा, यह शर्त तो बड़ी मजेदार है, कौन दस्तखत न करेगा! लोगों का क्यू लग गया एकदम जल्दी दस्तखत करने को कि कहीं महीना न निकल जाये। पहले दिन ही सब लोगों ने, सिर्फ मुल्ला नसरुद्दीन को छोड़कर, दस्तखत कर दिये / मुल्ला नहीं आया। एक दिन, दो दिन, तीन दिन-आखिर लोग चिंतित होने लगे। लोगों ने कहा, 'भाई, दस्तखत क्यों नहीं कर रहे हो? मुल्ला ने कहा, 'दिस इज टू काम्पलिकेटेड, एन्ड आइ डोन्ट अंडरस्टैंड, एन्ड अनलेस आइ अंडरस्टैंड राइटली, आइ एम नाट गोइंग टु साइन / जरा जटिल है-यह पूरी योजना, और भरोसा भी नहीं आता, और समझ में भी नहीं बैठता कि कोई आदमी क्यों पचास हजार रुपये देगा? जरूर इसमें कोई चाल होगी। यह फंसा रहा है!' सब ने समझाया-मित्रों ने, आफिसर्स ने, मैनेजर ने, यूनियन के लोगों ने, लेकिन मुल्ला अपनी जिद्द पर अड़ा रहा कि मेरी कुछ 331 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 समझ में नहीं आता। सब सुनकर वह कहता कि मेरी समझ में नहीं आता। इस मामले में कोई चाल है। पचास हजार किसलिए? और एक आदमी का सवाल नहीं है; कोई पांच सौ कर्मचारी हैं।...ढाई करोड़ रुपया! मान नहीं सकते! बुद्धि में नहीं घुसता! / आखिर सब लोगों ने आकर कहा कि यह तो मार डालेगा सबको। आखिरी दिन आ गया, पर कोई रास्ता नहीं निकला। आखिर मैनेजर ने जाकर मालिक को कहा कि वह आदमी, मुल्ला नसरुद्दीन दस्तखत नहीं कर रहा है। हम सब फंस गये और आपने भी खूब शर्त लगायी। हम सोचते थे, आप ही एक झक्की हो—एक हमारे बीच भी है आपसे भी पहुंचा हुआ है। ___ मालिक ने कहा, 'उसे बुलाओ।' बीसवीं मंजिल पर मालिक का आफिस था / नसरुद्दीन लाया गया; दरवाजे के भीतर प्रविष्ट हुआ। मालिक ने फार्म, कलम तैयार रखी है दस्तखत करने के लिये / दरवाजा बंद किया, तब सरुद्दीन ने देखा कि पांच पहलवान आदमी दरवाजे के पास खड़े हैं। ___ मालिक ने कहा, 'इस पर दस्तखत कर दो। मैं दस तक गिनती करूंगा, इस बीच अगर दस्तखत नहीं किये तो पीछे पहलवान जो खड़े हैं, वे उठाकर तुम्हें खिड़की के बाहर फेंक देंगे!' नसरुद्दीन ने बड़ी प्रसन्नता से दस्तखत कर दिये / ना तो सवाल उठाया, न कोई झंझट खड़ी की; न कोई तर्क, न कोई शंका / और ऐसा भी नहीं कि दुख से किये, बड़ी प्रसन्नता से, आह्लादित। मालिक भी हैरान हुआ। उसने कहा कि नसरुद्दीन, तब तुमने पहले ही दस्तखत क्यों नहीं कर दिये? नसरुद्दीन ने कहा, 'नो वन एक्सप्लेन्ड मी सो क्लीयरली / बात बिलकुल साफ है, पर कोई समझाये तब न / ' हम भी दुख की, मृत्यु की भाषा समझते हैं। अगर आप संन्यस्त भी होते हैं तो मरने के डर से; अगर आप संन्यस्त होते हैं तो गृहस्थी दख से, पीडा से, संताप से / बस, हम समझते ही हैं मौत की भाषा में, आनंद की भाषा का हमें कोई पता भी नहीं है / महावीर संन्यस्त हुए महा-आनंद से। उनके पीछे जो साधुओं का समूह चल रहा है, वह दुखी लोगों की जमात है / कोई परेशान था कि पत्नी सता रही थी। कोई परेशान था कि पत्नी मर गयी / स्त्रियों की बड़ी संख्या है जैन साधुओं में, साध्वियों में काफी बड़ी-पांच-सात गुनी ज्यादा पुरुषों से। उनमें अधिक विधवाएं हैं, जिनके जीवन में कोई सुख का उपाय नहीं रहा, या गरीब घर की लड़कियां हैं, जिनका विवाह नहीं हो सकता था, क्योंकि दहेज की कोई व्यवस्था नहीं थी, या कुरूप स्त्रियां हैं, जिन्हें कोई पुरुष चाह नहीं सकता था, या बीमार और रुग्ण स्त्रियां हैं, जो अपने शरीर से इतनी परेशान हो गयी थीं कि उससे छुटकारा चाहती थीं। साधु-साध्वियों की मनोकथा इकट्ठी करने-जैसी है कि कोई क्यों साधु हुआ है। अगर कोई दुख से साधु हुआ है तो उसका महावीर से कोई संबंध नहीं जुड़ सकता / क्योंकि महावीर आनंद की भाषा... आप जानते हों, तो ही महावीर से जुड़ सकते हैं। से साध नहीं होता. गणों से साध होता है। गण पैदा करने पड़ते हैं। गणों का आविर्भाव करना पडता है। और यह भी खयाल में ले लें कि महावीर पहले कहते हैं, गुणों से मनुष्य साधु होता है और अगुणों से असाधु / ये भी ध्यान में ले लें कि दुर्गुण छोड़े नहीं जा सकते, क्योंकि छोड़ने की प्रक्रिया नकारात्मक है / सदगुण पैदा किये जा सकते हैं, वह विधायक हैं। और सदगुण जब पैदा हो जाते हैं तो दुर्गुण छूटने लगते हैं। अगर आप दुर्गुणों पर ही ध्यान रखें और उनको ही छोड़ने में लगे रहे, तो आप व्यर्थ ही नष्ट हो जायेंगे, क्योंकि दुर्गुण तो सिर्फ इसलिए हैं कि सदगुण नहीं हैं। ___ दुर्गुणों की फिक्र ही मत करें; सदगुणों को पैदा करने की चेष्टा करें / समझें कि एक आदमी सिगरेट पी रहा है, शराब पी रहा है, वह कोशिश में लगा रहता है कि इसको छोड़ें; छोड़ नहीं पाता, क्योंकि वह यह देख ही नहीं पा रहा है कि कोई बहुमूल्य चीज की भीतर कमी है, जिसके कारण शराब मूल्यवान हो गयी है। एक मित्र हैं मेरे; यहां मौजूद हैं। वे शराब पिये चले जाते हैं। भले आदमी हैं / पत्नी उनके पीछे लगी रहती है कि छोड़ो / पत्नी जरूरत 332 . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? से ज्यादा भली है; उनसे भी ज्यादा भली है, इसलिए पीछे लगी रहती है, पिंड ही नहीं छोड़ती उनका कि छोड़ो, शराब पीना छोड़ो। न पत्नी की यह समझ में आता है कि निरंतर बीस साल से उसकी यह कोशिश कि शराब छोड़ो...छोड़ो, उनको शराब पीने की तरफ धक्का दे रही है। पत्नी मुझे कह रही थी आकर कि वैसे तो वे मेरे सामने बिलकुल शांत रहते हैं, दब्बू रहते हैं, जब होश में रहते हैं; लेकिन रात जब वे पीकर आ जाते हैं तो बड़ा ज्ञान बघारने लगते हैं और बड़ी ऊंची बातें! और आपको सुन लेते हैं, तो वह जो सुन लेते हैं उसको आकर रात दो-दो, तीन-तीन बजे तक प्रवचन करते हैं और फिर वे बिलकुल नहीं दबते मुझसे / फिर वे सोने को भी राजी नहीं होते। फिर तो वे डरते ही नहीं: किसी को कछ समझते ही नहीं। लेकिन दिन में बिलकल दब्ब रहते हैं! __अब इसको थोड़ा समझना जरूरी है कि हो सकता है वे दब्बूपन मिटाने के लिए ही शराब पीना शुरू कर दिये हों। पत्नी ने इतना दबा दिया है कि जब तक वे होश में हैं, तब तक हीन मालूम पड़ते हैं; जब होश खो जाता है, तब फिर वे फिकर नहीं करते पत्नी की और बीस साल निरन्तर किसी की खोपड़ी को सताते रहो कि मत पियो, मत पियो, मत पियो, बिना इसकी फिकर किये कि वह क्यों पी रहा है। __ कोई व्यक्ति शराब पीने ऐसे ही नहीं चला जाता / जीवन में कुछ दुख है, कुछ भुलाने योग्य है / सभी जानते हैं कि शराब नुकसान कर रही है, फिर भी नुकसान को झेलकर भी आदमी पिये जाता है, क्योंकि कुछ जो भुलाने योग्य है, वह इतना ज्यादा है कि नुकसान सहना बेहतर है, बजाय उसको याद रखने के। लेकिन हम दुर्गण छोड़ने पर जोर देते हैं। दुर्गुण छुड़ाने से नहीं छूटते / वह पत्नी भूल में है। वह शराब कभी भी नहीं छूटेगी। वह शराब को पिलाने में पचास प्रतिशत उसका भी हाथ है; ज्यादा भी हो सकता है, क्योंकि पत्नी से पति डरने लगा है। जहां डर है, वहां प्रेम खो जाता है, और जहां प्रेम नहीं है, वहां आदमी अपने को भलाने की चेष्टा शरू कर देता है। मैंने उनकी पत्नी को कहा कि कम से कम तू तीन महीने के लिये इतना कर कि छोड़ दे कहना / उसने कुछ ही दिन बाद आकर मुझे कहा कि बड़ी मुश्किल है! जैसे उनकी आदत पड़ गयी पीने की, वैसे ही मेरी आदत पड़ गयी छुड़ाने की। ___ अब आपको पक्का खयाल नहीं हो सकता, अगर पति सच में ही छोड़ दे शराब पीना, तो पत्नी परेशान हो जायेगी; जितनी वह अभी है उससे ज्यादा, क्योंकि छुड़ाने को कुछ भी न बचेगा। मैंने उस पत्नी को कहा कि जब तुझे लगता है कि तू कहना नहीं छोड़ सकती, तो पीना छोड़ना कितना कठिन होगा, यह तो सोच! तो थोड़ी दया कर और तेरे कहने से नहीं छूटती है, यह भी तुझे अनुभव है। बीस साल, काफी अनुभव है। ___ कोई दुर्गुण सीधा नहीं छोड़ा जा सकता। जो भी छुड़ाने की कोशिश करते हैं वे नासमझ हैं / वे दुर्गुण को और बढ़ाते हैं / सदगुण पैदा किया जाये। कोई आदमी अपने को भुलाने के लिये शराब पी रहा है, तो उस आदमी के जीवन में कुछ सुखद नहीं है / उस आदमी के जीवन में सुखद पैदा हो, तो वह स्वयं को भुलाना छोड़ देगा, क्योंकि कोई भी सुख को नहीं भूलना चाहता; सभी दुख को भूलना चाहते हैं। और इस आदमी को भी खुद खयाल नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूं। वह भी छोड़ने की कोशिश करते हैं कि छोड़ दूं, छोड़ दूं, पर कुछ नहीं होता / छोड़कर क्या होगा? कुछ भीतर खो रहा है / कोई मौलिक तत्व भीतर मौजूद नहीं है / उसको पहले पैदा करना पड़ेगा। ___ सभी शराब पीनेवाले अपराधी नहीं हैं, सिर्फ मूर्च्छित हैं; मानसिक रूप से रुग्ण हैं और जीवन का आह्लाद नहीं है; भीतर तो शराब की जरूरत पड़ रही है / इन मित्र को मैं कहता हूं कि जीवन का आह्लाद पैदा करो; नाचो, गाओ, ध्यान करो, प्रसन्न होओ, और प्रसन्नता की थोड़ी सी रेखा तुम्हारे भीतर आ जाये तो तुम शराब पीना बंद कर दोगे, क्योंकि जब भी तुम शराब पीयोगे, वह प्रसन्नता की रेखा मिट जायेगी। अभी दुख है भीतर, शराब पीने से दुख मिटता है; आनंद होगा, आनंद मिटेगा। आनंद को कोई नहीं मिटाना चाहता / तो तुम आनंदित होने की कोशिश करो, शराब का बिलकुल खयाल ही छोड़ दो। पीते रहो और आनंदित होने की कोशिश करो / गुण को पैदा 333 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 करो; दुर्गुण से मत लड़ो। दुर्गुण से लड़ना मूढ़तापूर्ण है। इसलिए महावीर कहते हैं : गुणों से मनुष्य साधु हो जाता है, दुर्गुणों से असाधु / '...हे मुमुक्षु! सदगुणों को ग्रहण कर और दुर्गुणों को छोड़।' दुर्गुण छूट ही जाते हैं सदगुण करने से, छोड़ने की चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती; गिरने लगते हैं, जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं। 'जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य जीवन के दो ही द्वंद्व हैं। कोई आकर्षित करता है तो 'राग' पैदा होता है; कोई विकर्षित करता है तो 'द्वेष' पैदा होता है। किसी को हम चाहते हैं हमारे पास रहे, और किसी को हम चाहते हैं पास न रहे / किसी को हम चाहते हैं सदा जीये, चिरंजीवी हो, और किसी को हम चाहते हैं, अभी मर जाये / हम जगत में चुनाव करते हैं कि यह अच्छा है और यह बुरा है; ये मेरे लिए हैं मित्र, और ये शत्रु हैं, मेरे खिलाफ ___ महावीर कहते हैं, साधु वही है, वही पूज्य है, जो न राग करता है, न द्वेष / क्योंकि महावीर कहते हैं कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे लिये कोई भी नहीं है / तुम ही तुम्हारे मित्र हो और तुम ही एकमात्र तुम्हारे शत्रु हो / महावीर ने बड़ी अनूठी बात कही है कि आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है। बाहर मित्र-शत्रु मत खोजो। वहां न कोई मित्र है, न कोई शत्रु / वे सब अपने लिए जी रहे हैं, तुम्हारे लिए नहीं। तुमसे उन्हें प्रयोजन भी नहीं है। तुम भी अपने भीतर ही अपने मित्र को खोजो, और अपने शत्रु को विसर्जित करो। ___ और तब एक बड़ी अदभुत घटना घटती है। जैसे ही कोई व्यक्ति यह समझने लगता है कि मैं ही मेरा मित्र हूं और मैं ही मेरा शत्रु, वैसे ही जीवन रूपांतरित होना शुरू हो जाता है; क्योंकि दूसरों पर से नजर हट जाती है, अपने पर नजर आ जाती है। तब जो बुरा है, वह उसे काटता है, क्योंकि वह शत्रु है / तब जो शुभ है, वह उसे जन्माता है, क्योंकि वही मित्र है। और जिस दिन कोई व्यक्ति भीतर अपनी आत्मा की पूरी मित्रता को उपलब्ध हो जाता है, उस दिन इस जगत में उसे कोई भी शत्रु नहीं दिखायी पड़ता। ऐसा नहीं कि शत्रु मिट जायेंगे। शत्रु रहे आयेंगे, लेकिन वे अपने ही कारण शत्र होंगे. आपके कारण नहीं. और उन शत्रओं पर भी आपको दया आयेगी, करुणा आयेगी, क्योंकि वे अकारण परेशान हो रहे हैं; कुछ लेना-देना नहीं है। महावीर कहते हैं : अपने को ही अपने द्वारा जानकर राग-द्वेष से जो मुक्त होता जाता है, और धीरे-धीरे स्वयं में जीने लगता है; दूसरों से अपने संबंध काट लेता है... / इसका यह मतलब नहीं है कि वह दूसरों से संबंधित न रहेगा। लेकिन तब एक नये तरह के संबंध का जन्म होता है। वह बंधन नहीं है। अभी हम संबंधित हैं; वह बंधन है, जकड़ा हुआ जंजीरों की तरह / एक और संबंध का जन्म होता है, जब व्यक्ति अपने में थिर हो जाता है / तब उसके पास लोग आते हैं, जैसे फूल के पास मधुमक्खियां आती हैं। अनेक लोग उसके पास आयेंगे। अनेक लोग उससे संबंधित होंगे, लेकिन वह असंग ही बना रहेगा। मधुमक्खियां मधु ले लेंगी और उड़ जायेंगी; फूल अपनी जगह बना रहेगा। फूल रोएगा नहीं कि मधुमक्खियां चली गयीं। फूल चिंतित नहीं होगा कि वे कब आयेंगी। नहीं आयेंगी तो फूल मस्त है; मधुमक्खियां आयेंगी तो फूल मस्त है / न उनके आने से, न उनके न आने से कोई फर्क पड़ता है। संबंध अब भीतर से बाहर की तरफ नहीं जाता। जो व्यक्ति स्वयं में थिर हो जाता है, उसके आसपास बहुत लोग आते हैं; संबधित होते हैं लेकिन वे भी अपने कारण संबंधित होते हैं। वह व्यक्ति असंग बना रहता है। भीड़ के बीच अकेला हो जाना संन्यास है। गृहस्थी के बीच अकेला हो जाना संन्यास है। संबंधों के बीच असंग हो जाना संन्यास 334 . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन है पूज्य ? है। महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति पूज्य है। आज इतना ही। 335