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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 करो; दुर्गुण से मत लड़ो। दुर्गुण से लड़ना मूढ़तापूर्ण है। इसलिए महावीर कहते हैं : गुणों से मनुष्य साधु हो जाता है, दुर्गुणों से असाधु / '...हे मुमुक्षु! सदगुणों को ग्रहण कर और दुर्गुणों को छोड़।' दुर्गुण छूट ही जाते हैं सदगुण करने से, छोड़ने की चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती; गिरने लगते हैं, जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं। 'जो साधक अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर राग और द्वेष दोनों में समभाव रखता है, वही पूज्य जीवन के दो ही द्वंद्व हैं। कोई आकर्षित करता है तो 'राग' पैदा होता है; कोई विकर्षित करता है तो 'द्वेष' पैदा होता है। किसी को हम चाहते हैं हमारे पास रहे, और किसी को हम चाहते हैं पास न रहे / किसी को हम चाहते हैं सदा जीये, चिरंजीवी हो, और किसी को हम चाहते हैं, अभी मर जाये / हम जगत में चुनाव करते हैं कि यह अच्छा है और यह बुरा है; ये मेरे लिए हैं मित्र, और ये शत्रु हैं, मेरे खिलाफ ___ महावीर कहते हैं, साधु वही है, वही पूज्य है, जो न राग करता है, न द्वेष / क्योंकि महावीर कहते हैं कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे लिये कोई भी नहीं है / तुम ही तुम्हारे मित्र हो और तुम ही एकमात्र तुम्हारे शत्रु हो / महावीर ने बड़ी अनूठी बात कही है कि आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है। बाहर मित्र-शत्रु मत खोजो। वहां न कोई मित्र है, न कोई शत्रु / वे सब अपने लिए जी रहे हैं, तुम्हारे लिए नहीं। तुमसे उन्हें प्रयोजन भी नहीं है। तुम भी अपने भीतर ही अपने मित्र को खोजो, और अपने शत्रु को विसर्जित करो। ___ और तब एक बड़ी अदभुत घटना घटती है। जैसे ही कोई व्यक्ति यह समझने लगता है कि मैं ही मेरा मित्र हूं और मैं ही मेरा शत्रु, वैसे ही जीवन रूपांतरित होना शुरू हो जाता है; क्योंकि दूसरों पर से नजर हट जाती है, अपने पर नजर आ जाती है। तब जो बुरा है, वह उसे काटता है, क्योंकि वह शत्रु है / तब जो शुभ है, वह उसे जन्माता है, क्योंकि वही मित्र है। और जिस दिन कोई व्यक्ति भीतर अपनी आत्मा की पूरी मित्रता को उपलब्ध हो जाता है, उस दिन इस जगत में उसे कोई भी शत्रु नहीं दिखायी पड़ता। ऐसा नहीं कि शत्रु मिट जायेंगे। शत्रु रहे आयेंगे, लेकिन वे अपने ही कारण शत्र होंगे. आपके कारण नहीं. और उन शत्रओं पर भी आपको दया आयेगी, करुणा आयेगी, क्योंकि वे अकारण परेशान हो रहे हैं; कुछ लेना-देना नहीं है। महावीर कहते हैं : अपने को ही अपने द्वारा जानकर राग-द्वेष से जो मुक्त होता जाता है, और धीरे-धीरे स्वयं में जीने लगता है; दूसरों से अपने संबंध काट लेता है... / इसका यह मतलब नहीं है कि वह दूसरों से संबंधित न रहेगा। लेकिन तब एक नये तरह के संबंध का जन्म होता है। वह बंधन नहीं है। अभी हम संबंधित हैं; वह बंधन है, जकड़ा हुआ जंजीरों की तरह / एक और संबंध का जन्म होता है, जब व्यक्ति अपने में थिर हो जाता है / तब उसके पास लोग आते हैं, जैसे फूल के पास मधुमक्खियां आती हैं। अनेक लोग उसके पास आयेंगे। अनेक लोग उससे संबंधित होंगे, लेकिन वह असंग ही बना रहेगा। मधुमक्खियां मधु ले लेंगी और उड़ जायेंगी; फूल अपनी जगह बना रहेगा। फूल रोएगा नहीं कि मधुमक्खियां चली गयीं। फूल चिंतित नहीं होगा कि वे कब आयेंगी। नहीं आयेंगी तो फूल मस्त है; मधुमक्खियां आयेंगी तो फूल मस्त है / न उनके आने से, न उनके न आने से कोई फर्क पड़ता है। संबंध अब भीतर से बाहर की तरफ नहीं जाता। जो व्यक्ति स्वयं में थिर हो जाता है, उसके आसपास बहुत लोग आते हैं; संबधित होते हैं लेकिन वे भी अपने कारण संबंधित होते हैं। वह व्यक्ति असंग बना रहता है। भीड़ के बीच अकेला हो जाना संन्यास है। गृहस्थी के बीच अकेला हो जाना संन्यास है। संबंधों के बीच असंग हो जाना संन्यास 334 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340043
Book TitleMahavir Vani Lecture 43 Kaun hai Pujya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size94 MB
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