Book Title: Mahavir Vani Lecture 40 Panch Gyan aur Aath Karm
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म तेरहवां प्रवचन 243 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकतत्व-सूत्र : 4 तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं / ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं।। नाणस्सावरणिज्जं. दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव च।। नामकम्मं च गोत्तं च, अंतरायं तहेव च। एवमेयाई कम्माई, अद्वैव उ समासओ।। श्रुत, मति, अवधि, मन-पर्याय और कैवल्य - इस भांति ज्ञान पांच प्रकार का है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आय, नाम, गोत्र और अन्तराय - इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कर्म बतलाये हैं। 244 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य जाति के इतिहास में महावीर ने ज्ञान का पहला विभाजन किया है / ज्ञान के कितने आयाम हो सकते हैं, कितनी दिशाएं हो सकती हैं। ज्ञान कितने प्रकार का हो सकता है, या होता है-महावीर का वर्गीकरण प्रथम है। अभी पश्चिम में इस दिशा में काफी काम हुआ है। महावीर ने पांच प्रकार के ज्ञान बताए हैं। इस सदी के प्रथम चरण तक सारी मनुष्यता मानकर चलती थी कि ज्ञान एक ही प्रकार का है। वैज्ञानिक ज्ञान का एक ही रूप स्वीकार करते थे। लेकिन अब वैज्ञानिकों ने भी महावीर के पहले तीन ज्ञान स्वीकार कर लिए हैं। और वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब बाद के दो ज्ञान भी स्वीकार करने पड़ेंगे। ज्ञान के इस वर्गीकरण को ठीक-से समझ लेना जरूरी है। मनुष्य की चेतना का यह पहला वैज्ञानिक निरूपण है। पहले तीन ज्ञान सामान्य मनुष्य में भी हो सकते है, होते हैं। अंतिम दो ज्ञान साधक के जीवन में प्रवेश करते हैं, और अंतिम, पांचवां ज्ञान केवल सिद्ध के जीवन में होता है। इसलिए पश्चिम के मनोवैज्ञानिक पहले तीन ज्ञानों को स्वीकार करने लगे हैं; क्योंकि उनकी झलक सामान्य मनुष्य के जीवन में भी मिल सकती है। साधक की चेतना में क्या घटित होता है, और सिद्ध की चेतना में क्या घटित होता है, अभी देर है कि उस संबंध में जानकारी साफ हो सके; लेकिन महावीर की दृष्टि बहुत साफ है। __ पहला ज्ञान, महावीर कहते हैं, 'श्रुत', दूसरा ‘मति', तीसरा 'अवधि' / 'श्रुत' ज्ञान : जो सुनकर होता है, जिसका स्वयं कोई अनुभव नहीं है। हमारा अधिक ज्ञान, श्रत-ज्ञान है। न तो हमारी अन्तरात्मा को उसकी कोई प्रतीति है, और न हमारी इंद्रियों को उसका कोई अनभव है। हमने सुना है, सुनकर वह हमारी स्मृति का हिस्सा हो गया है / इसे ही जो ज्ञान मानकर रुक जाता है, वह ज्ञान के पहले चरण पर ही रुक गया। यह तो ज्ञान की शुरुआत ही थी। जो सुना है, जब तक देखा न जा सके; जो सुना है, जब तक जीवन न बन जाये; जो सुना है, जब तक जीवन की धारा में प्रविष्ट न हो जाये, तब तक उसे ज्ञान कहना औपचारिक रूप से ही है। हमारा अधिक ज्ञान इसी कोटि में समाप्त हो जाता है। और मजा यह है कि हम इसी ज्ञान को समझ लेते हैं; पूर्णता हो गई! श्रुत-ज्ञान को ही जिसने पूरा ज्ञान समझ लिया, वह पंडित हो जाता है, ज्ञानी कभी भी नहीं हो पाता। स्कूल हैं, कालेज हैं, गुरु हैं, शास्त्र हैं-इनसे जो भी हमें मिलता है, वह श्रुति-ज्ञान ही हो पाता है। वह श्रुत है। और कान आपका पूरा अस्तित्व नहीं है; और कान से जो स्मृति में चला गया, वह जीवन का एक बहुत क्षुद्र हिस्सा है, वह सिर्फ रिकार्डिंग है। सुना आपने कि 'ईश्वर है', ये शब्द कान में चले गये, स्मृति के हिस्से बन गए; बार-बार सुना तो स्मृति प्रगाढ़ होती चली गई; इतनी बार सुना कि आप यह भूल ही गये कि यह सुना हुआ है। 245 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 एडोल्फ हिटलर कहा करता था : किसी भी असत्य को बार-बार दुहराते चले जाओ, सुननेवाले की फिकर मत करो, सुनाए चले जाओ, तो आज नहीं कल सुननेवाला भूल जायेगा कि जो कहा जा रहा है, वह असत्य है। जिन्हें हम सत्य मानकर जानते हैं, उनमें बहुत से इसी तरह के असत्य हैं, जो इतनी बार कहे गये हैं कि आपको खयाल भी नहीं रहा कि वे असत्य हो सकते हैं। और असत्य से कोई अड़चन भी बहुत नहीं आती। सच तो यह है, सत्य से अड़चन आनी शुरू होती है। असत्य बड़ा कन्विनिएन्ट, सुविधापूर्ण है। __फ्रेड्रिक नीत्शे ने तो बड़ी अनूठी बात कही है। उसने कहा यह है कि जैसे-जैसे मनुष्य के जीवन में सत्य आयेगा, वैसे-वैसे मनुष्य को जीवन में कठिनाई होगी; क्योंकि मनुष्य जीता ही असत्य के सहारे है / वह उसका पोषण है। नीत्शे ने यह भी कहा है : इसलिए किसी के असत्य मत तोड़ो। उसको बेचैनी मत दो; उसको कष्ट मत दो। और अगर तुमने तोड़ भी दिये उसके असत्य, तो वह नये असत्य गढ़ लेगा। और नये असत्यों की बजाय पुराने असत्य ज्यादा सुविधापूर्ण होते हैं, क्योंकि उन्हें गढ़ना नहीं पड़ता। और वे हमें वसीयत में मिलते हैं, सुनकर मिलते हैं। उन पर भरोसा मजबूत होता है। ___ आज दुनिया में जो बेचैनी है, नीत्शे का कहना यही है कि यह बेचैनी इसी कारण है कि पुराने सत्य सब असत्य मालूम होने लगे हैं, जैसे कि वे थे। सब असत्य प्रगट हो गए, और नये असत्य खोजना बड़ा कठिन हो रहा है। और आदमी बड़ी दुविधा में पड़ गया है। नीत्शे की बात में थोड़ी सचाई है। जैसा आदमी है-रुग्ण, विक्षिप्त, वह असत्य के सहारे ही जीता है। लेकिन अगर उसे पता चल जाये कि यह असत्य है, तो कठिनाई शुरू हो जाती है। असत्य के सहारे वह जीता है तभी तक, जब तक उसे लगता है, ये असत्य सत्य हैं—तब तक बड़ी शांति होती है। ध्यान रहे, अगर आप संतोष की खोज कर रहे हैं, सिर्फ बेचैनी से बचना चाहते हैं, तो असत्य भी काम दे सकते हैं। लेकिन अगर आप मुक्ति की खोज कर रहे हैं, तो असत्य काम नहीं दे सकते। चाहे फिर सत्य कितना ही पीड़ादायी हो, उसके अनुभव को उपलब्ध होना ही पड़ेगा। श्रुत-ज्ञान निन्यानबे प्रतिशत असत्य है; क्योंकि जिनसे हम सुनते हैं, उनका जीवन असत्य है / लेकिन परखा हुआ है वह असत्य ज्ञान। हजारों साल से काम दे रहा है ! .... इसे हम ऐसा समझें : आप एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं। तो आप उस स्त्री को कहते हैं कि 'बस तेरे अतिरिक्त इस जगत में न तो कोई सुंदर है, न कोई प्रेम का पात्र है / बस, तेरे अतिरिक्त मेरे लिए कोई भी नहीं है। क्योंकि यही बात आप पहले दूसरी स्त्रियों से भी कह चुके हैं। और आप भी जानते हैं कि यह सत्य नहीं है। और यह भी आप जानते हैं, अगर थोड़ी खोज करेंगे तो यही बात आप और स्त्रियों से भी कहेंगे, क्योंकि अभी जीवन का अंत नहीं हो गया है। लेकिन यह असत्य बड़ा मधुर है, और कहने में बड़ा उपयोगी है। और वह स्त्री भी जानती है कि यह बात बिलकुल सही तो नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी इस पर भरोसा करती है; क्योंकि सुनने में यह प्रीतिकर है। और इस असत्य के सहारे आपका प्रेम खड़ा होता है। यह प्रेम कितनी देर चल सकता है? और जब यह प्रेम टूटता है, तो आप यह नहीं देखते कि हमने एक असत्य के सहारे इसको खड़ा किया था। आप समझते हैं कि 'जो पात्र हमने चुना था, वह ही गलत था / बात तो हमने जो कही थी, वह ठीक थी, लेकिन व्यक्ति जो हमने चुना वह गलत था / हम अब दूसरे व्यक्ति को चुनकर वही ठीक बात फिर से कहेंगे।' 246 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म आप दूसरे से भी कहेंगे, और तीसरे से भी कहेंगे / और हर बार यह बात कारगर होगी। क्योंकि मन असत्य में पला है। अगर प्रेमी अपनी प्रेयसी से कहे कि तू मुझे सुन्दर मालूम पड़ती है तुलनात्मक रूप से : जितनी स्त्रियों को मैं जानता हूं, उनमें तू सबसे सुंदर मालूम पड़ती है, लेकिन और स्त्रियां भी सुंदर हो सकती हैं, जिन्हें मैं जानता नहीं हूं! तो कविता नष्ट हो जायेगी। तो प्रेम खड़ा ही नहीं हो पायेगा। वह स्त्री कहेगी कि आप कोई गणित का हिसाब कर रहे हैं—रिलेटिव, सापेक्ष? कल हो सकता है, तुझसे अच्छी स्त्री मिल जाये, तो मैं उससे प्रेम करूंगा, तो प्रेम खड़ा ही नहीं होगा। __ सत्य के आधार पर प्रेम को खड़ा करना बड़ा मुश्किल है; असत्य के आधार पर प्रेम खड़ा हो जाता है, फिर टूटता है-टूटेगा ही। आप रेत के भवन बना सकते हैं, लेकिन उन्हें गिरने से नहीं बचा सकते ! आप ताश के महल खड़े कर सकते हैं, लेकिन हवा का छोटा-सा झोंका उन्हें गिरा जायेगा। _पर हमारी पूरी जिन्दगी ऐसे असत्यों पर खड़ी है। मां सोचती है कि उसका बेटा उसे सदा प्रेम करेगा। बाप सोचता है, बेटा उसकी सदा मानेगा। लेकिन इस बाप ने भी अपने बाप की कभी नहीं मानी। इसे इसका खयाल ही नहीं कि सत्य क्या है? एक घड़ी आएगी ही, जब बेटे को अपने बाप को इनकार करना पड़ेगा। और जो बेटा अपने बाप को इनकार न कर सके, वह ठीक अर्थों में जीवित ही नहीं हो सकेगा। जैसे मां के गर्भ से अलग होना ही पड़ेगा बेटे को, वैसे ही बाप की आज्ञा के गर्भ के भी बाहर जाना पड़ेगा। __ मैंने सुना है कि एक बहुत प्रसिद्ध यहूदी फकीर जोसुआ मरा / वह बड़ा सात्विक, शीलवान, शुद्धतम व्यक्ति जैसे हों, वैसा व्यक्ति था। स्वर्ग में उसके स्वागत का आयोजन हुआ। बड़े बैंड-बाजे, बड़ा नृत्य, बड़ा संगीत, बड़ी सुगंध, बड़ी फुलझड़ियां, पटाखे-लेकिन वह स्वागत में सम्मिलित नहीं होना चाहा / उसने अपनी आंखें छुपा लीं, जैसे कोई बड़ी गहरी पीड़ा उसे हो। और वह रोने लगा। बहुत समझाया, लेकिन वह राजी नहीं हुआ। तो फिर उसे ईश्वर के सामने ले जाया गया। और ईश्वर ने उससे कहा : 'जोसुआ, यह स्वागत तेरे योग्य है। तूने जीवन ऐसा जिया है-पवित्र, कि स्वर्ग के द्वार पर तेरा स्वागत हो-यह जरूरी है, तू इतना चिंतित और बेचैन क्यों है ? तेरी जिन्दगी में कहीं कोई कलुष नहीं, कहीं कोई दाग नहीं; तेरे जैसा शुद्ध व्यक्ति मुश्किल से कभी पृथ्वी से स्वर्ग में आता है। इसलिए स्वर्ग प्रसन्न है; उस प्रसन्नता में सम्मिलित होओ।' जोसुआ ने कहा, 'और तो सब ठीक है, लेकिन एक पीड़ा मेरे मन में है। जरूर मेरे जीवन में कोई पाप रहा होगा, अन्यथा यह नहीं होता, मेरा बेटा...! जोसुआ यहूदी है—मेरा बेटा मेरी सारी चेष्टा के बावजूद, मेरे उदाहरण के बावजूद, मेरे जीवन के बावजूद ईसाई हो गया। वह पीड़ा मेरे मन में है।' ईश्वर ने कहा कि 'त मत भयभीत हो. मत चिंतित हो. मैं तझे समझ सकता हं-आई कैन अंडरस्टैंड य, बिकाज दि सेम वाज डन विथ माइ ओन सन, जीसस-वह मेरा बेटा जो जीसस है, वही उपद्रव उसने भी किया, वह भी ईसाई हो गया।' लेकिन बेटे एक सीमा पर बाप से पृथक हो जायेंगे-अनिवार्य है। लेकिन न बेटा इस सत्य को स्वीकार करने को राजी है, न बाप इस सत्य को स्वीकार करने को राजी है। मां सोचती है, बेटा उसे सदा प्रेम करता रहेगा। अगर बेटा मां को सदा प्रेम करता रहे, जैसा उसने बचपन में किया था, तो बेटे का जीवन ही व्यर्थ हो जायेगा। एक सीमा पर मां के घेरे के बाहर उसे जाना पड़ेगा। वह किसी स्त्री को चुनेगा, मां फीकी पड़ती जायेगी, संबंध औपचारिक रह जायेगा। क्योंकि जीवन की धारा आगे की तरफ है, पीछे की तरफ नहीं। ___ अगर बेटा मां को प्रेम करता चला जाये, तो धारा उल्टी हो जायेगी। मां बेटे को प्रेम करेगी, यह बेटा भी अपने बेटे को प्रेम करेगा; लेकिन प्रेम की धारा पीछे की तरफ नहीं है। पीछे की तरफ तो मधुर संबंध बाकी रह जायें, इतना काफी है। वह भी नहीं हो पाता / लेकिन हर मां यही भरोसा करेगी, इसलिए हर मां दुखी होगी। हर बाप पीड़ित होगा। पीड़ा का कारण बेटा नहीं है, पीड़ा का कारण एक असत्य का 247 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 आधार है। और ऐसा नहीं कि बुरे बेटे का बाप दुखी है, भले बेटे का बाप भी दुखी होता है। ___ महावीर के पिता अगर जिंदा होते तो दुखी होते / महावीर के पिता से महावीर ने कहा कि 'मैं संन्यस्त हो जाना चाहता हूं।' तो उन्होंने कहा, 'बस, यह बात अब दोबारा मत उठाना / जब तक में जिंदा हूं, तब तक यह बात अब दोबारा मत उठाना / मेरी मौत पर ही तू संन्यासी हो सकता है।' सोचें, अगर महावीर न मानते और संन्यासी हो जाते, तो बाप छाती पीटकर रोते / बुद्ध के बाप रोए / बुद्ध घर से जब चले गये, तो पीड़ित हुए-दुखी! बुद्ध ज्ञान को भी उपलब्ध हो गये, महासूर्य प्रगट हो गया... लेकिन बाप अपनी ही पीड़ा से परेशान है / और जब बुद्ध वापिस लौटे तो बाप ने कहा कि 'देख, बाप का हृदय है यह, मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूं, तू वापिस लौट आ! छोड़ यह भिखारीपन, हमारे कुल में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ। शर्म आती है, तेरी खबरें सुनता हूं कि तू भीख मांगता है तो सिर झुक जाता है। क्या है कमी, जो तू भीख मांगे? और हमारे कुल में कभी किसी ने भीख नहीं मांगी, तू कुल को डुबानेवाला है।' __ तो ऐसा नहीं कि आप का बेटा दुष्ट हो जाये, पापी, हत्यारा हो जाए, तो आप दुखी होंगे / बुद्ध हो जाए, तो भी दुखी होंगे। बाप और बेटे के बीच एक फासला निर्मित होगा ही। बेटा बाप की आकांक्षाओं के पार जाएगा। लेकिन इस सत्य पर हम जीवन को खड़ा नहीं करते, हम असत्य पर खडा करते हैं। और असत्य सविधापर्ण मालम पडते हैं। अंत में कष्ट लाते हैं. लेकिन सविधापर्ण मालम पडते हैं। अगर आप अपने ज्ञान की जांच करेंगे, तो पायेंगे उसमें निन्यानबे प्रतिशत असत्य के आधार हैं हमारा ज्ञान करीब-करीब अज्ञान है / महावीर इस ज्ञान को श्रुत-ज्ञान कहते हैं, कि सुनकर सीख लिया है दूसरों से, उधार / यह बहुत मूल्यवान नहीं है; यह संसार के लिए उपयोगी है / बाज़ार में इसकी जरूरत है, क्योंकि बाजार झूठ पर खड़ा है। वहां आप सच्चे होने लगेंगे, तो आप असविधा में पड़ जायेंगे, और बाजार के बाहर फेंक दिये जायेंगे। लेकिन, इस ज्ञान को ही हम धर्म के जगत में भी ले जाना चाहते हैं। किसी ने वेद पढ़ा, किसी ने गीता, किसी ने कुरान, किसी ने महावीर के वचन / वह पढ़ते ही समझ लेता है कि सब हो गया। यह तो पहला चरण भी नहीं है। और इसे जो ज्ञान समझ लेता है, उसके आगे के चरण उठने असंभव हो जायेंगे। दूसरे ज्ञान को महावीर कहते हैं, 'मति' / और आप जानकर हैरान होंगे कि सुने हुए ज्ञान को वह पहला कहते हैं। मति का अर्थ है, इंद्रियों से जाना हुआ। इसको वे श्रुत से ऊपर रखते हैं। यह जरा चिंता की बात मालूम होगी / मन से सुना हुआ नीचे रखते हैं, इंद्रियों ऊपर रखते हैं। क्योंकि, आखिर अंततः इंद्रियों से जाना हआ, सिर्फ सुने हए से ज्यादा बहुमूल्य, ज्यादा जीवंत है। आंखें देखती हैं, हाथ छूते हैं, जीभ स्वाद लेती है—इनसे जो जाना हुआ है, वह ज्यादा वास्तविक है। लेकिन, हम इंद्रियों को भी अशुद्ध कर लिए हैं अपने सुने हुए ज्ञान के कारण / वह उसमें भी बाधा डालता है। आप जो देखते हैं, वह आप वही नहीं देखते हैं, जो मौजूद है। आप उसकी भी व्याख्या कर लेते हैं। हमारी इंद्रियों का ज्ञान भी हमने अशुद्ध कर लिया है। आप व्याख्या कर लेते हैं। आप वही नहीं देखते, जो है; आप वही देखते हैं, जो आप देखना चाहते हैं; वही छूते हैं, जो आप छूना चाहते हैं / वही आपकी समझ में इंद्रियां भी पकड़ती हैं। ___ इंद्रियों के संबंध में भी चुनाव करते हैं, वह भी परिशुद्ध नहीं है / जैसे कि आप बाजार में गये हैं, अगर आप भूखे हैं तो आपको होटल और रेस्टारेंट दिखाई पड़ेंगे; भूखे नहीं हैं तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेंगे, आप उनके बोर्ड नहीं पढ़ेंगे। तो जो दिखाई पड़ रहा है, वही सवाल नहीं है, आप क्या देखना चाहते हैं, वही आपको दिखाई पड़ेगा। एक स्त्री बाजार में निकलती है, तो उसे आभूषणों की दुकानें, हीरे-जवाहरात की दुकानें दिखाई पड़ती हैं। 248 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म मैंने सुना है, एक पुलिस स्टेशन पर एक आदमी को पकड़कर लाया गया, जो बुर्का ओढ़कर रास्ते पर चल रहा था। वह किसी दूसरे राष्ट्र का जासूस था / लेकिन उसने बुर्का ऐसा बनाया था और कपड़े उसने पूरे स्त्रियों के पहन रखे थे कि पुलिस आफिसर ने जो आदमी उसे पकड़कर लाया था, उससे कहा कि तुम पहचाने कैसे कि यह आदमी स्त्री नहीं है ? उसने कहा कि यह रास्ते से चला जा रहा था, हीरे-जवाहरात की दुकानें थी, उन पर इसने नजर भी नहीं डाली! शक हो गया कि यह स्त्री नहीं हो सकती, यह बर्का ही है, अन्दर कोई और है। नसरुद्दीन घर में सफाई कर रहा था। मक्खियां घर में काफी थीं। पत्नी और वह दोनों मक्खियां मार रहे थे। उसने चार मक्खियां मारी और आकर कहा कि 'दो स्त्रियां हैं और दो पुरुष।' उसकी स्त्री ने कहा कि तुम भी गजब के खोजी हो गये। तुम मक्खियों को पहचाने कैसे कि कौन नर, कौन मादा? उसने कहा कि 'दो आइने पर बैठी थीं, वे स्त्रियां होनी चाहिए।' आप क्या देखते हैं, क्या सुनते हैं, क्या छूते हैं-वह भी चुनाव है / गहरे में आप व्याख्या कर रहे हैं। इसलिए आप एक ही किताब को अगर हर वर्ष बार-बार पढ़ें तो आप अलग-अलग अर्थ निकालेंगे, क्योंकि अर्थ निकालनेवाला बदल जायेगा। किताब वही है। इसलिए हमने इस देश में यह तय किया था कि गीता या उपनिषद जैसी किताबें सिर्फ पढ़कर रख न दी जायें, जैसा कोई उपन्यास पढ़कर रख देता है, उनका पाठ किया जाए-बार-बार पाठ किया जाये। क्योंकि जो अर्थ आपको दिखाई पड़ेगा, वह गीता का नहीं है। वह, आपकी समझ उस समय जैसी होगी...! __इसलिए एक व्यक्ति अगर गीता को दस वर्ष बार-बार पढ़े और विकासमान व्यक्ति हो, तो हर बार नये अर्थ खोज लेगा, अर्थ की गहराई बढ़ती चली जायेगी। अनंत जन्मों में पढ़ने के बाद ही कृष्ण का अर्थ पकड़ में आ सकता है, जब अपनी खुद की गहराई उतनी हो जाये। उसके पहले पकड़ में नहीं आ सकता। लेकिन महावीर इंद्रिय, शुद्ध इंद्रिय ज्ञान को ऊंचाई पर रखते हैं। पंडित से ऊंचाई पर रखते हैं बच्चे को, क्योंकि बच्चे का इंद्रिय ज्ञान ज्यादा शुद्ध है। वह चीजों को सफाई से देखता है। अभी उसके पास कोई बुद्धि नहीं है कि जल्दी से व्याख्या करे कि क्या गलत, क्या ठीक? देखता है। एक छोटे बच्चे की आंख चाहिए, तो आपके ज्ञान में एक वास्तविकता आ जायेगी। __ ध्यान रहे, सब धर्म आमतौर से 'श्रुत' से उलझे हुए हैं, विज्ञान ‘मति' पर चला गया है। विज्ञान इंद्रिय पर भरोसा करता है, शब्दों पर नहीं। इसलिए वैज्ञानिक कहता है : जो दिखाई पड़ता है, वह भरोसे योग्य है; जो अनुभव में आता है, वह भरोसे योग्य है। __ चार्वाक की पूरी परम्परा का जोर यही था कि जो प्रत्यक्ष है, वह भरोसे योग्य है। इस सुने हुए से क्या अर्थ कि वेद में लिखा है कि परमात्मा है ! परमात्मा को प्रत्यक्ष करके बताओ; अगर वह सामने है, तो ही माना जा सकता है...छुआ जा सके, देखा जा सके ! चावीक के कहने में भी अर्थ है। उनका जोर दूसरे ज्ञान पर है। और पहले ज्ञान से दूसरा ज्ञान जरूर कीमती है / इसलिए पश्चिम में विज्ञान का जन्म हुआ, क्योंकि वे इंद्रियवादी हैं। पूरब में विज्ञान का जन्म नहीं हो सका, क्योंकि हम श्रुत से अटके रह गये / हमने इंद्रिय के ज्ञान की कोई फिकर नहीं की कि इंद्रिय के ज्ञान को प्रगाढ़ किया जाये, शुद्ध किया जाये; और इंद्रिय से जो जाना जाता है, उसको सत्य के करीब लाया जाये / विज्ञान की सारी कोशिश यही है कि चीजें ठीक से देखी जा सकें / सारे प्रयोग-सारी प्रयोगशालाएं एक ही काम कर रही हैं कि जो इंद्रियां जानती हैं, उसको और शुद्धता से कैसे जाना जा सके। ___ महावीर ‘मति' को दूसरे नम्बर पर रखते हैं। अभी पश्चिम में एक नया आन्दोलन चलता है, एनकाउन्टर ग्रप्स, सेन्सिटिविटी ट्रेनिंग-संवेदनशीलता का प्रशिक्षण कि लोग संवेदनशीलता को बढ़ाएं। अगर महावीर को पता चले तो वे कहेंगे कि अच्छा है; 'श्रुत' से मति' बेहतर है / पश्चिम में सैकड़ों प्रयोगशालाएं काम कर रही हैं, जहां लोग जाते हैं, और अपनी इंद्रियों की संवेदना को बढ़ाते हैं। 249 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 आपको पता भी नहीं कि इंद्रियों की संवेदना आपकी मर चुकी है। जब आप किसी को छूते हैं ---सच में छूते हैं? जब किसी का हाथ, हाथ में लेते हैं तो मुर्दे की तरह, आपकी जीवन-ऊर्जा आपके हाथ से बहती है! उस व्यक्ति को प्रवेश करती है; उसको छूती है-या बस, हाथ हाथ में ले लेते हैं ? ___ अगर आप पचास लोगों के हाथ हाथ में लें, तो आप अलग-अलग अनुभव करेंगे। अगर आप सचेत हैं तो कोई हाथ बिलकुल मुर्दा मालूम पड़ेगा कि वह आदमी मिलना नहीं चाहता था। हाथ तो उसने हाथ में दे दिया है, लेकिन खुद को पीछे खींच लिया है। तो सिर्फ हाथ है वहां, आत्मा नहीं है। कोई आदमी तटस्थ मालूम पड़ेगा, कि ठीक है वह हाथ तक आया है, लेकिन आपमें प्रवेश नहीं करेगा, वहीं हाथ पर खड़ा रहेगा। जैसे दो व्यक्ति अपनी-अपनी सीमाओं पर, अपने-अपने घर के घेरे में खड़े हैं। कोई व्यक्ति को लगेगा कि उसके हाथ से ऊर्जा ने एक छलांग ली है और वह आप में प्रवेश कर गया है। उसने हाथ ही नहीं छुआ, आपके हदय तक अपने हाथ को फैलाया। अलग-अलग हाथ अलग-अलग स्पर्श देगा। लेकिन यह भी उसको ही देगा, जिसको स्पर्श बोध की क्षमता है। वह हमारा मर गया है। हमें किसी चीज में कुछ पता ही नहीं चलता / हमें खयाल ही नहीं आता कि हम चारों तरफ प्रतिक्षण अनंत संवेदनाओं से घिरे हैं, लेकिन उनका हम अनुभव नहीं कर रहे। कभी आराम से कुर्सी पर बैठकर ही अनुभव करें कि कितनी संवेदनाएं घट रही हैं : कुर्सी पर आपके शरीर का दबाव, कुर्सी का आपको स्पर्श; जमीन पर रखे आपके पैर; हवा का झोंका जो आपको छू रहा है; फूल की गंध जो खिड़की से भीतर आ गई है; चौके में बर्तनों की आवाज, बनते हुए भोजन की गंध जो आपके नासापुटों को छू रही है; छोटे बच्चे की किलकारी जो आपको छूती है और आह्लादित कर जाती है; किसी का चीत्कार, किसी का रोना जो आपको भीतर कंपित कर जाता है। पर रोज पन्द्रह मिनट कोई चुप बैठकर अपने चारों तरफ की संवेदनाओं का ही अनुभव करे तो भी बड़े गहरे ध्यान को उपलब्ध होने लगेगा। ___ इंद्रियां द्वार हैं—अदभुत द्वार हैं, और उनसे हम जीवन में प्रवेश करते हैं। लेकिन हमारी इंद्रियां बिलकुल मुर्दा हो गई हैं। द्वार बंद है, हम उनको खोलते ही नहीं / एक हैरानी की बात है कि हमारी इंद्रियां पशुओं से कमजोर हो गई हैं। कुत्ता आपसे ज्यादा सूंघता है, आश्चर्य की बात है! घोड़ा मीलों दूर से गंध ले लेता है, हम नहीं ले पाते! ध्वनि, पशु हमसे ज्यादा गहराई से सुनते हैं। सांप को आपने नाचते देखा? मदारी बजा रहा है अपनी बांसुरी या तुरही और सांप नाच रहा है। और वैज्ञानिक कहते हैं, सांप को कान नहीं हैं तो सांप सुन नहीं सकता। यह बड़ी मुश्किल की बात है। लेकिन हजारों साल की धारणा है कि सांप संगीत से आंदोलित होता है। और वैज्ञानिक कहते हैं, सांप को कान हैं ही नहीं, इसलिए सवाल ही नहीं उठता आंदोलित होने का / लेकिन वैज्ञानिक भी देखते हैं कि सांप बांसुरी की आवाज सुनकर नाचता है, तो मामला क्या है? खोज से पता चला कि, सांप पूरे शरीर से सुनता है। कान नहीं है। उसका रो-रोआं ध्वनि से आंदोलित होता है। उसके रोएं-रोएं से ध्वनि प्रवेश करती है। इसलिए उसके नाच की जो मस्ती है, वह आपके पास कितने ही अच्छे कान हों, तो भी नहीं है। लेकिन आप भी रोएं-रोएं से सुन सकते हैं; क्योंकि रोएं-रोएं से वायु प्रवेश करती है, और वायु के साथ ध्वनि प्रवेश करती है। __ आश्चर्य न होगा कि किसी आदि समय में मनुष्य पूरे शरीर से सुनता रहा हो; क्योंकि आप सिर्फ नाक से ही श्वास नहीं लेते हैं, आप पूरे शरीर से श्वास लेते हैं। और अगर आपकी नाक खुली छोड़ दी जाये, और पूरे शरीर को लीप-पोतकर बंद कर दिया जाये, तो आप तीन घंटे में मर जायेंगे, कितनी ही श्वास लें। क्योंकि हवा ध्वनि को ले जानेवाली है, सिर्फ कान में ही ध्वनि नहीं जा रही, पूरे शरीर में 250 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म ध्वनि जा रही है। पूरे शरीर से श्वास जा रही है भीतर / और अगर हवा पूरे शरीर से भीतर जा रही है, तो ध्वनि भी भीतर जा रही है। थोड़ी कल्पना करें, अगर आपके पूरे शरीर से ध्वनि का अनुभव हो, तो संगीत का जो आनंद आप ले पायेंगे, और जो अनुभव, और जो ज्ञान होगा, वह अभी आपको नहीं हो सकता / लेकिन थोड़ा आपको भी खयाल होता है कि जब भी आप संगीत सुनते हैं तो आपका पैर नाचने लगता है, हाथ थपकी देने लगता है, उसका मतलब इतना है कि हाथ भी सुन रहा है, पैर भी पकड़ रहा है। अगर कोई व्यक्ति संगीत को सुनकर नाचने लगे, उसका रोआं-रोआं नाचने लगे, तो उसे पूरा अनुभव होगा ध्वनि का / नहीं तो उसे पूरा ध्वनि का अनुभव नहीं होगा। __ मति-ज्ञान का अर्थ है : हमारी इंद्रियां परिशुद्ध हों, द्वार उन्मुक्त हों, और जीवन को भीतर लेने की हमारी तैयारी हो। और हमारी तैयारी जीवन में बाहर जाने की भी हो। आप स्नान करते हैं, लेकिन आप व्यर्थ कर लेते हैं। मैं जैसा कहूं, ऐसा स्नान करें : फव्वारे के नीचे खड़े हो जाएं, सब विचार छोड़ दें, दुनिया को भूल जायें / जो मंदिर में नहीं हो सकता, वह आपके स्नानगृह में हो सकता है। लेकिन सिर्फ पानी के स्पर्श को, जो आपके सिर पर गिर रहा है और शरीर पर जिसकी धाराएं बही जा रही है, उसके सिर्फ स्पर्श का पीछा करें। पूरे शरीर से उसके स्पर्श को पीयें। रोएं-रोएं से पानी की ताजगी को भीतर जाने दें। आप पचहत्तर प्रतिशत पानी हैं-आपका शरीर / तो जब पानी आपको बाहर से स्पर्श करता है, अगर आपका पूरा शरीर संवेदनशील हो तो भीतर का पानी भी आंदोलित होने लगेगा। आप पानी ही हैं, पचहत्तर प्रतिशत / इसलिए चांद की जब पूरी रात होती है तो आपको बहुत आनंद मालूम होता है / वह आपको मालूम नहीं हो रहा, वह आपके भीतर का पचहत्तर प्रतिशत पानी सागर की तरह आंदोलित होने लगता है। पूरे चांद की रात, आपको जो अच्छा लगता है, वह अच्छा इसलिए लगता है कि आपके भीतर का पानी अभी भी सागर का हिस्सा है। आप जानकर हैरान होंगे कि आपके शरीर के पानी में उतने ही तत्व हैं, जितने सागर के पानी में हैं। वैसा ही नमक, वैसे ही केमिकल्स-ठीक उसी अनुपात में / क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, आदमी का पहला जन्म मछली की तरह हुआ, वह पहली यात्रा है। अब भी आप बहुत विकसित हो गये हैं; लेकिन भीतर आपका जीवन अभी भी सागर की ही जरूरत मानता है। वहां अब भी सागर है। जब आप सागर के किनारे बैठे हैं, तो सागर के आंदोलन को गौर से देखें और इतने लीन हो जायें कि आपके भीतर का सागर एक छलांग लगाकर बाहर के सागर से मिलने लगे तो आपको इंद्रिय ज्ञान होगा। महावीर उसे 'मति' कहते हैं। छोटे बच्चों को होता है। जैसे-जैसे आप बड़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे भूलता जाता है। फिर तो उन्हीं को होता है, जो ध्यान में प्रवेश करते हैं, जो फिर छोटे बच्चों की तरह हो जाते हैं। तब हवा का हल्का झोंका भी स्वर्ग की खबर देता है; जब फूल का छोटा सा स्पंदन भी जीवन का नृत्य बन जाता है; दिये की लपटती-भागती लौ सारे प्राण की ऊर्जा का अनुभव बन जाती है, तब आपको मति ज्ञान होना शुरू होता है। ___ पश्चिम में चल रही ट्रेनिंग कि लोग अपनी इंद्रियों को फिर सजग कर लें, हमें बहुत बचकानी मालूम पड़ेगी; क्योंकि हमारे खयाल में नहीं है। तीन सप्ताह, चार सप्ताह के लिए लोग इकट्टे होते हैं किसी केंद्र पर-सब तरह से जीवन को अनुभव करने की कोशिश करते हैं / समुद्र की रेत में आंख बंद करके लेटते हैं, ताकि रेत का स्पर्श अनुभव हो सके; पानी के झरने में सिर झुकाकर बैठते हैं, ताकि पानी का अनुभव हो सके, आंख बंद करके एक-दूसरे को स्पर्श करते हैं, ताकि एक-दूसरे के शरीर के स्पर्श की प्रतीति हो सके। ___ दो प्रेमी भी एक-दूसरे के शरीर से बड़े आर्थोडाक्स, बंधे-बंधाए ढंग से परिचित होते हैं। कभी आपने अपनी प्रेयसी को अपनी पीठ और उसकी पीठ को भी मिलाकर देखा है कि दोनों कैसा अनुभव करते हैं? बड़ा भिन्न अनुभव होगा, अगर आप अपनी प्रेयसी की पीठ 251 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 के साथ अपनी पीठ मिलाकर, आंख बंद करके खड़े हो जायें। तो आपको पहली दफा एक नये व्यक्ति का अनुभव होगा, क्योंकि पीठ की तरफ से प्रेयसी बिलकुल भिन्न है। लेकिन सब चीजें बंधी, रुटीन हो गई हैं। कभी आप अपने बच्चे को पास लेकर, उसके गाल को अपने गाल से लगाकर थोड़ी देर शांत बैठे हैं? क्योंकि बच्चा अभी शुद्ध है, अभी उसकी जीवन-ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। अगर आप बैठ जाएं अपने बच्चे के पास उसके गाल को गाल से लगाकर, और अनुभव कर सकें, तो आपका बच्चा आपको भी जीवनदायी सिद्ध होगा, आपकी उम्र थोड़ी ज्यादा हो जायेगी। ___ यह अनुभव हुआ है कि कभी-कभी वृद्ध उम्र के लोग जब नयी उम्र की लड़कियों से विवाह कर लेते हैं तो उनकी उम्र बढ़ जाती है। क्योंकि नयी उम्र की लड़की के साथ उनको भी अपनी उम्र नीचे लानी पड़ती है। उससे मिलने को, उससे संबंध बनाने को उन्हें नीचे उतरना पड़ता है; उनके शरीर की जो जड़ता है, उसको उन्हें नीचे लाना पड़ता है। __यह कुछ आश्चर्य न होगा कि बर्टेड रसल जैसा व्यक्ति अपने मरते हए, आखिरी नब्बे वर्ष की उम्र तक भी यवा रहा / क्योंकि अस्सी वर्ष की उम्र तक वह नए विवाह करता चला गया। अस्सी वर्ष की उम्र में बर्टेड रसल ने शादी की एक बीस वर्ष की लडकी से। वह जो युवापन है, वह जो ताजगी है इंद्रियों की, वह बनी रही होगी। रसल इंद्रियवादी था / वह मानता था कि इंद्रिय की जितनी शुद्धता हो जीवन में और इंद्रियों का जितना प्रगाढ़ अनुभव हो, उतना ही जीवन चरम पर पहुंचता है। महावीर ऐसा नहीं मानते। वे मानते हैं, और जीवन के आयाम हैं आगे। लेकिन, हम तो 'श्रुत' पर अटक जाते हैं। हम 'मति' तक भी नहीं पहंच पाते / पशओं जैसी शद्ध इंद्रियां चाहिए साधक के पास, तभी वह सिद्ध हो पायेगा। नहीं तो नहीं हो पायेगा। मगर हमारा तो उल्टा चल रहा है सारा हिसाब / हम साधक उसको कहते हैं, जो इंद्रियों को मार रहा है, जो इंद्रियों को दबा रहा है। अगर आपका साधु संगीत सुन रहा हो, तो आपको शक हो जाये कि बात क्या है? अगर आपका साधु बहुत रस से भोजन कर रहा हो, तो आपको शक हो जाये कि मामला गड़बड़ है! लेकिन साधु की कोशिश यह है हमारी कि वह स्वाद दे नहीं इंद्रिय को, जिव्हा को बिलकुल मार दे कि उसमें कुछ पता ही न चले।। लेकिन, ध्यान रहे उसका मति-ज्ञान कंद हो जायेगा; उसके जानने की इंद्रिय-क्षमता कम हो जायेगी। और जितनी ही यह क्षमता कम होगी, उतना ही उसके जीवन का विस्तार सिकुड़ जायेगा, संकुचित हो जायेगा। ___ इसलिए साधु संकुचित हो जाता है, सिकुड़ जाता है। इसलिए साधु का जीवन आमतौर से आत्मघाती मालूम पड़ता है / वह सब तरफ से अपने को सिकोड़ता जाता है, सिकोड़ता जाता है—कुन्द होता जाता है; खुलता नहीं, मुक्त आकाश नहीं बनता। ___ महावीर की बात समझने जैसी है। महावीर कहते हैं, पहला ज्ञान 'श्रुत', दूसरा ज्ञान 'मति', तीसरा ज्ञान अवधि', लेकिन तीसरा ज्ञान उसी में होगा, जिसका मति-ज्ञान काफी प्रगाढ़ हो / क्योंकि मनुष्य की प्रत्येक इंद्रिय के पीछे छिपी एक सक्ष्म इंद्रिय भी है। अवधि-ज्ञान उस सूक्ष्म इंद्रिय का ज्ञान है-जैसे आप घटनाएं सनते हैं...! ___ हरकोस पश्चिम में बहुत प्रसिद्ध है-पीटर हरकोस / वह दूसरे महायुद्ध में गिर पड़ा / साधारण आदमी था; गिरने से बेहोश हो गया। सिर में चोट लगी, अस्पताल में भरती किया गया। जब अडतालीस घंटे बाद होश में आया तो वह बड़ा चकित हआ। उसे खद भी भरोसा न आया कि उसकी कोई अन्तर-इंद्रिय खुल गई है इस चोट में आकस्मिक, एक्सीडेन्टल! वह जो नर्स पास खडी थी. उसे उस नर्स के भीतर क्या हो रहा है, वह समझ में आने लगा। वह थोड़ा बेचैन भी हुआ। उसने नर्स से पूछा कि 'क्या तुम अपने किसी प्रेमी से मिलने का विचार कर रही हो?' उस नर्स ने कहा कि 'क्या मतलब?' वह भी चौंक गई, क्योंकि भीतर जल्दी इस मरीज को निबटाकर... उसका 252 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म प्रेमी बाहर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा है-उससे भागी जाने को, मिलने को है। इस मरीज को तो वह निबटा रही है सोये-सोये / उसका मन तो प्रेमी के पास चला गया है। ___ हरकोस को लोग... कोई उसके पास आये तो उसके भीतर की बात अनुभव में आने लगी। किसी की चीज, किसी का रूमाल उसे दे दें, तो वह रूमाल का खयाल करके उस आदमी का वर्णन करने लगा है। दस साल तक तो वह परेशान रहा इससे / क्योंकि बड़ी परेशानी की बात है। हर आदमी रास्ते पर निकले और आपको उसके भीतर का थोड़ा-सा खयाल आ जाये, कि आप अपनी पत्नी को प्रेम कर रहे हों और आपको खयाल आ जाये कि वह अपने किसी प्रेमी का विचार कर रही है...? अकसर करते हैं। अकसर पति किसी और का सोचते रहते हैं, लेकिन पकड़ में नहीं आता। क्योंकि सूक्ष्म-इंद्रियां हमारी जड़ हैं। हमारी स्थूल इंद्रियां जड़ हैं, तो सूक्ष्म तो जड़ होंगी ही। ___ जब स्थूल इंद्रियां संवेदनशील हो जाती हैं तो उनके पीछे छिपी हुई सूक्ष्म इंद्रियां गतिमान होती हैं। उन सूक्ष्म इंद्रियां का जो अनुभव है, उसको महावीर अवधि-ज्ञान कहते हैं। टेलिपैथी, क्लेरव्हायंस सब अवधि-ज्ञान हैं। पश्चिम में साइकिक साइंस अवधि-ज्ञान पर काम कर ही रही है बड़े जोर से, और हजारों आयाम खुल गये हैं। अनेक तरह के प्रामाणिक प्रयोग हो गये हैं, जिनसे पता चलता है कि आदमी के पास कुछ सूक्ष्म इंद्रियां भी हैं, जिनसे वह बिना देखे देख लेता है, बिना सुने सुन लेता है / आपको भी कभी-कभी इसकी झलक मिलती है, लेकिन आप उसको टाल देते हैं, आप उसका हिसाब नहीं रखते। कभी आप बैठे हैं घर में अचानक आपको खयाल अपने मित्र का आता है, और आप देखते हैं कि वह मित्र भीतर चला आ रहा है। खयाल पहले आ जाता है, मित्र दरवाजे से बाद में भीतर आता है। आप सोचते हैं, संयोग की बात है। संयोग की बात नहीं है। इस जगत में संयोग जैसी बात होती ही नहीं। इस जगत में सब वैज्ञानिक है, सब कार्य-कारण से बंधा है। उस मित्र का दरवाजे पर आना आपकी सूक्ष्म इंद्रिय ने पहले पकड़ लिया, आपकी स्थूल इंद्रिय बाद में पकड़ी। __ कभी आपका कोई प्रियजन मर रहा हो, बहुत दूर हो-हजारों मील दूर-तो भी आपके भीतर कुछ पीड़ा शुरू हो जाती है। आप पकड़ नहीं पाते, क्योंकि आपको साफ नहीं है। अगर साफ हो जाये, और आप उस दिशा में काम करने लगें, तो आपकी पकड़ में आना शुरू हो जायेगा। इसको अनुभव किया गया है कि जुड़वां बच्चे एक साथ बीमार पड़े हैं, चाहे हजारों मील दूर हों / एक ही अंडे से पैदा हुए जुड़वां बच्चे एक साथ बीमार पड़े हैं। यहां एक बच्चे को सर्दी हो, और दूसरा बच्चा पेकिंग में हो, तो उसको वहां सर्दी हो जायेगी। बड़ी हैरानी की बात है, क्योंकि मौसम अलग है, देश अलग है, हवा अलग है। अगर इसको इन्फेक्शन हुआ है, तो उसी दिन उसको इन्फेक्शन होने का कोई कारण नहीं है। यहां फ्लू चल रहा है, वहां फ्लू नहीं चल रहा है, लेकिन दोनों को एक साथ सर्दी पकड़ जायेगी! वैज्ञानिक बड़े चिन्तित थे कि यह कैसे होता है? लेकिन अब साइकिक खोज कहती है कि दोनों बच्चे इतने एक साथ पैदा हए हैं, इतने एक-जैसे हैं; कि उनकी सूक्ष्म-इंद्रियां इतनी संयुक्त हैं कि एक में जरा-सा स्पंदन हो तो दूसरे को खबर मिल जाती है। एक बच्चे को सर्दी पकड़े तो दूसरे की सूक्ष्म इंद्रियां अनुभव करने लगती हैं कि सर्दी हो गई। उस कारण दूसरे को भी सर्दी हो जाती है। वह मानसिक सर्दी है, लेकिन हो जायेगी। ___एक अंडे से पैदा हुए बच्चे करीब-करीब साथ-साथ मरते हैं। ज्यादा से ज्यादा फर्क तीन महीने का होता है। क्योंकि मृत्यु जब एक की घट जाती है, तो दूसरे की सूक्ष्म इंद्रियों पर चोट पहुंच जाती है, वह मरने के करीब हो जाता है। आप कभी छोटे-छोटे प्रयोग करें, तो आपको अपनी सूक्ष्म इंद्रियों का खयाल आ सके। 253 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 सभी व्यक्तियों को तीन ज्ञान संभव हैं आसानी से : श्रुत, मति, अवधि / इन तीन में कोई विशेषता नहीं है / इसलिए तीसरा ज्ञान देखकर जब आप चमत्कृत होते हैं, तो आप नासमझ हैं। तीसरे ज्ञान के कारण लोग महात्मा हो जाते हैं। लेकिन तीसरे ज्ञान से कोई जीवन की स्थिति ऊपर नहीं उठती। ___ आप गये किसी महात्मा के पास, और उसने जाने से ही बता दिया आपका नाम क्या है, आप कहां से आते हैं, आपका घर कैसा है, घर के सामने एक वृक्ष है-बस, आप गये! अब आपने कहा कि मिल गये गुरु, सदगुरु से मिलना हो गया! इस आदमी ने थोड़ा-सा सूक्ष्म इंद्रियों का प्रयोग किया है, जो कि सभी के पास है। आप प्रयोग न करें. यह बात और है। आपके पास भी रेडियो है, आप न ट्यून करें और न स्टेशन लगायें, तो लटकाये घूमते रहें! इस आदमी ने ट्यून कर लिया, इसमें कोई बड़ी कला नहीं है। मगर इसके रेडियो से आवाज आनी शुरू हो गई, और आप रेडियो लटकाये घम रहे हैं। ___ अवधि ज्ञान तक तीनों बातें बिलकुल सामान्य हैं, उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। लेकिन तीसरा ज्ञान हमें बहुत प्रभावित करता है। कभी आपने खयाल किया कि तीसरा ज्ञान अकसर अशिक्षित लोगों में ज्यादा होता है-ग्रामीण, गंवार, गांव के, उनमें ज्यादा होगा। आदिवासी, उनमें ज्यादा होगा। क्योंकि आप भूल ही गये हैं कि सूक्ष्म इंद्रियां होती हैं। आप तो सिर्फ बुद्धि से जी रहे हैं— श्रुत...आपकी सारी युनिवर्सिटीज श्रुत-ज्ञान पर आधारित हैं। अभी कोई विश्वविद्यालय नहीं जो आपको मति ज्ञान दे। जंगल में जो आदमी है, उसको कोई बुद्धि की ट्रेनिंग तो होती नहीं; और जंगल में कोई सुविधा भी नहीं है उसके पास कि बुद्धि से ज्यादा जी सके / उसको जीना पडता / शेर हमला करे तो हमला कर दे, तब बुद्धि काम कर सकती है कि अब क्या करना है, लेकिन हमला कर देने के बाद करने को कुछ बचता नहीं। वह जो जंगल में आदमी रह रहा है उसको इंद्रियों से ही सजग नहीं रहना पड़ता, उसको सूक्ष्म इंद्रियों से भी सजग रहना पड़ता है कि कोई शेर की आहट भी न मिल जाये / शेर हमला करे इसके पहले उसे पता होना चाहिये, तो ही बचाव हो सकता है, नहीं तो बचाव नहीं हो सकता है। __ आस्ट्रेलिया में छोटा-सा एक कबीला है, जिसका वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है। वह सबसे चमत्कारी कबीला है / उस कबीले का हर आदमी आपको महात्मा मालूम पड़ेगा, मगर वह कबीला बिलकुल साधारण है। सिर्फ बहुत पुराना है; और सभ्यता से उसका संबंध नहीं है। बड़ी अजीब घटना उस कबीले में घटती है। एक वैज्ञानिक वहां ठहरा हुआ था अध्ययन करने के लिए कि क्या मामला है? ज्यादा वैज्ञानिक अध्ययन करने जायेंगे तो ये अध्ययन कर पायेंगे कि नहीं, यह तो शक है, लेकिन उनको जरूर बिगाड़ आयेंगे। क्योंकि उनमें भी शक पैदा कर आते हैं। और शक जहां आ गया, वहां अवधि से आदमी नीचे उतर जाता है। अवधि आस्था का तत्व हैं, भरोसे का। ... उस कबीले में कोई आदमी चिट्ठी नहीं लिखता / चिट्ठी लिखना वे जानते नहीं। भाषा, लिपि उनके पास नहीं। पोस्टमैन भी नहीं है, पोस्ट-आफिस भी नहीं है। लेकिन कभी-कभी मित्रों को, प्रियजनों को खबर भेजने की जरूरत पड़ती है। तो हर उस गांव के कबीले में एक छोटा-सा पौधा होता है-गांव के बीच / उस पौधे का उपयोग करते हैं वे। अगर मां का बेटा दस मील दूर है और वह चाहती है कि जल्दी वापिस आ जाये, तो वह पौधे के पास जायेगी। और वहां जाकर अपने बेटे से बात करेगी, जैसा आप फोन के पास करते हैं / वह अपने बेटे से कहेगी कि सुन, मेरी तबियत खराब है, तू जल्दी वापस आ जा, सांझ होते-होते तू वापस आ जाना। और बेटा सांझ होते-होते वापस आ जायेगा। और बेटे से अगर आप पूछे तो वह कहेगा कि दोपहर में मुझे मेरी मां की आवाज सुनाई पड़ी कि मां कह रही है कि जल्दी घर आ जा, मेरी तबियत खराब है।' इसका वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है, और वैज्ञानिक चकित हए कि यह क्या मामला है? 254 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म मामला कुछ भी नहीं है। ये लोग सीधे-साधे पशओं जैसे लोग हैं। मनुष्य की सूक्ष्म इन्द्रियां बड़ी शक्तिशाली हैं, बड़ी दूरगामी हैं; समय और स्थान की कोई बाधा नहीं है। अगर हम इसे ऐसा समझायें कि प्राचीन समय में भी विज्ञान विकसित हुआ था, लेकिन सारा विज्ञान सूक्ष्म इंद्रियों के आधार पर था / आधुनिक विज्ञान स्थूल इंद्रियों के आधार पर है। तो प्राचीन समय के आदमी ने भी दूर-संवाद की कला खोज ली थी। हमने भी खोज ली है, लेकिन हमारा बाह्य इंद्रियों के आधार पर है। तो हमारे पास टेलिफोन है, रेडियो है, टेलिविजन है-ये सब बाह्य इंद्रियों का विस्तार है। प्राचीन आदमी ने अंतर-इंद्रिय का विस्तार किया था, और उनके आधार पर उसने बहुत-से काम कर लिए थे, जो हमारी पकड़ के बाहर हैं / जैसा कि हमारे यंत्र उनकी पकड़ के बाहर हैं। ___ मनुष्य की हर इंद्रिय के पीछे सूक्ष्म इंद्रिय है। आंख के पीछे एक सूक्ष्म आंख है, जो आपके भीतर छिपी है। उसे विकसित किया जा सकता है। आप थोड़े-से प्रयोग करें तो आपको खयाल में आ जाये / और हर सौ आदमी में से कम-से-कम तीस आदमी आसानी से सफल हो जायेंगे। इतने लोग यहां मौजद हैं. इनमें से अनेक लोग सफल हो जायेंगे। सौ में से तीस आदमियों की अवधि-स्थिति अभी भी बिगड़ी नहीं है। ___ आप एक छोटा-सा प्रयोग करें। ताश के पत्ते हाथ में ले लें, आंख बंद कर लें। गड्डी में से एक पत्ता निकालें, और सोचें मत-देखें कि यह पत्ता क्या है ? राजा है कि रानी, कि जोकर, कि क्या? सोचें मत, सोचने से तो बिगड़ जायेगा मामला / क्योंकि सोचने में तो आप अनमान लगाने लगेंगे कि शायद राजा हो / तब आप दविधा में पड़ जायेंगे. बेचैनी में / नहीं. आप सिर्फ आंख बंद करके देखें। आंख बंद करके देखें क्या है ? और सोचें मत / और जो चीज पहली दफा आए, उसका भरोसा करें, दूसरे का ध्यान मत करें / पहले आए कि जोकर, आंख खोलें और देखें। एक दो-चार दिन प्रयोग करें। आप चकित हो जायेंगे कि आप आंख बन्द करके ताश की गड्डी में से देख पाते हैं कि क्या है ? यह सिर्फ इसलिए कह रहा हूं, ताकि आपको खयाल आ जाये कि सूक्ष्म इंद्रिय हैं / खयाल आ जाये तो भरोसा हो जाये, भरोसा हो जाये तो काम शुरू हो जाये। ___ तय कर लें अपने किसी मित्र से कि रोज रात को ठीक आठ बजे, वह कलकत्ते से आपको संदेश भेजेगा; सिर्फ आंख बन्द करके बैठ जायेगा और एक वाक्य का संदेश भेजेगा। और ठीक आठ बजे आप रिसेप्टिव होकर बैठ जायेंगे कि कोई संदेश आए तो उसे पकड़ लें। सोचें नहीं, जो भी वचन पहला आ जाये, वह कितना ही एब्सर्ड और व्यर्थ मालूम पड़े, उसे नोट कर लें / और एक तीन महीने इस प्रयोग को करें। आप चकित हो जायेंगे कि तीन महीने के भीतर आपकी सूक्ष्म पकड़ने की क्षमता, ग्रहण की क्षमता बढ़ गई है। और एक इंद्रिय के साथ सभी इंद्रियां इसी तरह से जुड़ी हुई हैं। आप हैरान हो जायेंगे कि इस पर काफी काम होता है। ___ गुरजिएफ के साथ अनेक स्त्रियों को अनुभव होता था, कि जब गुरजिएफ से वे मिलें तो उन्हें एकदम लगता था कि उनके सेक्स सेन्टर पर कोई चोट की गई। कई स्त्रियां घबड़ा जाती थीं कि यह क्या मामला है ? यह आदमी कुछ शैतान मालूम होता है। लेकिन कुल मामला इतना था कि जैसे हर इंद्रिय के पीछे सूक्ष्म इंद्रिय है, वैसी जननेन्द्रिय के पीछे भी सुक्ष्म इंद्रिय है। उससे चोट की जा सकती है। और गुरजिएफ सिर्फ इतना कर रहा है कि वह सूक्ष्म इंद्रियों पर काम कर रहा है। उससे चोट की जा सकती है। ___ कई बार अनजाने भी चोट हो जाती है, जब आपको पता भी नहीं होता / कोई स्त्री पास से गुजरती है, आप अचानक कामातुर हो जाते हैं; या कोई पुरुष पास से गुजरता है और स्त्री अचानक संकुचित हो जाती है। लगता है, कुछ हो रहा है। कोई कुछ न भी कर रहा होता कभी अचानक भी होता है; क्योंकि अचानक कभी सूक्ष्म इंद्रिय सक्रिय हो जाती है / वस्तुतः जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह अवधि-ज्ञान 255 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 की भाषा में सूक्ष्म इंद्रियों का सक्रिय हो जाना है। ___ आप एक स्त्री से बिलकुल मोहित हो जाते हैं। जब आप मोहित हो जाते हैं तो सारी दुनिया आपको पागल कहेगी। लोग कहेंगे कि, क्या देखते हो उस स्त्री में ? पर उस आदमी को कुछ दिखाई पड़ रहा है, जो किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा / उसको क्या दिखाई पड़ रहा है? उसकी कोई सक्षम इंद्रिय उस स्त्री के सम्पर्क में सक्रिय हो जाती है। उस संघात में कोई सक्ष्म इंद्रिय सक्रि उस स्त्री को, जो वह ऊपर से दिखाई पड़ती है, वैसा नहीं देख रहा है, बल्कि वह जैसी भीतर से है, वैसा आपको प्रतीत होने लगा है। प्रेम की घटना अवधि ज्ञान की घटना है। महावीर कहते हैं, ये तीन ज्ञान सामान्य हैं / सारे चमत्कार तीसरे ज्ञान में आ जाते हैं। आप बीमार हैं और एक महात्मा के पास जाते हैं चमत्कारी ! और वह कहता है, 'जाओ, तीन दिन में ठीक हो जाओगे।' आप सोचते हैं कि उसने तीन दिन में ठीक हो जाओगे कहा, इसलिए मैं तीन दिन में ठीक हो रहा हूं। बात बिलकुल दूसरी है / उसकी सूक्ष्म इंद्रियां सक्रिय हैं, और वह देखता है कि तीन दिन बाद तुम ठीक होनेवाले हो, इसलिए वह कहता है, तीन दिन में ठीक हो जाओगे / और जब तुम तीन दिन में ठीक हो जाते हो, तो तुम सोचते हो कि चमत्कार हो गया, उस महात्मा ने ठीक कर दिया। उस महात्मा को सिर्फ इतना बोध हुआ कि तीन दिन में तुम ठीक हो जाओगे। यह बोध आज नहीं कल, वैज्ञानिक यंत्रों से भी हो सकेगा। रूस में ऐसे कैमरे विकसित किये जा रहे हैं. जो बीमारी कितने दिन में समाप्त हो जायेगी. इसका चित्र ले सकें। हैं / बीमारी है, इसका पता चल सके; और बीमारी कितनी देर में ठीक हो जायेगी, इसका पता चल सके; और बीमारी कितने दिन बाद शुरू होनेवाली है, इसका पहले से पता चल सके-इन तीनों दिशाओं पर रूस में काफी काम हो रहा है। और सफलतापूर्वक काम हो रहा है। कोई भी बीमारी आपके जीवन में आये, उसके छह महीने पहले उसके फोटोग्राफ लिए जा सकते हैं। और अगर छह महीने पहले बीमारी का चित्र लिया जा सके, तो आने के पहले ही आपका इलाज किया जा सकता है। जो-जो मन भीतर से कर सकता है, वह-वह विज्ञान यंत्र के सहारे से बाहर से कर सकता है। चौथे ज्ञान को महावीर कहते हैं, 'मन-पर्याय' / यहां से साधक, योगी की यात्रा शुरू होती है। 'मन-पर्याय' का अर्थ है : स्वयं के मन के भीतर जो पर्याय हैं, जो रूप हैं, उनका साक्षी-दर्शन / और जब कोई व्यक्ति अपने मन की पर्यायों का साक्षी-दर्शन करने में समर्थ हो जाता है, तो वह दूसरों के मन-पोयों का भी साक्षी-दर्शन करने में समर्थ हो जाता है / जब कोई व्यक्ति अपने मन की पूरी पर्तों को देखने में समर्थ हो जाता है, तो उसको अपने पूरे पिछले जन्म दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि वे सब मन की पर्तों में मौजूद हैं। कोई भी स्मृति खोती नहीं, सब संग्रहीत होती चली जाती है। उन सबको फिर से खोला जा सकता है, देखा जा सकता है। 'मन की पर्यायों का जिसको अनुभव होने लगे... आपने गाली दी, तो मन-पर्यायवाला व्यक्ति आपकी गाली की फिक्र नहीं करेगा, न आपकी फिक्र करेगा, वह भीतर देखेगा कि आपकी गाली से मेरे मन में कैसे रूप, कैसे फार्मस् पैदा होते हैं ? मेरे भीतर क्या होता है? क्योंकि असली सवाल मैं हं, असली सवाल आप नहीं हैं। आपसे क्या लेना-देना है? आपने गाली दी, मैंने आंख बंद की और देखा कि मेरे भीतर क्या होता है ? इस साक्षी-दर्शन से धीरे-धीरे बाहर से दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ती है; हम मन के पीछे सरकते हैं। और जो व्यक्ति मन के पीछे सरकता है, उसे आत्मा का अनुभव शुरू होता है। तो 'मन-पर्याय' की अवस्था में आत्मा की पहली झलक मिलनी शुरू होती है। 'मैं कौन हैं? और तब मन ऐसा ही लगता है, जैसे आकाश में घिरे बादल हों, और मैं सूर्य हं , जो छिप गया है। इन बादलों के साथ हमारा इतना तादात्म्य है कि हम भूल ही जाते हैं कि हम इनसे अलग हैं। हम इनके साथ एक हो जाते हैं। जब आप क्रोध से भरते हैं तो आपका क्रोध अलग नहीं रहता, आप क्रोध के साथ बिलकुल एक हो जाते हैं; आप क्रोधी हो जाते 256 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म हैं। जब आप भूख से भरते हैं, तो आप भूखे हो जाते हैं। लेकिन मन-पर्यायवाला व्यक्ति जानेगा कि शरीर को भूख लगी है और मैं जान रहा हूं। यह स्पष्ट भेद होगा। आपने गाली दी है, मन उद्विग्न हो गया, मैं जान रहा हूं। मन की उद्विग्नता मेरी उद्विग्नता नहीं है; मन की बेचैनी मेरी बेचैनी नहीं है / मन एक यंत्र है। मन परेशान है, मैं परेशान नहीं हूं। ___ लेकिन इस मन के घेरे के बाहर उतरना बड़ा साहस है, बड़े-से-बड़ा साहस है; क्योंकि हमारा पूरा जीवन ही मन का जीवन है। जो भी हम जानते हैं अपने बाबत, वह मन ही है / जो व्यक्ति मन के बाहर उतरता है, उसे लगता है कि मैं मरने की अवस्था में जा रहा है। ___ ध्यान मृत्यु का प्रयोग है / ध्यान से मन-पर्याय पैदा होता है। लेकिन हम तो डरते हैं थोड़ा-सा भी बाहर निकलने में, क्योंकि मन के बाहर निकलने का मतलब कि मैं खोया / मेरा सारा होना ही मन है। कभी-कभी एकाध कदम भी रखते हैं तो घबडाकर फिर पीछे रख लेते हैं। सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन के घर कुछ बदमाशों ने हमला किया। दरवाजे उन्होंने सब बन्द कर दिये / मुल्ला को हाथ-पैर बांध कर खड़ा कर दिया और उसके चारों तरफ चाक से एक लकीर खींच दी, और कहा कि इस घेरे के बाहर निकले कि समझना कि हत्या हो जायेगी। इस घेरे के बाहर भर मत निकलना।' उसकी पत्नी को घसीटकर दूसरे कमरे में ले गये / घण्टेभर बाद वे सब–मल्ला खडा था अपने घेरे में-घर छोड़कर चले गये। पत्नी भीतर से अत्यंत दयनीय अवस्था में-कपड़े फटे हुए, खून के दाग-बाहर भागी हुई आयी, और उसने नसरुद्दीन से कहा, 'यू मिजरेबल कावर्ड, डू यू नो व्हाट दे वेअर डूइंग टु मी इन दैट रूम ? क्या कर रहे थे वे लोग उस कमरे में मेरे साथ ? तुम अत्यन्त कायर हो।' नसरुद्दीन ने कहा, 'कायर, यू काल मी ए कावर्ड, एंड यू नो व्हाट आई डिड, व्हेन दे वेअर विद यू इन दि रूम? आन थ्री सेपरेट आकेजन्स, आई स्टेप्ड आउट आफ द सर्कल ! तुम्हें पता है कि मैंने क्या किया, जब वे तुम्हारे साथ कमरे में थे? तीन अलग-अलग मौकों पर घेरे के बाहर मैंने कदम रखा, और तुम मुझे कावर्ड, मुझे कायर कहती हो।' बस, ऐसे ही हम भी कभी-कभी मन के घेरे के बाहर जरा-सा कदम रखते हैं, बडी बहादरी समझते हैं. फिर भीतर खींच लेते हैं।... वे आदमी तो जा चुके हैं, नसरुद्दीन अभी भी घेरे में खड़ा था।... और बहादर भी अपने को समझ लेते हैं। डर है ! डर क्या था नसरुद्दीन को----कि मौत न हो जाये, कि हत्या न कर दें वे लोग? ___ ध्यान में भी वही डर है। और गुरु से बड़ा हत्यारा खोजना मुश्किल है। इसलिये हमने तो उपनिषदों में गुरु को मृत्यु ही कहा है। और कता का बाप उससे कहता है नाराज होकर... क्योंकि नचिकेता के पिता ने एक उत्सव किया है और वह दान कर रहा है। तो जैसा कि लोग दान करते हैं, मरी, मुर्दा चीजें-गायें, जिनका कि दूध सूख चुका है, वह दान कर रहा है; घोड़े, जो अब बोझ नहीं ढो सकते: रथ. जो अब चल नहीं सकता-जैसे कि लोग दान करते हैं—दानी / जो आपके काम नहीं आता, लोग उसको दान कर देते हैं। __ क्वेकर समाज में एक नियम है कि दान उसी चीज का करना जो तुम्हें सबसे ज्यादा पसंद हो, नहीं तो मत करना / नहीं तो उसका कोई मूल्य नहीं है। दान का मतलब ही है, जो तुम्हें सबसे ज्यादा प्यारी चीज हो, उसका दान करना, तो ही किसी मूल्य का है। _ मैं मानता हूं कि क्वेकर की समझ जो दान के संबंध में है, वैसी समझ दुनिया में किसी धर्म में पैदा नहीं हुई। वे कहते हैं; हर सप्ताह एक चीज दान करना, लेकिन वही चीज जो तुम्हें सबसे ज्यादा प्यारी हो / तो उससे क्रान्ति घटित होगी। ___ हम भी दान करते हैं ! वह जो कचरा-कूड़ा इकट्ठा हो जाता है, उसको हम दान कर देते हैं ! और अकसर दान की चीजें दूसरे लोग भी दूसरों को दान करते चले जाते हैं। क्योंकि किसी के काम की नहीं होती। 257 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 ...नचिकेता का पिता दान कर रहा है, नचिकेता पास में बैठा देख रहा है। उसे बड़ी हैरानी होती है। वह पूछता है कि 'ये गायें, जिनमें दूध नहीं है, इनसे क्या फायदा है दान करने से?' बाप नाराज होता चला जाता है। ___ बेटे सरल होते हैं / स्वभावतः क्योंकि अभी उनकी उम्र क्या है? अभी नचिकेता भोला-भाला है। उसे चीजें साफ दिखाई पड़ती हैं। बाप समझ रहा है कि वह दान कर रहा है-उसको दिखाई पड़ रहा है, बेटे को, कि 'कैसा दान ? यह गाय तो दूध दे ही नहीं सकती, उल्टे जिसको तुम दे रहे हो उस पर बोझ हो जायेगी। उसको और घास का इंतजाम करना पड़ेगा, पानी पिलाना पड़ेगा। यह बूढ़ी गाय देने से क्या फायदा है?' पर बाप उसको कहता है कि 'तू चुप रह, तू क्या जानता है ?' लेकिन उससे भी चुप रहा नहीं जाता। आखिर में वह पूछता है कि आप सभी-कुछ दान कर दोगे?' बाप कहता है, 'हां, सभी-कुछ।' तो वह कहता है, 'मुझे किसको दान करोगे? क्योंकि मैं भी तो आपका बेटा हूं।' बाप नाराजगी में कहता है कि 'तुझे मौत को दे दूंगा, यम को दे दूंगा।' लेकिन बड़ी मीठी कथा है कठोपनिषद में कि नचिकेता फिर मृत्यु को दे दिया जाता है / और मृत्यु से नचिकेता जीवन के गहरे-से-गहरे सवाल पूछता है, और जीवन की परम गुह्य साधना को लेकर वापस लौटता है। गहरा प्रतीक यह है कि बाप जब कहता है, तुझे मृत्यु को दे दूंगा, तब वह कहता है तुझे गुरु को दे दूंगा / क्योंकि गुरु का अर्थ ही मृत्यु है / गुरु से गुजरकर तू नया होकर लौट आयेगा! नचिकेता नया होकर लौटता है। अमृत का तत्व सीखकर लौटता है। हमारा डर यही है। ... ध्यान? समाधि? कि हम मर तो नहीं जायेंगे, मिट तो नहीं जायेंगे। हम अपने को बचाकर ध्यान करना चाहते हैं। ध्यान नहीं हो सकता। हमें अपने को छोड़ना ही पड़ेगा, तोड़ना ही पड़ेगा, हटना ही पड़ेगा। मन-पर्याय केवल उन्हीं लोगों के जीवन में उतरेगा, जो मन से दूर हट जाते हैं। क्या करें ...? मन के साथ जहां-जहां तादात्म्य हो, वहां-वहां तादात्म्य न होने दें। क्रोध उठे-पूरा प्राण आपका कहेगा कि क्रोधी हो जाओ-उस समय भीतर शांत बने रहें / क्रोध को घूमने दें चारों तरफ, दबाने की कोई जरूरत नहीं है। हाथ पैर फड़कें, फड़कने दें; मुट्ठियां बंधे, बंध जाने दें। क्रोध शरीर के खून को उत्तप्त कर दे; श्वास तेज चलने लगे, चलने दें। लेकिन भीतर केंद्र पर अलग खड़े देखते रहें कि क्रोध घट रहा है मेरे शरीर और मन में, लेकिन मैं पृथक हूं, मैं अन्य हूं, मैं अलग हूं। मैं सिर्फ देखनेवाला हूं। जैसे यह किसी और को घट रहा है। ___ कामवासना पकड़े, ऐसे ही दूर खड़े हो जायें, लोभ पकड़े, ऐसे ही दूर खड़े हो जायें, विचारों का झंझावात पकड़ ले, दूर खड़े हो जाएं। रात पड़े हैं बिस्तर पर, नींद नहीं आ रही है! विचार पकड़े हुए हैं। विचारों के कारण नींद में बाधा नहीं पड़ती ; आप विचारों के साथ तादात्म्य जोड़ लेते हैं, इससे बाधा पड़ती है। अब दोबारा जब ऐसा हो रात नींद न आये और विचार पकड़े हो, तब कुछ न करें, सिर्फ आंख बंद किये इतना ही अनुभव करें कि 'मैं अन्य हूं, ये विचार अन्य हैं। जैसे आकाश में बदलियां चल रही हैं, ऐसे मन में विचार चल रहे हैं; जैसे रास्ते पर कारें चल रही हैं, ऐसे मन में विचार चल रहे हैं, मैं अपने घर में बैठा देख रहा हूं-सिर्फ देखते रहें। थोड़ी ही देर ____ ध्यान की प्रक्रिया भी यही है कि विचार से अपने को तोड़ लेना / विचार से टूटते ही व्यक्ति को ‘मन-पर्याय' की अवस्था शुरू हो जाती है। महावीर मन-पर्याय को चौथा ज्ञान कहते हैं। चौथा ज्ञान साधक को उपलब्ध होता है। और पांचवें ज्ञान को महावीर कहते हैं, 'कैवल्य' / सिर्फ-मात्र ज्ञान, जहां कुछ भी जानने को नहीं रह जाता / क्योंकि चौथे ज्ञान में मन जानने को रहता है। मन की पर्याय जानते-जानते, साक्षी होते-होते मन की पर्यायें गिर जाती हैं, रूपान्तरण गिर जाते हैं, मन खो जाता है; आकाश खाली हो जाता है / उस 258 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म खालीपन में सिर्फ सूर्य का प्रकाश रह जाता है, सिर्फ सूर्य रह जाता है। वह सिद्ध की अवस्था है—कैवल्य / ये पांच ज्ञान हैं / उस सिद्ध की अवस्था में जो जाना जाता है, वही सत्य है। ___ इस बात को ठीक-से समझ लें / महावीर का जोर बड़ा अनूठा है / वे कहते हैं : आप जैसे हैं, वैसी अवस्था में सत्य नहीं जाना जा सकता। इसलिए सत्य की खोज छोड़ो, अपनी अवस्था बदलो। आप जैसे हैं, इसमें तो असत्य ही जाना जा सकता है। आप असत्य को आकर्षित करते हैं। ___ 'श्रुत' की अवस्था में असत्य ही जाना जा सकता है। 'मति' की अवस्था में इंद्रिय-सत्य जाना जा सकता है-वस्तुओं का सत्य / मन 'अवधि' की अवस्था में सूक्ष्म इंद्रियों का सत्य जाना जा सकता है। मन-पर्याय' की अवस्था में, मन के जो पार है, उसकी झलक और मन के सब रूपांतरणों का सत्य जाना जा सकता है। और 'कैवल्य'-शुद्ध सत्य जाना जा सकता है, जो है-अस्तित्व, मात्र अस्तित्व / उसे हम परमात्मा कहें, या जो भी नाम देना चाहें : निर्वाण कहें, मोक्ष कहें। महावीर ने ये पांच ज्ञान कहे हैं। और मेरे जाने, किसी दूसरे व्यक्ति ने ज्ञान का इतना सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं किया है। और इसकी कोई संभावना नहीं है कि इन पांच के अतिरिक्त छठवां ज्ञान हो सकता है / इसकी कोई संभावना नहीं है। विज्ञान तीन तक पहुंच गया है, चौथे पर चरण रख रहा है। ध्यान पर पश्चिम में बड़े प्रयोग हो रहे हैं; चौथे पर चरण रखने की कोशिश की जा रही है। आज नहीं कल, पांचवें का भी स्मरण आना शुरू हो जायेगा / महावीर इस सदी के पूरे होते-होते, मन के संबंध में बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक सिद्ध हो सकते हैं। 'ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय-इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कर्म बतलाये हैं।' ये पांच ज्ञान और इन पांच ज्ञानों को ढंक लेनेवाले; इस कैवल्य को ढंक लेनेवाले, इस शद्ध ज्ञान को ढंक लेनेवाले आठ कर्मों के रूप हैं। ___ महावीर की पकड़ ठीक विश्लेषक, वैज्ञानिक की पकड़ है। जैसे कि कोई निदान करता है मरीज का कि क्या बीमारी है, क्या कारण है, क्या उपाय है—ऐसे एक-एक चीज का निदान करते हैं। महावीर कवि नहीं हैं। इसलिए उपनिषद में जो काव्य है, वह महावीर की भाषा में नहीं हैं। महावीर बिलकुल शुद्ध गणित और वैज्ञानिक बुद्धि के व्यक्ति हैं। शायद इसलिए महावीर का प्रभाव जितना पड़ना था उतना नहीं पड़ा; क्योंकि लोग गणित से कम प्रभावित होते हैं, काव्य से ज्यादा प्रभावित होते हैं, क्योंकि लोग कल्पना से ज्यादा प्रभावित होते हैं, सत्य से कम प्रभावित होते हैं। महावीर के कम प्रभाव पड़ने का एक कारण यह भी है-बुनियादी कारणों में से एक कारण। कि वे बिलकुल गणित की तरह चलते हैं। सीधा हिसाब है। लेकिन जिसको साधना के पथ पर जाना है, कविता काम नहीं देगी। जिसे घर में बैठकर आंखें बंद करके सपने देखने हैं, बात अलग है। लेकिन जिसे यात्रा तय करनी है, उसे तो नक्शे चाहिये साफ / खतरों का पता चाहिए-खाई खड़े कहां हैं, भटकाने वाले मार्ग कहां हैं? और क्या-क्या कारण हैं, जिनके कारण मैं संसार में खड़ा हूं; और एक-एक कारण को कैसे अलग किया जा सके, ताकि मैं संसार के बाहर हो जाऊं। ___ महावीर एक शुद्ध चिकित्सक की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जीवन की विचारणा में / आठ, वे कहते हैं, मनुष्य की शुद्धता को रोक लेनेवाले कर्म-मल हैं। इनको, एक-एक को हम खयाल में लें, समझ में आ जायेंगे। ___ ज्ञान को आवृत्त करनेवाला, पहला- कौन-सी चीज आपके ज्ञान को आवृत्त करती है, वही 'ज्ञानावरणीय' है। जो-जो चीजें आपके ज्ञान को रोकती हैं, ढांकती हैं और आपके अज्ञान को परिपष्ट करती हैं, वे सभी ज्ञान पर आवरण हैं। 259 . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 कौन-सी चीजें आपके अज्ञान को परिपुष्ट करती हैं? पहली तो बात यही कि आप अपने को अज्ञानी मानने को राजी नहीं होते। आप ज्ञानी हैं, यह आवरण हो गया-खोज बंद हो गई। यह बीमारी हो गई। यह ऐसा ही है, जैसे कि कोई बीमार आदमी कहे कि 'मैं स्वस्थ हं, कौन कहता है कि मैं बीमार हं?' अगर बीमार आदमी भी इसको एक तरह का आक्रमण समझ ले कि उसको कोई बीमार कहे, तो वह लड़ने लगे कि 'कौन कहता है कि मैं बीमार हूं? मैं बिलकुल स्वस्थ हूं ; शर्म नहीं आती मुझे बीमार कहते हुए!' तो फिर उसके इलाज का कोई उपाय न रहा। ___ अज्ञानी यही कर रहा है / वह कहता है, 'कौन कहता है, मैं अज्ञानी हूं?' अगर कोई आपकी बात को गलत सिद्ध करे, तो आप लड़ने को तैयार हो जायेंगे। गलत सिद्ध करने में क्या खतरा है? वह आपको सिद्ध कर रहा है कि आप अज्ञानी हैं, यही खतरा है।। दुनिया में लोग सत्य के लिए नहीं लड़ते-मेरी बात सच है, इसलिये लड़ते हैं। ये इतने जो संप्रदाय दिखाई पड़ते हैं, इतने अड्डे दिखाई पड़ते हैं; इनका झगड़ा कोई सत्य का झगड़ा नहीं है। सत्य के लिये क्या झगड़ा हो सकता है? झगड़ा इस बात का है कि जो मैं कहता हूं, वही सत्य है, और कोई सत्य नहीं हो सकता। है कि एक फकीर मरा-एक सफी फकीर मरा / स्वर्ग पहंचा. तो उसने परमात्मा से पहली प्रार्थना की. कि सबसे पहले तो मैं यह जानना चाहता हूं कि स्वर्ग का पूरा विस्तार कितना है? और मैं पूरे स्वर्ग में एक भ्रमण करना चाहता हूं, इसके पहले कि कहीं निवास बनाऊं। परमात्मा ने कहा कि यह उचित नहीं है, नियम विपरीत है। तुम सूफी हो, तुम्हारी जगह तय है / स्वर्ग का वह हिस्सा, जहां सूफी बसते हैं, तुम वहां चले आओ। पर उस सूफी ने जिद बांध ली। उसने कहा कि चाहे मुझे नर्क भेज दें, लेकिन इसके पहले कि मैं अपनी जगह चुनूं, मैं पूरे स्वर्ग को जितना है, देख लेना चाहता हूं। __ पर परमात्मा ने कहा, 'जिद्द क्या यह? कोई ऐसी जिद्द नहीं करता; क्योंकि सभी मानते हैं कि उनका स्वर्ग ही बस स्वर्ग है / जैनी आते हैं, वे अपने स्वर्ग में चले जाते हैं, हिंदू आते हैं, वे अपने स्वर्ग में चले जाते हैं; मुसलमान... / और सभी यही मानते हैं कि उनका स्वर्ग ही मात्र स्वर्ग है, बाकी कोई स्वर्ग है नहीं / तू कैसा आदमी है? यह बात ही ठीक नहीं, नियम विपरीत है! लेकिन तू नहीं मानता और मुझे प्यारा है, इसलिये तुझे मौका देता हूं। लेकिन किसी को बताना मत / ' __तो एक देवदूत साथ कर दिया गया फकीर के / और वह देवदूत उसे ले गया, उसने दिखाया मुसलमानों का स्वर्ग-करोड़ों करोड़ों मुसलमान! यहूदी, ईसाइयों के स्वर्ग-सब दिखाता चला गया। लेकिन सब जगह वह बिलकुल फुस-फुसा फुस-फुसाकर बात करता था। आखिर में उस आदमी से--सूफी से न रहा गया, उसने कहा, 'यह तो ठीक है, लेकिन इतना फुस-फुसाकर क्यों बात करते हो?' उसने कहा कि इन लोगों को पता नहीं चलना चाहिए / यही केवल स्वर्ग में हैं। ये सब... हर एक की यही मान्यता है कि मैं ही स्वर्ग में हूं। अगर मुसलमान को पता चल जाए कि ईसाई भी स्वर्ग में है, तो वह उदास हो जायेगा। सब मजा ही चला गया। ईसाई सब नरक में पड़े हैं। जैन को पता चल जाए कि हिंदू भी चले आ रहे हैं स्वर्ग में तो उसकी सारी भूमि खिसक जायेगी। इनका मजा ही यही है। ये जो इतने आनंदित दिखाई पड़ रहे हैं, इनका मजा ही यह है कि ये समझते हैं कि ये ही केवल स्वर्ग में हैं, बाकी सब नरक में हैं। हर आदमी अपने सत्य को सत्य की सीमा समझता है। सोचता है, जो वह मानता है वही ठीक है। और सारी दुनिया उसको मान लेगी, उसकी चेष्टा होती है। ऐसा व्यक्ति मतवादी होता है, और ऐसा व्यक्ति सदा अज्ञान में घिरा रह जाता है। ज्ञान की तरफ जानेवाले व्यक्ति को इस तरह के कर्म-मल को अपने आसपास इकट्ठा नहीं करना चाहिए। उसे सदा विनम्र, मुक्त, राजी 260 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म होना चाहिए कि सत्य कहीं से भी आता हो, मैं खुला हूं। सत्य कहां से आता है, इसका कोई सवाल नहीं। मैं प्यासा हूं, पानी गंगा का है कि यमुना का, इससे कोई सवाल नहीं है—पानी चाहिए / पानी किन हाथों से आया, इसका भी कोई सवाल है? लेकिन, कुछ नासमझ, वे आम खाने जाते हैं लेकिन गुठलियां गिनकर जीवन बिता देते हैं। आम खाने का मौका ही नहीं आ पाता, गुठलियां काफी हैं। ___ महावीर कहते हैं, ज्ञानावरणीय उन सारी वृत्तियों को, जो आपके ज्ञान के प्रस्फुटन में बाधा हैं : आपका अहंकार, आपका मतवाद, आपके पक्षपात, आपका यह आग्रह कि यही ठीक है। __ अनाग्रह-चित्त चाहिये / इसलिए महावीर ने पूरे अनाग्रह-चित्त का दर्शन विकसित किया, जिसको वे 'स्यातवाद' कहते हैं। वे कहते हैं, कोई भी चीज को ऐसा मत कहो कि यही ठीक है, क्योंकि जगत बहुत बड़ा है / और भी स्वर्ग हैं। दूसरा भी ठीक हो सकता है / विपरीत बात भी ठीक हो सकती है; क्योंकि जीवन बड़ा जटिल है। यहां एक आदमी जो भी कहता है, वह आंशिक ही होगा, पूर्ण नहीं होगा। जो भी कहा जा सकता है, वह आंशिक होगा। इसलिये भी महावीर का प्रभाव बहत नहीं पड़ा, क्योंकि महावीर का विचार संप्रदाय बनानेवाला विचार नहीं है। जिन्होंने बना लिया उनके पीछे, वे चमत्कारी लोग हैं। महावीर के पीछे संप्रदाय बन नहीं सकता, बनना नहीं चाहिए। क्योंकि महावीर, संप्रदाय की जो मूल भित्ति है, मैं ही ठीक हूं, उसको तोड़ रहे हैं। __ कोई संप्रदाय, जो कहे कि आप भी ठीक हैं, वह कैसे बन सकता है? मंदिर कहे कि मस्जिद भी ठीक है, कोई हर्जा नहीं, वहां भी चले गये तो चलेगा, मंदिर का धंधा टूट जायेगा। मंदिर को तो कहना ही चाहिये कि सब गलत हैं। और जितनी ताकत से मंदिर कहे कि मस्जिद गलत है, चर्च गलत और जितना सुननेवाले को भरोसा दिला दे कि सिर्फ मंदिर सही है, उसका संदेह मिटा दे, तो ही कोई आने वाला है। ये सब दुकान की ही बात है। अगर दुकानदार कहने लगे कि जो माल मेरी दुकान पर है, वही सब दुकानों पर है; जो दाम मेरे, वही सबके, कहीं से भी ले लो, सब एक है-यह दुकान खो जायेगी। ये दुकान नहीं बच सकती। दुकानदार को कहना ही चाहिए कि माल तो सिर्फ यहीं है, बाकी सब नकल है। __ महावीर अजीब दुकानदार हैं ! वे कहते हैं कि दूसरा भी ठीक हो सकता है। वे किसी को गलत कहते ही नहीं। उनकी चेष्टा यही है, कहीं कोई कितना ही गलत हो, उसमें भी थोड़ा सच जरूर होगा / उस सच को चुन लो / क्योंकि कोई बिलकुल झूठी बात टिक नहीं सकती, खड़ी नहीं हो सकती। खड़े होने के लिये थोड़ा-सा सच का सहारा चाहिए / इसलिये जब तुम किसी असत्य को भी चलते देखो, तो महावीर कहते हैं, खोज करना, क्योंकि वह चल रहा है तो उसके पीछे जरूर कहीं कुछ सत्य होगा / क्योंकि सत्य के बिना प्राण नहीं, असत्य चल नहीं सकता। असत्य को भी सत्य के ही पैर चाहिये, तो ही चल सकता है। उस सत्य को पकड़ लो, असत्य की तुम फिक्र छोड़ो। असत्य पर जोर ही क्यों देते हो, तुम उस सत्य को पकड़ लो। ___ महावीर से कोई आकर कहता है कि 'निर्वाण है या नहीं?' महावीर कहते हैं, 'है; नहीं भी है।' संप्रदाय मुश्किल है। क्योंकि वह आदमी एक कोई पक्की बात ही नहीं कह रहा-कभी कुछ, कभी कुछ।...यह आदमी कभी कहता है कभी कहता 'नहीं है। वह आदमी पूछता है, क्या मतलब आपका / या तो है', कहो 'है' / या कहो, 'नहीं', 'नहीं है'। __ संप्रदाय बनाने के लिये साफ बातें चाहिये / ऐसा नहीं कि महावीर की बातें गैर-साफ हैं। लेकिन बातें इतनी साफ हैं कि हम जैसे अंधों को उनमें सफाई नहीं दिखाई पड़ सकती / हमारी आदतें हैं बंधी हुई चीजों को देखने की। महावीर का सत्य आकाश की तरह बड़ा है, 261 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 हम आंगन की तरह छोटे-छोटे सत्यवाले लोग हैं। ___ तो महावीर कहते हैं कि निर्वाण है उसके लिये, जो 'कैवल्य' में पहुंच गया। निर्वाण नहीं है उसके लिये, जो अभी श्रुत में पड़ा है। संसार में जो खड़ा है, उसके लिए निर्वाण नहीं है। कहां है? क्योंकि जो मेरा अनुभव नहीं है, उसके होने का क्या अर्थ है? महावीर से कोई पूछता है, 'क्या संसार माया है ?' क्योंकि मायावादी हैं, वे कहते हैं. संसार माया है। महावीर कहते हैं, 'है' भी. 'नहीं' भी। क्योंकि जो संसार में खडा है, उसके लिये संसार माया नहीं है, और जो संसार के पार उठ गया, उसके लिये संसार माया है। वहां कुछ भी नहीं बचा, स्वप्न छूट गया। इंद्रधनुष दूर से देखे जाने पर है, पास से देखे जाने पर नहीं है। तो महावीर कहते हैं : सभी सत्य जो हम कहते हैं, आंशिक हैं, और उनसे विपरीत भी सच हो सकता है। ऐसा व्यक्ति अपने ज्ञान के आवृत करनेवाले कर्मों को काट देता है। मताग्रह बंधन है-अनाग्रह चित्त! ___ महावीर बड़े अदभुत हैं। अभी महात्मा गांधी ने एक शब्द चलाया-सत्याग्रह / महावीर उसको भी राजी नहीं हैं। कहते हैं, सत्य का भी आग्रह नहीं; क्योंकि जहां आग्रह आया, वहां असत्य आ जाता है। महावीर कहते हैं-अनाग्रह / हम तो असत्य का भी आग्रह करते हैं। क्योंकि मेरा असत्य आपके सत्य से मुझे ज्यादा प्रीतिकर मालूम पड़ता है / क्योंकि 'मेरा' है। मेरे असत्य के लिये मैं लडूंगा, मैं कहूंगा, यही सत्य है / क्यों...? इतनी लड़ाई क्या है? कारण है / अगर यह असत्य टूटता है, तो मैं टूटता हूं। इसके सहारे मैं खड़ा हूं। अगर मेरी सारी धारणाएं गलत हो जाएं, तो मैं गलत हो गया। लेकिन जो व्यक्ति ज्ञान की खोज में चला है, वह तैयार है पूरी तरह गलत होने को / जो पूरी तरह गलत होने के लिए तैयार है, वह पूरी तरह सही हो जायेगा। उसकी यात्रा शुरू हो गयी। ___ महावीर कहते हैं, दूसरा है दर्शन को आवृत्त करनेवाला—कर्मों का जाल / आपकी आंखों पर, आपके दर्शन पर भी पर्दा है। आप जो देखते हैं उसमें आपकी व्याख्या प्रविष्ट हो जाती है। समझिये। ____ मैंने सुना है, अमरीका का एक करोड़पति पिकासो के चित्र को खरीदकर ले गया। लाखों रुपये पिकासो के चित्र के दाम हैं / उसने लाखों रुपये खर्च किये, पिकासो का चित्र ले गया। उसने अपने बैठकखाने में उस चित्र को लगाया / वह उस की बड़ी प्रशंसा करता था। जो भी आता, उसे दिखाता कि कितने रुपये खर्च किये, कैसा अदभुत चित्र है। एक दिन पता चला खोज बीन से कि वह पिकासो का चित्र नकली है: पिकासो का बनाया हआ नहीं. किसी ने नकल की है। बात खत्म हो गई। वह जो संदर चित्र था बहमुल्य, उसका सौंदर्य खो गया, मूल्य खो गया / वह चित्र उसने उठाकर कबाड़खाने में डाल दिया। इस आदमी को सच में सौंदर्य दिखाई पड़ता था या सिर्फ खयाल था? अगर इसने अपनी आंखों से चित्र का सौंदर्य देखा होता तो यह कहता, 'क्या फर्क पड़ता है कि किसने बनाया? चित्र सुंदर है और बैठक में रहेगा। और लाखों रुपये का है, चाहे नकल ही क्यों न की गयी हो / उससे फर्क पड़ता है? यह चित्र अपने आप में सुंदर है, और जिसने नकल की है, वह पिकासो से बड़ा कलाकार है; क्योंकि पिकासो की नकल कर सका। शायद पिकासो भी अपने चित्र की नकल न कर सके / इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन चित्र उठाकर फेंक दिया गया, क्योंकि असली सवाल चित्र से नहीं था। पिकासो का है, इससे था। लेकिन कुछ महीने बाद पता चला कि वह धारणा गलत थी, चित्र पिकासो का ही है। चित्र उठाकर वापस बैठकखाने में लगा दिया गया / झाड़-पोंछ की गई उसकी फिर से, क्योंकि कचरा-कूड़ा उस पर जम गया था। और वह फिर से कहने लगा कि 'कैसा अदभूत चित्र है।' आपकी आंखें हैं या क्या-आप भी यही कर रहे हैं। 262 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म अगर कोई बांसुरी बजा रहा है आपको भी पता है कि ऐसे ही कोई ऐरा-गैरा बजा रहा है, तो आप कहेंगे कि 'क्यों सिर खा रहे हो?' और अगर आपको पता चले कि कोई महान कलाकार है, तो आप बिलकुल रीढ़ सीधी करके बैठ जायेंगे कि क्या गजब का संगीत है !' ___ लोग शास्त्रीय संगीत सुनते रहते हैं ! उनको बिलकुल पता नहीं कि क्या हो रहा है? लेकिन शास्त्रीय हो रहा है, तो शास्त्रीय सुनने से वे भी सुसंस्कृत मालूम होते हैं / वे भी सिर हिलाते हैं !... 'दर्शनावरणीय!' आपके पास अपनी आंखें नहीं, अपने कान नहीं, अपने हाथ नहीं-एक्सपर्ट बता रहा है कि 'यह कीमती है, यह सुंदर है, यह बहुमूल्य है !' __ आपके हाथ में हीरा रख दिया जाये और बताया न जाये कि हीरा है, और कह दिया जाये कि एक चमकदार कंकड़ है, आप उसे बच्चों को खेलने को दे देंगे। और एक दिन आपको पता चले कि एक्सपर्टस् कह रहे हैं कि 'कोहिनूर है'-छीन लेंगे बच्चे से, तिजोड़ी में बंद करके रख लेंगे। ___ आपके पास अपनी कोई भी प्रतीति नहीं है; आपका दर्शन विशुद्ध नहीं है- अशुद्ध है, उधार है / आंखें अपनी और आंखों पर पर्दे किन्हीं और के हैं / सब चीजें ऐसी हैं।... सब चीजें ही ऐसी हैं ! मैं रोज देखता हूं। आप रोज अनुभव करते होंगे, चारों तरफ यह घट रहा है। मैं एक मित्र को एक मूर्ति दिखाने ले गया। मूर्ति महावीर की है, लेकिन कुछ अनआर्थोडाक्स है। जैसी होनी चाहिये महावीर की, वैसी नहीं है, कुछ भिन्न है। तो वे खड़े रहे / मैंने कहा कि 'झुको, नमस्कार करो।' उन्होंने कहा, 'क्या झुकने का है ?' मैंने कहा, 'जरा नीचे देखो गौर से, महावीर का चिन्ह बना हुआ है। नीचे गौर से देखा, साष्टांग...सिर रखकर लेट गये ! आखिर आपके भीतर से अपना कुछ उदभावन होता है या नहीं होता? सब दूसरों से संचालित है? तो जिसकी दृष्टि अपनी नहीं है, निज की नहीं है, उसको महावीर कहते हैं, उसके दर्शन पर आवरण है। अपनी आंखें खोजें / और अगर आपको एक पत्थर प्रीतिकर लगता हो, तो हीरे की तरह उसे अपनी तिजोड़ी में संभालकर रखें, और अगर एक हीरा आपको साधारण लगता हो तो कचरे में फेंक दें ! इतनी हिम्मत चाहिये। इतनी हिम्मत न हो तो आदमी कभी भी दर्शन की क्षमता को उपलब्ध नहीं होता। और जिसके पास आंख अपनी नहीं है, वह क्या अपने परमात्मा को खोज सकेगा ! कोई उपाय नहीं है। निजता मूल्यवान है। तीसरी कर्म की एक प्रक्रिया है जो हमें चारों तरफ से घेरे है, उसे महावीर ‘वेदनीय' कहते हैं। दुख के परमाणु हमारे चारों तरफ हैं। उनके कारण हम निरंतर दुखी होते रहते हैं। कुछ लोग, आप जानते होंगे कुछ क्या, अधिक लोग, जिनको आप सुखी कर ही नहीं सकते। आप कुछ भी करें, वे उसमें से दुख निकाल लेंगे। ___ मुल्ला नसरुद्दीन हर साल रोता था कि फसल खराब गई, फसल खराब गई, इस साल वर्षा आ गई, इस साल ज्यादा धूप हो गई, इस साल जानवर चर गये, इस साल पक्षी आ गये / लेकिन, एक साल ऐसा हुआ अनहोना कि न पक्षी आए, न कीड़े लगे, न ज्यादा धूप पड़ी, न ज्यादा वर्षा हुई, न कम वर्षा हुई। फसल ऐसी अदभुत हुई कि लोग कहने लगे कि 'हजारों वर्ष में ऐसा शायद ही हुआ हो।' बूढ़े-से-बूढ़े गांव के लोग कहने लगे, 'बड़ी अदभुत फसल हुई, कुछ भी सड़ा नहीं, कुछ भी गला नहीं, कुछ भी खराब नहीं हुआ।' लेकिन मुल्ला है कि अपने दरवाजे पर सिर लटकाए दुखी बैठा है / उसके पड़ोस के लोगों ने कहा कि नसरुद्दीन, अब तो खुश हो जाओ, अब तो कुछ भी उदासी का कारण नहीं है। उसने कहा कि कारण क्यों नहीं है, कुछ भी सड़ा-गला नहीं है, जानवरों को क्या खिलायेंगे?' 263 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 ‘वेदनीय'-दुख खोज ही लेंगे! ऐसा हो ही नहीं सकता कि कहीं दुख न हो। हम सबके पास जन्मों-जन्मों से ऐसे वेदनीय परमाणु हैं, जो हमें उकसाते हैं कि खोजो दुख, दुख खोजो। और ऐसा असंभव है कि आदमी को कहीं खोजने से दखन मिल जायें / जीवन में दुख हैं—काफी हैं, और आप खोजने को उत्सुक हैं, तब तो कहना ही क्या ! हमारी हालत वैसी ही है, जैसे कभी आपको होता होगा कि पैर में चोट लग गयी, तो फिर दिनभर उसी में चोट लगती है। आप सोचते होंगे, कैसा अजीब मामला है, दुनिया का नियम कैसा बेहूदा है कि जब चोट नहीं थी तो इसमें चोट नहीं लगती थी, अब चोट लगी है, एक घाव है, तो दिनभर चोट लग रही है?' आप गलती में हैं। दुनिया आपके घाव की कोई फिक्र नहीं करती। और न दरवाजे को कोई मतलब है कि आपके घाव में लगे: न कुर्सी को मतलब है, न टेबल को मतलब है। न बच्चे को मतलब है कि आपके घाव पर खड़ा हो जाये। किसी को कोई मतलब नहीं है आपके घाव से / लेकिन जब आपके पास घाव होता है, तो वेदनीय कर्म आपके घाव के आसपास होते हैं। सारे दुख... तब हर चीज छूती है, और बहुत दुखद मालूम होती है। कल भी हर चीज छूती थी, लेकिन आपके पास दुख को पकड़ने की क्षमता नहीं थी, घाव नहीं था। कल भी लड़के ने पैर वहीं रख दिया था, लेकिन कुछ पता नहीं चला था। आज भी वहीं रख दिया है, लेकिन आज पता चलता है; क्योंकि आज घाव है। ___ ध्यान रहे, आपके दुख कोई आपको दे नहीं रहा है, आप ले रहे हैं। दुनिया में कोई किसी को दुख दे नहीं सकता। यह हमें कठिन लगेगा। इससे उल्टा समझ लें तो आसानी हो जायेगी। क्या दुनिया में कोई किसी को सुख दे सकता है ? पत्नी पति को सुख देने की कोशिश कर रही है, पति पत्नी को सुख देने की कोशिश कर रहा है। और दोनों दुखी हैं, नरक में मरे जा रहे हैं। कोई किसी को सुख नहीं दे सकता है तो कोई किसी को दुख भी कैसे दे सकता है ? ___ मां-बाप कोशिश कर रहे हैं बेटे को सुख देने की, और बेटा सोच रहा है : कब इनसे छुटकारा हो, कैसे छूटे इनके जाल से। ...क्या मामला है ? ___ कोई किसी को सुख दे नहीं सकता, न कोई किसी को दुख दे सकता है। इस जगत में दुख लिया जा सकता है, सुख लिया जा सकता है—दिया नहीं जा सकता। यह एक मौलिक सिद्धांत है, आधारभूत / इसलिए अगर आप दुख में जी रहे हों, तो समझना कि आप दुख लेने में बड़े कुशल हैं। उस कुशलता का नाम वेदनीय कर्म है। ___ आप कुशल हैं : आप सदा दुख लेने को उत्सुक हैं। एक आदमी आपकी दिनभर सेवा करे, आपको खयाल भी नहीं आयेगा। और जरा आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर दे कि बस, सब नष्ट हो गया / एक पत्नी आपकी जीवनभर सेवा करती रहे, पैर दबाती रहे, कुछ पता नहीं चलता। कोई खयाल भी नहीं, धन्यवाद भी आप कभी नहीं देते। और एक दिन कह दे कि 'नहीं, आज चाय मुझे नहीं बनानी, आप बना लें, सब जीवन नष्ट हो गया, सब गृहस्थी बरबाद हो गई। मन में तलाक के विचार आने लगते हैं। नसरुद्दीन खड़ा था अदालत में जाकर और कह रहा था कि 'अब बस हो गया, अब बहुत हो गया, अब तो तलाक चाहिये।' उससे मजिस्ट्रेट ने पूछा कि 'बात क्या है ?' नसरुद्दीन ने कहा कि बात हद से ज्यादा आगे बढ़ गई है। एक ही कमरा है रहने का और उसमें पत्नी ने तीन बकरियां पाल रखी हैं। इतनी गंदगी हो रही है और इतनी बास आ रही है कि अब मर जायेंगे, या फिर तलाक / इन दोनों के अतिरिक्त अब और कोई उपाय नहीं है।' जज ने कहा कि 'बात तो समझ में आती है; हालत तो बुरी है, लेकिन खिड़कियां क्यों नहीं खोल देते कि बास जरा बाहर निकल जाये,' नसरुद्दीन ने कहा, 'क्या कहा, खिड़कियां? और मेरे पांच सौ कबूतर उड़ जायें...!' ...खिड़कियां खोल नहीं सकते, क्योंकि पांच सौ कबूतर खुद रखे हुए हैं—वेदनीय-कर्म...! 264 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म आदमी दुख को खोज रहा है। नहीं मिलता, तो भी तकलीफ होती है। अगर दिनभर कोई न मिले जो आपको क्रोध दिलाए, तो भी ऐसा लगता है कि कुछ खाली-खाली गया। कोई न मिले, जो आपको दुख दे, तो भी ऐसा लगता है कि आज कुछ हुआ नहीं। सब बेरौनक मालूम पड़ता है। आदमी सुख भी झेल नहीं सकता, उसमें भी दुख बना लेगा ! आपके जीवन में जो घटता है, वह आपकी ग्राहकता है। महावीर का जोर इस बात पर है कि आपके पास वेदनीय कर्म हैं। आपने जन्मों-जन्मों में दुख पाया है, इकट्ठा किया है, उसके कारण आप दुखी होते चले जाते हैं / इस सिलसिले को तोड़ें। यह तभी टूटेगा, जब आप दूसरे को जिम्मा देना बंद कर दें। यह कहना बंद कर दें कि दूसरा मुझे दुख दे रहा है।' यह तभी टूटेगा, जब आप समझेंगे कि मैं दुख चुन रहा हूं। तो जब भी आप दुखी हों, तत्काल निरीक्षण करें कि आपने कैसे चुना, दुख कैसे चुना? और उस चुनाव को बंद करें। धीरे-धीरे चुनाव बंद होता जायेगा, सेतु टूट जायेंगे। और तब आप दूसरी प्रक्रिया भी सीख सकते हैं, कि सुख चुनें। ___ जो आदमी दुख छोड़ने की प्रक्रिया सीख जाता है, वह सुख चुनने लगता है / वह गलत-से-गलत स्थिति में से भी सुख को निचोड़ लेगा। उसी को जीवन की कला आती है, वही जीवन का रस पी पाता है। वही जीवन को भोग पाता है, उसमें से सुख चुन लेता है गलत-से-गलत स्थिति में से भी सुख चुन लेता है। ___ मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे-बड़े परेशान / मैंने उनको कहा कि अच्छा ही हुआ कि महीनेभर के लिए फुरसत मिली ! वैसे तो शायद फुरसत कभी मिलती नहीं। परमात्मा की अनुकंपा है कि उसने बीमार किया, कि तुम बिस्तर पर पड़े हो ! अब बिस्तर का आनंद लो ! अब क्यों परेशान हो रहे हो? जा सकते नहीं दुकान पर, उठ सकते नहीं, कुछ कर सकते नहीं। और काफी कर लिया, पचास साल से कर ही रहे हो, कुछ पाया भी नहीं। एक महीना बिस्तर में पड़े रहो शांति से तो क्या हर्ज है? लोग इसी की तो आशा रखते हैं मोक्ष में कि पड़े हैं, कोई काम नहीं, कोई झंझट नहीं ! मोक्ष नहीं चाहिए? महीनाभर के लिए मिला है, कंपलसरी मिला है—लो ! कुछ पढो, कुछ संगीत सुनो, कुछ ध्यान करो / बहुत से काम आपाधापी में नहीं कर पाए हो, छूट गये हैं। फिजूल काम हैं-बच्चों से बात करनी हैं, पत्नी के पास बैठ जाना है। कुछ करो, आनंद लो इतने दिन का-एक महीना मिल गया है अवकाश का !' _वह बोले कि 'नहीं, अभी कहां अवकाश / अभी बड़े काम उलझे हैं।' पर मैं उनको कह रहा हूं कि काम उलझे हैं, तो उलझे हैं, तुम जा सकते नहीं, कोई उपाय है नहीं। मगर वे पड़े हैं अपने बिस्तर पर और दुकान की चिंता खींच रही है, आफिस की चिंता खींच रही है ! अगर आपको कोई अनिवार्य रूप से भी मोक्ष भेज दे, आप वापस आ जायेंगे- 'काम बहुत बाकी हैं, अभी हम जा नहीं सकते !' चौथे कर्म को महावीर कहते हैं, 'मोहनीय कर्म, जब आप किसी से आकर्षित होते हैं, तो आपकी धारणा होती है कि आकर्षण का विषय आपको आकर्षित कर रहा है। महावीर कहते हैं, नहीं। सारे जीवन की प्रक्रिया आपसे पैदा होती है। आप आकर्षित हो रहे है कोई आकर्षित कर नहीं रहा है। __कहा जाता है कि लैला कुरूप थी, सुंदर नहीं थी, और मजनूं आकर्षित था। कहा जाता है कि गांव में सबसे कुरूप लड़की लैला थी और मजनूं दीवाने थे। मजनूं की दीवानगी इतनी ज्यादा थी कि अब जब भी कोई दीवाना होता है, तो लोग उसको मजनूं कहते हैं। सम्राट ने बुलाया मजनूं को और कहा कि 'तेरी दीनता, तेरा दुख, तेरा रुदन देखकर दया आती है। पागल, उस लड़की में कुछ भी नहीं है, तू नाहक परेशान हो रहा है। और तुझ पर मुझे इतनी दया आने लगी है कि रात तुझे रोता हुआ निकलता देखता हूं सड़कों से... चिल्लाता-लैला, लैला कि... मैंने गांव की सब सुंदर लड़कियां बुलाई हैं। लड़कियां खड़ी हैं, इनमें से तू चुन ले।' मजनूं ने कहा, 'लैला तो इनमें कहीं भी नहीं है।' सम्राट ने कहा, 'लैला बिलकुल साधारण है।' तो मजनूं ने कहा, 'लेकिन आप कैसे पहचानेंगे? लैला को देखने के लिए मजनूं की आंख चाहिये। वह असाधारण है।' 265 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 निश्चित ही, मजनूं के लिए लैला असाधारण है / लैला का सवाल नहीं है, मजनूं की आंख का सवाल है। आपको क्या चीज आकर्षित करती है, उसका सवाल है। ___ एक दिन नसरुद्दीन निकल रहा है सड़क से / पत्नी जरा पीछे रह गई। नसरुद्दीन ने सड़क से झुककर कुछ उठाया, फिर क्रोध से फेंका। पत्नी तब तक पास आ गई थी। नसरुद्दीन ने कहा कि 'अगर यह आदमी मुझे मिल जाये, तो इसकी गर्दन उतार लूं।' तो उसकी पत्नी ने पूछा, 'मामला क्या है ? कौन आदमी ? यहां तो कोई है नहीं !' उसने कहा , 'वह आदमी जो इस तरह थूकता है, जैसी अठन्नी मालूम पड़े...अगर मुझे मिल जाये, तो उसकी गर्दन उतार लू !' अठन्नी से कुछ लेना-देना नहीं है / अपना ही 'मोहनीय-कर्म'... आपके भीतर का आकर्षण, मोह, लोभ-वह आपको पकड़े हुए है। पांचवें को महावीर कहते हैं, 'आयु' / महावीर कहते हैं, आयु जो उपलब्ध होती है, वह कर्मों के अनुसार उपलब्ध होती है। इसलिए उसे कम-ज्यादा करने की चेष्टा व्यर्थ है। और उसे ज्यादा करने की जो चेष्टा करता है, उससे उसकी उम्र ज्यादा नहीं हो पाती, नया जन्म निर्मित होता है। महावीर कहते हैं. हर आदमी अपने कर्मों के अनसार उम्र लेकर पैदा होता है। एक आदमी को सत्तर साल जीना है, लेकिन कोई आदमी सत्तर साल जीना नहीं चाहता। सात सौ साल भी कम मालूम पड़ते हैं। सात हजार साल भी कोई कहे, तो भी आप कहेंगे : 'क्या कुछ और नहीं बढ़ सकती?' यह जो बढ़ने की आकांक्षा है, इससे उम्र नहीं बढ़ती, महावीर कहते हैं, लेकिन नया जन्म बढ़ जाता है। यह शरीर तो सत्तर साल में गिरेगा, लेकिन अगर आप सात सौ साल जीना चाहते हैं, तो आपको और पंद्रह-बीस जन्म लेने पड़ेंगे। क्योंकि आपकी वासना आपको जन्म दिलाती है। ___ आयु कर्म से उपलब्ध होती है। इसलिए आयु जितनी हो, उसकी स्वीकृति चाहिये, तो नए जन्म की दौड़ बंद हो जाती है। महावीर कहते हैं, न तो फिक्र करनी चाहिये कि ज्यादा जियूं, न फिक्र करनी चाहिये कि कम जियूं / दोनों हालत में गलती हो रही है। ___ कुछ लोग जीवन से उदास हो जाते हैं। घर जल जाये, बैंक डूब जाये, या दिवाला निकल जाये-कुछ हो जाये तो वे कहते हैं, 'मर जायेंगे। वे अपनी उम्र कम करना चाहते हैं। लेकिन कर्मों से जितनी उम्र मिली है, वह भोगनी ही पड़ेगी। अगर किसी आदमी को सत्तर साल जीना हो और वह चालीस में मर जाये, तो वह जो बीस सालों का कर्म बाकी रह जायेगा, वह उसे नये जन्म में आदमी को सत्तर साल जीना है, और सात सौ की कामना रखता है, तो वह कामना उसे अगले जन्मों में ले जायेगी। महावीर कहते हैं कि आयु मिलती है पिछले जन्मों के कर्मों से। इसलिए जितनी आयु मिली है, उसको उतना स्वीकार कर लेना चाहिये / न अपने मरने की चेष्टा करनी चाहिये, और न जिलाने की / साक्षी-भाव से जितनी है, वह हमारा पिछला ऋण है—चुक जाये। और सब शांत हो जाये / जीवेषणा अगर बनी रहे, तो आदमी को खींचती चली जाती है। उस जीवेषणा के कारण अनंत भव का भटकाव हो जाता है। ___ यह जो आयु है, यह आपके हाथ में नहीं है, यह आपके पिछले कर्मों पर निर्भर है। यह बात बहुत दूर तक सही है, वैज्ञानिक रूप से भी सही है। हालांकि वैज्ञानिक राजी नहीं होंगे इस बात से / वे कहेंगे अगर हम आदमी को ठीक सुविधा दें, स्वस्थ रखने की व्यवस्था दें, इलाज दें, तो वह सत्तर साल जी सकता है। और उसको खाने-पीने न दें, इलाज न दें, तो चालीस साल में मर सकता है। महावीर कहते हैं, चालीस साल में वह मर सकता है, चालीस साल क्या, चार दिन में मर सकता है, अगर गोली मार दें, जहर दे दें, लेकिन इससे उसका आयु-कर्म कम नहीं किया जा सकता / वह नये जन्म में उतने आयु-कर्म को पूरा करेगा। उससे फर्क नहीं पड़ता है। वह जो उसका कर्म है, जितना उसने इकट्ठा किया है ; जीने की जितनी वासना उसने इकट्ठी की है, उतनी वासना उसे पूरी करनी पड़ेगी। वह मोमेंटम 266 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म है, वह पूरा करना पड़ेगा। __ महावीर कहते हैं कि जीवन चलता है कार्य-कारण के नियम से। यहां जो भी इकट्ठा हो गया है, उसका प्रतिफल पूरा करना होगा। इसलिए उसे सहज स्वीकृति से जो जी लेता है, वह मुक्त हो जाता है। 'नाम'–महावीर कहते हैं कि नाम, अहंकार, यश, पद, कुल, प्रतिष्ठा ये सब भी कर्म हैं। एक आदमी ब्राह्मण के घर पैदा होता है, अच्छे घर में पैदा होता है, जहां ज्ञान का वातावरण है, शुभ मौजूद है / वह वहां इसलिए पैदा होता है कि पिछले जन्मों में, महावीर कहते हैं, वह विनम्र रहा होगा, शांत रहा होगा। लेकिन ब्राह्मण का बेटा होकर वह अकड़ जाता है कि मैं ब्राह्मण हूं, शूद्र से ऊंचा हूं-अब वह ऐसा इंतजाम कर रहा है कि अगले जन्म में शूद्र हो जाये। नाम, कुल, आकार-मूर्त पर जोर न दें, अमूर्त को ध्यान में रखें तो कर्म कटते हैं / मूर्त पर बहुत जोर दें तो कर्म बढ़ते हैं / तो महावीर कहते हैं कि कुल की, नाम की, पद की, प्रतिष्ठा की चर्चा ही उठानी उचित नहीं है। इसलिए महावीर किसी से भी नहीं पूछते, जब उनके पास कोई दीक्षा लेने आता है, संन्यस्त होता है तो वे उससे नहीं पूछते : तू जाति से क्या है ? कुल से क्या है ? तेरा नाम क्या है ? धन कितना था परिवार में ? कुलीन घर से आता है कि अकुलीन घर से आता है ? नहीं, उसके मूर्त जीवन के संबंध में वे कुछ भी नहीं पूछते / झांकते हैं उसके अमूर्त जीवन में। तो आप अपने आसपास जो आकार हैं, उस पर जोर न दें ; क्योंकि आकार पर जोर देंगे तो आकार निर्मित होते चले जायेंगे। निराकार जो भीतर छिपा है, उस पर ज़ोर दें। वह, आकारों की जो प्रक्रिया है, उसको काटने का उपाय है। ___ 'गोत्र'-गोत्र से महावीर का अर्थ है, वैषम्य का भाव कि मैं ऊंचा हूं, तुम नीचे हो। महावीर ने ऊंच-नीच के भाव को तोड़ने की बड़ी चेष्टा की, क्योंकि वे कहते हैं कि यह बहुत सूक्ष्म है अहंकार कि 'मैं ऊंचा हूं।' लेकिन उस धारणा में हम सभी जीते हैं। आपको कोई ऊंचा लगता है, कोई नीचा लगता है; किसी को आप देखते हैं कि वह नीचे है, किसी को आप देखते हैं कि वह ऊपर है / और खुद को ऊपर होना चाहिए, इसकी चेष्टा में लगे रहे हैं, महावीर कहते हैं जो खुद ऊपर होने की चेष्टा में लगा है, प्रतिस्पर्धा में लगा है, वह अपने ही हाथों नीचे डूबता जा रहा है। जो बिलकुल सहज खड़ा हो जाता है और ऊंचे-नीचे के भाव को छोड़ देता है, गोत्र का भाव छोड़ देता है, वही केवल इस चक्कर से मुक्त हो पाता है। लेकिन, आसान है अपने को ऊंचा समझना / इससे उल्टा भी आसान है, अपने को नीचा समझना भी आसान है। एडलर ने पश्चिम में खोज की है कि मनुष्य में दो वृत्तियां हैं, एक सुपिरियारिटी काम्पलेक्स और इन्फिरियारिटी काम्पलेक्स-एक ऊंचे की भावना और एक नीचे की भावना / इन दोनों में से कोई भी आप पकड़ लेंगे। या तो अपने को ऊंचा समझेंगे या अपने को नीचा समझेंगे। कुछ लोग सदा अपने को ऊंचा समझते रहते हैं, कुछ लोग सदा अपने को नीचा समझते रहते हैं। इसी वजह से वे डरे रहते हैं, सिकुड़े रहते हैं, हमेशा भयभीत रहते हैं। ___ महावीर कहते हैं, दोनों ही कर्मफल हैं, दोनों भाव छोड़ दें। सिर्फ जानें अपने को कि मैं हूं—न ऊंचा, न नीचा / किसी तुलना में अपने को न रखें, और किसी से अपने को तौलें भी नहीं, क्योंकि किसी से तौलने की जरूरत नहीं है, कम्पेरिजन का कोई सवाल नहीं है। आप आप हैं, और आप जैसा कोई भी नहीं जगत में / इसलिये तौलने का कोई उपाय नहीं है, तौल तो वहां हो सकती है, जहां आप जैसा कोई और हो। ___ तो कोई आपसे नीचा भी नहीं हो सकता, ऊंचा भी नहीं हो सकता / आप कह सकते हैं क्या, कि आम जो है, इमली से नीचा है ? वैसा कहना पागलपन की बात है। हां, आप यह कह सकते हैं कि यह राजा आम है , ये साधारण आम से ऊंचा है। दो आमों में तुलना 267 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 हो सकती है, एक आम और एक इमली में तुलना नहीं हो सकती। __ महावीर कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय परमात्मा है-यूनीक, बेजोड़। उसकी कोई तुलना नहीं है। इसलिये महावीर ने जब वर्ण का विरोध किया तो वह कोई सामाजिक क्रांति नहीं थी, वह आध्यात्मिक विचारणा थी। गांधी भी विरोध करते थे वर्ण का, केशवचंद्र सेन भी विरोध करते थे, राममोहन राय भी विरोध करते थे, लेकिन उनका विरोध सामाजिक धारणा थी। महावीर का विरोध बहुत आंतरिक और गहरा है / वे यह कह रहे हैं कि हर मनुष्य अद्वितीय है, कि तुलना का कोई उपाय नहीं है। और जब आप अपने को तौलते हैं, तो नाहक ही अपने को कर्म के जाल में डालते हैं। न तो अपने को ऊंचा, न तो अपने को नीचा-दूसरे से तौलें ही मत, तो गौत्र का कर्म नष्ट होता है। और अंतिम आठवां है, 'अंतराय' / अंतराय बड़ा काम कर रहा है आपके जीवन में।। एक मित्र मेरे पास आये, कहने लगे कि 'आप इम्पाला में क्यों चलते हैं?' मैंने कहा, 'किसी भक्त ने अभी तक राल्स रायस दी ही नहीं, और तो कोई कारण नहीं है इम्पाला में चलने का।' उन्होंने कहा कि 'नहीं, और तो आपकी बात सब मुझे समझ में आती है, बस ये इम्पाला में चलना...! अब यह 'अंतराय हो गया। इम्पाला में आपको चलने को कह नहीं रहा, इम्पाला आपको मिल जाये तो मत चलना! मेरे इम्पाला में चलने से उनको...! मेरी सब बात ठीक लगती है, लेकिन इम्पाला की वजह से सब गड़बड़ हआ जा रहा है। इम्पाला अंतराय बन रही है। अंतराय का मतलब बीच में व्यवधान बन रही है, और ऐसा नहीं कि इम्पाला ही बनती रही है, अजीब-अजीब चीजें बन जाती हैं। मैं जबलपुर था, तो एक वकील हाईकोर्ट के, बड़े वकील, एक दिन मुझसे मिलने आये, और आकर उन्होंने कहा कि 'और सब तो ठीक है, आपकी बात सब समझ में आती है, लेकिन आप इतनी लम्बी बांह का कर्ता क्यों पहनते हैं?' ...मेरा कुर्ता आपको? मेरी बांह है ! __ तो उन्होंने कहा कि इससे मुझे बड़ी अड़चन होती है। आपको मैं सुनने भी आता हूं, तो मेरा ध्यान आपके कुर्ते पर ही लगा रहता है कि आप इतना लम्बा कुर्ता क्यों पहनते हैं? कई दफा तो मैं आपका सुनना ही चूक जाता है।' __अंतराय का अर्थ होता है : कोई व्यर्थ की चीज जो सार्थक में बाधा बन जाये। और आप सब इस तरह ही जीते हैं। जीवन को जिन्हें खोजना है, उन्हें अंतराय तोड़ने चाहिये। उन्हें जो ठीक लगे, उतना चुन लेना चाहिये; जो गलत लगे, उसकी बात ही क्या उठानी? उससे आपका लेना-देना क्या है ? उससे आपको प्रयोजन क्या है? एक मित्र मेरे पास आये। किसी सदगुरु के पास हैं। और निश्चित ही. जिस गरु के पास हैं. वह कीमती आदमी हैं। वे कहने लगे. 'बस एक बात सब खराब कर देती है। वे कभी-कभी गाली दे देते हैं। ज्ञानी को गाली तो नहीं देना चाहिये?' मैंने कहा कि 'तुम्हें क्या पता कि ज्ञानी को गाली देनी चाहिये कि नहीं? सब ज्ञानियों का हिसाब लगाओ, फिर पता लगाओ कि कितने ज्ञानियों ने दी है गाली, कितनों ने नहीं दी। रामकृष्ण देते थे। किताब में नहीं लिखा है, क्योंकि किताब में लिखना मुश्किल मालूम पड़ता है।...ठीक-से गाली देते थे, अच्छी तरह देते थे...! लेकिन किताब में यह बात नहीं लिखी है, क्योंकि किताब में कहने लगे, 'रामकृष्ण गाली देते थे? हद हो गई ! मैं तो उनकी किताबें अब तक पढ़ता रहा !' ...अंतराय खड़ा हो गया। अब वह देते थे कि नहीं देते थे, यह भी सवाल नहीं है ! अभी तक किताब बड़े मजे से पढ़ रहे थे ! उनकी गाली से तुम्हें क्या लेना-देना? रामकृष्ण गाली देकर नरक जायेंगे तो वह जायेंगे / इम्पाला में बैठकर कोई नरक जायेगा तो वह 268 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म जायेगा। इससे तुम्हें क्या लेना-देना है ? तुम अपने जीवन की चिंता करो ! ___ तुम्हें वह चुन लेना चाहिये जो तुम्हारे लिए सार्थक मालूम पड़ता है। लेकिन बड़े अंतराय भीतर हैं / अब ध्यान रहे, जो आदमी कहता है, इम्पाला परेशान कर रही है, वह जरूर इम्पाला में बैठना चाहता होगा। और तो परेशानी का कोई कारण नहीं हो सकता / कहीं-न-कहीं भीतर कोई रस इम्पाला में बैठने का अवश्य मौजूद होगा। उसे रस मेरी बात से ज्यादा गाड़ी में हो, तो समझ में आता है कि मामला क्या है? लेकिन उसे यह दिखाई नहीं पड़ेगा कि उसका रस उसे बाधा दे रहा है, उसे दिखाई पडेगा कि मेरा बैठना बाधा दे रहा है।' ___ मैंने उस वकील को कहा कि ऐसा करें, आपके मन में कोई वासना लम्बी बांह का कुर्ता पहनने की है, उसे पूरा कर लें। उन्होंने कहा कि क्या बात करते हैं आप? कभी नहीं !' मैंने कहा कि आप इतने जोश में आते हैं, इतने जोर से इनकार करते हैं, उसका मतलब ही यह होता है कि है / नहीं तो इतने जोश में आने की क्या बात है? हंस भी सकते थे। आपके मन में कोई वासना है, लेकिन उसे पूरा करने की हिम्मत नहीं है। __ वे थोड़े चिंतित हुए, हल्के हुए / कहने लगे, 'हो सकता है, क्योंकि मेरे बाप मुझे कुर्ता नहीं पहनने देते थे। बाप भी वकील थे, वे कहते थे कि टाई बांधो / आपने शायद ठीक नब्ज पकड़ ली है। मेरे बाप ने मुझे कभी कुर्ता नहीं पहनने दिया। फिर हाईकोर्ट का वकील हो गया तो हाईकोर्ट के ढंग से जाना चाहिये, नियम से जाना चाहिये। शायद कुर्ता पहनने की कोई वासना भीतर रह गई है।' तो मैंने कहा कि 'तुम उसकी फिक्र करो। मेरे कुर्ते से तुम्हें क्यों...? तुम्हें मेरा कुर्ता चाहिये तो ले जाओ। और क्या कर सकता हूं? आदमी हमेशा बाहर सोचता रहता है, लेकिन सब सोचने के मूल कारण भीतर होते हैं। ये अंतराय बड़ा कष्ट देते हैं... बड़ा कष्ट देते हैं, जिनसे कोई प्रयोजन नहीं है। अब एक मित्र अफ्रीका से आये / वह कहने लगे कि वहां एक महात्मा आए थे। और तो सब ठीक था, लेकिन बीच में बोलते-बोलते वह कान खुजलाते थे...।' तुम्हें क्या मतलब उनके कान खुजलाने से? नहीं, जरा शिष्टाचारपूर्ण मालूम नहीं होता / अब अगर इस व्यक्ति का मनोविश्लेषण किया जाए तो कान खुजलाने से कहीं-न-कहीं कोई दबी बात पकड़ में आ जायेगी। कहीं कोई अड़चन इसे होनी चाहिये। यह महात्मा पर छोडो ! महात्मा को कम-से-कम इतनी स्वतंत्रता तो दो कि अपना कान खजलाए तो कोई बाधा न दे ! मगर वह भी नहीं, वह भी नहीं कर सकते आप। अंतराय से महावीर का अभिप्राय है, जिन व्यर्थ की बातों के कारण सार्थक तक पहुंचने में बाधा आ जाती है। ये आठ कर्म हैं। और इन आठ के प्रति जो सचेत होकर इनका त्याग करने लगता है, वह धीरे-धीरे केवल-ज्ञान की तरफ उठने लगता महावीर के पास अनेक लोग इसलिए आने से रुक गये कि वे नग्न थे। वह अंतराय हो गया / मेरे शिविर में कई लोग आने से घबड़ाते हैं कि वहां कोई नग्न हो जाता है। ___ कोई नग्न होता है !... आपको करे तो दिक्कत भी है। होनी तो तब भी नहीं चाहिये; क्योंकि कपड़ा ही तो छुड़ाकर ले गया। लेकिन कोई आपको करे तो भी आपकी स्वतंत्रता पर बाधा है, कोई खुद अपने कपड़े उतारकर रखे तो भी आपको बेचैनी होती है। जरूर नग्नता के साथ आपका कोई आंतरिक उपद्रव है / या तो आप नग्न होना चाहते हैं और हो नहीं पाते, और या फिर दूसरों को 269 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 नग्न देखकर आपके मन में कुछ बातें उठती हैं, जो आप चाहते हैं न उठे, लेकिन आंतरिक घटना ही है पीछे कारण। ___ एक नग्न स्त्री जा रही हो, तो आपको बेचैनी इसलिए नहीं होती है कि वह नग्न है, बेचैनी इसलिए होती है कि वह नग्न है, कहीं मैं कुछ कर न गुजरूं / आपको अपने पर भरोसा नहीं है, इसलिए नग्न स्त्री से आपको घबड़ाहट होती है कि कहीं मैं कुछ कर न गुजरूं / कहीं इतना पागल न हो जाऊं नग्न देखकर उसे कि मुझे कुछ हो जाये। तो आप बजाय अपनी इस वृत्ति को समझने के, कानून बनाते हैं कि कोई नग्न नहीं हो सकता। और आपको कानून बनाने में लोग सहयोगी मिल जायेंगे, क्योंकि उनका भी रोग यही है / बराबर मिल जायेंगे। वे कहेंगे, आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, कोई नग्न नहीं हो सकता। मैं एक छोटी-सी कहानी पढ़ रहा था। एक छोटे बच्चे को लेकर उसकी चाची समुद्र के किनारे घूमने गई है। वहां एक भिखमंगा अधनगा बैठा है खुली धूप में / चाची उस भिखमंगे को एकदम देखकर घबड़ा गई, वह लड़के को खींचने लगी। लड़का कहने लगा, 'रुको भी तो, यह भिखमंगा कितनी मस्ती से बैठा है ! वह बोली, 'वहां देख ही मत / ' तो वह लड़का, जब उसको रोका गया, तो उसका और देखने का मन हआ कि मामला क्या है ? इस तरह से पहले चाची ने कभी उसे खींचा नहीं ! लेकिन चाची उसे बदहवास खींच रही है, और वह लौट-लौटकर पीछे देख रहा है। चाची कह रही है कि 'तू शैतान है बिलकुल।' लड़का कहता है, मगर वह कितनी मस्ती से बैठा हुआ है-झाड़ के नीचे, अधनंगा !' / फिर वे घर आ जाते हैं। चाची मां से बात करती है, दोनों परेशान हो जाती हैं। पुलिस को फोन करती हैं, पुलिस आ जाती है। वह लड़का बड़ा हैरान है कि उस आदमी ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं, कुछ बोला भी नहीं, अपनी मस्ती में बैठा हुआ है लेकिन यह क्या हो रहा है? उसने कुछ भी तो नहीं किया है करने के नाम पर! ___ तो वह छत पर चला जाता है और देखता है कि पुलिस उस भिखमंगे को मार रही है डंडों से / उसकी जननेंद्रिय पर जूते से चोट कर रही है। वह लड़का चीखता है, रोता है, लेकिन उसकी समझ से बाहर है मामला। शाम को वह अपने बाप से पूछता है कि बात क्या है ? उस आदमी को क्यों सताया गया? तो बाप कहता है कि वह बहुत बुरा आदमी है। वह लड़का कहता है कि 'उसने कुछ किया ही नहीं तो बुरा कैसे हो सकता है?' तो बाप कहता है कि 'तू अभी नहीं समझेगा, बाद में समझेगा / यह बात समझाने की नहीं है; उसने बहुत बुरा काम किया है।' उस लड़के ने कहा, पर उसने कुछ किया ही नहीं ! मैं मौजूद था, और चाची झूठ बोल रही है!' ___ उस आदमी ने कुछ भी नहीं किया है, कुछ चाची को हुआ है। मगर यह लड़का कैसे समझ सकता है, क्योंकि यह अभी इतना बीमार नहीं हुआ। अभी यह नया है इन पागलों की जमात में। अभी इसकी दीक्षा नहीं हुई। अभी इसकी समझ के बाहर है। - तो बाप कहता है कि वह बहुत बुरी बात थी और इसकी तू चर्चा मत उठाना, इसे बिलकुल भूल जा / तो वह कहता है , 'पुलिस का मारना उस गरीब आदमी को निश्चित ही बुरा था।' तो बाप कहता है, 'पुलिस का मारना बुरा नहीं था नालायक , वह आदमी जो कर रहा था...!' और वह कर कुछ भी नहीं रहा था, सिर्फ अधनंगा बैठा था ! हमारे भीतर कुछ होता रहता है, उसको तो हम दबा लेते हैं और बाहर दोष खड़ा कर देते हैं। अन्तराय पर जिसका ध्यान चला जाये , वह व्यक्ति धीरे-धीरे हल्का होने लगता है और उसका बोझ , उस की जंजीरें गिरने लगती हैं। जंजीर आपने पकड़ रखी है, छोड़ दें। मुक्ति आपका स्वभाव है। 270