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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 आधार है। और ऐसा नहीं कि बुरे बेटे का बाप दुखी है, भले बेटे का बाप भी दुखी होता है। ___ महावीर के पिता अगर जिंदा होते तो दुखी होते / महावीर के पिता से महावीर ने कहा कि 'मैं संन्यस्त हो जाना चाहता हूं।' तो उन्होंने कहा, 'बस, यह बात अब दोबारा मत उठाना / जब तक में जिंदा हूं, तब तक यह बात अब दोबारा मत उठाना / मेरी मौत पर ही तू संन्यासी हो सकता है।' सोचें, अगर महावीर न मानते और संन्यासी हो जाते, तो बाप छाती पीटकर रोते / बुद्ध के बाप रोए / बुद्ध घर से जब चले गये, तो पीड़ित हुए-दुखी! बुद्ध ज्ञान को भी उपलब्ध हो गये, महासूर्य प्रगट हो गया... लेकिन बाप अपनी ही पीड़ा से परेशान है / और जब बुद्ध वापिस लौटे तो बाप ने कहा कि 'देख, बाप का हृदय है यह, मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूं, तू वापिस लौट आ! छोड़ यह भिखारीपन, हमारे कुल में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ। शर्म आती है, तेरी खबरें सुनता हूं कि तू भीख मांगता है तो सिर झुक जाता है। क्या है कमी, जो तू भीख मांगे? और हमारे कुल में कभी किसी ने भीख नहीं मांगी, तू कुल को डुबानेवाला है।' __ तो ऐसा नहीं कि आप का बेटा दुष्ट हो जाये, पापी, हत्यारा हो जाए, तो आप दुखी होंगे / बुद्ध हो जाए, तो भी दुखी होंगे। बाप और बेटे के बीच एक फासला निर्मित होगा ही। बेटा बाप की आकांक्षाओं के पार जाएगा। लेकिन इस सत्य पर हम जीवन को खड़ा नहीं करते, हम असत्य पर खडा करते हैं। और असत्य सविधापर्ण मालम पडते हैं। अंत में कष्ट लाते हैं. लेकिन सविधापर्ण मालम पडते हैं। अगर आप अपने ज्ञान की जांच करेंगे, तो पायेंगे उसमें निन्यानबे प्रतिशत असत्य के आधार हैं हमारा ज्ञान करीब-करीब अज्ञान है / महावीर इस ज्ञान को श्रुत-ज्ञान कहते हैं, कि सुनकर सीख लिया है दूसरों से, उधार / यह बहुत मूल्यवान नहीं है; यह संसार के लिए उपयोगी है / बाज़ार में इसकी जरूरत है, क्योंकि बाजार झूठ पर खड़ा है। वहां आप सच्चे होने लगेंगे, तो आप असविधा में पड़ जायेंगे, और बाजार के बाहर फेंक दिये जायेंगे। लेकिन, इस ज्ञान को ही हम धर्म के जगत में भी ले जाना चाहते हैं। किसी ने वेद पढ़ा, किसी ने गीता, किसी ने कुरान, किसी ने महावीर के वचन / वह पढ़ते ही समझ लेता है कि सब हो गया। यह तो पहला चरण भी नहीं है। और इसे जो ज्ञान समझ लेता है, उसके आगे के चरण उठने असंभव हो जायेंगे। दूसरे ज्ञान को महावीर कहते हैं, 'मति' / और आप जानकर हैरान होंगे कि सुने हुए ज्ञान को वह पहला कहते हैं। मति का अर्थ है, इंद्रियों से जाना हुआ। इसको वे श्रुत से ऊपर रखते हैं। यह जरा चिंता की बात मालूम होगी / मन से सुना हुआ नीचे रखते हैं, इंद्रियों ऊपर रखते हैं। क्योंकि, आखिर अंततः इंद्रियों से जाना हआ, सिर्फ सुने हए से ज्यादा बहुमूल्य, ज्यादा जीवंत है। आंखें देखती हैं, हाथ छूते हैं, जीभ स्वाद लेती है—इनसे जो जाना हुआ है, वह ज्यादा वास्तविक है। लेकिन, हम इंद्रियों को भी अशुद्ध कर लिए हैं अपने सुने हुए ज्ञान के कारण / वह उसमें भी बाधा डालता है। आप जो देखते हैं, वह आप वही नहीं देखते हैं, जो मौजूद है। आप उसकी भी व्याख्या कर लेते हैं। हमारी इंद्रियों का ज्ञान भी हमने अशुद्ध कर लिया है। आप व्याख्या कर लेते हैं। आप वही नहीं देखते, जो है; आप वही देखते हैं, जो आप देखना चाहते हैं; वही छूते हैं, जो आप छूना चाहते हैं / वही आपकी समझ में इंद्रियां भी पकड़ती हैं। ___ इंद्रियों के संबंध में भी चुनाव करते हैं, वह भी परिशुद्ध नहीं है / जैसे कि आप बाजार में गये हैं, अगर आप भूखे हैं तो आपको होटल और रेस्टारेंट दिखाई पड़ेंगे; भूखे नहीं हैं तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेंगे, आप उनके बोर्ड नहीं पढ़ेंगे। तो जो दिखाई पड़ रहा है, वही सवाल नहीं है, आप क्या देखना चाहते हैं, वही आपको दिखाई पड़ेगा। एक स्त्री बाजार में निकलती है, तो उसे आभूषणों की दुकानें, हीरे-जवाहरात की दुकानें दिखाई पड़ती हैं। 248 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340040
Book TitleMahavir Vani Lecture 40 Panch Gyan aur Aath Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size102 MB
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