________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म होना चाहिए कि सत्य कहीं से भी आता हो, मैं खुला हूं। सत्य कहां से आता है, इसका कोई सवाल नहीं। मैं प्यासा हूं, पानी गंगा का है कि यमुना का, इससे कोई सवाल नहीं है—पानी चाहिए / पानी किन हाथों से आया, इसका भी कोई सवाल है? लेकिन, कुछ नासमझ, वे आम खाने जाते हैं लेकिन गुठलियां गिनकर जीवन बिता देते हैं। आम खाने का मौका ही नहीं आ पाता, गुठलियां काफी हैं। ___ महावीर कहते हैं, ज्ञानावरणीय उन सारी वृत्तियों को, जो आपके ज्ञान के प्रस्फुटन में बाधा हैं : आपका अहंकार, आपका मतवाद, आपके पक्षपात, आपका यह आग्रह कि यही ठीक है। __ अनाग्रह-चित्त चाहिये / इसलिए महावीर ने पूरे अनाग्रह-चित्त का दर्शन विकसित किया, जिसको वे 'स्यातवाद' कहते हैं। वे कहते हैं, कोई भी चीज को ऐसा मत कहो कि यही ठीक है, क्योंकि जगत बहुत बड़ा है / और भी स्वर्ग हैं। दूसरा भी ठीक हो सकता है / विपरीत बात भी ठीक हो सकती है; क्योंकि जीवन बड़ा जटिल है। यहां एक आदमी जो भी कहता है, वह आंशिक ही होगा, पूर्ण नहीं होगा। जो भी कहा जा सकता है, वह आंशिक होगा। इसलिये भी महावीर का प्रभाव बहत नहीं पड़ा, क्योंकि महावीर का विचार संप्रदाय बनानेवाला विचार नहीं है। जिन्होंने बना लिया उनके पीछे, वे चमत्कारी लोग हैं। महावीर के पीछे संप्रदाय बन नहीं सकता, बनना नहीं चाहिए। क्योंकि महावीर, संप्रदाय की जो मूल भित्ति है, मैं ही ठीक हूं, उसको तोड़ रहे हैं। __ कोई संप्रदाय, जो कहे कि आप भी ठीक हैं, वह कैसे बन सकता है? मंदिर कहे कि मस्जिद भी ठीक है, कोई हर्जा नहीं, वहां भी चले गये तो चलेगा, मंदिर का धंधा टूट जायेगा। मंदिर को तो कहना ही चाहिये कि सब गलत हैं। और जितनी ताकत से मंदिर कहे कि मस्जिद गलत है, चर्च गलत और जितना सुननेवाले को भरोसा दिला दे कि सिर्फ मंदिर सही है, उसका संदेह मिटा दे, तो ही कोई आने वाला है। ये सब दुकान की ही बात है। अगर दुकानदार कहने लगे कि जो माल मेरी दुकान पर है, वही सब दुकानों पर है; जो दाम मेरे, वही सबके, कहीं से भी ले लो, सब एक है-यह दुकान खो जायेगी। ये दुकान नहीं बच सकती। दुकानदार को कहना ही चाहिए कि माल तो सिर्फ यहीं है, बाकी सब नकल है। __ महावीर अजीब दुकानदार हैं ! वे कहते हैं कि दूसरा भी ठीक हो सकता है। वे किसी को गलत कहते ही नहीं। उनकी चेष्टा यही है, कहीं कोई कितना ही गलत हो, उसमें भी थोड़ा सच जरूर होगा / उस सच को चुन लो / क्योंकि कोई बिलकुल झूठी बात टिक नहीं सकती, खड़ी नहीं हो सकती। खड़े होने के लिये थोड़ा-सा सच का सहारा चाहिए / इसलिये जब तुम किसी असत्य को भी चलते देखो, तो महावीर कहते हैं, खोज करना, क्योंकि वह चल रहा है तो उसके पीछे जरूर कहीं कुछ सत्य होगा / क्योंकि सत्य के बिना प्राण नहीं, असत्य चल नहीं सकता। असत्य को भी सत्य के ही पैर चाहिये, तो ही चल सकता है। उस सत्य को पकड़ लो, असत्य की तुम फिक्र छोड़ो। असत्य पर जोर ही क्यों देते हो, तुम उस सत्य को पकड़ लो। ___ महावीर से कोई आकर कहता है कि 'निर्वाण है या नहीं?' महावीर कहते हैं, 'है; नहीं भी है।' संप्रदाय मुश्किल है। क्योंकि वह आदमी एक कोई पक्की बात ही नहीं कह रहा-कभी कुछ, कभी कुछ।...यह आदमी कभी कहता है कभी कहता 'नहीं है। वह आदमी पूछता है, क्या मतलब आपका / या तो है', कहो 'है' / या कहो, 'नहीं', 'नहीं है'। __ संप्रदाय बनाने के लिये साफ बातें चाहिये / ऐसा नहीं कि महावीर की बातें गैर-साफ हैं। लेकिन बातें इतनी साफ हैं कि हम जैसे अंधों को उनमें सफाई नहीं दिखाई पड़ सकती / हमारी आदतें हैं बंधी हुई चीजों को देखने की। महावीर का सत्य आकाश की तरह बड़ा है, 261 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org