Book Title: Kirtiratnasuri Rachit Neminath Mahakavya
Author(s): Satyavratsinh
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीतिरत्नसूरि रचित नेमिनाथ महाकाव्य प्रो० सत्यव्रत 'तृषित' ] [ खरतरगच्छ के महान् आचार्यों ने संघ व्यवस्था बड़ी सूझ-बूझ से की। मुख्य पट्टधर - युगप्रधान आचार्य के साथ-साथ सामान्य आचार्य के रूप में उपयुक्त व्यक्तियों को आचार्य पद दिया जाता रहा है जिससे पट्टधर के स्वर्गवास हो जाने के बाद कोई अव्यवस्था नहीं होने पावे । भावी पट्टधर स्वर्गवासी आचार्य के अन्तिम समय में समीप न होने पर यथासमय उस पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए सामान्य आचार्य को भोलावण दे दी जाती थी और वे उन युगप्रधानाचार्य के संकेतानुसार योग्य स्थान और शुभमुहुर्त में पूर्ववर्ती आचार्य की सूरि मन्त्राम्नाय परंपरा को देते हुए बड़े महोत्सव के साथ नये गच्छनायक का पट्टाभिषेक करवा देते थे । आचार्य वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि को आचार्य पद दिया, इनमें से जिनेश्वरसूरि पट्टधर बने और बुद्धिसागरसूरि उनके सहयोगी रहे। इसके बाद जिनचद्रसूरि संवेगरंगशालाकर्त्ता और अभयदेव सूरि को आचार्य पद दिया गया इनमें से जिनचन्द्रसूरि पट्टधर बने और उनके स्वर्गवास के बाद अभयदेवसूरि गच्छनायक बने । यों अभयदेवसूरि के वर्द्ध मानसूरि आदि कई विद्वान शिष्य थे पर जिनवल्लभगणि में विशेष योग्यता का अनुभव कर उन्होंने प्रसन्नचंद्रसूरि को यथासमय जिनवल्लभगणि को अपने पट्ट पर स्थापित करने की आज्ञा दी थी। उसकी पूर्ति न कर सकने के कारण देवभद्राचार्य ने काफी समय के बाद अभयदेवसूरि के पट्ट पर जिनवल्लभसूरि को प्रतिष्ठित किया । अल्पकाल में ही उनका स्वर्गवास हो जाने पर इन्हीं देवभद्रसूरिजी ने सोमचन्द्र गणि को जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर अभिषिक्त किया । इसी तरह मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने अपने अन्तिम समय में निकटवर्ती गुणचन्द्रगणि को अपने पट्टधर का जो संकेत दिया था तदनुसार चौदह वर्ष की आयु वाले जिनपतिसूरिजी को उनके पट्ट पर स्थापित किया गया । इस परम्परा में पन्द्रहवीं शताब्दी के आचार्य जिनभद्रसूरिजी ने उ० कीर्तिराज को आचार्य पद देकर कीर्तिरत्नसूरि के नाम से प्रसिद्ध किया । उन्होंने ही जिनभद्रसूरिजी के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरिजी को स्थापित किया था । आचार्य कीर्तिरत्नसूरि अपने समय के बहुत बड़े विद्वान और प्रभावक व्यक्ति थे । उनके सम्बन्ध में सं० १९९४ में प्रकाशित हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में आवश्यक जानकारी दी गई थी। उनके ५१ शिष्य हुए, जिनमें गुणरत्नसूरि, कल्याणचन्द्र आदि उल्लेखनीय रहे हैं । कीर्तिरत्नसूरिजी की प्राचीनतम मूर्ति नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ में पूजित है । इनकी शिष्य-सन्तति का बहुत विस्तार हुआ । कीर्त्तिरत्नसूरि शाखा आजतक चली आ रही है जिसमें पचासों कवि, विद्वान हुए हैं, उसी में आचार्य श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी जैसे गीतार्थ आचार्य शिरोमणि हुए हैं। कीर्त्तिरत्नसूरिजी की शिष्य परम्परा ने अनेक स्थानों में उनके स्तूप- पादुकादि स्थापित करवाये और बहुत से स्तवन - गीतादि निर्माण किये। उन्हीं महापुरुष के एक महाकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन गवर्नमेण्ट कालेज श्रीगंगानगर के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो० सत्यव्रत प्रस्तुत कर रहे हैं । - संपादक... Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संरकृत महाकाव्यों में कधिचक्रवर्ती कीर्तिराज महाकाव्य की रूढ़ परम्परा के अनुसार नेमिनाथउपाध्यायकृत नेमिनाथ महाकाव्य को गौरवमय पद प्राप्त है। महाकाव्य का प्रारम्भ नमस्कारात्मक मंगलाचरण से हुआ इसमें जैन धर्म के बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के प्रेरक है, जिसमें स्वयं काव्यनायक नेमिनाथ की चरणवन्दना चरित्र के कतिपय प्रसंगों को, महाकाव्योचित विस्तार के की गयी है :साथ, बारह सर्गों के व्यापक कलेवर में प्रस्तुत किया गया वन्दे तन्नेमिनाथस्य पदद्वन्द्व श्रियाम्पदम् । है। कीतिराज कालिदासोत्तर उन इने-गिने कवियों में हैं, नाथैरसेवि देवानां यद्धृङ्गरिव पङ्कजम् ॥ ११॥ जिन्होंने माघ एवं हर्ष की कृत्रिम तथा अलंकृतिप्रधान शैली आलंकारिकों के विधान का पालन करते हुए काव्य के एकच्छत्र शासन से मुक्त होकर अपने लिये अभिनव के आरम्भ में सज्जन-प्रशंसा तथा खलनिन्दा भी की गयी सुरुचिपूर्ण मार्ग की उद्भावना की है। नेमिनाथ काव्य है। यदुपति समुद्रविजय की राजधानी के मनोरम वर्णन में भावपक्ष तथा कलापक्ष का जो मंजुल समन्वय विद्यमान में कवि ने सन्नगरीवर्णन की रूढ़ि का निर्वाह किया है। है, वह ह्रासकालीन कवियों की रचनाओं में अतीव दुर्लभ काव्य का शीर्षक चरितनायक के नाम पर आधारित है, है। पाण्डित्य प्रदर्शन तथा बौद्धिक विलास के उस युग तथा प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित विषय के में नेमिनाथ महाकाव्य जैसी प्रसादपूर्ण कृति की रचना अनुरूप किया गया है, जिससे विश्वनाथ के महाकाव्यीय करने में सफल होना कीतिराज की बहुत बड़ी उपलब्धि है। विधान की पूर्ति होती है। अन्तिम सर्ग के एक अंश में नेमिनाथ महाकाव्य का महाकाव्यत्व चित्रकाव्य की योजना करके जैन कवि ने हेमचन्द्र, वाग्भट प्राचीन भारतीय आलङ्कारिकों ने महाकाव्य के जो आदि जैनाचार्यों के विधान का पालन किया है। छन्द मानदण्ड निश्चित किये हैं. उनकी कसौटी पर नेमिनाथ- प्रयोग सम्बन्धी परम्परागत नियमों का प्रस्तुत काव्य में काव्य एक सफल महाकाव्य सिद्ध होता है। शास्त्रीय आंशिक रूप से निर्वाह हुआ है। काव्य के पांच सर्गों में तो विधान के अनुरूप यह सरंबद्ध रचना है तथा इसमें, महा- प्रत्येक सर्ग में एक छन्द की प्रमुखता है तथा सर्गान्त में काव्य के लिये आवश्यक, अष्टाधिक बारह सर्ग विद्यमान छन्द बदल जाता है। यह साहित्याचार्यों के विधान के हैं। धीरोदात गुणों से युक्त क्षत्रियकुल-प्रसूत देवतुल्य सर्वथा अनुरूप है। किन्तु शेष सात सर्गों में नाना वृत्तों नेमिनाथ इसके नायक हैं। नेमिनाथ महाकाव्य में का प्रयोग शास्त्रीय नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है क्योंकि शृङ्गार रस की प्रधानता है। करुण, वीर तथा रौद्र रस महाकाव्य में छन्दवैविध्य एक-दो सर्गों में ही काम्य माना का आनुषंगिक रूप में परिपाक हुआ है। महाकाव्य के गया है। महाकाव्यों को मान्य परिपाटी के अनुसार कथानक का इतिहास प्रख्यात अथवा सदाश्रित होना नेमिनाथकाव्य में नगर, पर्वत, प्रभात, वन, दूतप्रेषण आवश्यक माना गया है। नेमिनाथकाव्य का कयानक (प्रतीकात्मक ), युद्ध, सैन्य-प्रयाण, पुत्रजन्म, जन्मोत्सव, लोकविश्रा ने मिनाथ के चरित से सम्बद्ध है। चतुर्वर्ग में षड़ ऋतु आदि वर्ण्यविषयों के विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं । से धर्म तथा मोक्ष की प्राप्ति इसका लक्ष्य है। धर्म का वस्तुतः काव्य में इन्हीं वस्तुव्यापार वर्णनों का प्राधान्य है। अभिप्राय यहाँ नैतिक उत्थान तथा मोक्ष का तात्पर्य परम्परागत नियमों के अनुसार महाकाव्य में पांच आमष्मिक अभ्युदय है। विषयों तथा अन्य सांसारिक आकर्षणों का परित्याग कर परम-पद प्राप्त करने की ध्वनि, नाट्यसन्धियों की योजना आवश्यक मानी गयी है। काव्य में सर्वत्र सुनाई पड़ती है। नेमिनाथ महाकाव्य का कथानक यद्यपि अतीव संक्षिप्त है, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५९ ] तथापि इसमें पांचों सन्धियाँ खोजी जा सकती हैं। प्रथम का सूतिकर्म करने के लिये आती हैं। उसका स्नात्रोत्सव सर्ग में शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर के अवतरित होने में इन्द्रद्वारा सम्पन्न होता है। दोक्षा से पूर्व भी वह भगवान् मुखसन्धि है। इसमें कथानक के फलागम का बीज निहित का अभिषेक करता है। पौराणिक शैली के अनुरूप इसमें है तथा उसके प्रति पाठक की उत्सुकता जानत होती है। दो स्वतन्त्र स्तोत्रों का समावेश किया गया है। कतिपय द्वितीय सर्ग में स्वप्नदर्शन से लेकर तृतीय सर्ग में पुत्रजन्म अन्य पद्यों में भी जिनेश्वर का प्रशस्तिगान हुआ है। तक प्रतिमुख सन्धि स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि जिनेश्वर के जन्मोत्सव में देवांगनाएँ नृत्य करती हैं तथा मुखसन्धि में जिस कथाबीज का वपन हुआ था, वह यहाँ देवगण पुष्पवृष्टि करते हैं। पौराणिक महाकाव्यों की परिकुछ अलक्ष्य रहकर पुत्रजन्म से लक्ष्य हो जाता है। चतुर्थ पाटी के अनुसार इसमें नारी को जीवन-पथ को बाधा सर्ग से अष्टम सर्ग तक गर्भसन्धि की योजना मानी जा माना गया है। काव्यनायक दीक्षा लेकर केवलज्ञान सकती है। सूतिकर्म, स्नात्रोत्सव तथा जन्मोत्सव में फलागम तथा अन्तत: परमपद प्राप्त करते हैं। उनकी देशना का काव्य के गर्भ में गुप्त रहता है । नर्वे से ग्यारहवें सर्ग तक समावेश भी काव्य में हुआ है। एक ओर नेमिनाथ द्वारा वैवाहिक प्रस्ताव स्वीकार कर इन समूचे पौराणिक तत्त्वों के विद्यमान होने पर भी लेने से मुख्यफल की प्राप्ति में बाधा उपस्थित होती है, नेमिनाथ काव्य को पौराणिक महाकाव्य मानना न्यायोचित किन्तु दूसरी ओर वधूगृह में वध्य पशुओं का करुण क्रन्दन नहीं है। इसमें शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षण इतने पुष्ट तथा सुनकर उनके निर्वेदग्रस्त होने तथा दीक्षा ग्रहण करने से प्रचुर हैं कि इसकी यत्किचित पौराणिकता उनके सिन्धु प्रवाह फलप्राप्ति निश्चित हो जाती है। अतः यहाँ विमर्श सन्धि में पूर्णतया मजित हो जाती है। ह्रासकालीन शास्त्रीय का सफल निर्वाह हुआ है। ग्यारहवें सर्ग के अन्त में महाकाव्यकी प्रमुख विशेषता-वर्ण्य विषय तथा अभिव्यंजना केवल ज्ञान तथा बारहवें सर्ग में परम पद प्राप्त करने के शैली में वैषम्य- इसमें भरपुर मात्रा में वर्तमान है । शास्त्रीय वर्णन में निर्वहण सन्धि विद्यमान है। इन शास्त्रीय लक्षणों महाकाव्यों की भाँति नेमिनाथमहाकाव्य में वस्तुव्यापारों की के अतिरिक्त ने मिनाथ महाकाव्य में महाकाव्योचित रस- विस्तृत योजना हुई है। इसकी भाषा में अद्भुत उदात्तता व्यंजना, भव्य भावों की अभिव्यक्ति, शैली की मनोरमता तथा शैली में महाकाव्योचित प्रौढ़ता एवं गरिमा है। तथा भाषा को उदात्तता विद्यमान हैं । चित्रकाव्य की योजना के द्वारा काव्य में चमत्कृति उत्पन्न ने मनाथमहाकाव्य को शास्त्रीयता करने तथा अपना रचनाकौशल प्रदर्शित करने का प्रयास नेमिनाथकाव्य पौराणिक महाकाव्य है अथवा इसको भी कवि ने किया है। अलंकारों का भावपूर्ण विधान, गणना शास्त्रीय शैली के महाकाव्यों में की जानी चाहिये, रस, व्यंजना, प्रकृति तथा मानव-सौन्दर्य का हृदयग्राही इसका निश्चयात्मक उत्तर देना कटिन है। इसमें एक ओर चित्रण, सुमधुर छन्दों का प्रयोग आदि शास्त्रीय काव्यों की पौराणिक महाकाव्यों के तत्त्व वर्तमान हैं, तो दूसरी ओर ऐसी विशेषताएँ इस काव्य में हैं कि इसको शास्त्रीयता यह शास्त्रीय महाकाव्यों की विशेषताओं से भूषित है। में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता। वस्तुत: नेमिनाथपौराणिक महाकाव्यों की भाँति इसमें शिवादेवी के गर्भ में महाकाव्य की समग्न प्रकृति तथा वातावरण शास्त्रीय शेलो जिनेश्वर का अवतरण होता है जिसके फलस्वरूप उसे के महाकाव्य के अनुसार है। अतः, इसे शास्त्रीय महाचौदह स्वप्न दिखाई देते हैं। दिक्कूमारियाँ नवजात शिश काव्यों को कोटि में स्थान देना सर्वथा उपयुक्त है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६० । कविपरिचय तथा रचनाकाल आबू आदि स्थानों में भी आपकी चरणपादुकाएं स्थापित ___ अन्य अधिकांश जैन काव्यों की भाँति कीर्तिराज के की गयीं। जयकीर्ति और अभयविलासकृत गीतों से ज्ञान नेमिनाथमहाकाव्य में कवि प्रशस्ति नहीं है। अत: काव्य होता है कि सम्वत् १८७६, वैशाख कृष्ण दशमी को गड़ाले से उनके जीवन तथा स्थितिकाल के विषय में कुछ भी ज्ञात (बोकानेर का समीपवर्ती नालग्नाम ) में उनका प्रासाद नहीं होता। अन्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर उनके बनवाया गया था। कीर्तिरत्नसूरि के ५१ शिष्य थे। जीवनवृत्त का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया गया है। नेमिनाथ काव्य के अतिरिक्त उनके कतिपय स्तवनादि भी उनके अनुसार कीतिराज अपने समय के प्रख्यात तथा उपलब्ध हैं। प्रभावशाली खरतरगच्छीय आचार्य थे । वे संखवालगोत्रीय नेमिनाथ महाकाव्य उपाध्याय कीतिराज की रचना शाह कोचर के वंशज देपा के कनिष्ठ पुत्र थे। उनका है। कोतिराज को उपाध्याय पद संवत् १४८० में प्राप्त जन्म सम्वत् १४४६ में देपा की पत्नी देवलदे की कुक्षि से हुआ और सं० १४६७ में वे आचार्य पद पर आसीन हुआ। उनका जन्म नाम देल्हाकुंवर था। देल्हाकुंवर ने होकर कीर्तिरत्नसूरि बने । अत: नेमिनामकाव्य का रचनाचौदह वर्ष की अल्पावस्था में, सम्वत् १४६३ की आषाढ़ काल संवत् १४८० तथा १४६७ के मध्य मानना सर्वथा बदि एकादशी को दीक्षा ग्रहण की। जिनवर्द्धनसूरि ने आपका न्यायोचित है। सं० १४६५ की लिखी हुई इसकी प्राचीननाम कीर्तिराज रखा । कीतिराज के साहित्यगुरु भी जिन- तम प्रति प्राप्त है और यही इसका रचनाकाल है। वर्द्धनसूरि ही थे। उनकी प्रतिभा तथा विद्वत्ता से प्रभावित कथानक होकर जिनवद्ध नसूरि ने सम्वत् १४७० में वाचनाचार्य पद नेमिनाथ महाकाव्य के बारह सर्गों में तीर्थकर तथा दस वर्ष पश्चात् जिनभद्रसूरि ने उन्हें मेहवे मैं उपाध्याय नेमिनाथ का जीवनचरित निबद्ध करने का उपक्रम किया पद पर प्रतिष्ठित किया। पूर्व देशों का विहार करते समय गया है। कवि ने जिस परिवेश में जिनचरित प्रस्तुत किया जब कीर्तिराज जैसलमेर पधारे, तो गच्छनायक जिनभद्र- है, उसमें उसकी कतिपय प्रमुख घटनाओं का ही निरूपण सूरि ने योग्य जानकर उन्हें सम्वत् १४६७ की माघ शुक्ला सम्भव हो सका है। दशमी को आचार्य पद प्रदान किया। तत्पश्चात् वे च्यवनकल्याणक वर्णन नामक प्रथम सर्ग में यादव राजकीतिरत्नसूरि के नाम से प्रख्यात हुए। आपके अग्नज धानी सूर्यपुर में समुद्रविजय की पत्नी, शिवादेवी के गर्भ लक्खा और केल्हा ने इस अवसर पर पद-महोत्सव का भव्य में बाईसर्वे जिनेश के अवतरण का वर्णन है। अलंकारों के आयोजन किया। कीर्तिराज ७६ वर्ष की प्रौढ़ावस्था में, विवेकपूर्ण योजना तथा बिम्बवैविध्य के द्वारा कवि सूर्यपुर का पच्चीस दिन की अनशन-आराधना के पश्चात् सम्वत् १५२५ रोचक कवित्वपूर्ण चित्र अंकित करने में समर्थ हुआ है। वैशाख बदि पंचमी को वीरमपुर में स्वर्ग सिधारे। संघ ने द्वितीय सर्ग में शिवादेवी परम्परागत चौदह स्वप्न देखती वहां पूर्व दिशा में एक स्तूप का निर्माण कराया जो अब है। समुद्रविजय स्वप्नफल बतलाते हैं कि इन स्वप्नों के भी विद्यमान है। वीरमपुर, महवे के अतिरिक्त जोधपुर, दर्शन से तुम्हें प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी जो अपने भुजबल १ विस्तृत परिचय के लिये देखिये श्री अगरवन्द नाहटा तथा भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्मादित 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह', पृ० ३५-४० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ से चारों दिशाओं को जीतकर चौदह भुवनों का अधिपति बनेगा । प्रभात वर्णन नामक इस वर्ग केस में प्रभाव का मार्मिक वर्णन हुआ है। तृतीय सर्ग में समुद्रविजय स्वप्नदर्शन का वास्तविक फल जानने के लिये कुशल ज्योतिषियों को निमंत्रित करते हैं । दैवज्ञों ने बताया कि इन चौदह स्वप्नों को देखनेवाली नारी की कुक्षि में ब्रह्मतुल्य जिन अवतीर्ण होते हैं । समय पर शिवा ने एक तेजस्वी को जन्म दिया। चतुर्थ सर्ग में दिवकुमारियां नवजात पुत्र शिशु का सूतिकर्म करती है। मेरुवर्णन नामक पंचम सर्ग में इन्द्र शिशु को जन्माभिषेक के लिये मेरु पर्वत पर के जाता है। इसी प्रसंग में मेरु का वर्णन किया गया है। छठे सर्ग में भगवान के स्नात्रोत्सव का रोचक वर्णन है। सातवें सर्ग में बेटियों से पुत्र जन्म का समाचार पाकर समुद्रविजय आनन्द विभोर हो जाता है। वह पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष में राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त कर देता है तथा जीववध पर प्रतिबन्ध लगा देता है। उसने जन्मो त्सव का भव्य आयोजन किया। शिशु का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। आठवें सर्ग में अरिष्टनेमि के शारीरिक सौंदर्य तथा परम्परागत छह ऋतुओं का हृदयग्राही वर्णन है । एक दिन नेमिनाथ ने पांचजन्य को कौतुकवश इस वेग से फूंका कि तीनों लोक भय से कम्पित हो गये। कृष्ण को आशंका हुई कि कहीं यह भुजयत से मुझे राज्यच्युत न कर दे, किन्तु उन्होंने श्रीकृष्ण को आश्वासन दिया कि मुझे सांसारिक विषयों में रुचि नहीं है, तुम निर्भय होकर राज्य का उपभोग करो। नवें सर्ग में नेमिनाथ के माता-पिता के आग्रह से श्रीकृष्ण को पत्नियां, नाना युक्तियाँ देकर उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं। उनका प्रमुख तर्क है कि मोक्ष का लक्ष्य सुख प्राप्ति है, किन्तु वह विषय भोग से ही मिल जाये, तो कष्ट्रदायक तप की क्या आवश्यकता ? नेमिनाथ उनकी युक्तियों का दृढ़तापूर्वक खण्डन करते हैं। उनका कवन है कि मोक्षजन्य आनन्द । तवा विषय में उतना ही असर है जितना गाय तथा स्तुही के रूप में विषयभोग से आत्मा तृप्त नहीं हो सकती, किन्तु माता के अत्यधिक आग्रह से वे केवल उनकी इच्छापूर्ति के लिये गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करना स्वीकार कर लेते हैं । उग्रसेन की लावण्यवती पुत्री राजीमती से उनका विवाह निश्चय होता है। दसवें सर्ग में नेमिनाथ वधूगृह को प्रस्थान करते हैं। यहीं उनको देखने के लिए लालायित पुरसुन्दरियों का वर्णन किया गया है। वधूगृह में बारात के भोजन के लिये बंधे हुए मरणासन्न निरीह पशुओं का चीत्कार सुनकर उन्हें आत्मग्लानि होती है । और वे विवाह को बीच में ही छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। ग्वार सर्ग के पूर्वाद्ध में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से अपमानित राजीमती का करुण विलाप है । मोह-संयम युद्धवर्णन नामक इस सर्ग के उत्तरार्द्ध में मोह तथा संयम के प्रीतात्मक युद्ध का अतीव रोचक वर्णन है । पराजित होकर मोह नेमिनाथ के हृदय दुर्ग को छोड़ देता है। जिससे उन्हें केवलज्ञान को प्राप्ति होती है । बारहवें सर्ग में यादव केवलज्ञानी प्रभु की वन्दना करने के लिये उज्जयन्त पर्वत पर जाते हैं । जिनेश्वर की देशना के प्रभाव से कुछ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तथा कुछ श्रावक धर्म स्वीकार करते हैं। जिनेन्द्र राजीमतों को चरित्र पर बैठा कर मोक्षपुरी भेज देते हैं और कुछ समय पश्चात् अपनी प्राणप्रिया से मिलने के लिये स्वयं भी परम पद को प्रस्थान करते हैं। किन्तु कवि ने नेमिनाथकाव्य का कथानक अत्यल्प है, उसे विविध वर्णनों संवादों तथा स्तोत्रों से पुष्ठ पूरित कर बारह सर्गों के विस्तृत आलवाल में आरोपित किया है । यह विस्तार महाकाव्य की कलेवरपूर्ति के लिए भले ही उपयुक्त हो, इससे कथावस्तु का विकासक्रम विश्ववित हो गया है तथा कथाप्रवाह की सहजता नष्ट हो गयी है । कथानक के निर्वाह की दृष्टि से नेमिनाथमहाकाव्य को - Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] सूचना समुद्रतीन सर्ग शिशु वर्णनों पर व्यय यहां यह जानना जन्म लेकर रघु द्वितीय सर्ग अधिक सफल नहीं कहा जा सकता । पग-पग पर प्रासंगिकअप्रासंगिक वर्णनों के सेतु बांध देने से काव्य की कथावस्तु रुक-रुक कर मन्दगति से आगे बढ़ती है। वस्तुतः, कथानक की ओर कवि का अधिक ध्यान नहीं है । काव्य का अधिकतर भाग वर्णनों से ही आच्छन्न है । कथावस्तु का सूक्ष्म संकेत करके कवि तुरन्त किसी-न-किसी वर्णन में जुट जाता है । कथानक की गत्यात्मकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि तृतीय सर्ग में हुए पुत्रजन्म की विजय को सातवें सर्ग में मिलती है । मध्यवर्ती सूतिकर्म, जन्माभिषेक आदि के विस्तृत कर दिये गये हैं । तुलनात्मक दृष्टि से रोचक होगा कि रघुवंश में द्वितीय सर्ग में चतुर्थ सर्ग में दिग्विजय से लौट भी आता है । में प्रभात का तथा अष्टम में षड्ऋतु का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । काव्य के शेषांश में भी वर्णनों का बाहुल्य है । इस वर्णन प्राचुर्य के कारण काव्य को अि खण्डित हो गयी है । काव्य के अधिकांश भाग मूल कथावस्तु के साथ सूक्ष्म तन्तु से जुड़े हुए हैं । इसलिये काव्य का कथानक लंगड़ाता हुआ ही चलता है । किन्तु यह स्मरणीय है कि तत्कालीन महाकाव्य परिपाटी ही ऐसी थी कि मूल कथा के सफल विनियोग की अपेक्षा विषयान्तरों को पल्लवित करने में ही काव्यकला की सार्थकता मानी जाती थी । अतः कार्तिराज को इसका पारा दोष देना न्याय्य नहीं । वस्तुतः उन्होंने वस्तुव्यापार के इन वर्णनों को अपनी बहुश्रुतता का क्रीडांगन न बना कर तत्कालीन काव्यरूढ़ि के लोहपाश से बचने का श्लाध्य प्रयत्न किया है । नेमिनाथमहाकाव्य में प्रयुक्त कतिपय काव्य- रूढ़ियाँ संस्कृत महाकाव्यों की रचना एक निश्चित ढर्रे पर हुई है जिससे उनमें अनेक शिल्पगत समानताएं दृष्टिगम्य होती हैं। शास्त्रीय मानदंडों के निर्वाह के अतिरिक्त उनमें कतिपय काव्यरूढ़ियों का मनोयोगपूर्वक पालन किया गया है । यहाँ हम नेमिनाथ महाकाव्य में प्रयुक्त दो रूढियों की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक समझते हैं क्योंकि इनका काव्य में विशिष्ट स्थान है तथा इन रूढ़ियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिये रोचक सामग्री प्रस्तुत करती हैं। प्रथम रूढ़ि का सम्बन्ध प्रभात वर्णन से है । प्रभात वर्णन की परम्परा कालिदास तथा उनके परवर्ती अनेक महाकाव्यों में उपलब्ध है । कालिदास का प्रभात वर्णन आकार में छोटा होता हुआ भी मार्मिकता में बेजोड़ है । माघ का प्रभातवर्णन बहुत विस्तृत है, यद्यपि प्रातःकाल का इस कोटि का अलंकृत वर्णन समूचे साहित्य अन्यत्र दुर्लभ है । अन्य काव्यों में प्रभातवर्णन के नाम पर पिष्टपेषण ही हुआ है । कीर्त्तिराज का यह वर्णन कुछ विस्तृत होता हुआ भी सरसता तथा मार्मिकता से परिपूर्ण है । माघ की भाँति उसने न तो दूर को कौड़ो फेंकी है और न वह ज्ञान प्रदर्शन के फेर में पड़ा है । उसने तो, कुशल चित्रकार की तरह, अपनी ललित- प्रांजल शैली में प्रातःकालीन प्रकृति के मनोरम चित्र अंकित करके तत्कालीन सहज वातावरण को अनायास उजागर कर दिया है । २ मागों द्वारा राजस्तुति, हाथी के जाग कर भी मस्ती के कारण आंखें न खोलने तथा करवट बदल कर शृङ्खलाव करने और घोड़ों के द्वारा नमक चाटने की रूढ़ि का भी विलम्बितं कर्कशरोचिषा तमः । २ व्याने मनः स्वं मुनिभिविलम्बितं सुष्वाप यस्मिन् कुमुदं प्रभावितं प्रभासितं पङ्कजबान्धवोपलः || २०४१ ३ निद्रासुखं समनुभूय विराय रात्रावुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम् । प्राप्य प्रजोवमपि देव ! गजेन्द्र एष नोन्नोलयत्यसनेत्रयुगं मदान्धः ॥ २५४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] इस प्रसंग में प्रयोग किया गया है। अपनी स्वाभाविकता तथा मार्मिकता के कारण, कतिराज का यह वर्णन संस्कृतसाहित्य के सर्वोत्तम प्रभातवर्णनों से टक्कर ले सकता है । नायक को देखने को उत्सुक पौर युवतियों के सम्भ्रम तथा तज्जन्य चेष्टाओं का वर्णन करना संस्कृत महाकाव्यों की एक अन्य बहुप्रचलित रूढि है, जिसका प्रयोग नेमिनाथ काव्य में भी हुआ है । बौद्ध कवि अश्वघोष से प्रारम्भ होकर कालिदास, माघ, हर्ष आदि से होती हुई यह काव्य रूढ़ि कतिपय जैन कवियों की रचनाओं में भी दृष्टिगत होती है । अश्वघोष तथा कालिदास का यह वर्णन, अपने सहज लावण्य से चमत्कृत है । माघ के वर्णन में, उनके अन्य अधिकांश वर्णनों के समान, विलासिता की प्रधानता है । उपाध्याय कीर्तिराज का सम्भ्रमचित्रण यथार्थता से ओतप्रोत है, जिससे पाठक के हृदय में स्वरा सहसा प्रतिबिम्बित हो जाती है। स्खलन अथवा अधोवस्त्र के गिरने का पुरसुन्दरियों की नारी के नीवीवर्णन, इस सन्दर्भ प्रायः सभी कवियों ने किया है । कालिदास ने अधीरता को नीवीस्खलन का कारण बता कर मर्यादा की रक्षा की है । माघ ने इसका कोई कारण नहीं दिया जिससे उसकी नायिका का विलासी रूप अधिक मुखर हो गया है । नग्न नारी को जनसमूह में प्रदर्शित करना जैन यति की पवित्रतावादी वृत्ति के प्रतिकूल था, अतः उसने इस रूढि को काव्य में स्थान नहीं दिया। इसके विपरीत काव्य में उत्तरीय-पात का वर्णन किया गया है। शुद्ध नैतिकता वादी दृष्टि से तो शायद यह भी औचित्यपूर्ण नहीं किन्तु नीवीस्खलन की तुलना में यह अवश्य ही क्षम्य है, और कवि ने इसका जो कारण दिया है उससे तो पुरसुन्दरी पर कामुकता का दोष आरोपित ही नहीं किया जा सकता । कीर्त्तिराज की नायिका हाथ के आर्द्र प्रसाधन के मिटने के भय से उत्तरीय को नहीं पकड़ती, और वह उसी अवस्था में गवाक्ष की ओर दौड़ जाती है । काचित्करार्द्रा प्रतिकर्मभङ्गभयेन हित्वा पतदुत्तरीयम् । मञ्जीरवाचालपदारविन्दा द्रुतं गवाक्षाभिमुखं चचाल ॥ १०११३ चरित्रचित्रण नेमिनाथ महाकाव्य के संक्षिप्त कथानक में पात्रों की संख्या भी सीमित है । कथानायक नेमिनाथ के अतिरिक्त उनके पिता समुद्रविजय, माता शिवादेवी, राजीमती, उग्रसेन, प्रतीकात्मक सम्राट मोह तथा संयम और दूत कैतव ही महाकाव्य के पात्र हैं । परन्तु इन सब की चरित्रगत विशेषताओं का निरूपण करने से कवि को समान सफलता नहीं मिली । नेमिनाथ जिनेश्वर नेमिनाथ काव्य के नायक हैं। उनका चरित्र पौराणिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है जिससे उनके चरित्र के कतिपय पक्ष ही उद्घाटित हो सके हैं और उसमें कोई नवीनता भी दृष्टिगत नहीं होती । वे देवोचित विभूति तथा शक्ति से सम्पन्न हैं। उनके धरा पर अवतीर्ण होते हो समुद्रविजय के समस्त शत्रु म्लान हो जाते हैं। दिक्कुमारियाँ उनका सूतिकर्म करती हैं तथा जन्माभिषेक सम्पन्न करने के लिये स्वयं सुरपति इन्द्र जिनगृह में आता है । पाञ्चजन्य को फूँकना तथा शक्तिपरीक्षा में षोडशकला सम्पन्न श्रीकृष्ण को पराजित करना उनकी अनुपम शक्तिमत्ता के प्रमाण हैं । नेमिनाथ वीतराग नायक हैं। यौवन की मादक अवस्था में भी वैषयिक सुखभोग उन्हें अभिभूत नहीं कर पाते । कृष्ण पत्नियाँ नाना प्रलोभन तथा युक्तियाँ देकर उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, किन्तु वे हिमालय की भाँति अडिग तथा अडोल रहते हैं । उनका दृढ़ विश्वास है कि वैषयिक सुख परमार्थ के शत्रु हैं । उनसे आत्मा उसी प्रकार तृप्त नहीं हो सकती जैसे जलराशि से सागर अथवा काठ से अग्नि । उनके विचार में धर्मोषधि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को छोड़ कर कामातुर मूढ ही नारी रूपी औषध का हैं। 'न खरो न भृयसा मृदृः' उनकी नीति का मूलमन्त्र है । सेवन करता है। वास्तविक सख इहलोक में ही विद्य वलीबत्वं केवला क्षान्तिश्चण्डत्वमविवेकिता। मान है। द्वाभ्यामतः समेताभ्यां सोऽट सिद्धिममन्यत ॥ १।४३ हितं धर्मोषधं हित्वा मढाः कामज्वरार्दिताः । प्रशासन के चारु संचालन के लिये उन्होंने न्यायप्रिय तथा मुखप्रियमपश्यन्तु सेवन्ते ललनौषधा" ॥ ६।४ शास्त्रवेत्ता मन्त्रियों को नियुक्त किया है (१।४७)। उनके आत्मा तोषयितं नैव शक्यो वैषयिकैः मुखः। रिमतकान्त ओष्ठ मित्रों के लिये अक्षय कोश लुटाते हैं तो सलिलैरिव पाथोधिः काष्टरिव धनञ्चयः ॥ १।२५ उनकी भ्र भंगिमा शशुओं पर वज्रपात करती है। अनन्तमक्षयं सौख्यं भुञ्जा नो ब्रह्मसद्म नि । वज्रदण्डायते सोऽयं प्रत्यनीकमहीभुजाम् । ज्योति:स्वरूप एवायं तिष्ठत्यात्मा सना नः ॥ ६।२६ ___ कल्पद्रमायते कामं पादद्वन्द्वोपजी विनाम् ।। १।५२ नेमिनाथ पितृवत्सल पुत्र हैं। माता के आग्रह से वे, प्रजाप्रेम समुद्रविजय के चरित्र का एक अन्य गुण है। इच्छा न होते हए भी वे बल उनकी प्रसन्नता के लिए विवाह यथोचित कर-व्यवस्था से उसने सहज ही प्रजा का विश्वास करना स्वीकार लेते हैं। किन्तु वधू गृह में भोजनार्थ बध्य प्राप्त कर लिया है। पशुओं का आर्त स्वर सुनकर उनका निद प्रबल हो जाला है और वे विवाह से विमुख होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं। आकाराय ललौ लोकाद् भागधेयं न तृष्णया । १।४५ समुद्र विजय- यदुपति समुद्रविजय कथानायक नेमि- समुद्रविजय पुत्रवत्सल पिता हैं। पुत्र जन्म का नाथ के पिता हैं। उनमें राजोचित मचे गण विद्यमान है। समाचार सुनकर उनकी बाछे खिल जाती हैं। पुत्र-प्राप्ति वे रूपवान्, शक्तिशाली, ऐश्वर्य सम्पन्न तथा प्रहर मेधावी के उपलक्ष्य में वे मुक्तहस्त से धन वितरित करते हैं, बन्दियों हैं। उनके गुण अलंकरण मात्र नहीं हैं. वे व्यावहारिक को मुक्त कर देते हैं तथा जन्मोत्सव का ठाटदार आयोजन जीवन में उनका उपयोग करते हैं (शक्तेरनगणाः क्रियाः करते हैं, जो निरन्तर बारह दिन तक चलता है। १।३६)। समुद्रविजय अन्तस् से धामिक व्यक्ति हैं। उनका धर्म समुद्रविजय तेजस्वी शासक हैं । उनके बन्दी के शब्दों सर्वोपरि है । आर्हत-धर्म उन्हें पुत्र, पत्नी, राज्य तथा प्राणों में अग्नि तथा सूर्य का तेज भले ही शान्त हो जाये. उनका से भी अधिक प्रिय है। पराक्रम सर्वत्र अप्रतिहत है। प्राणेभ्योऽपि धनेभ्योऽति योषिद्भ्योऽप्यधिकं प्रियम् । विध्या यतेऽम्भसा वह्निः सूर्योऽब्देन पिधीयते । सोऽमस्त मेदिनीजानि विशुद्ध धर्ममाहतम् ॥ १।४२ न केनापि परं राजस्वत्तेज: परिहीयते ॥ ७।२५ इस प्रकार समदविजय त्रिवर्गसाधन में रत हैं। इस सिंहासनारुढ़ होते ही उनके शत्रु निष्प्रभ हो जाते हैं । फलतः सव्यवस्था तथा न्यायपरायणता के कारण उनके राज्य में शत्रु लक्ष्मो ने उनका इस प्रकार वरण किया जैसे नवयौवना समय पर वर्षा होती है, पृथ्वी रत्न उपजाती है तथा प्रजा बाला विवाहवेला में पति का (१।३८) । उनका राज्य निरजीवी है । और वह स्वयं राज्य को इस प्रकार निश्चिन्त पाशविक बल पर आधारित नहीं है। केवल क्षमा को होकर भोगते हैं जैसे कामो कामिनी की कंचन काया को। नपुंसकता तथा निर्बाध प्रचण्डता को अविवेक मान कर, इन काले वर्षति पर्जन्यः सूते रत्नानि मेदिनी । दोनों के समन्वय के आधार पर ही वे राज्य-संचालन करते प्रजाश्चिराय जीवन्ति तस्मिन् भुञ्जति भूतलम् ॥१॥४४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समृद्धमभजद्राज्यं स समस्तनयामलम् । कामोव कामिनीकायं स समस्तनयामलम् ॥ १५४ राजीमती - राजीमती काव्य की अभागी नायिका है | वह शीलसम्पन्न तथा अतुल रूपवती है । उसे नेमिनाथ की पत्नी बनने का सौभाग्य मिलने लगा था, किन्तु क्रूर विधि ने, पलक झपकते ही उसकी नवोदित आशाओं पर पानी फेर दिया। विवाह में भोजनार्थ भावी व्यापक हिंसा से उद्विग्न होकर नेमिनाथ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । इस अकारण निकरारण से राजीमती स्तब्ध रह जाती है । बन्धुजनों के समझाने-बुझाने से उसके तप्त हृदय को सान्त्वना तो मिलती है, किन्तु उसका जीवन - कोश रीत चुका है । अन्तत: वह केवलज्ञानी नेमिनाथ की देशना से परमपद को प्राप्त करती है । [ ६५ ] उग्रसेन - भोजपुत्र उग्रसेन का चरित्र मानवीय गुणों से ओतप्रोत है । वह उच्चकुलप्रसूत नीतिकुशल शासक है । वह शरणागत वत्सल, गुणरत्नों की निधि तथा कीर्तिलता का कानन है । लक्ष्मी तथा सरस्वती, अपना परम्परागत द्वेष छोड़ कर उसके पास एक साथ रहती हैं । विपक्षी नृपगण उसके तेज से भीत होकर कन्याओं के उपहारों से उसका रोष शान्त करते हैं । अन्य पात्र शिवादेवी नेमिनाथ की माता है । काव्य में उसके चरित्र का पल्लवन नहीं हुआ है। प्रतीकात्मक सम्राट मोह तथा संयम राजनीतिकुशल शासकों की भांति आचरण करते हैं । मोहराजदूत कैतव को भेजकर संयम नृपति को नेमिनाथ का हृदय दुर्ग छोड़ने का आदेश देता है । दूत पूर्ण निपुणता से अपने स्वामी का पक्ष प्रस्तुत करता है । संयमराज का मन्त्री शुद्ध विवेक दूत की उक्तियों का मुँहतोड़ उत्तर देता है । प्रकृति चित्रण - नेमिनाथकाव्य के प्रकृति को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है। विस्तृत फलक पर वस्तुत: नेमिनाथ महाकाव्य की भावसमृद्धि तथा काव्यमत्ता का प्रमुख कारण इसका मनोरम प्रकृति-चित्रण है । कीर्तिराज ने महाकाव्य के अन्य पक्षों की भाँति प्रकृति-चित्रण में भी अपनी मौलिकता का परिचय दिया है । कालिदासोत्तर महाकाव्यों में प्रकृति के उद्दीपन पक्ष की पार्श्वभूमि में उक्ति वैचित्र्य के द्वारा नायक-नायिकाओं के विलासितापूर्ण चित्र अङ्कित करने की परिपाटी है। प्रकृति के आलम्बन पक्ष के प्रति वाल्मीकि तथा कालिदास का सा अनुराग अन्य संस्कृत कवियों में दृष्टिगोचर नहीं होता । कीर्तिराज ने यद्यपि विविध शैलियों में प्रकृति का चित्रण किया है, किन्तु प्रकृति के सहज-स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत करने में उनका मन अधिक रमा है और इन स्वभावोक्तियों में ही उनकी काव्यकला का उत्कृष्ट रूप व्यक्त हुआ है । प्रकृति के आलम्बन पक्ष के चित्रण में कीर्तिराज ने सूक्ष्म पर्यवेक्षण का परिचय दिया है । वर्ण्यविषय के साथ तादात्म्य स्थापित करने के पश्चात् प्रस्तुत किये गये ये चित्र अद्भुत सजीवता से स्पन्दित हैं । हेमन्त में दिन क्रमशः छोटे होते जाते हैं तथा कुहासा उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । उपमा की सुरुचिपूर्ण योजना के द्वारा कवि ने हेमन्तकालीन इस प्राकृतिक तथ्य का मार्मिक चित्र afisa fear है । उपययौ शनकैरिह लाघवं दिनगणो खलराग इवानिशम् । ववृधिरे च तुषारसमृद्धयोऽनुसमयं सुजनप्रणया इव ॥ ८४८ शरत्कालीन उपकरणों का यह स्वाभाविक चित्र मनोरमता से ओतप्रोत है । आपः प्रसेदुः कलमा विपेचुर्ह साश्च कूजुर्जहसुः कजानि । सम्भूय सानन्दमिवावतेरु: शरद्गुणाः सर्वजलाशयेषु ||८८२ इस श्लेषोपमा में शरत का समग्र रूप उजागर करने में कवि को आशातीत सफलता मिली है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसविमुक्त विलोलपयोधरा हसितकाशलसत्पलितांकिता। ह्रासकालीन महाकाव्य-प्रवृत्ति के अनुसार कीतिराज क्षरित-पवित्रम शालिकण द्विजा जयति कापि शरजरती क्षितौ। ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का भी वर्णन अपने काव्य में किया ८।४३ है। उद्दीपन रूप में प्रकृति मानव की भावनाओं को उद्वेलित . पावस में दामिनी की दमक, वर्षा की अविराम फुहार करती है । प्रस्तुत पंक्तियों में स्मरपट हसदृश धनगर्जना तथा शीतल बयार मादक वातावरण की सष्टि करती हैं। को विलासी जनों की कामाग्नि को प्रदीप्त करते हए पवन झकोरे खाकर मेघमाला, मधुरमन्द्र गर्जना करतो हुई चित्रित किया गया है जिससे वे रणशूर कामरण में पराजित गगनांगन में घूमती फिरती है। वर्षाकाल के इस सहज होकर प्राणवल्लभाओं की मनुहार करने में प्रवृत्त हो दृश्य को काव्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। उपमा जाते हैं। के प्रयोग ने भावाभिव्यक्ति को समर्थता प्रदान की है। स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् क्षरदभ्रजला कलगजिता सचपला चपलानिलनोदिता। निनदतोऽथ निशम्य विलासिनः । दिव चचाल नवाम्बुदमण्डली गजघटेव मनोभवभूपतेः ॥८।३८ समदना न्यपतन्नवकामिनीनेमिनाथमहाकाव्य में पशृप्रकृति के भी अभिराम चित्र चरणयो रणयोगविदोऽपि हि ॥ ८॥३७ प्रस्तुत किये गये हैं। ये एक ओर कवि की सूक्ष्म निरीक्षण उद्दीपन पक्ष के इस वर्णन में प्रकृति पृष्ठभूमि में चली शक्ति के साक्षी हैं और दूसरी ओर उसके पशजगत की गया है और प्रेमी युगलों का भोग-विलास प्रमुख हो चेष्टाओं के गहन अध्ययन को व्यक्त करते हैं। हाथी का गया है, किन्तु परम्परा से ऐसे वर्णनों की गणना उद्दीपन यह स्वभाव है कि वह रात भर गहरी नींद सोता है। के अन्तर्गत ही की जाती है। प्रात:काल जागकर भी वह अलसाई आँखों को मस्ती से प्रियकरः कठिनस्तनकुम्भयोः प्रियकरः सरसातवपल्लव:। मदे पड़े रहता है किन्तु बार-बार करवटें बदल कर पाद प्रियतमा समबीजयदाकुलां नवरतां वरतान्तलतागृहे ।। शृखला से शब्द करता है जिससे उसके जगने की सूचना ८१२३ गजपालों को मिल जाती है। निम्नोक्त स्वभावोक्ति में नेमिनाथ काव्य में प्रकृति का मानवीकरण भी हुआ यह गजप्रकृति साकार हो उठी है । है। प्रकृति पर मानवीय भावनाओं तथा कार्यकलापों का निद्रासुखं समनुभूय चिराय रात्रा. आरोप करने से वह मानव की भाँति आचरण करती है। वुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम्। प्रातःकाल सूर्य के उदित होते ही कमलिनी विकसित हो प्राप्य प्रबोधमपि देव ! गजेन्द्र एष जाती है और भ्रमरगण उसका रसपान करने लगते हैं इसका ___ नोन्मीलयत्यलसनेत्रयुगं मदान्धः ।। २।५४ चित्रण कवि ने सूर्य पर नायक, कमलिनी में नायिका तथा व्याध के मधुरगोत के वशीभूत होकर, अपनी प्रियाओं भ्रमरगण पर परपुरुष का आरोप करके किया है । अपनो के साथ वन में चौकड़ी भरते हए हरिणों का हृदयनाही प्रेयसी को पर पुरुषों से चुम्बित देख कर सूर्य क्रोध से चित्र इस प्रकार अङ्कित किया गया है। लाल हो जाता है तथा कठोर पादप्रहार से उस व्यभिकलगीतिनादरसरङ्गवे दिनो हरिणा अमी हरिणलोचने वने। चारिणी को दण्डित करता है। सह कामिनीभिरलमुत्पतन्ति हे. परिपीतवातपरिणोदिता इव ॥ यत्र भ्रमद्ममरचुम्बितानना १२।११ मवेक्ष्य कोपादिव मूनि पद्मिनीम् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्रेयसी लोहितमूर्तिमावहन् किन्तु उनका यमक न केवल दुहरूता से मुक्त है अपितु इससे कठोरपादैनिजघान तापनः ॥ २।४२ प्रकृति वर्णनों की प्रभावशालिता में वृद्धि हुई है। निम्नलिखित पद्य में लताओं को प्रगल्भा नायिकाओं सौन्दर्य चित्रण-कीर्तिराज ने काव्य के कतिपय के रूप में चित्रित किया गया है जो पुष्पवती होती हुई भी पात्रों के कायिक सौन्दर्य का हृदयहारी चित्रण किया है, तरुणों के साथ बाह्य रति में लीन हो जाती हैं। परन्तु उनकी कला की सम्पदा राजीमती तथा देवांगनाओं कोमलाङ्गयो लताकान्ताः प्रवृत्ता यस्य कानने। के चित्रों को ही मिली है। सौन्दर्य-चित्रण में अधिकतर पुष्पवत्योऽन्यहो चित्रं तरुणालिङ्गनं व्यधुः ॥ १।३१ नखशिखप्रणाली का आश्रय लिया गया है जिसके अन्तर्गत कतिपय स्थलों पर प्रकृति का आदर्श रूप चित्रित वय पात्र के अंगों-प्रत्यंगों का सूक्ष्म वर्णन किया जाता किया गया है। ऐसे प्रसंगों में प्रकृति निसर्गविरुद्ध आच- है। कवि ने बहुधा परम्परामुक्त उपमानों के द्वारा अपने रण करती है। जिनजन्म के अवसर पर प्रकृति ने अपनी पात्रों का सौन्दर्य व्यक्त किया है किन्तु उपमानयोजना में स्वभावगत विशेषताओं को छोड़ कर आदर्श रूप प्रकट उपमेय-सादृश्य का ध्यान रखने से उनके सौन्दर्य चित्रों में किया है। सहज आकर्षण तथा सजीवता का समावेश हो गया है। सपदि दशदिशोऽत्रामेयनमल्यमापुः जहाँ नवीन उपमानों का प्रयोग किया गया है वहाँ काव्यसमजनि च समस्ते जीवलोके प्रकाशः ॥ कला में अद्भत भावप्रेषणीयता आ गयी है। निम्नोक्त पद्य अपि ववुरनुकूला वायत्रो रेणुवर्ज में देवांगनाओं की जघनस्थली को कामदेव की आसनगद्दी विलयमगमदापद् दौस्थ्यदुःखं पृथिव्याम् ॥ ३॥३९ कह कर उसकी पुष्टता तथा विस्तार का सहज भान करा प्रकृतिचित्रण में कात्तिराज ने परिगणनात्मक शैलो । दिया गया है। का भी आश्रय लिया है। निम्नोक्त पद्य में विभिन्न वक्षों वृता दुकूलेन सुकोमलेन विलग्नकाञ्चीगुणजात्यरत्ना । विभाति यासां जघनस्थली सा मनोभवस्यासनगन्दिकेव ।। के नामों की गणना मात्र कर दी है। सहकारएष खदिरोऽयमजुनोऽयमिमौ पलाशबकुलो सहोद्गता । ६४७ इसी प्रकार राजीमती की जंघाओं को कदलीस्तम्भ कुट जावमू सरल एष चम्पको मदिराक्षि शेलविपिन गवेष्यताम ॥ तथा कामगज के आलान के रूप में चित्रित करके एक ओर १२।१३ उनकी सुडौलता तथा शीतलता को व्यक्त किया गया है तो काव्य में एक स्थान पर प्रकृति स्वागत कत्र के रूप में दूसरी ओर, उनकी वशीकरण क्षमता को उजागर कर दिया प्रकट हुई है। गया है। रचयितुं ह्य चितामतिथिक्रियां पथिकमा ह्वयतोव सगौरवम् । बभावुरूयुगं यस्याः कदलीस्तम्भकोमलम् । कुसुमिता फलिताम्रवणावली सुवयसां वयसां कलकूजितः ॥ आलान इव दुर्दान्त-मीनवे तनहस्तिनः ॥ ६५५ ८१८ नेमिनाथ महाकाव्य में उपमान की अपेक्षा उपमेय इस प्रकार कीर्तिराज ने प्रकृति के विविध रूपों का अंगों का वैशिष्ट्य बताकर, व्यतिरेक के द्वारा भी पात्रो चित्र किया है । ह्रापालोन संस्कृत महाकाव्यकारों को का लोकोत्तर सोन्दर्य चित्रित किया गया है। राजीमतो की भाँति उन्होंने प्रकृति चित्रग में यमक की योजना को है मुखमाधुरी से परास्त लावण्यनिधि चन्द्रमा को, लग्नावश Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] मुंह छिपाने के लिये, मन में मान-मारा फिरता हुआ चित्रित करके नवयौवना राजीमती के सर्वातिशायी मुखसौन्दर्य को मूर्त कर दिया है । यस्या वस्त्रेण जित: शंके लाघवं प्राप्य चन्द्रमाः । तुलवद्वायुनोत्क्षिप्तो बम्भ्रमीति नभस्तले ॥५२ रसयोजना शास्त्रीय विधान के अनुसार महाकाव्य में शृङ्गार, वीर तथा शान्त में से किसी एक रस की प्रधानता होनी चाहिए । नेमिनाथ महाकाव्य में शृङ्गार का अङ्गी रस के रूप में पल्लवन हुआ है । वीर, रौद्र, करुण आदि शृङ्गार रस के पोषक बन कर आए हैं । ऋतुवर्णन के प्रसंग में शृङ्गार के अनेक रमणीक चित्र दृष्टिगत होते हैं । स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् निनदतोऽय निशम्य विलासिनः । समदना न्यपतन्नवकामिनीचरणयोः रणयोगविदोऽपि हि ॥ 1 ८।३७ यहाँ नायक की नायिकाविषयक रति स्थायीभाव है । प्रमदा आलम्बन विभाव है । कामदुन्दुभितुल्य मेघगर्जना उद्दीपन विभाव है। रणजेता नायक का मानभंजन के निमित्त नायिका के चरणों में गिरना अनुभाव है । औत्सुक्य, मद आदि व्यभिचारी भाव हैं। इन विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट होकर नायक का स्थायीभाव शृङ्गार के रूप में निष्पन्न हुआ है । निम्नोक्त पद्य में शृंङ्गाररस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। उपवने पवनेरितपादपे नवतरं बत रन्तुमनाः परा । सकरुणा करुणावचये प्रियं प्रियतमा यतमानमवारयत् ।।६।२२ पांचवें सर्ग में सहसा सिंहासन के प्रकम्पित होने से क्रोधोन्मत हुए इन्द्र के वर्णन में रौद्र रस का भव्य चित्रण हुआ है। ललाटपट्ट भ्रुकुटीभयानकं ध्रुवो भुजंगाविव दारुणाकृती | यः काला अतिकुण्डखण्डानाभं मुखमादयेऽसौ ॥ ददंश दन्तै रषया हरिनिजी रसेन शच्या अधराविवाधरौ ॥ प्रस्फोटयामास करावितस्ततः क्रोधद्र मस्योल्बणपल्लवाविव ॥ ५।३-४ अज्ञात यहां इन्द्र का हृद्गत क्रोध स्थायीभाव है । जिनेश्वर आलम्बन विभाव है । सिंहासन का अकस्मात कांपना उद्दीपन विभाव है । ललाट पर भृकुटि का प्रकट होना, भौहों का तनना, नेत्रों का अग्निकुण्ड की भांति अग्निवर्षा करना, अधरों का काटना तथा हाथों का स्फोटन अनुभाव हैं। अमर्ष, आक्षेप, उग्रता आदि संचारी भाव संयोग से क्रोध रौद्र रस के रूप में व्यक्त हैं । इनके हुआ है । प्रतीकात्मक सम्राट मोह के दूत तथा संयमराज के नीतिनिपुण मन्त्री विवेक की उक्तियों के अन्तर्गत, ग्यारहव सर्ग में, वोररस की कमनीय झांकी देखने को मिलती है । यदि शक्तिरिहास्ति ते प्रभोः प्रतिगृह्णातु तदा तु तान्यपि । परमेष विलोलजिह्वया कपटी भापयते जगज्जनम् ||११|४४ मन्त्री विवेक का उत्साह यहाँ स्थायी भाव के रूप में वर्तमान है। मोहराज आलम्बन है । उसके दूत की कटूक्तियाँ उद्दीपन का काम करती हैं । मन्त्री का विपक्ष को चुनौती देना तथा मोह की वाचालता का मजाक उड़ाना अनुभाव हैं। धृति, गर्व, तर्क आदि संचारी भाव हैं । इस प्रकार वीररस समूचे उपकरण यहां विद्यमान हैं । इसी सर्ग में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से शोकतत राजीत के विलाप में करुणरस को सृष्टि हुई है । अथ भोजनरेन्द्रपुत्रिका प्रविमुक्ता प्रभुगा तपस्विनी । व्यलपद्गलदश्रुलोचना शिथिलांगा लुठिता महीतले ॥११॥१ राजीमती का निराकरणजन्य शोक स्थायीभाव है । नेमिनाथ आलम्बन विभाव हैं। विवाह से अचानक विरत होकर उनका प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना उद्दीपन विभाव है। पृथ्वी पर लोटना, अंगों का विचित्र होना तथा आपू Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहाना अनुभाव हैं। विषाद, चिन्ता, स्मृति आदि प्रयोग हुआ है । नवे सर्ग में भाषा के थे समस्त गुण देखे व्यभिचारी भाव हैं। इनसे समृद्ध होकर राजीमती के जा सकते हैं। शोक की अभिव्यक्ति करुण रस के रूप में हुई है। विवाहय कुमारेन्द्र ! बालाश्चञ्चललोचनाः । इस प्रकार कीतिराज ने काव्य में रसात्मक प्रसंगों के भुक्ष्व भोगान् समं ताभिरप्सरोभिरिवामरः ॥ द्वारा पात्रों के मनोभावों को वाणो प्रदान की है तथा रूप-सौन्दर्य-सम्पन्नां शीलालङ्कारधारिणीम् । काव्य सौन्दर्य को प्रस्फुटित किया है। झरल्लावण्य-पीयूष-सान्द्र-पीनपयोधराम् ॥ भाषा हेमाब्जगर्भगौराङ्गों मृगाक्षी कुलबालिकाम् । नेमिनाथ महाकाव्य की सफलता का अधिकांश श्रेय ये नोपभुञ्जते लोका वेधसा वञ्चिता हि ते ॥ इसकी प्रसादपूर्ण प्रांजल भाषा को है। विद्वत्ताप्रदर्शन, संसारे सारभूतो यः किलायम्प्रमदाजनः । उक्तिटे चित्र्य, अलंकरणप्रियता आदि समकालीन प्रवृत्तियों योऽसारश्चेतवाभाति गर्दभस्य गुणोपमः ॥६।१२-१५ के प्रबल आकर्षण के समक्ष आत्मसमर्पण न करना कीर्ति- शार्दूलविक्रीडित जैसे विशालकाय छन्द में भाषा के राज की मौलिकता तथा सुरुचि का द्योतक है । नेमिनाथ माधुर्य को यथावत् सुरक्षित रखना कवि की बहुत बड़ी महाकाव्य की भाषा महाकाव्योचित गरिमा तथा प्राणवत्ता उपलब्धि हैसे मण्डित है। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है किन्तु पुण्याढ्य कमला यथा निजपति योषाः सुशोला यथा अनावश्यक अलंकरण की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं । इसी- सूत्राथं विशदा यथा विवृतयस्तारा यथा शीतगुम् । लिये उसके काव्य में भावपक्ष तथा कलापक्ष का मनोरम पुंसां कर्म यथा धियश्च हृदयं खानां यथा वृत्तयः समन्वय दृष्टिगत होता है । नेमिनाथ महाकाव्य की भाषा सानन्दं कुलकोटयः किल यदूनामन्वगुस्तं तथा ॥ की मुख्य विशेषता यह है कि वह, भाव तथा परिस्थिति १०।१० के अनुसार स्वत: अपना रूप परिवर्तित करती जाती है। यद्यपि समस्त महाकाब्य प्रसादगुण को माधुरी से फलस्वरूप वह कहीं माधुर्य से तरलित है तो कहीं ओज से ओत-प्रोत है, किन्तु सातवें सर्ग में प्रसाद का सर्वोतम रूप प्रदीप्त । भावानुकूल शब्दों के विवेकपूर्ण चयन तथा कुशल दीख पड़ता है। इसमें जित सहज, सरल तथा सुबोध गुम्फन से ध्वनिसौन्दर्य को सृष्टि करने में कवि ने सिद्ध- भाषा का प्रयोग हुआ है, उस पर साहित्यदर्पणकार को हस्तता का परिचय दिया है । अनुप्रास तथा यमक के सुरु- यह उक्ति "चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्कन्धनमिवानल:' चिपूर्ण प्रयोग से उनके काव्य के माधुर्य में रचनात्मक झंकृति अक्षरशः चरितार्थ होतो है।। का समावेश हो गया है। निम्नलिखित पद्य में यह विशेषता बभौ राज्ञः सभास्थानं नानाविच्छितिसुन्दरम् । भरपूर मात्रा में विद्यमान है। प्रभोर्जन्ममहो द्रष्टुं स्वविमानमिवागतम् ॥७॥१३ गुरुणा च यत्र तरुणाऽगुरुणा वसुधा क्रियेत सुरभिर्वसुधा। अनेकः स्वार्थमिच्छद्भिविनीपकावनोपकैः । कमनातुरेति रमणेकमना रमणी सुरस्य शुचिहारमणी ॥५।५१ राजमार्गस्तदाकीर्णः खगैरिव फलद्रुमः ॥ ७।१५ शृङ्गार आदि कोमल भावों के चित्रण की पदावली नीतिकथन की भाषा सबसे सरल है। नवे सर्ग में माखन-सी मृदुल, सौन्दर्य-सी सुन्दर तथा यौवन-सी मादक नेमिनाथ की नीतिपरक उक्तियाँ भाषा को इसी सरलता, है। ऐसे प्रसंगों में सर्वत्र अल्लसमास वालो पदावली का मसूणता तथा कोमलता से युक्त हैं । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७० हितं धर्मोषधं हित्वा मूढाः कामज्वरादिताः । १-ही प्रेम तद्यद्वशवर्तिचित्तः प्रत्येति दुःखं सुखरूपमेव मुखप्रियमपथ्यन्तु सेवन्ते ललनौषधम् ।।६।२४ ।२।४३ आत्मा तोषयितुं नैव शक्यो वैषयिकैः सुखैः । २-विचार्य वाचं हि वदन्ति धीराः ।३।१८ सलिलैरिव पायोधि: काष्ठरिव धनञ्जयः ।६।२५ ३- उच्चैः स्थितिर्वा क्व भवेज्जडानाम् । ६।१३ किन्तु क्रोध तथा युद्ध के वर्णन में भाषा ओज से ४-स्थानं पवित्राः क्व न वा लभन्ते । ६।३३ परिपूर्ण हो जाती है। ओजव्यंजक कठोर शब्दों के द्वारा ५-जनोऽभिनवे रमतेऽखिलः । ८१३ यथेष्ट वातावरण का निर्माण करके कवि ने भावव्यंजना को ६- काले रिपुमप्याश्रयेत्सुधीः । ८।४६ अतोव समर्थ बना दिया है। मोह तथा संयम के युद्ध ७-सकलोऽप्युदितं श्रयतीह जनः । ८।५३ वर्णन में भाषा की यह शक्तिमत्ता वर्तमान है। -पित्रोः सुखायैव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । ६।३४ रणतूर्यरवे समुत्थिते भटहक्कापरिगजितेऽम्बरे। ___-शुद्धिर्न तपो विनात्मनः । ११।२३ उभयोर्बलयोः परस्परं परिलग्नोऽथ विभीषणो रणः ॥१११७६ पांचवे सर्ग में इन्द्र के क्रोधवर्णन में जिस पदावली को १०-नहि कार्या हितदेशना जड़े । १११४८ योजना की गयी है, वह अपने वेग तथा नाद से हृदय में ११-नहि धर्मकर्मणि सुधीविलम्बते । १२।२ ओज का संचार करती है। इस दृष्टि से यह पद्य विशेष इन बहुमूल्य गुणों से भूषित होती हुई भी नेमिनाथदर्शनीय है। काव्य को भाषा में कतिपय दोष हैं, जिनकी ओर संकेत न विपक्षपक्षक्षयबद्धकक्ष विद्युल्लताना मिव सञ्चयं तत्। करना अन्यायपूर्ण होगा। काव्य में कुछ ऐसे स्थलों पर स्फुरत्स्फुलिङ्ग कुलिशं करालं ध्यात्वेति यावत्स जिधृक्षतिस्म विकट समासान्त पदावली का प्रयोग किया गया है जहाँ ॥ ५९ उसका कोई औचित्य नहीं है। युद्धादि के वर्णन में तो कीतिराज की भाषा में बिम्ब निर्माण को पूर्ण क्षमता समास बहुला शैली अभीष्ट वातावरण के निर्माण में सहायक है। सम्भ्रम के चित्रण में भाषा त्वरा तथा वेग से पूर्ण होती है, किन्तु मेरुवर्णन के प्रसंग में इसकी क्या है। देवसभा के इस वर्णन में, उपयुक्त शब्दावली के सार्थकता है ? प्रयोग से सभासदों की इन्द्रप्रयाणजन्य आकुलता साकार भित्तिप्रतिज्वलदनेकमनोज्ञरलनिर्यन्मयूखपटलीसतत प्रकाशाः । हो उठी है। द्वारेषु निर्मक रपुष्करिणीजलोमिमूर्द्धन्महमुषितयात्रिकगात्रधर्माः दृष्टि ददाना सकलासु दिक्षु किमेतदित्याकुलितं ब्रु वाणा। ॥५५२ उत्थानतो देवपतेरकस्मात् सर्वापि चुक्षोभ सभा सुधर्मा ॥ इसके अतिरिक्त ने मिनाय महाकाव्य में यत्र-तत्र, छन्द ५।१८ पूर्ति के लिये बलात् अतिरिक्त पदों का प्रयोग किया गया नेमिनाथ काव्य में यत्र-तत्र मधुर सूक्तियों तथा है । स्वकान्तरक्ताः के पश्चात् 'शुचयः' तथा 'पतिव्रताः' लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो इसकी भाषा की (२।३६) का, शुक के साथ 'वि' का (२।५८) मराल के लोकसम्पृक्ति को सूचक हैं तथा काव्य की प्रभावकारिता साथ खग का (२।५९), विशारद के साथ 'विशेष्यजन' का को वृद्धिगत करतों हैं। कोतपय मार्मिक सूक्तियाँ यहाँ (१११।६) तथा वदन्ति के साथ 'वाचम्' का (३।१८) प्रयोग उधृत को जातो हैं। सर्वथा आवश्यक नहीं है । इनसे एक ओर, इन स्थलों पर, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१ ] कवि की छन्द प्रयोग में असमर्थता व्यक्त होती है, दूसरी तुद मे ततदम्भत्वं त्वं भदन्ततमेद तु। ओर, यहाँ वह काव्यदोष आ गया है, जो साहित्यशास्त्र में रक्ष तात ! विशामीश ! शमीशा वितताक्षर ॥ १२॥३८ 'अधिक' नाम से ख्यात है। प्रस्तुत दो पद्यों की पदावली में पूर्ण साम्य है, किन्तु नेमिनाथ काव्य में कतिपय देशी शब्द भी प्रयुक्त हुए पदयोजना तथा विग्रह के वैभिन्य के आधार पर इनसे दो हैं । बीच के लिये विचाल, गद्दी के लिये गन्दिका; माली भिन्न-भिन्न अर्थ निकाले गये हैं । के लिये मालिक: उल्लेखनीय हैं। इनमें से 'विचाल' शब्द महामद भवाऽऽरागहरि विग्रहहारिणम् । कुछ उच्चारण भिन्नता के साथ, पंजाबी में अब भी प्रमोदजाततारेनं श्रेयस्करं महाप्तकम् ॥ १२॥४१ प्रचलित है। महाम दम्भवाराग हरिं विग्रहहारिणम् । नेमिनाथ महाकाव्य की भाषा में निजी आकर्षण है। प्रमोदजाततारेनं श्रेयस्करं महाप्तकम् ॥ १२॥४२ वह प्रसंगानुकुल, प्रौढ़, सहज तथा प्रांजल है। निस्सन्देह ये पद्य विद्वत्ता को चुनौती हैं । टीका के बिना इनका इससे संस्कृत-साहित्य गौरवान्वित हुआ है। वास्तविक अर्थ समझना विद्वानों के लिये भी सम्भव नहीं। पाण्डित्यप्रदर्शन था शाब्दी क्रीड़ा ये रसचर्वणा में भले ही बाधक हों, इनसे कवि का अगाध कीतिराज ने बारह सर्ग में चित्रालकारों के द्वारा काव्य पाण्डित्य, रचनाकौशल तथा भाषाधिकार व्यक्त होता में चमत्कृति लाने तथा पाण्डित्य प्रदर्शित करने का प्रयत्न है। माघ, वस्तुपाल आदि को भाँति पूरे सर्ग में इन किया है । सौभाग्यवश एसे पद्यों की संख्या बहुत कम है। कलाबाजियों का सन्निवेश न करके कीतिराज ने अपने सम्भवत: इन पद्यों के द्वारा वे बतला देना चाहते हैं कि मैं पाठकों को बौद्धिक व्यायाम से बचा लिया है। समवर्ती काव्यशैली से अनभिज्ञ अथवा चित्रकाव्य की अलंकारविधान- अलङ्कारयोजना में भी कीर्तिराज रचना करने में असमर्थ नहीं हुँ, किन्तु अपनी सुरुचि के की मौलिक सूझ-बूझ का परिचय मिलता है। नेमिनाथ कारण मुझे वह ग्राह्य नहीं है । ऐसे स्थलों पर भाषा के काव्य में शब्दालङ्कार तथा अर्थालंकार दोनों का व्यापक साथ मनमाना खिलवाड़ किया गया है जिससे उसमें दुरू 'दुल प्रयोग हुआ है, किन्तु भावों का गला घोंट कर बरबस हता तथा क्लिष्टता का समावेश हो गया है। अलंकार हँसने का प्रयत्न कीर्तिराज ने कहीं नहीं किया निम्नलिखित पद्य में केवल दो अक्षरों, 'ल' तथा क, है। उनके काव्य में अलंकार इस सहजता से प्रयुक्त हुए का प्रयोग हुआ है। हैं कि उनसे काव्यसौन्दर्य स्वतः प्रस्फुटित होता जाता है । लुलल्लीलाकलाके लिकीला केलिकलाकुलम् । नेमिनाथमहाकाव्य के अलंकार भावाभिव्यक्ति को समर्थ लोकालोकाकलं कालं कोकिलालिकुलालका ।। १२।३६ बनाने में पूर्णतया सक्षम हैं। इस पद्य की रचना में केवल एक व्यञ्जन तथा तीन ____ अन्त्यानुप्रास की स्वाभाविक अवतारणा का एक स्वरों का आश्रय लिया गया है। अतीतान्तेन एतां ते तन्तन्तु ततताततिम् । उदाहरण देखियेऋततां तां तु तोतोत्तु तातोऽततां ततोऽन्ततुत् ॥ १२॥३७ ।। जगञ्जनानन्दथुमन्दहेतुर्जगत्त्रयक्लेशसेतुः । निम्नोक्त पद्य की रचना अनुलोम विलोमात्मक विधि जगत्प्रभुर्यादववंशकेतुर्जगत्पुनाति स्म स कम्बुकेतुः ।।३।३७ से हुई है। अत: यह प्रारम्भ तथा अन्त से एक समान पढा शब्दालंकारों में यमक का काव्य में प्रचर प्रयोग जा सकता है। किया गया है। यमक की सुरुचिपूर्ण योजना शृङ्गार Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२ १ माधुरी को वृद्धिगत करने में सहायक हुई है । वनितयाऽनितया रमणं कयाऽप्यमलया मलयाचलमारुतः । धुत - लता - तल-तामरसोऽधिको नहि मतो हिमतो विषतोऽपि ॥ ८।२१ नेमिनाथमहाकाव्य में श्लोकार्धयमक को भी विस्तृत स्थान मिला है, किन्तु कीतिराज के यमक की विशेषता यह है कि वह सर्वत्र दुरूहता तथा क्लिष्टता से मुक्त है । पुण्य ! कोपचयदं नतावकं पुण्यकोपचयदं न तावकम् । दर्शनं जिनप ! यावदीक्ष्यते तावदेव गददुः स्थता दिकम् ।। १२।३३ अर्थालंकारों का प्रयोग भी भावाभिव्यक्ति को सघन बनाने के लिये किया गया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, रूपक अर्थान्तरन्यास, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उल्लेख आदि की विवेकपूर्ण योजना से काव्य में अद्भुत भाव प्रेषणीयता आ गयी है । जिनेश्वर के स्नात्रोत्सव के प्रसंग में मूर्त की अमूर्त से उपमा का सुन्दर प्रयोग हुआ है । देवता अथ शिवां सनन्दनां निन्यिरे धनददिनिकेतनम् । धर्मशास्त्रसहितां मतिं गिरः सद्गुरोरिव विनेयमानसम् ॥ ४४८ प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा की मामिक अवतारणा हुई है । पवमानचञ्चलदलं जलाशयै रवितेजसा स्फुटदिदं पयोरुहम् । परिशंक्यते बत मया तवाननात् कमलाक्षि ! बिभ्यदिव कम्पतेतराम् || १२|ε रूपक का सफल प्रयोग निम्नोक्त पंक्तियों में दृष्टिगत होता है । रात्रि - स्त्रिया मुग्धतया तमोऽञ्जन दिग्धानि काष्ठातनयामुखान्यथ । प्रक्षालयत्पूष मयूखपायसा देव्या विभातं ददृशे स्वतातवत् ॥ २१३० कृष्ण पत्नियां नेमिनाथ को जिन युक्तियों से वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, उनमें, एक स्थान पर, दृष्टान्त की भावपूर्ण योजना हुई है । किञ्च पित्रोः सुखायैव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । सदा सिन्धोः प्रमोदाय चन्द्रो व्योमावगाहते || |३४ शरद्वर्णन में मदमत्त वृषभ के आचरण की पुष्टि एक सामान्य उक्ति से करते हुए अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया गया है । मदोत्कटा विदार्य भूतलं वृषाक्षिपन्ति यत्र मतस्के रजो निजे । अयुक्त-युक्त - कृत्य- संविचारणां विदन्ति किं कदा मदान्धबुद्धयः || ३|४४ जिनेश्वर की लोकोत्तर विलक्षणता का चित्रण करते समय कवि की कल्पना अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट हुई है। यद्यर्कदुग्धं शुचिगोरसस्य प्राप्नोति साम्यं च विषं सुधायाः । देवान्तरं देव ! तदा त्वदीयां तुल्या दधाति त्रिजगत्प्रदीपः ॥ ६।३५ इनके अतिरिक्त परिसंख्या, वक्रोक्ति, विरोधाभास, सन्देह, असंगति, विषम, सहोक्ति, निदर्शना, पर्यायोक्त, व्यतिरेक, विभावना आदि अलंकार नेमिनाथ काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं । इनमें से कुछ के उदाहरण यहां दिये जाते हैं । परिसंख्या - न मन्दोऽत्र जनः कोऽपि परं मन्दो यदि ग्रहः । वियोगो नापि दम्पत्यो वियोगस्तु परं वने ॥ १॥१७ सन्देह - पिशङ्गवासाः किमयं नारायणः ? सुवर्णकाय: किमयं विहङ्गमः ? सविस्मयं तर्कितमेवमादित: सिंहं स्फुरत्काञ्चनचारुकेसरम् ? २५ वक्रोक्ति - देवः प्रिये ! को वृषभोऽयि ! किं गौ: ? नैवं वृषांकः ? किमु शंकरो ? न । जिनो तु चक्रीति वधूवराभ्यां यो वक्रमुक्तः स मुदे जिनेन्द्रः || ३|१२ असंगति - गन्धसार- धनसार- विलेप कन्यका विदधिरेऽथ तदंगे । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७३ ] कौतुकं मह दिदं यदमूषामप्यनश्यदखिलो खलु तापः अन्य आठ छन्दों के नाम इस प्रकार हैं- द्रुतविलम्बित, ॥४॥४४ उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, स्वागता, विरोधाभास-दिग्देव्योऽपि रसलीनाः सभ्रमा अप्यविभ्रमाः। रथोद्धता, इन्द्रवंशा, उपजाति, (इन्द्रवंशा + वंशस्य) वामा अपि च नो वामा भूषिता अप्यभषिताः तथा शालिनी । पंचम सर्ग में सात छन्दों को अपनाया ___ गया है-उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, पर्यायोक्ति-रण रात्रौ महीनाथ ! चन्द्रहासो विलोक्यते। वसन्ततिलका, वंशस्थ, प्रमिताक्षरा, रथोद्धता तथा शार्दूवियुज्यते स्वकान्ताभ्यश्चक्रवाकैरिवारिभिः लविक्रीडित । छठे सर्ग में पांच छन्द दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें उपजाति की प्रमुखता है। शेष चार छन्द हैं॥ ८२७ उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित तथा मालिनी । विषम- मोदकः क्वौक शाश्चात्र क्व सपि:खण्डमोदकः । क्वेदं वैषयिक सौख्यं क्वचिदानन्दजं सुखम् ।।६।२२ अष्टम सर्ग में प्रयुक्त छन्दों की संख्या ग्यारह है। उनके नाम इस प्रकार हैं-द्रुतविलम्बित, इन्द्रवज्रा, विभावरी, छन्दयोजना उपजाति (वंशस्य + इन्द्रवंशा), स्वागता, वैतालीय भावव्यंजक छन्दों के प्रयोग में कीतिराज पूर्णत: सिद्ध- नन्दिनी, तोटक, शालिनी, स्रग्धरा तथा एक अज्ञातनामा हस्त हैं। उनके काव्य में अनेक छन्दों का उपयोग विषम वृत्त । इस सर्ग में नाना छन्दों का प्रयोग ऋतुकिया गया है। प्रथम, सप्तम तथा नवम सर्ग में अनुष्टुप परिवर्तन से उदित विविध भावों को व्यक्त करने में पूर्णकी प्रधानता है। प्रथम सर्ग के अन्तिम दो पद्य मालिनी तया सक्षम है । बारहवें सर्ग में भी ग्यारह छन्द प्रयोग में तथा उपजाति छन्द में हैं, सप्तम सर्ग के अन्त में मालिनी का लाए गये हैं । वे इस प्रकार हैं- नन्दिनी, उपजाति प्रयोग हुआ है और नवम सर्ग का पैंतालीसवां तथा अन्तिम (इन्द्रवंशा +- वंशस्थ), उपजाति ( इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रपद्य क्रमशः उपगीति तथा नन्दिनी में निबद्ध है। ग्यारहवें वज्रा), रथोद्धता, वियोगिनी, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, सर्ग में वैतालीय छन्द अपनाया गया है। सर्गान्त में उप- अनुष्टुप्, मालिनी, मन्दाक्रान्ता तथा आर्या । दसवें सर्ग की जाति तथा मन्दाक्रान्ता का उपयोग किया गया है। रचना में जिन चार छन्दों का आश्रय लिया गया है, उनके तृतीय सर्ग की रचना उपजाति में हुई है। अन्तिम दो नाम इस प्रकार हैं-उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), पद्यों में मालिनी का प्रयोग हुआ है। शेष सात सर्गों में शार्दूलविक्रीडित, इंद्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा । इस प्रकार कवि ने नाना वृत्तों के प्रयोग से अपना छन्दज्ञान प्रदर्शित नेमिनाथ महाकाव्य में कुल मिला कर पच्चीस छन्द प्रयुक्त करने की चेष्टा की है। द्वितीय सर्ग में उपजाति (वंशस्थ हुए हैं। इनमें उपजाति का प्रयोग सबसे अधिक है। इन्द्रवंशा), इन्द्रवंशा, वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपजाति (इन्द्रवज्रा इस काव्य के मूलमात्र का संस्करण यशोविजय उपेन्द्रवज्रा), वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित तथा शालिनी, ग्रन्थमाला भावनगर से सं० १९७० में प्रकाशित हुआ है। इन आठ छन्दों को प्रयुक्त किया गया है। चतुर्थ सर्ग को उसके बाद आधुनिक टीका सहित एक पत्राकार संस्करण रचना नौ छन्दों में हुई है। इनमें अनुष्टुप् का प्राधान्य है। भी प्रकाशित हुआ है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणिवारी दादा श्रोजिन चन्द्रसूरिजो और दिल्लोपति राजा मदनपाल [ महावीर स्वामी का मन्दिर, कलकत्ता से ]