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माधुरी को वृद्धिगत करने में सहायक हुई है । वनितयाऽनितया रमणं कयाऽप्यमलया मलयाचलमारुतः । धुत - लता - तल-तामरसोऽधिको नहि मतो हिमतो विषतोऽपि ॥ ८।२१
नेमिनाथमहाकाव्य में श्लोकार्धयमक को भी विस्तृत स्थान मिला है, किन्तु कीतिराज के यमक की विशेषता यह है कि वह सर्वत्र दुरूहता तथा क्लिष्टता से मुक्त है । पुण्य ! कोपचयदं नतावकं पुण्यकोपचयदं न तावकम् । दर्शनं जिनप ! यावदीक्ष्यते तावदेव गददुः स्थता दिकम् ।। १२।३३ अर्थालंकारों का प्रयोग भी भावाभिव्यक्ति को सघन बनाने के लिये किया गया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, रूपक अर्थान्तरन्यास, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उल्लेख आदि की विवेकपूर्ण योजना से काव्य में अद्भुत भाव प्रेषणीयता आ गयी है । जिनेश्वर के स्नात्रोत्सव के प्रसंग में मूर्त की अमूर्त से उपमा का सुन्दर प्रयोग हुआ है । देवता अथ शिवां सनन्दनां निन्यिरे धनददिनिकेतनम् । धर्मशास्त्रसहितां मतिं गिरः सद्गुरोरिव विनेयमानसम् ॥
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प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा की मामिक अवतारणा हुई है । पवमानचञ्चलदलं जलाशयै रवितेजसा स्फुटदिदं पयोरुहम् । परिशंक्यते बत मया तवाननात् कमलाक्षि ! बिभ्यदिव कम्पतेतराम् || १२|ε रूपक का सफल प्रयोग निम्नोक्त पंक्तियों में दृष्टिगत होता है ।
रात्रि - स्त्रिया मुग्धतया तमोऽञ्जन
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दिग्धानि काष्ठातनयामुखान्यथ ।
प्रक्षालयत्पूष मयूखपायसा
देव्या विभातं ददृशे स्वतातवत् ॥ २१३० कृष्ण पत्नियां नेमिनाथ को जिन युक्तियों से वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, उनमें, एक स्थान पर, दृष्टान्त की भावपूर्ण योजना हुई है ।
किञ्च पित्रोः सुखायैव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । सदा सिन्धोः प्रमोदाय चन्द्रो व्योमावगाहते || |३४ शरद्वर्णन में मदमत्त वृषभ के आचरण की पुष्टि एक सामान्य उक्ति से करते हुए अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया गया है ।
मदोत्कटा विदार्य भूतलं वृषाक्षिपन्ति यत्र मतस्के रजो निजे । अयुक्त-युक्त - कृत्य- संविचारणां विदन्ति किं कदा मदान्धबुद्धयः
|| ३|४४
जिनेश्वर की लोकोत्तर विलक्षणता का चित्रण करते समय कवि की कल्पना अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट हुई है।
यद्यर्कदुग्धं शुचिगोरसस्य प्राप्नोति साम्यं च विषं सुधायाः । देवान्तरं देव ! तदा त्वदीयां तुल्या दधाति त्रिजगत्प्रदीपः ॥ ६।३५
इनके अतिरिक्त परिसंख्या, वक्रोक्ति, विरोधाभास, सन्देह, असंगति, विषम, सहोक्ति, निदर्शना, पर्यायोक्त, व्यतिरेक, विभावना आदि अलंकार नेमिनाथ काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं । इनमें से कुछ के उदाहरण यहां दिये जाते हैं ।
परिसंख्या - न मन्दोऽत्र जनः कोऽपि परं मन्दो यदि ग्रहः । वियोगो नापि दम्पत्यो वियोगस्तु परं वने ॥ १॥१७ सन्देह - पिशङ्गवासाः किमयं नारायणः ?
सुवर्णकाय: किमयं विहङ्गमः ?
सविस्मयं तर्कितमेवमादित:
सिंहं स्फुरत्काञ्चनचारुकेसरम् ? २५ वक्रोक्ति - देवः प्रिये ! को वृषभोऽयि ! किं गौ: ?
नैवं वृषांकः ? किमु शंकरो ? न ।
जिनो तु चक्रीति वधूवराभ्यां
यो वक्रमुक्तः स मुदे जिनेन्द्रः || ३|१२ असंगति - गन्धसार- धनसार- विलेप
कन्यका विदधिरेऽथ तदंगे ।
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