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सूचना समुद्रतीन सर्ग शिशु
वर्णनों पर व्यय यहां यह जानना
जन्म
लेकर रघु द्वितीय सर्ग
अधिक सफल नहीं कहा जा सकता । पग-पग पर प्रासंगिकअप्रासंगिक वर्णनों के सेतु बांध देने से काव्य की कथावस्तु रुक-रुक कर मन्दगति से आगे बढ़ती है। वस्तुतः, कथानक की ओर कवि का अधिक ध्यान नहीं है । काव्य का अधिकतर भाग वर्णनों से ही आच्छन्न है । कथावस्तु का सूक्ष्म संकेत करके कवि तुरन्त किसी-न-किसी वर्णन में जुट जाता है । कथानक की गत्यात्मकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि तृतीय सर्ग में हुए पुत्रजन्म की विजय को सातवें सर्ग में मिलती है । मध्यवर्ती सूतिकर्म, जन्माभिषेक आदि के विस्तृत कर दिये गये हैं । तुलनात्मक दृष्टि से रोचक होगा कि रघुवंश में द्वितीय सर्ग में चतुर्थ सर्ग में दिग्विजय से लौट भी आता है । में प्रभात का तथा अष्टम में षड्ऋतु का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । काव्य के शेषांश में भी वर्णनों का बाहुल्य है । इस वर्णन प्राचुर्य के कारण काव्य को अि खण्डित हो गयी है । काव्य के अधिकांश भाग मूल कथावस्तु के साथ सूक्ष्म तन्तु से जुड़े हुए हैं । इसलिये काव्य का कथानक लंगड़ाता हुआ ही चलता है । किन्तु यह स्मरणीय है कि तत्कालीन महाकाव्य परिपाटी ही ऐसी थी कि मूल कथा के सफल विनियोग की अपेक्षा विषयान्तरों को पल्लवित करने में ही काव्यकला की सार्थकता मानी जाती थी । अतः कार्तिराज को इसका पारा दोष देना न्याय्य नहीं । वस्तुतः उन्होंने वस्तुव्यापार के इन वर्णनों को अपनी बहुश्रुतता का क्रीडांगन न बना कर तत्कालीन काव्यरूढ़ि के लोहपाश से बचने का श्लाध्य प्रयत्न किया है ।
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नेमिनाथमहाकाव्य में प्रयुक्त कतिपय काव्य- रूढ़ियाँ
संस्कृत महाकाव्यों की रचना एक निश्चित ढर्रे पर हुई है जिससे उनमें अनेक शिल्पगत समानताएं दृष्टिगम्य होती हैं। शास्त्रीय मानदंडों के निर्वाह के अतिरिक्त उनमें कतिपय काव्यरूढ़ियों का मनोयोगपूर्वक पालन किया गया है । यहाँ हम नेमिनाथ महाकाव्य में प्रयुक्त दो रूढियों की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक समझते हैं क्योंकि इनका काव्य में विशिष्ट स्थान है तथा
इन रूढ़ियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिये रोचक सामग्री प्रस्तुत करती हैं। प्रथम रूढ़ि का सम्बन्ध प्रभात वर्णन से है । प्रभात वर्णन की परम्परा कालिदास तथा उनके परवर्ती अनेक महाकाव्यों में उपलब्ध है । कालिदास का प्रभात वर्णन आकार में छोटा होता हुआ भी मार्मिकता में बेजोड़ है । माघ का प्रभातवर्णन बहुत विस्तृत है, यद्यपि प्रातःकाल का इस कोटि का अलंकृत वर्णन समूचे साहित्य अन्यत्र दुर्लभ है । अन्य काव्यों में प्रभातवर्णन के नाम पर पिष्टपेषण ही हुआ है । कीर्त्तिराज का यह वर्णन कुछ विस्तृत होता हुआ भी सरसता तथा मार्मिकता से परिपूर्ण है । माघ की भाँति उसने न तो दूर को कौड़ो फेंकी है और न वह ज्ञान प्रदर्शन के फेर में पड़ा है । उसने तो, कुशल चित्रकार की तरह, अपनी ललित- प्रांजल शैली में प्रातःकालीन प्रकृति के मनोरम चित्र अंकित करके तत्कालीन सहज वातावरण को अनायास उजागर कर दिया है । २ मागों द्वारा राजस्तुति, हाथी के जाग कर भी मस्ती के कारण आंखें न खोलने तथा करवट बदल कर शृङ्खलाव करने और घोड़ों के द्वारा नमक चाटने की रूढ़ि का भी विलम्बितं कर्कशरोचिषा तमः ।
२ व्याने मनः स्वं मुनिभिविलम्बितं सुष्वाप यस्मिन् कुमुदं प्रभावितं प्रभासितं पङ्कजबान्धवोपलः || २०४१ ३ निद्रासुखं समनुभूय विराय रात्रावुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम् । प्राप्य प्रजोवमपि देव ! गजेन्द्र एष नोन्नोलयत्यसनेत्रयुगं मदान्धः ॥ २५४
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