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इस प्रसंग में प्रयोग किया गया है। अपनी स्वाभाविकता तथा मार्मिकता के कारण, कतिराज का यह वर्णन संस्कृतसाहित्य के सर्वोत्तम प्रभातवर्णनों से टक्कर ले सकता है ।
नायक को देखने को उत्सुक पौर युवतियों के सम्भ्रम तथा तज्जन्य चेष्टाओं का वर्णन करना संस्कृत महाकाव्यों की एक अन्य बहुप्रचलित रूढि है, जिसका प्रयोग नेमिनाथ काव्य में भी हुआ है । बौद्ध कवि अश्वघोष से प्रारम्भ होकर कालिदास, माघ, हर्ष आदि से होती हुई यह काव्य रूढ़ि कतिपय जैन कवियों की रचनाओं में भी दृष्टिगत होती है । अश्वघोष तथा कालिदास का यह वर्णन, अपने सहज लावण्य से चमत्कृत है । माघ के वर्णन में, उनके अन्य अधिकांश वर्णनों के समान, विलासिता की प्रधानता है । उपाध्याय कीर्तिराज का सम्भ्रमचित्रण यथार्थता से ओतप्रोत है, जिससे पाठक के हृदय में स्वरा सहसा प्रतिबिम्बित हो जाती है। स्खलन अथवा अधोवस्त्र के गिरने का
पुरसुन्दरियों की नारी के नीवीवर्णन, इस सन्दर्भ प्रायः सभी कवियों ने किया है । कालिदास ने अधीरता को नीवीस्खलन का कारण बता कर मर्यादा की रक्षा की है । माघ ने इसका कोई कारण नहीं दिया जिससे उसकी नायिका का विलासी रूप अधिक मुखर हो गया है । नग्न नारी को जनसमूह में प्रदर्शित करना जैन यति की पवित्रतावादी वृत्ति के प्रतिकूल था, अतः उसने इस रूढि को काव्य में स्थान नहीं दिया। इसके विपरीत काव्य में उत्तरीय-पात का वर्णन किया गया है। शुद्ध नैतिकता वादी दृष्टि से तो शायद यह भी औचित्यपूर्ण नहीं किन्तु नीवीस्खलन की तुलना में यह अवश्य ही क्षम्य है, और कवि ने इसका जो कारण दिया है उससे तो पुरसुन्दरी पर कामुकता का दोष आरोपित ही नहीं किया जा सकता । कीर्त्तिराज की नायिका हाथ के आर्द्र प्रसाधन के मिटने के भय से उत्तरीय को नहीं पकड़ती, और वह उसी अवस्था में गवाक्ष की ओर दौड़ जाती है ।
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काचित्करार्द्रा प्रतिकर्मभङ्गभयेन हित्वा पतदुत्तरीयम् । मञ्जीरवाचालपदारविन्दा द्रुतं गवाक्षाभिमुखं चचाल ॥
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चरित्रचित्रण
नेमिनाथ महाकाव्य के संक्षिप्त कथानक में पात्रों की संख्या भी सीमित है । कथानायक नेमिनाथ के अतिरिक्त उनके पिता समुद्रविजय, माता शिवादेवी, राजीमती, उग्रसेन, प्रतीकात्मक सम्राट मोह तथा संयम और दूत कैतव ही महाकाव्य के पात्र हैं । परन्तु इन सब की चरित्रगत विशेषताओं का निरूपण करने से कवि को समान सफलता नहीं मिली ।
नेमिनाथ
जिनेश्वर नेमिनाथ काव्य के नायक हैं। उनका चरित्र पौराणिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है जिससे उनके चरित्र के कतिपय पक्ष ही उद्घाटित हो सके हैं और उसमें कोई नवीनता भी दृष्टिगत नहीं होती । वे देवोचित विभूति तथा शक्ति से सम्पन्न हैं। उनके धरा पर अवतीर्ण होते हो समुद्रविजय के समस्त शत्रु म्लान हो जाते हैं। दिक्कुमारियाँ उनका सूतिकर्म करती हैं तथा जन्माभिषेक सम्पन्न करने के लिये स्वयं सुरपति इन्द्र जिनगृह में आता है । पाञ्चजन्य को फूँकना तथा शक्तिपरीक्षा में षोडशकला सम्पन्न श्रीकृष्ण को पराजित करना उनकी अनुपम शक्तिमत्ता के प्रमाण हैं ।
नेमिनाथ वीतराग नायक हैं। यौवन की मादक अवस्था में भी वैषयिक सुखभोग उन्हें अभिभूत नहीं कर पाते । कृष्ण पत्नियाँ नाना प्रलोभन तथा युक्तियाँ देकर उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, किन्तु वे हिमालय की भाँति अडिग तथा अडोल रहते हैं । उनका दृढ़ विश्वास है कि वैषयिक सुख परमार्थ के शत्रु हैं । उनसे आत्मा उसी प्रकार तृप्त नहीं हो सकती जैसे जलराशि से सागर अथवा काठ से अग्नि । उनके विचार में धर्मोषधि
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