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से चारों दिशाओं को जीतकर चौदह भुवनों का अधिपति बनेगा । प्रभात वर्णन नामक इस वर्ग केस में प्रभाव का मार्मिक वर्णन हुआ है। तृतीय सर्ग में समुद्रविजय स्वप्नदर्शन का वास्तविक फल जानने के लिये कुशल ज्योतिषियों को निमंत्रित करते हैं । दैवज्ञों ने बताया कि इन चौदह स्वप्नों को देखनेवाली नारी की कुक्षि में ब्रह्मतुल्य जिन अवतीर्ण होते हैं । समय पर शिवा ने एक तेजस्वी को जन्म दिया। चतुर्थ सर्ग में दिवकुमारियां नवजात पुत्र शिशु का सूतिकर्म करती है। मेरुवर्णन नामक पंचम सर्ग में इन्द्र शिशु को जन्माभिषेक के लिये मेरु पर्वत पर के जाता है। इसी प्रसंग में मेरु का वर्णन किया गया है। छठे सर्ग में भगवान के स्नात्रोत्सव का रोचक वर्णन है। सातवें सर्ग में बेटियों से पुत्र जन्म का समाचार पाकर समुद्रविजय आनन्द विभोर हो जाता है। वह पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष में राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त कर देता है तथा जीववध पर प्रतिबन्ध लगा देता है। उसने जन्मो त्सव का भव्य आयोजन किया। शिशु का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। आठवें सर्ग में अरिष्टनेमि के शारीरिक सौंदर्य तथा परम्परागत छह ऋतुओं का हृदयग्राही वर्णन है । एक दिन नेमिनाथ ने पांचजन्य को कौतुकवश इस वेग से फूंका कि तीनों लोक भय से कम्पित हो गये। कृष्ण को आशंका हुई कि कहीं यह भुजयत से मुझे राज्यच्युत न कर दे, किन्तु उन्होंने श्रीकृष्ण को आश्वासन दिया कि मुझे सांसारिक विषयों में रुचि नहीं है, तुम निर्भय होकर राज्य का उपभोग करो। नवें सर्ग में नेमिनाथ के माता-पिता के आग्रह से श्रीकृष्ण को पत्नियां, नाना युक्तियाँ देकर उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं। उनका प्रमुख तर्क है कि मोक्ष का लक्ष्य सुख प्राप्ति है, किन्तु वह विषय भोग से ही मिल जाये, तो कष्ट्रदायक तप की क्या आवश्यकता ? नेमिनाथ उनकी युक्तियों का दृढ़तापूर्वक खण्डन करते हैं। उनका कवन है कि मोक्षजन्य आनन्द
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तवा विषय में उतना ही असर है जितना गाय तथा स्तुही के रूप में विषयभोग से आत्मा तृप्त नहीं हो सकती, किन्तु माता के अत्यधिक आग्रह से वे केवल उनकी इच्छापूर्ति के लिये गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करना स्वीकार कर लेते हैं । उग्रसेन की लावण्यवती पुत्री राजीमती से उनका विवाह निश्चय होता है। दसवें सर्ग में नेमिनाथ वधूगृह को प्रस्थान करते हैं। यहीं उनको देखने के लिए लालायित पुरसुन्दरियों का वर्णन किया गया है। वधूगृह में बारात के भोजन के लिये बंधे हुए मरणासन्न निरीह पशुओं का चीत्कार सुनकर उन्हें आत्मग्लानि होती है । और वे विवाह को बीच में ही छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। ग्वार सर्ग के पूर्वाद्ध में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से अपमानित राजीमती का करुण विलाप है । मोह-संयम युद्धवर्णन नामक इस सर्ग के उत्तरार्द्ध में मोह तथा संयम के प्रीतात्मक युद्ध का अतीव रोचक वर्णन है । पराजित होकर मोह नेमिनाथ के हृदय दुर्ग को छोड़ देता है। जिससे उन्हें केवलज्ञान को प्राप्ति होती है । बारहवें सर्ग में यादव केवलज्ञानी प्रभु की वन्दना करने के लिये उज्जयन्त पर्वत पर जाते हैं । जिनेश्वर की देशना के प्रभाव से कुछ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तथा कुछ श्रावक धर्म स्वीकार करते हैं। जिनेन्द्र राजीमतों को चरित्र पर बैठा कर मोक्षपुरी भेज देते हैं और कुछ समय पश्चात् अपनी प्राणप्रिया से मिलने के लिये स्वयं भी परम पद को प्रस्थान करते हैं।
किन्तु कवि ने
नेमिनाथकाव्य का कथानक अत्यल्प है, उसे विविध वर्णनों संवादों तथा स्तोत्रों से पुष्ठ पूरित कर बारह सर्गों के विस्तृत आलवाल में आरोपित किया है । यह विस्तार महाकाव्य की कलेवरपूर्ति के लिए भले ही उपयुक्त हो, इससे कथावस्तु का विकासक्रम विश्ववित हो गया है तथा कथाप्रवाह की सहजता नष्ट हो गयी है । कथानक के निर्वाह की दृष्टि से नेमिनाथमहाकाव्य को
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